सुबह बौद्धिक संगोष्ठी (conference) थी। हुगली
(गंगाजी) के तट पर बसे जैन कॉलेज, काशीपुर के सुरम्य परिसर में पहुंचे। यहां कुछ
पुराने अकादमिक मित्रों से मिलने का मौका मिला। और सबसे ऊपर मीडिया शिक्षा जगत के
पितामह प्रोफेसर जेएस यादव से मिलने का सौभाग्य मिला। 1970 के दशक से मीडिया
शिक्षा क्षेत्र में सक्रिय यादव सर ने ही 80 के दशक में सबसे पहले संचार की भारतीय
अवधारणा, साधारणीकरण पर प्रकाश डाला था। दिल्ली स्थित आईआईएमसी के संस्थापक
सदस्यों में एक, यादव सर के अति सरल-सौम्य, शांत-मधुर एवं गरिमामय व्यक्तित्व से
मिलकर एक सह्दयता का भाव जागा और साधारणीकरण की अवधारणा स्पष्ट हो गई। दो दिन की
क्रांफ्रेस के बीच इनके संवाद के कई मौके मिले और संचार शोध के संदर्भ में एक नयी
दृष्टि का विकास हुआ। इनके साथ ही दूसरे सुपर सीनियर प्रोफेसर केवी नागराज के मस्त
मौला, विद्वत संचार का भी हम सबको लाभ मिला। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा,
शोध एवं शिक्षण की वर्तमान दुर्दशा पर इनके विचारोतेजक संबोधन गंभीर आत्म-समीक्षा
और विचार के लिए बाध्य करते रहे। शोध के संदर्भ में इनका मार्गदर्शन उपयोगी रहा।
इसी तरह भारतीय विध्या भवन के प्रिंसिपल प्रो. सुवीर घोष के ओजस्वी-तेजस्वी उद्बोधन प्रेरक रहे। वर्तमान मूल्य पतन और नैतिक ह्रास की अवस्था में शिक्षक ही छात्रों में नीर-क्षीर विवेक को जगा सकते हैं और समूह चेतना के जागरण में अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं, सुवीर सर का शिक्षकों के प्रति यह दायित्व बोध सर्वथा प्रेरक लगा। इनके साथ एमिटी कोलकाता के निर्देशक मृत्युंजय चटर्जी के प्रखर उद्बोधन में पत्रकारिता पेशे से जुड़ी व्यवहारिक चुनौतियों का अनुभूत बोध मिला। कवींद्र टैगोर के सपनों पर आधारित विश्वभारती विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग द्वारा मीडिया शोध के क्षेत्र में किए जा रहे साहसिक प्रयास प्रेरक लगे। इस दौर में जब सेमीनार और कांफ्रेस प्रायः महज खाना पूर्ति और कागजी कार्य़वाही तक सीमित रहते हैं, ऐसे में, यहां की गंभीर विषय को लेकर की जा रही साहसिक पहल स्तुतीय एवं अनुकरणीय लगी। प्रो. विप्लब लोहा चौधरी एवं इनकी यंग टीम जैसे प्रयास यदि देश का हर पत्रकारिता विभाग करे तो मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में कुछ मील के पत्थर जुड़ जाएं। संभवतः पहली वार इस परिसर में आयोजित दो दिवसीय कांफ्रेंस, अपनी तमाम मानवीय त्रुटियों के वावजूद भागीदारों में एक नयी दृष्टि, एक नयी समझ विकसित करने में सफल रही। स्पष्ट हुआ कि भारतीय संदर्भ में संचार की अवधारणा अभी भी समग्र रुप से परिभाषित नहीं है, इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है। कुल मिलाकर यह क्रांफ्रेंस संचार शोध के क्षेत्र में मील के पत्थर के रुप में याद की जाएगी, जिसके सत्परिणाम भावी गंभीर शोधकार्यों के रुप में याद किए जाएंगे। वेलीडिक्ट्री सेशन के विदाई समारोह के साथ हमारी यात्रा का बौद्धिक मकसद पूरा हो चुका था।
