सोमवार, 30 नवंबर 2015

यात्रा वृतांत - हमारी कोलकाता यात्रा-भाग2 (समाप्न किस्त)


भावों के सागर में एक डुबकी


कांफ्रेंस में भागीदारी -
सुबह बौद्धिक संगोष्ठी (conference) थी। हुगली (गंगाजी) के तट पर बसे जैन कॉलेज, काशीपुर के सुरम्य परिसर में पहुंचे। यहां कुछ पुराने अकादमिक मित्रों से मिलने का मौका मिला। और सबसे ऊपर मीडिया शिक्षा जगत के पितामह प्रोफेसर जेएस यादव से मिलने का सौभाग्य मिला। 1970 के दशक से मीडिया शिक्षा क्षेत्र में सक्रिय यादव सर ने ही 80 के दशक में सबसे पहले संचार की भारतीय अवधारणा, साधारणीकरण पर प्रकाश डाला था। दिल्ली स्थित आईआईएमसी के संस्थापक सदस्यों में एक, यादव सर के अति सरल-सौम्य, शांत-मधुर एवं गरिमामय व्यक्तित्व से मिलकर एक सह्दयता का भाव जागा और साधारणीकरण की अवधारणा स्पष्ट हो गई। दो दिन की क्रांफ्रेस के बीच इनके संवाद के कई मौके मिले और संचार शोध के संदर्भ में एक नयी दृष्टि का विकास हुआ। इनके साथ ही दूसरे सुपर सीनियर प्रोफेसर केवी नागराज के मस्त मौला, विद्वत संचार का भी हम सबको लाभ मिला। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा, शोध एवं शिक्षण की वर्तमान दुर्दशा पर इनके विचारोतेजक संबोधन गंभीर आत्म-समीक्षा और विचार के लिए बाध्य करते रहे। शोध के संदर्भ में इनका मार्गदर्शन उपयोगी रहा। 



इसी तरह भारतीय विध्या भवन के प्रिंसिपल प्रो. सुवीर घोष के ओजस्वी-तेजस्वी उद्बोधन प्रेरक रहे। वर्तमान मूल्य पतन और नैतिक ह्रास की अवस्था में शिक्षक ही छात्रों में नीर-क्षीर विवेक को जगा सकते हैं और समूह चेतना के जागरण में अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं, सुवीर सर का शिक्षकों के प्रति यह दायित्व बोध सर्वथा प्रेरक लगा। इनके साथ एमिटी कोलकाता के निर्देशक मृत्युंजय चटर्जी  के प्रखर उद्बोधन में पत्रकारिता पेशे से जुड़ी व्यवहारिक चुनौतियों का अनुभूत बोध मिला। कवींद्र टैगोर के सपनों पर आधारित विश्वभारती विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग द्वारा मीडिया शोध के क्षेत्र में किए जा रहे साहसिक प्रयास प्रेरक लगे। इस दौर में जब सेमीनार और कांफ्रेस प्रायः महज खाना पूर्ति और कागजी कार्य़वाही तक सीमित रहते हैं, ऐसे में, यहां की गंभीर विषय को लेकर की जा रही साहसिक पहल स्तुतीय एवं अनुकरणीय लगी। प्रो. विप्लब लोहा चौधरी एवं इनकी यंग टीम जैसे प्रयास यदि देश का हर पत्रकारिता विभाग करे तो मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में कुछ मील के पत्थर जुड़ जाएं। संभवतः पहली वार इस परिसर में आयोजित दो दिवसीय कांफ्रेंस, अपनी तमाम मानवीय त्रुटियों के वावजूद भागीदारों में एक नयी दृष्टि, एक नयी समझ विकसित करने में सफल रही। स्पष्ट हुआ कि भारतीय संदर्भ में संचार की अवधारणा अभी भी समग्र रुप से परिभाषित नहीं है, इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है। कुल मिलाकर यह क्रांफ्रेंस संचार शोध के क्षेत्र में मील के पत्थर के रुप में याद की जाएगी, जिसके सत्परिणाम भावी गंभीर शोधकार्यों के रुप में याद किए जाएंगे। वेलीडिक्ट्री सेशन के विदाई समारोह के साथ हमारी यात्रा का बौद्धिक मकसद पूरा हो चुका था।



