रविवार, 31 जनवरी 2016

यात्रा वृतांत - शिमला से कुल्लू वाया जलोड़ी पास


शिमला की एप्पल बेल्ट का एक यादगार, रोमांचक सफर

शिमला, प्रदेश की राजधानी होने के नाते हमारा बचपन से ही आना जाना रहा है। यहां जाने का कोई मौका हम शायद ही चूके होंशुरु में अपने स्कूल, कालेज के र्टिफिकेट इकट्ठा करने, तो बाद में एडवांस स्टडीज में शोध-अध्ययन हेतु। यहां घूमने के हर संभव मौकों पर शिमला शहर के आसपास के दर्शनीय स्थलों को अवश्य एक्सप्लोअर करते रहे। लेकिन शिमला के असली सुकून और रोमांच भरे दर्शन तो शहर से दूर-दराज के ग्रामीण आंचलों में हुए, जहाँ किसान अपनी पसीने की बूंदों के साथ माटी को सींच कर फल-सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में जमींन से सोना उपजा रहे हैं।

पिछले ही वर्ष शिमला के कोटखाई इलाके में ढांगवी गांव में प्रगतिशील बागवान रामलाल चौहान से मिलने का सुयोग बना था, जिसमें यहां चल रहे सेब-नाशपाती जैसे फलों की उन्नत प्रजातियों के साथ सफल प्रयोग व इनके आश्चर्यजनक परिणामों को देखने का मौका मिला। सुखद आश्चर्य हुआ था देखकर कि इनके बगीचों में वैज्ञानिक की प्रयोगधर्मिता और दत्तचित्तता के साथ विश्व की आधुनिकतम फल किस्मों को आजमाया जा रहा है। वर्षों की मेहनत के इनके परिणाम भी स्पष्ट थे। राष्ट्रीय स्तर पर 2010 का फार्मर ऑफ द ईयर का पुरस्कार के साथ प्रदेश के कई पुरस्कार इनकी झोली में हैं। 


प्रदेश के बागवानों सहित हॉर्टिक्लचर यूनिवर्सिटी के छात्रों एवं वैज्ञानिकों के लिए बगीचे में चल रहे प्रयोग गहरे शैक्षणिक अनुभव से भरे रहते हैं। इस दौरान से की रेड चीफ, सुपर चीफ, जैरोमाईन, रेड विलोक्स जैसी वैरायटीज से परिचय हुआ। इसी तरह नाशपाती की का्रेंस, कांकॉर्ड जैसी विदेशी किस्मों को देखने व स्वाद चखने का मौका मिला था।
आश्चर्य नहीं कि आज शिमला सेब की आधुनिकतम खेती की प्रयोगशाला है, जिसका संचार पूरे प्रदेश व देश के अन्य क्षेत्रों में हो रहा है। प्रदेश के अन्य स्थलों के बागवान भी इसकी व्यार से अछूते नहीं हैं। सेब उत्पादन के संदर्भ में यह ब्यार एक क्रांति से कम नहीं है। इसके चलते हम जिन विदेशी सेबों को मार्केट में 200 से 300 रुपय किलो खरीदते हैं, वे आगे बहुत बाजि दामों मेें उलब्ध होंगे। और किसानों की आर्थिक स्थिति भी इससे निश्चित ुप से सुदृढ़ होगी।



सेब का संक्षिप्त इतिहास – हिमाचल प्रदेश में सेब की उन्नत किस्मों की व्यावसायिक तौर पर शुरुआत का श्रेय शिमला के कोटगढ़ क्षेत्र को जाता है। जहाँ 1918 में अमेरिकन मिशनरी सत्यानंद स्टोक्स में सेब की रेड डिलीशियस और रॉयल प्रजातियों को बारूवाग गांव में रोपा था। इससे पूर्व शौकिया तौर पर कुल्लू के मंद्रोल, रायसन स्थान पर अंग्रेज कैप्टन आरसी ली ने 1870 में अपना सेब बाग लगाया था। गौरतलब हो कि भारत में सबसे पहले सेब को अंग्रेज, लीवरपूल से मंसूरी 1830 में लाए थे। इसके बाद दक्षिण के हिल स्टेशन ऊटी मे लगाए गए। आज हि.प्र. में शिमला सहित कुल्लू, किन्नौर, लाहूल-स्पीति, चम्बा, सिरमौर, मंडी जिलों में सेबों का उत्पादन होता है। भारत में सेब उत्पादक प्रांतों में काश्मीर, हिमाचल और उत्तराखण्ड क्रमशः प्रमुख हैं।