इसी तरह भारतीय विध्या भवन के प्रिंसिपल प्रो. सुवीर घोष के ओजस्वी-तेजस्वी उद्बोधन प्रेरक रहे। वर्तमान मूल्य पतन और नैतिक ह्रास की अवस्था में शिक्षक ही छात्रों में नीर-क्षीर विवेक को जगा सकते हैं और समूह चेतना के जागरण में अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं, सुवीर सर का शिक्षकों के प्रति यह दायित्व बोध सर्वथा प्रेरक लगा। इनके साथ एमिटी कोलकाता के निर्देशक मृत्युंजय चटर्जी के प्रखर उद्बोधन में पत्रकारिता पेशे से जुड़ी व्यवहारिक चुनौतियों का अनुभूत बोध मिला। कवींद्र टैगोर के सपनों पर आधारित विश्वभारती विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग द्वारा मीडिया शोध के क्षेत्र में किए जा रहे साहसिक प्रयास प्रेरक लगे। इस दौर में जब सेमीनार और कांफ्रेस प्रायः महज खाना पूर्ति और कागजी कार्य़वाही तक सीमित रहते हैं, ऐसे में, यहां की गंभीर विषय को लेकर की जा रही साहसिक पहल स्तुतीय एवं अनुकरणीय लगी। प्रो. विप्लब लोहा चौधरी एवं इनकी यंग टीम जैसे प्रयास यदि देश का हर पत्रकारिता विभाग करे तो मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में कुछ मील के पत्थर जुड़ जाएं। संभवतः पहली वार इस परिसर में आयोजित दो दिवसीय कांफ्रेंस, अपनी तमाम मानवीय त्रुटियों के वावजूद भागीदारों में एक नयी दृष्टि, एक नयी समझ विकसित करने में सफल रही। स्पष्ट हुआ कि भारतीय संदर्भ में संचार की अवधारणा अभी भी समग्र रुप से परिभाषित नहीं है, इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है। कुल मिलाकर यह क्रांफ्रेंस संचार शोध के क्षेत्र में मील के पत्थर के रुप में याद की जाएगी, जिसके सत्परिणाम भावी गंभीर शोधकार्यों के रुप में याद किए जाएंगे। वेलीडिक्ट्री सेशन के विदाई समारोह के साथ हमारी यात्रा का बौद्धिक मकसद पूरा हो चुका था।
एक शाम, बड़ा बाजार
के नाम -
आज की शाम बड़ा बाजार को एक्सप्लोअर करने
और यहां के कुछ ऐतिहासिक स्थलों के दर्शन के नाम थी। सो क्रॉंफ्रेंस से छुटते ही
बाहर मुख्य मार्ग पर आ गए। यहां से स्थानीय टेंपो में डीके बाजार पहुंचे और यहां
से दूसरे टेंपू में बड़ा बाजार। टेंपू में यहां की यात्रा किसी भी नए पर्यटक के लिए
रोमांच से कम नहीं है और रोंगटे खडा करने वाली है। यहां की सडकों की एक खासियत है
ट्रेफिक की समस्या और खूबी इसके बीच सरपट दौड़ते वाहन। थोड़ा सा भी खाली स्थान
देखते ही, छोटे वाहन बिल्ली की तरह लपक कर बीच में घुस जाते हैं और पार हो जाते हैं।
इस भाग-दौड़ के बीच शुरु में कई जगह सांसे थाम कर, टक्कर से बचने का नजारा देखते
रहे। लेकिन थोड़ी देर में इसे यहां का ड्राइविंग स्टाइल पाकर और इनके हुनर को
देखकर निश्चिंत हो गए। किसी ने सच में कहा है कि जो कोलकाता की सड़कों पर
ड्राइविंग कर लिया, समझो वह देश के किसी भी शहर में वाहन चला सकता है।
कोलकाता की
शाश्वत-पुरातन लोकसंस्कृति के दर्शन-
बड़ा बाजार में ट्रेफिक जाम आम बात है और
लोग भी इसके अभ्यस्त दिखे। जाम को देखते हुए हमारा टैंपू मुख्य मार्ग से हटकर
गलियों में घुस चुका था। संकरी गलियों के बीच लोगों की भीड़ और सामने से आते बड़े
बाहनों के बीच टेंपू का आगे बढ़ना किसी रोमांच से कम नहीं था। गलियों में कोलकाता