एक शाम, बड़ा बाजार के नाम -
आज की शाम बड़ा बाजार को एक्सप्लोअर करने और यहां के कुछ ऐतिहासिक स्थलों के दर्शन के नाम थी। सो क्रॉंफ्रेंस से छुटते ही बाहर मुख्य मार्ग पर आ गए। यहां से स्थानीय टेंपो में डीके बाजार पहुंचे और यहां से दूसरे टेंपू में बड़ा बाजार। टेंपू में यहां की यात्रा किसी भी नए पर्यटक के लिए रोमांच से कम नहीं है और रोंगटे खडा करने वाली है। यहां की सडकों की एक खासियत है ट्रेफिक की समस्या और खूबी इसके बीच सरपट दौड़ते वाहन। थोड़ा सा भी खाली स्थान देखते ही, छोटे वाहन बिल्ली की तरह लपक कर बीच में घुस जाते हैं और पार हो जाते हैं। इस भाग-दौड़ के बीच शुरु में कई जगह सांसे थाम कर, टक्कर से बचने का नजारा देखते रहे। लेकिन थोड़ी देर में इसे यहां का ड्राइविंग स्टाइल पाकर और इनके हुनर को देखकर निश्चिंत हो गए। किसी ने सच में कहा है कि जो कोलकाता की सड़कों पर ड्राइविंग कर लिया, समझो वह देश के किसी भी शहर में वाहन चला सकता है।   


कोलकाता की शाश्वत-पुरातन लोकसंस्कृति के दर्शन-

बड़ा बाजार में ट्रेफिक जाम आम बात है और लोग भी इसके अभ्यस्त दिखे। जाम को देखते हुए हमारा टैंपू मुख्य मार्ग से हटकर गलियों में घुस चुका था। संकरी गलियों के बीच लोगों की भीड़ और सामने से आते बड़े बाहनों के बीच टेंपू का आगे बढ़ना किसी रोमांच से कम नहीं था। गलियों में कोलकाता के पुरातन-सनातन जीवन के सुकुन भरे जीवन के दर्शन हुए। आगे मुख्य मार्ग में पहुंचे तो जाम यथावत था। बड़े बाहन रेंगते हुए आगे बढ़ रहे थे और सवारियां निश्चिंत-शांत भाव से बैठी हुई थी। ट्रेफिक जाम में दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में घटने वाली रोड-रेज जैसी हिंसक घटनाएं यहां विरल ही देखने को मिलेंगी। गल्ती से वाहन छू जाने पर प्रतिपक्ष को क्षमाभाव में अपनी गल्ती का अहसास करते देखा। इस भीड़ में भी एक अनुशासन, एक शिष्टाचार, एक ईमानदारी दिखी, जो कोलकाता की शाश्वत-सनातन लोक संस्कृति की विशिष्ट पहचान है, जिसने हमें गहरे स्पर्श किया। फल हो या सब्जी, खान-पान की वस्तुओं के दाम बहुत ही बाजिव थे। संभवतः कोलकाता सबसे सस्ते व ईमानदार मेट्रो शहरों में एक है। ठगी की संभावनाएं यहां न्यूनतम दिखी। 
रास्ते में ही फल मंडी, फूल मंडी, कुम्हार मंडी, मूर्ति मंडी, लोहा मंडी, जूट मंडी, यानि हर तरह की मंडिंयों के दर्शन हुए, जिनमें कुछ तो देश एवं विश्व की सबसे बड़ी मंडियों में शुमार हैं। कहावत है कि इस बाजार में सूई से लेकर हवाई जहाज तक, इंसान के सिवा कुछ भी खरीद सकते हैं। हो भी क्यों न, आखिर समुद्र के किनारे होने के कारण कोलकाता देश के व्यापार का प्रमुख केंद्र रहा है और 1912 तक ब्रिटिश हुकूमत की राजधानी रह चुका है। राजधानी के रुप में शहर को मिली विरासत आज भी अपने पुरातन बैभव के साथ मौजूद है। आज कोलकाता, मुम्बई के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। 