इस बार भी अपने बागवान भाई के साथ इस क्षेत्र में जाने का मौका मिला। रात को बस में हरिद्वार से निकले। चण्डीगढ़-काल्का से होते हुए सुबह पांच बजे हम शिमला पहुंचे। आगे का सफर भाई के साथ गाड़ी में पूरा किया। शिमला की सुनसान सड़कें अपना पुराना परिचय दे रही थीं। जाखू की सबसे ऊँची चोटी पर बजरंगबली सफर का आशीर्वाद दे रहे थे। शिमला पार करते ही रास्ते में ग्रीन वेली से गुजरना हमेशा ही बहुत सकूनदायी रहता है। एशिया का यह सबसे घना देवदार का जंगल है। इसके बाद लोकप्रिय पर्यटन स्थल कुफरी आता है। इस सीजन में दशक की सबसे कम बर्फवारी हुई है। (हालाँकि बाद में फरवरी माह में इस क्षेत्र में जमकर बर्फवारी हुई है) इसके बावजूद सड़क के किनारे छायादार कौनजमी र्फ की सफेद चादर ओढ़े हुए थे। इसके आगे ठियोग से होते हुए कुछ ही घंटों में हम कोटखाई घाटी में प्रवेश कर चुके थे।

कोटखाई, शिमला में सेब का एक प्रमुख गढ़ है। यहां के प्रगतिशील बागवानों का सेब उत्पादन को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान रहा है। पिछले ही वर्ष हम यहां रामलाल चौहान से मिल चुके थे। इस बार दूसरे युवा प्रगतिशील बागवान संजीव चौहान से मिलने का मौका मिला। मुख्य मार्ग से छोटी संकरी सड़क के साथ चढ़ाईदार रास्ते से हम ऊपर बढ़ रहे थे। दोनों ओर बहुत ही खुबसूरती से तराशे गए सेब के बगीचे दिखे। बगीचों के बीच में सुंदर, भव्य भवन। लाल व हरी छत्तों से ढकी कई आलीशान कोठियों के दर्शन यहां की समृद्धता को दर्शा रहे थे।

ऊपर मुख्य मार्ग तक पहुंचने के बाद फिर एक तंग किंतु पक्की सड़क के साथ आगे बढ़ते रहे। देवदार के घने जंगल को पार करते हुए अंततः हम बकोल गांव में पहुंच चुके थे। यहां हर घर गांव तक सड़कों का जाल बिछा दिखा। बागों से सेब की ढुलाई की दृष्टि से यह सही भी है और जरुरी भी। राहगिरों से रास्ता पूछते हुए थोड़ी ही देर में हम चौहान परिवार के आंगन में खड़ थे