के पुरातन-सनातन जीवन के सुकुन भरे जीवन के दर्शन हुए। आगे मुख्य मार्ग में पहुंचे
तो जाम यथावत था। बड़े बाहन रेंगते हुए आगे बढ़ रहे थे और सवारियां निश्चिंत-शांत
भाव से बैठी हुई थी। ट्रेफिक जाम में दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में घटने वाली
रोड-रेज जैसी हिंसक घटनाएं यहां विरल ही देखने को मिलेंगी। गल्ती से वाहन छू जाने
पर प्रतिपक्ष को क्षमाभाव में अपनी गल्ती का अहसास करते देखा। इस भीड़ में भी एक
अनुशासन, एक शिष्टाचार, एक ईमानदारी दिखी, जो कोलकाता की शाश्वत-सनातन लोक
संस्कृति की विशिष्ट पहचान है, जिसने हमें गहरे स्पर्श किया। फल हो या सब्जी,
खान-पान की वस्तुओं के दाम बहुत ही बाजिव थे। संभवतः कोलकाता सबसे सस्ते व ईमानदार
मेट्रो शहरों में एक है। ठगी की संभावनाएं यहां न्यूनतम दिखी।
रास्ते में ही फल मंडी, फूल मंडी, कुम्हार
मंडी, मूर्ति मंडी, लोहा मंडी, जूट मंडी, यानि हर तरह की मंडिंयों के दर्शन हुए,
जिनमें कुछ तो देश एवं विश्व की सबसे बड़ी मंडियों में शुमार हैं। कहावत है कि इस
बाजार में सूई से लेकर हवाई जहाज तक, इंसान के सिवा कुछ भी खरीद सकते हैं। हो भी
क्यों न, आखिर समुद्र के किनारे होने के कारण कोलकाता देश के व्यापार का प्रमुख
केंद्र रहा है और 1912 तक ब्रिटिश हुकूमत की राजधानी रह चुका है। राजधानी के रुप
में शहर को मिली विरासत आज भी अपने पुरातन बैभव के साथ मौजूद है। आज कोलकाता,
मुम्बई के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा शहर है।
रास्ते में परिजनों के सहयोग से, इतिहास
को समेटे कुछ खानपान के लोकप्रिय स्थलों से भी रुबरु हुए और लजीज व्यंजनों का
आनन्द लेते रहे। इसी क्रम में, खेदु साव की पकोडों की ऐतिहासिक दुकान पर पहुंचे।
पता चला कि यहाँ सुभाषचंद्र वोस मुडी पकौडी खाने आया करते थे। दुकान लोगों के बीच
खासी लोकप्रिय है। हर वेरायटी के नमकीन व समोसे यहां बनते हैं। इनका स्वाद लाजबाव
रहता है। दुकान उसी पुराने ढांचे में काम कर रही है और आज इनकी पांचवीं पीढ़ी काम
संभाल रही है। दुकान की लोकप्रियता इतनी है कि पता चला कि इसके मालिक स्थानीय नेता
में शुमार हो चुके हैं।
इसी क्रम में गिरिशचंद्र और नुकुरचंद्र की
मिठाई की ऐतिहासिक दुकान पहुंचे, जिसकी स्थापना सन 1844 की मानी जाती है। दुकान
में ग्राहकों की लाइनें लगी रहती हैं। यहां भी दुकान का ढांचा अपनी पुरातन विरासत
समेटे हुए है। अंदर पारंपरिक तरीके से लंगोट पहने पहलवान कडाहियों में मावा घोंटते
और बाहर फर्श पर बढ़े-बढ़े थालों में पनीर को तैयार करते दिखे। यहां की संदेश मिठाई,
चोकलेट की बर्फी विशेष लोकप्रिय है।
इसके अलावा कोलकाता में सस्ते व स्वादिष्ट
खान-पान के ठिकाने कदम-कदम पर मिलेंगे। आहार प्रेमी, रास्ते में जगह-जगह पर
स्ट्रीट फुड का आनंद ले सकते हैं। बहुत की बाजिव दामों में यहां वैरायटी के पकबान,
व्यंजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। गोलगप्पे, पानी पुरी को यहाँ फुचका कहा जाता
है, और इसकी भी कुछ खास दुकानें हैं, जिनका लुत्फ हमारे यजमान हमें दिलाते रहे। कुल्हड