रास्ते में परिजनों के सहयोग से, इतिहास को समेटे कुछ खानपान के लोकप्रिय स्थलों से भी रुबरु हुए और लजीज व्यंजनों का आनन्द लेते रहे। इसी क्रम में, खेदु साव की पकोडों की ऐतिहासिक दुकान पर पहुंचे। पता चला कि यहाँ सुभाषचंद्र वोस मुडी पकौडी खाने आया करते थे। दुकान लोगों के बीच खासी लोकप्रिय है। हर वेरायटी के नमकीन व समोसे यहां बनते हैं। इनका स्वाद लाजबाव रहता है। दुकान उसी पुराने ढांचे में काम कर रही है और आज इनकी पांचवीं पीढ़ी काम संभाल रही है। दुकान की लोकप्रियता इतनी है कि पता चला कि इसके मालिक स्थानीय नेता में शुमार हो चुके हैं। 
 
इसी क्रम में गिरिशचंद्र और नुकुरचंद्र की मिठाई की ऐतिहासिक दुकान पहुंचे, जिसकी स्थापना सन 1844 की मानी जाती है। दुकान में ग्राहकों की लाइनें लगी रहती हैं। यहां भी दुकान का ढांचा अपनी पुरातन विरासत समेटे हुए है। अंदर पारंपरिक तरीके से लंगोट पहने पहलवान कडाहियों में मावा घोंटते और बाहर फर्श पर बढ़े-बढ़े थालों में पनीर को तैयार करते दिखे। यहां की संदेश मिठाई, चोकलेट की बर्फी विशेष लोकप्रिय है। 
इसके अलावा कोलकाता में सस्ते व स्वादिष्ट खान-पान के ठिकाने कदम-कदम पर मिलेंगे। आहार प्रेमी, रास्ते में जगह-जगह पर स्ट्रीट फुड का आनंद ले सकते हैं। बहुत की बाजिव दामों में यहां वैरायटी के पकबान, व्यंजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। गोलगप्पे, पानी पुरी को यहाँ फुचका कहा जाता है, और इसकी भी कुछ खास दुकानें हैं, जिनका लुत्फ हमारे यजमान हमें दिलाते रहे। कुल्हड में शुद्ध लस्सी का स्वाद यागदार रह। इसके साथ यहां का रॉसोगुल्ला औऱ मिष्टिदोई के बिना तो मामला अधूरा माना जाएगा। पता चला कि चाइनीज फुड के शौकीनों के लिए चाइना टाउन में पूरी मार्केट है।

रास्ते में टैगोर की विरासत को समेटे टेैगोर बाड़ी मिली। अंदर प्रवेश करने पर टैगोर के पुश्तैनी शाही भवन की एकांत-शांत स्थिति, शहर के शौरगुल व गगनचुंवी भवनों के बीच एक शांत टापू सरीखी लगी। आज यहां कुछ विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था, भगवान नटराज की मूर्ति के सामने नृत्य शुरु होने वाला था। कुछ दर्शक अंदर थियेटर में बैठे थे तो कुछ वाहर लॉन में इंतजार कर रहे थे, जहाँ टीवी से सीधा प्रसारण हो रहा था। कुछ विदेशी मेहमान वाहर जलपान का आनन्द ले रहे थे। पता चला कि विश्वभारती विश्वविद्यालय का एक कैंपस यहां भी काम करता है। रास्ते में ही स्वामी विवेकानन्द के पुश्तैनी घर के दर्शन हुए। समय अभाव के कारण अंदर नहीं जा सके।
कोलकाता में पार्किंग कितनी बड़ी समस्या है, इसको देखने-समझने का नजदीक से मौका मिला।