अपने बगीचे में कार्य के लिए तैयार ट्रेक सूट पहने युवा बागवान संजीव चौहान के सरल, सहज आत्मीय व्यवहार से लगा कि जमीं से जुड़े एक प्रबुद्ध, प्रखर और संवेदनशील किसान से मिल रहे हैं। बातचीत से पता चला कि संजीव शिमला विवि से लॉ, राजनीति शास्त्र व पत्रकारिता की स्नात्कोत्तर पढ़ाई किए हुए हैं। नौकरी की बजाए विरासत में मिली बागवानी को ही अपन कैरियर बनाना बागवानी के प्रति इनके गहरे लगाब को दर्शाता है। बागवानी के प्रति इनका जनून बातों से स्पष्ट झलक रहा था। इसी लग्न और जनून का परिणाम रहा कि संजीव चौहान सेब की नवीनतम जानकारी के साथ सपरिवार अपनी बागवानी की प्रयोगशाला में पिछले दशक से लगे हैं। इसी प्रयोगधर्मिता का परिणाम है कि इनके बगीचे में 25 किस्मों की उन्नत विदेशी सेब लगे हैं। आश्चर्य नहीं कि इनके नाम 52 मीट्रिक टन प्रति हैक्टेयर सेब उत्पादन का रिकॉर्ड दर्ज है, जो अमेरिका और चीन के 30 से 40 मीट्रिक टन उत्पादन से आगे है। संजीव चौहान को राष्ट्रीय स्तर पर 2015 का ेस्ट प्लांट प्रोटेक्शन फार्मर अवार्ड मिल चुका है, जो फल उत्पादन में माटी व पौधों के साथ इनकी गहन संवेदनशील प्रयोगधर्मिता के आधार पर संभव हुआ है।


चौहान परिवार के आत्मीय अतिथि सत्कार के साथ लगा हम अपने ही घर पहुंच गए हैं। गर्म जल में स्नान के साथ सफर की थकान और ठंड से जकड़ी नसें खुल चुकी थी। चाय-नाश्ता के साथ हम तरोताजा होकर अगले सफर की ओऱ चल पड़े।


बकोल गांव को विदाई देते हुए हम आगे सामने की घाटी को पार करते हुए बाघी की ओर बढ़े। रास्ते में रत्नारी गांव के पास से गुजरे, जिसे हाल ही में सबसे स्वच्छ गांव का दर्जा दिया गया है। इसके आगे देवदार के घने जंगलों को पार करते हुए हम बाघी गांव पहुंचे, जिसे हिमाचल का सबसे अधिक सेब उत्पादक क्षेत्र माना जाता है। यहां के आलीशान भवनों, मंहगी गाड़ियों के साथ यहां फल उत्पादन के बलबूते लिख जा रहआर्थिक समृद्धि एक रोमाँचक अध्याय के दर्शन किए जा सकते हैं। 

बाघी से बापसी में नारकण्डा से होकर आगे बढ़े। रास्ते में देवदार के घने जंगलों के बीच बर्फ मिली। सड़के पर मिट्टी बिछाकर गाड़ियों के चलने लायक मार्ग तैयार था। लेकिन ड्राइविंग खतरे से खाली नहीं थी। नए व अनाढ़ी ड्राइवर के बूते यहां का सफर संभव न था। लेकिन हमारे मंझे हुए पहाड़ी सारथी पवन, वायु वेग के साथ बड़ी कुशलतापूर्वक गाढी आगे बढ़ा रहे थे। रास्ते के मनोहारी दृश्यों को हम यथासंभव अपने कैमरे में कैद करते रहे। गंगनचूंबी देवदार के वृक्षों और बर्फ के बीच हम कुछ ही मिनटों में नारकंडा पहुंचे।


नारकंडा, शिमला से 75 किमी दूरी पर 8599 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। शिवालिक पहाडियों से घिरा यह हिल स्टेशन स्कीइंग के लिए प्रख्यात है। रामपुर के लिए यहीं से आगे रास्ता जाता है। देवदार के घने जंगलों के बीच इसका प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। यहां से पहाड़ी के हाटू पीक पर काली माता का प्राचीन मंदिर दर्शनीय है।