में शुद्ध लस्सी का स्वाद यागदार रहा। इसके साथ यहां का रॉसोगुल्ला औऱ मिष्टिदोई
के बिना तो मामला अधूरा माना जाएगा। पता चला कि चाइनीज फुड के शौकीनों के लिए
चाइना टाउन में पूरी मार्केट है।
रास्ते में टैगोर की
विरासत को समेटे टेैगोर बाड़ी मिली। अंदर प्रवेश करने पर टैगोर के पुश्तैनी शाही
भवन की एकांत-शांत स्थिति, शहर के शौरगुल व गगनचुंवी भवनों के बीच एक शांत टापू सरीखी
लगी। आज यहां कुछ विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था, भगवान नटराज की मूर्ति के
सामने नृत्य शुरु होने वाला था। कुछ दर्शक अंदर थियेटर में बैठे थे तो कुछ वाहर
लॉन में इंतजार कर रहे थे, जहाँ टीवी से सीधा प्रसारण हो रहा था। कुछ विदेशी
मेहमान वाहर जलपान का आनन्द ले रहे थे। पता चला कि विश्वभारती विश्वविद्यालय का एक
कैंपस यहां भी काम करता है। रास्ते में ही स्वामी विवेकानन्द के पुश्तैनी घर के
दर्शन हुए। समय अभाव के कारण अंदर नहीं जा सके।
कोलकाता में
पार्किंग कितनी बड़ी समस्या है, इसको देखने-समझने का नजदीक से मौका मिला।
क्षेत्रीय परिजनों
का भावविभोर करता पारिवारक, आत्मीय स्पर्श -
दो-तीन दिन में कोलकाता के लोकजीवन के, सनातन-पुरातन स्वरुप के दर्शन
संभव न होते, यदि क्षेत्रीय परिजनों का भावभरा सहयोग न मिलता। इसके लिए हम सदैव
कृतज्ञ रहेंगे। दिन हो या रात, सुबह हो या शाम अहर्निश हमारे साथ छाया की तरह साथ
बने रहे। कोलकाता में पीढ़ियों के अनुभव सार को कुछ पलों में निचोड़कर, हमारा
ज्ञान बर्धन करते रहे। इनके साथ बीते तीन-चार दिन लगा जैसे, अपनों के बीच, परिवार
के सदस्यों के बीच बीते। संस्कारपूर्ण वातावरण के बीच परिवार में गुरुसत्ता के बोए
संस्कारों की छाप बच्चों पर स्पष्ट दिखी। मैट्रो क्लचर के बीच भी स्कूल-कॉलेज में
पढ़ रहे बच्चे अपनी संस्कृति से जुड़े हैं और उन संस्कारों को धारण किए हैं, जो
उन्हें संसार की चकाचौंध के बीच अनावश्यक भटकन से बचाए रखेंगे। जीवन की भागदौड़ के
बीच मिशन के कार्यों के लिए समर्पित भाव से अपने श्रम-समय और अंश का नियोजन कर रहे
नैष्ठिक कार्यकर्ताओं को देखकर लगा कि ये कितने चुनौतीपूर्ण तप, योग एवं साधना में
संलग्न हैं। हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे युग सुधरेगा के उद्घोष को स्वर
देते इनके नैष्ठिक प्रयास बंदनीय लगे।
वेलूरमठ से होते हुए
घर वापसी -
आज घर वापसी का दिन था। कुम्भ एकस्प्रेस
में सीटें बुक हो चुकी थीं, 1 बजे दोपहर तक स्टेशन पहुंचना था। सो आज सुबह बेलूर
मठ से होते हुए स्टेशन आने की योजना बनी। वाहन से दक्षिणेश्वर पुल पार करते हुए
नदी के पार नीचे बेलुर मठ की ओर बढ़े। वाहन पार्किंग में खड़ा कर मठ के परिसर में
प्रवेश किए। रास्ते में सब्जी भाजी के खेत और मेढ पर लगे नारियल के कतारबद्ध पेड़
पर्यटकों का स्वागत कर रहे थे। मार्ग के वायीं और रामकृष्ण संग्राह्लय है। अंदर
फोटोग्राफी मना थी, सो बाहर ही यथासम्भव अपनी इच्छा पूरी करते रहे। थोडा आगे दायीं
ओर जुता घर है, इसमें जुत्ता उतारकर मंदिर की ओऱ बढे। थोड़ी आगे वायीं ओर बेलूर मठ
का मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है, स्वयं स्वामी विवेकानंद ने 1899 में इसकी