क्षेत्रीय परिजनों का भावविभोर करता पारिवारक, आत्मीय स्पर्श -
दो-तीन दिन में कोलकाता के लोकजीवन के, सनातन-पुरातन स्वरुप के दर्शन संभव न होते, यदि क्षेत्रीय परिजनों का भावभरा सहयोग न मिलता। इसके लिए हम सदैव कृतज्ञ रहेंगे। दिन हो या रात, सुबह हो या शाम अहर्निश हमारे साथ छाया की तरह साथ बने रहे। कोलकाता में पीढ़ियों के अनुभव सार को कुछ पलों में निचोड़कर, हमारा ज्ञान बर्धन करते रहे। इनके साथ बीते तीन-चार दिन लगा जैसे, अपनों के बीच, परिवार के सदस्यों के बीच बीते। संस्कारपूर्ण वातावरण के बीच परिवार में गुरुसत्ता के बोए संस्कारों की छाप बच्चों पर स्पष्ट दिखी। मैट्रो क्लचर के बीच भी स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहे बच्चे अपनी संस्कृति से जुड़े हैं और उन संस्कारों को धारण किए हैं, जो उन्हें संसार की चकाचौंध के बीच अनावश्यक भटकन से बचाए रखेंगे। जीवन की भागदौड़ के बीच मिशन के कार्यों के लिए समर्पित भाव से अपने श्रम-समय और अंश का नियोजन कर रहे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं को देखकर लगा कि ये कितने चुनौतीपूर्ण तप, योग एवं साधना में संलग्न हैं। हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे युग सुधरेगा के उद्घोष को स्वर देते इनके नैष्ठिक प्रयास बंदनीय लगे।



वेलूरमठ से होते हुए घर वापसी -
आज घर वापसी का दिन था। कुम्भ एकस्प्रेस में सीटें बुक हो चुकी थीं, 1 बजे दोपहर तक स्टेशन पहुंचना था। सो आज सुबह बेलूर मठ से होते हुए स्टेशन आने की योजना बनी। वाहन से दक्षिणेश्वर पुल पार करते हुए नदी के पार नीचे बेलुर मठ की ओर बढ़े। वाहन पार्किंग में खड़ा कर मठ के परिसर में प्रवेश किए। रास्ते में सब्जी भाजी के खेत और मेढ पर लगे नारियल के कतारबद्ध पेड़ पर्यटकों का स्वागत कर रहे थे। मार्ग के वायीं और रामकृष्ण संग्राह्लय है। अंदर फोटोग्राफी मना थी, सो बाहर ही यथासम्भव अपनी इच्छा पूरी करते रहे। थोडा आगे दायीं ओर जुता घर है, इसमें जुत्ता उतारकर मंदिर की ओऱ बढे। थोड़ी आगे वायीं ओर बेलूर मठ का मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है, स्वयं स्वामी विवेकानंद ने 1899 में इसकी नींव रखी थी। इसका विराट भवन व इसका भव्यतम वास्तुशिल्प दर्शकों को मंत्रमुग्ध करता है। अंदर श्रीरामकृष्ण परमहंस, मां शारदा और स्वामी विवेकानन्द के दर्शन करते हुए वाहर निकले, सामने गंगा जी ओऱ किनारे में दो मंजिले भवन में श्रीरामकृष्ण परहंस के अंतिम दिनों के कक्ष में पधारे। 