नारकंडा से नीचे उतरते हुए हम कुमारसेन से होते हुए आगे बढ़े। यह क्षेत्र भी फल व सब्जी उत्पादन के लिए प्रख्यात है। घाटी के पार सामने की पहाड़ी पर कोटगढ़ के दूरदर्शन हो रहे थे और नीचे वाईं ओर सतलुज नदी। कुमारसेन से वाएं मुडते हुए सतलुज नदी के समानान्तर कुछ किमी के बाद पुल पार किए। अब हम शिमला से कुल्लू जिला में प्रवेश कर चुके थे। एक छोटी नदी की धारा के किनारे संकरी घाटी के बीच आगे बढ़ते गए। रास्ते में आनी पड़ा। यहां से पर चढ़ते हुए, चीड़ के घने जंगलों के बीच हम एकदम किसी दूसरे लोक में खुद को पार रहे थे। ऊंचाई बढ़ने के साथ देवदार के सघन वन आने शुरु हो गए। सही मायने में हम यहां हिमालयन टच को अनुभव कर रहे थे और आगे नई घाटी में प्रवेश कर चुके थे। यहां सेब के गान मिले। कई किमी तक देवदार के जंगलों के बीच बसे यहां के गांव, कस्बों को पार करते हुए यहां के सुंदर एवं रोमांचक घाटी के बीच सफर करते रहे। 


शाम के ढलते ढलते मानवीय बस्ती के पार घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। आगे जलोड़ी पास आने वाला था। चढाईदार घने जंगल को पार करते हुए हम आखिर शाम छः बजे के आस-पास जलोड़ी जोत पर पहुंचे। सामने बर्फीले टीले पर मां काली का मंदिर औऱ दायीं और चाय की दुकान। बायीं और नीचे घाटी में शोजा कस्वा और आगे बंजार, कुल्लू घाटी। यहां मंदिर में माथा नबाते हुए कुछ यहां के सूर्यास्त के दिलकश नजारों को कैद किए। क्षितिज पर सूर्यास्त की लालिमा और क्षितिज का अनन्त विस्तार एक दिव्य अनुभूति दे रहा था। र्फीली ठंडी हवा जमाने वाली थी। इसका उपचार ढाबे में गर्मागर्म चाय के साथ करते हुए हम बर्फीले दर्रे के पार शोजा की ओर बढ़ चले। रास्ते में बर्फ के एक बढ़े से ढेले को गाढ़ी पर लाद कर, घर के बच्चों व बढ़ों के लिए इस दर्रे का एक प्राकृतिक उपहार-प्रसाद के रुप में साथ ले जाना न भूले। 


बचपन से जलोड़ी पास के बारे में पिताजी से सुनते आए थे। निरमंड में होर्टिक्लचर विभाग में सर्विस करते हुए वे यहीं से होकर पैदल पार होते थे औऱ फिर घर पहुंचते थे। आज बचपन की किवदंतियों के हिम-नायक के दर्शन के साथ एक चिर आकांक्षित इच्छा पूरी हो रही थी।
 
आगे अंधेरे में बर्फ से ढकी सड़क को पार करते हुए शोजा पहुंचे। आगे संकरी घाटी के बीच सेंज नदी के किनारे आगे बढ़ते गए। पता चला की गलेशियरों से निकली नदी ट्राउट मछलियों का पसंदीदा आशियाना है। और क्षेत्रीय लोगों के लिए एक प्रचलित आहार भी। इसी तरह अंधेरे में घाटी को पार करते हुए जिभ्भी को पार किए। आगे घाटी के पहाड़ी गांव की ात की टिमटिमाती रोशनी के बीच बंजार पहुंचे। इसके बाद नदी पार करते हुए बाली चौकी से होते हुए सैंज नदी के किनारे लारजी पहुंचे। यहां सैंज और व्यास नदी के संगम पर बांध बनाया गया है, जिससे बिजली उत्पादन किया जाता है। 

यहां मुख्य मार्ग में सुरंग को पार करते हुऑउट पहुंचे और बजौरा-भुंतर से होते हुए व्यास व पार्वती नदी के संगम पर पहुंचे। पृष्ठभूमि में पर्वत शिखर पर विराजमान बिजली महादेव के चरणों में स्थित जिया पुल को पार करते कुछ ही मिनट में हम अपने गांव में प्रवेश कर चुके थे। मुख्य मार्ग से कच्ची सड़क से होते हुए घर पहुंचे। सफर कुल मिलाकर बहुत रोमांचक व सुखद रहा। यात्रा की थकान अवश्य हावी हो चुकी थी, लेकिन सफर की रोमांचक स्मृतियां इन पर भारी थी, जिनकी याद आज भी ताजगी भरा रोमांचक अहसास देती हैं।
  