नींव रखी थी। इसका विराट भवन व इसका भव्यतम वास्तुशिल्प दर्शकों को मंत्रमुग्ध
करता है। अंदर श्रीरामकृष्ण परमहंस, मां शारदा और स्वामी विवेकानन्द के दर्शन करते
हुए वाहर निकले, सामने गंगा जी ओऱ किनारे में दो मंजिले भवन में श्रीरामकृष्ण
परहंस के अंतिम दिनों के कक्ष में पधारे। इसके बाद नीचे उतर कर बाहर हरे-भरे घास के मैदान को पार करते हुए गंगा नदी के तट पर पहुंचे। हुगली नदी की विराट जलराशि में चलती स्टीमर बोटें और आगे बोट यार्ड से टकराकर वापिस आती हुगली की वृहद जलराशी, इसमें तैरती घास – मन को एक शीतल अनुभव दे रही थी। आगे ठाकुर के मानसपुत्र स्वामी ब्रह्मानन्द की समाधी के दर्शन किए। इसके वाद स्वामी विवेकानन्द मंदिर में प्रवेश किए। नीचले तल में स्वामीजी की प्रतिमा औऱ उपर के तल में सार्वभौम औंकार मंदिर। शब्द ब्रह्म का दर्शन करते हुए, मंदिर परिसर के दिव्य परिसर में घूमते हुए बापिस जुता घर पहुंचे। इससे लगे साहित्य स्टॉल से कुछ चुंनीदा पुस्तकें खरीदे। समय अभाव के कारण मठ का पुरा अन्वेषण न कर पाने का मलाल अवश्य रहा। रास्ते में ही विवेकानन्द विश्वविद्यालय भी है, जिसको देखने का विशेष मन था। इन सबको अगले भ्रमण के लिए छोड़कर वाहन में बैठ कर बापिस हाब़डा स्टेशन की ओर चल दिए।
हावड़ा रेल्वे स्टेशन
-
स्टेशन पर जब ट्रेन पर पहुंचे तो देखकर
सुखद आश्चर्य हुआ कि हमारे सामने बाली सीट में रामकृशन मिशन के सन्यासी, स्वामी जी
बैठे हैं। ये भी हरिद्वार जा रहे थे। विश्वास पुष्ट हुआ कि हमारी यात्रा पूरी तरह
से दैवीय विधान के अंतर्गत चल रही है। रास्ते में स्वामी जी से सतसंग लाभ लेते
रहे। स्वामीजी से बहुत सारी रोचक एवं प्रेरक जानकारियां मिली। चर्चा में यह भी पता
चला कि कोलकाता में अन्य महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल भी हैं। कुछ की तो हमें जानकारी
थी लेकिन कुछ नए थे। मूलतः समय अभाव के कारण हम इनके दर्शन नहीं कर पाए थे, जो अब
हमारी अगली यात्रा की सूचि में शामिल हो चुके थे।
ट्रेन में साइड लोअऱ एवं अपर सीटें मिलने
के कारण वापसी के ट्रेन सफर में वो दिक्कतें नहीं आयीं, जो दून एक्सप्रेस में झेल
चुके थे। उपासना ( या कुम्भ) एक्सप्रेस तुलात्मक रुप में अधिक साफ, कुछ बढ़ी व समय
के हिसाब से किफायती लगी। दून एक्सप्रेस 36 घंटे में यात्रा पूरी की थी, तो उपासना
एक्सप्रेस में सफर 27 घंटे में पूरा हुआ। दूसरा यह कम स्टॉप्स पर रुकती है और समय
पर मंजिल पर पहुंचाती है। रास्ते में झारखण्ड की सीमा तक पहुंचते-पहुंचते अंधेरा
हो चुका था। मार्ग में खेत-गांव के सुंदर नजारों को केमरे में कैद करते रहे।
अंधेरा होने से पहले के कुछ स्टेशनों के नाम याद हैं, जैसे – वर्धमान (न्टिंग वीयर
के लिए प्रसिद्ध), आसनसोल (स्वतंत्रता संग्राम की राष्ट्रीय नेताओं की जेल),
चितरंजन (रेल कोच का निर्माण स्थल), मधुपुर, जसीडिह (प्रख्यात देवघर ज्योतिर्लिंग
का प्रस्थान स्थल)। आगे झाझा, क्यूल तक रात के 7 बज चुके थे। इसके बाद रात भर
कितने स्टेशन पार करते गए ध्यान नहीं रहा। संभवतः लखनउ पार करते करते सुबह हो चुकी
थी।
साइड अपर वर्थ में सीट के चलते लैप्टॉप में