इसके बाद नीचे उतर कर बाहर हरे-भरे घास के मैदान को पार करते हुए गंगा नदी के तट पर पहुंचे। हुगली नदी की विराट जलराशि में चलती स्टीमर बोटें और आगे बोट यार्ड से टकराकर वापिस आती हुगली की वृहद जलराशी, इसमें तैरती घास – मन को एक शीतल अनुभव दे रही थी। आगे ठाकुर के मानसपुत्र स्वामी ब्रह्मानन्द की समाधी के दर्शन किए। इसके वाद स्वामी विवेकानन्द मंदिर में प्रवेश किए। नीचले तल में स्वामीजी की प्रतिमा औऱ उपर के तल में सार्वभौम औंकार मंदिर। शब्द ब्रह्म का दर्शन करते हुए, मंदिर परिसर के दिव्य परिसर में घूमते हुए बापिस जुता घर पहुंचे। इससे लगे साहित्य स्टॉल से कुछ चुंनीदा पुस्तकें खरीदे। समय अभाव के कारण मठ का पुरा अन्वेषण न कर पाने का मलाल अवश्य रहा। रास्ते में ही विवेकानन्द विश्वविद्यालय भी है, जिसको देखने का विशेष मन था। इन सबको अगले भ्रमण के लिए छोड़कर वाहन में बैठ कर बापिस हाब़डा स्टेशन की ओर चल दिए।



हावड़ा रेल्वे स्टेशन -
स्टेशन पर जब ट्रेन पर पहुंचे तो देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि हमारे सामने बाली सीट में रामकृशन मिशन के सन्यासी, स्वामी जी बैठे हैं। ये भी हरिद्वार जा रहे थे। विश्वास पुष्ट हुआ कि हमारी यात्रा पूरी तरह से दैवीय विधान के अंतर्गत चल रही है। रास्ते में स्वामी जी से सतसंग लाभ लेते रहे। स्वामीजी से बहुत सारी रोचक एवं प्रेरक जानकारियां मिली। चर्चा में यह भी पता चला कि कोलकाता में अन्य महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल भी हैं। कुछ की तो हमें जानकारी थी लेकिन कुछ नए थे। मूलतः समय अभाव के कारण हम इनके दर्शन नहीं कर पाए थे, जो अब हमारी अगली यात्रा की सूचि में शामिल हो चुके थे।