वर्तमान दुर्दशा, दुर्गति का जिम्मेदार कौन



अपनी जिम्मेदारी आप उठाएं और विषाद-अवसाद से बाहर उबरें

हमारी वर्तमान दुर्दशा-दुर्गति का कौन जिम्मेदार है। दूसरों को इसका जिम्मेदार ठहरा कर हम थोड़ी देर के लिए सकून-राहत अवश्य महसूस कर सकते हैं, लेकिन इसमें जीवन का दीर्घकालीन समाधान नहीं, इससे स्थिति सुधरने वाली नहीं। यह कुल मिलाकर खुद से धोखा है, जो आगे चलकर हमारे चारित्रिक पतन और दुर्गति को ही सुनिश्चित करता है। यदि हमारा वर्तमान संतोषजनक नहीं है तो इसके समाधान के लिए सबसे पहले हमें अपनी वर्तमान दुर्दशा, दुर्गति के पीछे सक्रिय दुर्मति, नेगेटिव सोच को पहचानना होगा, उसका जिम्मा लेना होगा। हम परिस्थितियों, वाहरी व्यवस्था से शिकायत कर सकते हैं आवश्यक संसाधनों की, अपेक्षित सहयोग की, निहायत जरुरतों की, लेकिन ये हमारे सकल आशा, उत्साह, साहस को कुंद करने के कारण नहीं हो सकते। ये हमें अवसाद-विषाद में डूबने, जीवन के प्रति नकारात्मक होने व खुद में उलझने के कारण नहीं हो सकते। 

एक इंसान होने के नाते, ईश्वर के दिव्य अंश होने के नाते, हमारे अंदर वह अग्नि, वह ज्वाला, वह चेतना, वह संकल्प, वह शक्ति, वह जिजीविषा, वह बल, वह संभावना मौजूद है, जो चट्टान के बीच भी जल की धार को फोड़ने में सक्षम है। जो हर चुनौती को एक अवसर के रुप में बदलने व संभावनाओं के अनन्त द्वार खोलने में समर्थ है। यदि इंसान सही में अपने अंतरतम् स्रोत से जुड़ कर, अपनी गहनतम परतों को उधाड़कर देख सके, तो कोई कारण नहीं कि वह सतत् वाहरी असहयोग, उपेक्षा, अवमानना, विरोध के बीच भी अपना मनचाहा रास्ता न निकाल सके ऐसे में असफलता का रोना रोते रहने और दूसरों को दुत्कारने की बजाए व्यक्ति अपना स्वतंत्र पथ प्रशस्त कर सकता है। 

इंसानी पुरुषार्थ असंभव को संभव कर सकता है। इतिहास गवाह है कि इंसान क्या नहीं कर सकता। वह चाहे तो रेगिस्तान से निर्मल जल की शीतल धार वहा सकता है, पहाड़ को फोड़ कर चलने का रास्ता बना सकता है, धरती की अतल गहराइयों को भेद सकता है, आकाश के अनन्त विस्तार को छू सकता है, शिखर की अगम्य उंचाइयों पर अपना झंडा गाढ़ सकता है। यानि उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं, वह कुछ भी कर सकता है। बस उसके ठानने भर की देर है। अपने अंदर निहित अकूत शक्ति भण्डार को निहारने भर की देर है। और प्रायः प्रतिकुलताओं के प्रहार इस अग्नि को प्रदीप्त करने के उत्प्रेरक बनते हैं, इसे ज्बाला का रुप देने में सहायक होते हैं।