अपना काम करते रहे। यह ब्लॉग आधा बैठे-बैठे पूरा कर चुके थे। ट्रेन की बढ़ती गति
के कारण हिचकोले खाते ढब्बे में काम जरुर बाधित होता रहा। खाली समय में खरीदी
पुस्तकों का स्वाध्याय करते रहे। अहसास हुआ कि रेलबे सफर क्रिएटिव कार्यों के
हिसाब से कितना अनुकूल है। मस्तिष्क प्रायः अल्फा स्टेट में शांत-एकाग्र और नए विचारों के लिए एक ऊर्बर भूमि रहता है। चाय की चुस्की का आनन्द यात्रा का
अभिन्न हिस्सा रहा। कप का साइज क्रमशः बढ़ता नजर आया। रास्ते में भीड़ का ज्बरन
ढिब्बे के बर्थ पर कब्जे की अनाधिकार चेष्टा का भी सामना हुआ और अनुशासित लोकजीवन
के भी दर्शन हुए। देश की विविधता व इसके स्वभाव की बहुरंगी छटा का मोटा-मोटा परिचय
रास्ते भर मिलता रहा।
दोपहर बाद तक हम वरेली पार करते हुए
मुरादावाद और नजीवावाद पहुंच चुके थे। आगे रास्ते में लक्सर, पत्थरी से होते हुए हरिद्वार
पहुंचे। रास्ते के खेत खलिहान, गांव के नजारे बहुत ही सुंदर और मनभावन थे। इनको
निहारते हुए यात्रा का अंतिम पड़ाव पूरा किए। इस मायने में सफर का आदि औऱ अंत
दोनों अपने अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य के साथ मन को आह्लादित करता और चित को
एक नई दुनिया में विचरण की अनुभूति देता रहा। इस तरह एक सुखद स्मृति के साथ हम हरिद्वार
पहुंचे। रास्ते में केप्चर किए गए इसके अलग-अलग नजारे अवश्य इन यादों को
ताजा करते रहेंगे।
जब ट्रेन हरिद्वार पहुंची तो, सूर्य भगवान
पश्चिम की ओऱ अस्तांचल हो चुके थे। हम इसके विपरीत, ऑटो में उत्तर की ओर बढ़ रहे थे। ललिताराव
पुल पार करते ही गंगनहर को पूरे वेग के साथ वहते देख चित्त पुलकित हो उठा। हरिद्वार
से प्रस्थान करते समय जो हरकी पौड़ी जल के अभाव में (गंगनहर वार्षिक क्लोजर के
कारण) विरान पड़ी थी, आज पूरी तरह आवाद दिखी। हरकी पौडी पर गंगाजल की निर्मल नील
धारा को देखकर मन को शीतल व सकूनदायी स्पर्श मिला। और इसको पार करते हुए खड़खड़ी व गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज से होते हुए अपनी मंजिल पहुंचे।
देवसंस्कृति विवि परिसर तक
पहुंचते-पहुंचते शाम हो चुकी थी। विश्वविद्यालय परिसर में शांति पसरी थी।
इक्का-दुक्का छात्रों के ही दर्शन हुए। परीक्षा तैयारियों की छुट्टियां चल रही
हैं, सो यह स्वाभाविक भी था। प्रज्ञेश्वर महाकाल के दिव्य प्रांगण में श्रद्धानत्
होते हुए आगे बढ़े। मुख्य प्रशासनिक भवन और केंद्रीय ग्रंथालय शाम की रोशनी से जगमगा रहे
थे, लगा विश्वविद्यालय अभी जाग रहा है। अंधेरे में जगमगाती रोशनी के बीच हम अपने
भवन में प्रवेश किए।
इस तरह छः दिन का प्रवास देवकृपा से
सकुशल-सुमंगल रहा। फिर फुर्सत के पलों में भावों के सागर में डुबकी लगाकर, यात्रा
के अनुभवों को कलमबद्ध करते रहे। लगा, जैसे कोलकाता हमारे दिलो-दिमाग में
समा रहा है। इसकी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत के तो हम शुरु से ही
कायल रहे हैं, इस यात्रा ने इसके तार ओर गहरे जोड़ दिए।
यदि आपने यात्रा का पहला भाग न पढ़ा हो, तो आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - हमारी कोलकाता यात्रा, भाग-1