ट्रेन में साइड लोअऱ एवं अपर सीटें मिलने के कारण वापसी के ट्रेन सफर में वो दिक्कतें नहीं आयीं, जो दून एक्सप्रेस में झेल चुके थे। उपासना ( या कुम्भ) एक्सप्रेस तुलात्मक रुप में अधिक साफ, कुछ बढ़ी व समय के हिसाब से किफायती लगी। दून एक्सप्रेस 36 घंटे में यात्रा पूरी की थी, तो उपासना एक्सप्रेस में सफर 27 घंटे में पूरा हुआ। दूसरा यह कम स्टॉप्स पर रुकती है और समय पर मंजिल पर पहुंचाती है। रास्ते में झारखण्ड की सीमा तक पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो चुका था। मार्ग में खेत-गांव के सुंदर नजारों को केमरे में कैद करते रहे। अंधेरा होने से पहले के कुछ स्टेशनों के नाम याद हैं, जैसे – वर्धमान (न्टिंग वीयर के लिए प्रसिद्ध), आसनसोल (स्वतंत्रता संग्राम की राष्ट्रीय नेताओं की जेल), चितरंजन (रेल कोच का निर्माण स्थल), मधुपुर, जसीडिह (प्रख्यात देवघर ज्योतिर्लिंग का प्रस्थान स्थल)। आगे झाझा, क्यूल तक रात के 7 बज चुके थे। इसके बाद रात भर कितने स्टेशन पार करते गए ध्यान नहीं रहा। संभवतः लखनउ पार करते करते सुबह हो चुकी थी। 
साइड अपर वर्थ में सीट के चलते लैप्टॉप में अपना काम करते रहे। यह ब्लॉग आधा बैठे-बैठे पूरा कर चुके थे। ट्रेन की बढ़ती गति के कारण हिचकोले खाते ढब्बे में काम जरुर बाधित होता रहा। खाली समय में खरीदी पुस्तकों का स्वाध्याय करते रहे। अहसास हुआ कि रेलबे सफर क्रिएटिव कार्यों के हिसाब से कितना अनुकूल है। मस्तिष्क प्रायः अल्फा स्टेट में शांत-एकाग्र और नए विचारों के लिए एक ऊर्बर भूमि रहता है। चाय की चुस्की का आनन्द यात्रा क अभिन्न हिस्सा रहा। कप का साइज क्रमशः बढ़ता नजर आया। रास्ते में भीड़ का ज्बरन ढिब्बे के बर्थ पर कब्जे की अनाधिकार चेष्टा का भी सामना हुआ और अनुशासित लोकजीवन के भी दर्शन हुए। देश की विविधता व इसके स्वभाव की बहुरंगी छटा का मोटा-मोटा परिचय रास्ते भर मिलता रहा।
दोपहर बाद तक हम वरेली पार करते हुए मुरादावाद और नजीवावाद पहुंच चुके थे। आगे रास्ते में लक्सर, पत्थरी से होते हुए हरिद्वार पहुंचे। रास्ते के खेत खलिहान, गांव के नजारे बहुत ही सुंदर और मनभावन थे। इनको निहारते हुए यात्रा का अंतिम पड़ाव पूरा कि। इस मायने में सफर का आदि औऱ अंत दोनों अपने अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य के साथ मन को आह्लादि करता और चित को एक नई दुनिया में विचरण की अनुभूति देता रहा। इस तरह एक सुखद स्मृति के साथ हम हरिद्वार पहुंचे। रास्ते में केप्र किए गए इसके अलग-अलग नजारे अवश्य इन यादों को ताजा करते रहेंगे।


जब ट्रेन हरिद्वार पहुंची तो, सूर्य भगवान पश्चिम की ओऱ अस्तांचल हो चुके थे। हम इसके विपरीत, ऑटो में उत्तर की ओर बढ़ रहे थे। ललिताराव पुल पार करते ही गंगनहर को पूरे वेग के साथ वहते देख चित्त पुलकित हो उठा। हरिद्वार से प्रस्थान करते समय जो हरकी पौड़ी जल के अभाव में (गंगनहर वार्षिक क्लोजर के कारण) विरान पड़ी थी, आज पूरी तरह आवाद दिखी। हरकी पौडी पर गंगाजल की निर्मल नील धारा को देखकर मन को शीतल व सकूनदायी स्पर्श मिला। और इसको पार करते हुए खड़खड़ी व गायत्रीतीर्शांतिकुंज से होते हुए अपनी मंजिल पहुंचे।

देवसंस्कृति विवि परिसर तक पहुंचते-पहुंचते शाम हो चुकी थी। विश्वविद्यालय परिसर में शांति पसरी थी। इक्का-दुक्का छात्रों के ही दर्शन हुए। परीक्षा तैयारियों की छुट्टियां चल रही हैं, सो यह स्वाभाविक भी था। प्रज्ञेश्वर महाकाल के दिव्य प्रांगण में श्रद्धानत् होते हुए आगे बढ़े। मुख्य प्रशासनिक भवन और केंद्रीय ग्रंथालय शाम की रोशनी से जगमगा रहे थे, लगा विश्वविद्यालय अभी जाग रहा है। अंधेरे में जगमगाती रोशनी के बीच हम अपने भवन में प्रवेश किए।
इस तरह छः दिन का प्रवास देवकृपा से सकुशल-सुमंगल रहा। फिर फुर्सत के पलों में भावों के सागर में डुबकी लगाकर, यात्रा के अनुभवों को कलमबद्ध करत रह। लगा, जैसे कोलकाता हमारे दिलो-दिमाग में समा रहा है इसकी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत के तो हम शुरु से ही कायल रहे हैं, इस यात्रा ने इसके तार ओर गहरे जोड़ दिए। 
 