ऐसी जाग्रत आत्मा के लिए कुछ भी असंभव नहीं। फिर उसका हर कदम अपार धैर्य, अथक श्रम, अनवरत पुरुषार्थ और दृढ़ संकल्प के साथ ठानी को साकार करने की दिशा में बढ़ चलता है। लेकिन इसका पहला कदम तो अपनी वर्तमान दुर्दशा, अपनी दुर्गति, अपनी गयी वीती, पिछडी-बिगड़ी स्थिति की पूरी जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेने के साथ शुरु होता है। अन्यथा दूसरों को कोसते रहने में और अंदर कुढ़ने में अपना समय, ऊर्जा और मनोयोग बर्वाद करने का नकारा बिकल्प किसी काम नहीं आता। और यह किसी भी तरह एक स्वाभिमानी इंसान को शोभा भी नहीं देता। इस नकारात्मक मनःस्थिति से कभी किसी समाधान की आशा नहीं की जा सकती, न ही इससे किन्हीं सकारात्मक परिणामों की किरण ही झिलमिला सकती। वर्तमान विषाद-अवसाद से बाहर निकलने का एक मात्र उपाय अपनी जिम्मेदारी का भाव और जाग्रत संकल्प ही है।


शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

प्रगति मैदान विश्व पुस्तक मेला 2016

पुस्तक प्रेमियों का महाकुम्भ

इस बार भी दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में जाने का सुयोग बना। संभवतः 1995 में शुरु पुस्तक मेला यात्रा का यह पूर्णाहुति पड़ाव था। अब आगे से संस्था की तरफ से शायद ही दुबारा पुस्तक मेले में जा पाऊँ। ब्रह्मवर्चस पुस्तकालय से जुड़ा होने के कारण 1995 से लगभग अधिकांश पुस्तक मेले में आने का क्रम बनता रहा, सो इस बार के पुस्तक कुम्भ में एक तुलनात्मक अध्ययन स्वतः ही चलता रहा। मेले के अपने कुछ नए अनुभवों के साथ यह ब्लॉग पोस्ट सुधी पाठकों की जानकारी हेतु शेयर कर रहा हूँ।  

1.       सिकुड़ता पुस्तक मेले का स्पेस – इस बार हॉल नं.1,2,3,4 तो खाली ही मिले। हॉल 6 और 18 नम्बर भी ग्राउंड फ्लोर तक सीमटे मिले। कारण शायद एक तो पुस्तकों का डिजिटलाइजेशन और इनकी ऑनलाई उपलब्धता को मान सकते हैं। पढ़ने का क्रेज कम हुआ, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि पाठकों की भीड़ मेले में कम नहीं थी।

2.       अंग्रेजी बनाम् हिंदी प्रकाशक – दोनों के केरेक्टर में मौलिक अंतर स्पष्ट दिखता है। अपनी भव्यता. स्पेस और वैभव में अंग्रेजी स्टॉल कुल मिलाकर हिंदी पर भारी दिखे, जैसेे कि हमेशा ही रहा है। मार्केट स्ट्रेटजी में भी अंग्रेजी वाले आगे हैं। कंटेंट कितना ही हों, लेकिन स्पेस घेरने में अंग्रेजी पब्लिशर्ज में कोई कमी नहीं दिखी। फिर पुस्तकालय के लिए इनके कन्शेसन रेट 30 से 40 फीसदी तक रहे। जबकि हिंदी बाले महज 20 से 25 तक ही सिमटे रहे। आश्चर्य तब हुआ जब ओशो के चेलों को भी बिजनेस करते देखा। 10 फीसदी से आगे एक भी परसेंट छूट देने को ये तैयार नहीं थे।

  3. खास विचारधारा की प्रचार आक्रामकता का अभाव – पिछली बार गेट में घुसते ही हाथ में पेंप्लेट लिए इंक्लावी युवा और एक धर्म विशेष का प्रचार करती भीड नहीं दिखी। हालांकि स्टाल के अंदर प्रोमोट करने की आक्रामकता कहीं कहीं अवश्य दिखी। एक ओर जहां धर्म का समन्वयकारी, समभाव वाला स्वरुप देखा, वहीं सिर्फ अपने ही धर्म को शांति की ठेकेदारी का दावा पेश करते की कुचेष्टा भी देखी, जो गले नहीं उतरी। आपसी शांति सद्भाव के लिए यह किसी भी तरह उचित नहीं।

4.       दागी बाबाओं के भी मंडप गुल्जार – विवादों के कारण सुर्खियों में रहे बाबाओं के स्टॉल भी गुलजार दिखे, लेकिन अधिक भीड़ नहीं थी। विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का संकट यहां स्पष्ट दिख रहा था। कोई भूला भटका ही इनमें प्रवेश कर रहा था।

5.       प्रेरक पुस्तकों की भरमार – पुस्तक मेले में प्रेरक पुस्तकों की भरमार दिखी। हिंदी हो या अंग्रेजी दोनों में पुराने लोकप्रिय लेखकों की अनुवादित पुस्तकें दिखी और नए लेखक भी मैदान में उतरते दिखे। पाठकों की खासी भीड़ इन स्टालों पर दिखी।

6.       अध्यात्म के प्रति बढता रुझान – अध्यात्म के स्टाल्ज पर पाठकों की भीड़ को देखकर स्पष्ट था कि अध्यात्म के प्रति पाठकों का रुझान बढ़ा है। गीता प्रेस पर सदा की तरह पाठकों की भीड़ यथावत दिखी, और पूछने पर पता चला की रामायण और गीता की सबसे अधिक बिक्री हो रही है।
7.       नेशनल बुक ट्रस्ट का सराहनीय प्रकाशन – दाम, पुस्तक विविधता और उपयोगिता के हिसाव से संभवतः नेशनल बुक ट्रस्ट का स्टाल आम जनता ले लिए सबसे उपयोगी स्टाल प्रतीत हुआ, क्योंकि यहां बहुत ही सस्ते दामों में लगभग हर विषय पर ज्ञानबर्धक और रोचक पुस्तकों की भरमार है। पुस्तक मेले का प्रयोजक होने के नाते हर हॉल में इनके स्टाल लगे हैं। सस्ता साहित्य मंडल की पुस्तकें भी इस संदर्भ में आम पाठकों के लिए उपयोगी हैं।

8.       सरकारी तंत्र का लचर प्रदर्शन – प्रकाशकों में सरकारी तंत्र की लचरता स्पष्ट दिखी। सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा संचालित प्रकाशन विभाग की स्थिति देखकर दुख हुआ। पत्रकारिता और प्रेस से जुड़ी अपनी रुचि की पुस्तकें पिछले कई वर्षों से अपडेटड नहीं दिखीं। पूछने पर पता चला की कर्मचारी ही नहीं हैं काम करने वाले। प्राइवेट प्रकाशनों की स्थिति इस मामले में बेहतर दिखी। यहीं अपडेटड पुस्तकें मिली।

9.       मेट्रो का असर – कभी 2 नम्बर गेट से सबसे अधिक भीड़ रहती थी, जो सीधे हाल 6 और 1, 2 की ओर से प्रवेश दिलाता था। लेकिन मेट्रो के कारण अब प्रवेश की दिशा बदल गई है। हाल 12 और 11 के बीच का मार्ग बाहर निकलने और प्रवेश का मुख्य द्वार बन गया है। यहीं से दायीं और वाहनों के पार्किंग का भी रास्ता जाता है। 

 10.   चाइनीज प्रदर्शनी, दर्शनीय है। सभी पाठकों से आग्रह रहेगा कि एक वार इसमें अवश्य जाएं। एक यादगार अनुभव रहेगा। यहां के हाल का इंटीरियर डेकोरेशन, भव्यता और पुस्तकों का डिस्पले बहुत सुंदर है। चीन के प्रमुख प्रकाशनों की पुस्तकें किनारे में लगी हैं, इनके बीच सजे आरामदायक चेयर टेबल पर आराम का आनंद ले सकते हैं। इन्हीं के बीच भारतीय सांस्कृतिक विरासत को सेमटती प्रदर्शनी एवं प्रकाशन भी बहुत ज्ञानबर्धक और रोचक लगे।