यदि आपने यात्रा का पहला भाग न पढ़ा हो, तो आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - हमारी कोलकाता यात्रा, भाग-1

शनिवार, 28 नवंबर 2015

यात्रा वृतांत - हमारी कोलकाता यात्रा - भाग1

भावों के सागर में एक डुबकी


संचार की अवधारणा को लेकर आयोजित एक बौद्धिक संगोष्ठी (कॉन्फ्रेंस) में जाने का संयोग बना, सो अपने दो युवा सहयोगी, सहशिक्षकों के साथ इसमें भागीदारी के लिए कोलकाता चल पड़े। अंतिम समय तक सीट रिजर्व नहीं थी, लेकिन अंतिम कुछ घंटों में रिजर्वेशन कन्फर्म होने के साथ लगा, जैसे दैवी कृपा साथ में है। रात ठीक 1030 बजे दून एक्सप्रेस हरिद्वार से कोलकाता की ओर चल पडी। 

यात्रा की भाव भूमिका -
भावों की अतल गहराई लिए हम इस यात्रा पर जा रहे थे। यही वह वंग भूमि है जिसने हर तरह की विभूतियों से इस भारतभूमि को धन्य किया है और विश्व को अजस्र अनुदान देकर मानवता को कृतार्थ किया है। साहित्य हो या कला, फिल्म हो या स्वतंत्रता संग्राम - हर क्षेत्र में इसके विशिष्ट योगदान रहे हैं, और सर्वोपरि धर्म-अध्यात्म क्षेत्र में तो इसका कोई सानी नहीं। श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद, परमहंस योगानंद, स्वामी प्रण्वानन्द, कुलदानंद व्रह्मचारी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी विशुद्धानंद, महायोगी श्री अरविंद, सुभाषचंद्र बोस, रविंद्रनाथ टैगोर, विपिन चंद्र पाल,....इस वीर प्रसुता दिव्य भूमि, इस तीर्थ क्षेत्र को देखने के गहरे भाव के साथ यात्रा शुरु हो चुकी थी। कॉन्फ्रेंस एक वहाना थी, लेकिन इसमें भी हम एक विद्यार्थी के ज्ञान पिपासु भाव के साथ अपने विषय क्षेत्र के नए आयामों को जानने व एक्सप्लोअर करने के भाव के साथ जा रहे थे।

दून एक्सप्रेस मेें बीते तप-योगमय लम्हे
सीट अपर बर्थ में होने के कारण हिलने-ढुलने की, डिग्री ऑफ फ्रीडम, सीमित रही, ऊपर से दून एक्सप्रेस का आदिम ढांचा इसे ओर सीमित किए रहा। काफी कुछ एक कालकोठरी में वंद होने का अहसास होता रहा। अपर बर्थ अपनी ऊँचाई के साथ न्याय नहीं कर पा रहा था। लेट कर सफर के अलावा कोई विकल्प नहीं था। रात लेटे लेटे ही बीती। अगला दिन भी लगभग ऐसे ही बीता। मोवाइल में नेटवर्क की प्रोबलम और कुछ टाटा डोकोमो की कृपा से बाहरी संसार से संपर्क कट चुका था, अपने साथियों के साथ खाते पीते, चर्चा करते हुए सफर में आगे बढ़ते रहे। शाम के 7 बजे हम बनारस पहुंच चुके थे। वहां ट्रेन काफी देर रूकी। यहां की वाइ-फाई सुविधा का लाभ लेते हुए थोडी देर के लिए अपने खोए संसार से कुछ पल के लिए जुड़ गए।
  