11.   वाइनेकुलर्ज से लेकर रेसिपीज तक – पुस्तकों के साथ कुछ रोचक स्टाल भी हर हाल में लगे हैं, जिनमें दुर्वीन से लेकर विदेशी चाकू, मेगनेट और खुफिया यंत्र बिक्री पर हैं। इनके साथ आंखों को सकून देते उपयोगी उपकरण से लेकर गृहणियों के लिए हर तरह की रेसिपीज की पुस्तकें उपलब्ध हैं। बच्चों के लिए पूरा हॉल नं. 14 समर्पित है।

12. मेला भ्रमण के कुछ प्रभावी टिप्स दिन भर खडे खड़े घूमना कुल मिलाकर टांगे तोड़ने वाला अनुभव रहता है। दिन भर की पुस्तक यात्रा को रोचक और थकानमुक्त बनाने के लिए कुछ टिप्स उपयोगी है। प्रकाशकों से पुस्तक सूची बाले केटेलॉग अवश्य लें। केटेलॉग के ही बाहर अपनी काम की पुस्तकों के कमेंट्स या पृष्ठ संख्या लिख सकते हैं। या रात को इनमें से पुस्तकों को चिन्हित कर अगले दिन चयनित पुस्तकों को खरीदा जा सकता है। हर स्टाल पर बैठे गाइडों का परामर्श भी उपयोगी रहता है। यदि खड़े-खड़े थक गए तो कौने में पालथी मारकर पुस्तक अवलोकन में क्या संकोच, कुछ ही मिनट में थकान हल्की हो जाती है। साथ में चाय की चुस्की का प्रयोग भी प्रभावी रहता है।

  13.   लेखक कार्नर – हर हॉल में लेखक मंच बने हैं। यदि समय हो तो यहां चल रहे विमोचन, विचार विमर्श और संवाद का हिस्सा बनकर ज्ञानबर्धन कर सकते हैं। अपने पसंदीदा कवियों, लेखकों व साहित्यकारों से परिचय और दर्शन का यह एक सुनहरा अवसर रहता है।

  14.   वाश रुम सुविधा – पुस्तक मेला में बॉश रुम की उमदा सुविधा है। हर हॉल में स्वच्छ और वेल मेंटेंड बॉश रुम उपलब्ध हैं, जिनमें तनावपूर्ण पलों से निजात पाकर यात्रा को सुकूनदायी बनाए रह सकते हैं।

  15.   खान पान की सुविधाएं – बाहर मैदान में खान पान की हर सुविधा है। लेकिन यहां के दाम लूटने बाले हैं। दिन भर यहां टहलने के इच्छुकों के लिए सुझाव है कि साथ में ब्रेड-बटर, जैम और कुछ फल फूल लेकर जाएं, तो अधिक किफायती रहेगा। हम इस मामले में सौभाग्यशाली रहे। स्थानीय गायत्री परिजनों का सेवा सत्कार हमारे लिए विशेष उपयोगी रहा, जिनके हम सदा कृतज्ञ रहेंगे।

कुलमिलाकर, पुस्तक मेला ज्ञान पिपासुओं के लिए महाकुम्भ से कम नहीं है। पुस्तकों के सागर में अपने काम की पुस्तकों का चयन अवश्य चुनौतीपूर्ण है। लेकिन, यदि पुस्तक और प्रकाशक पता हो, तो फिर काम बहुत सरल हो जाता है। पुस्तक की डायरेक्टरी इसमें बहुत सहायक रहती है। यदि एक दो सहयोगी साथ में हों तो काम ओर सरल व रोचक हो जाता है। यदि आप अभी तक पुस्तक मेला नहीं गए हों, तो अवश्य जाएं, दो दिन अभी शेष हैं। यह ज्ञान कुम्भ एक यादगार अनुभव सावित होगा।


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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