अगले दिन कोलकाता से पहले बर्धमान तक कुछ सवारियां उतर चुकी थी, सो साइड लोअर बर्थ पर सीट मिलने से खिड़की से वंगाल के ग्रामीण आंचल को देखने का मौका मिला। इस रास्ते से दिन के उजाले में यह पहला सफर था, सो बाहर के दिलकश नजारों को निहारते रहे और यथा संभव कैमरे में केप्चर करते रहे। हर गांव, हर कस्वे, हर घर के बाहर तलाब-तलैया और नारियल-ताड़ी के पेड़ हमारे लिए एक रोचक दृश्य़ थे। खेतो में धान कट चुकी थी। कटी धान की ढेरियां कहीं कहीं दिख रही थी। आगे कोलकाता की ओर बढ़ते गए तो धान के हरे भरे खेत लहलहाते मिले। पता चला की यहां बारहों महीने खेत में चाबल की खेती होती है।  

ट्रेन में मच्छी-भात क्लचर से परिचय -
अब तक हमारा परिचय कोलकाता में किसी कंपनी में पिछले तीन दशक से काम कर रहे सज्जन जनार्दन साहब से हो चुका था। इनसे अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए, अपनी जानकारी में बृद्धि करते रहे। पता चला मच्छी-भात यहां लोगों का प्रिय डिश है। मच्छली को शाकाहार माना जाता है, यहां तक कि किन्हीं पूजा में तक इनका प्रयोग होता है। हमारी जिज्ञासा गहरी हो चुकी थी कि मच्छली शाकाहार कैसे हो सकती है। समीपतम जबाब था कि एक मच्छली घास पत्ते भर खाती है, सो उसे शाकाहारी मच्छली माना जाता है, और उसे खाने में कोई परहेज नहीं रहता। खैर हमें इतना समझ आ रहा था कि देश काल परिस्थिति के अनुरुप, स्थानीय मजबूरियों के अनरुप भोजन की आदतें तय होती हैं। जैसे बर्फीले दूरस्थ ठंडे इलाकों में जहां शाक-अन्न दुर्लभ होते हैं, वहां मांस व देसी दारु का सेवन प्रायः लोक प्रचलन रहता है।

हावड़ा स्टेशन पर यागार पल -
 
ट्रेन अढाई घंटे लेट थी, सो सुबह 7 की बजाए हम दिन के 0930 बजे कोलकाता के हाबडा स्टेशन में पहुंचे। यहीं रेल्वे ट्रेक का अंतिम छोर है। सो आश्चर्य नहीं कि सीध स्टेशन के अंदर से ही वाहनों को बाहर निकलते देखा। लेकिन हमारे ठहरने की व्यवस्था स्थानीय परिजन के घर पर हो चुकी थी, सो उनके आते ही साथ चल दिए।

स्टेशन में अंदर चहल-पहल और भीड़ थी। बंगला और अंग्रेजी में लिखे बोर्ड, होर्डिंग और विज्ञापन देखकर लग रहा था कि हम वंग भूमि में पदार्पण कर चुके हैं। स्टेशन से वाहर आते ही इसके भवन के अंग्रेजकालीन भव्य आर्किटेक्ट को निहारते रहे। सच में अंग्रेजों के हम कुछ मामलों में कितने ऋणी हैं। भवन के रंग से मैच करती पीले रंग की टेक्सियां यहां की पुरातन विरासत की जीवंतता का पहला अहासस दे रही थी। हालांकि पता चला कि अब इनके समानान्तर ओला और उबर जैसी टेक्सियों का चलन भी बढ़ रहा है, जो पर्यटकों की बढ़ती संख्या व सुविधा के अनुरुप उचित भी है। 

पुरातन विरासत को समेटे कोलकाता के दर्शन -
स्टेशन से वाहर निकलते ही हावड़ा पुल के दर्शन हुए। विशालकाय पुल, अपने विचित्र एवं अद्वितीय रचना के कारण यात्रियों के मन में एक अलग ही छाप छोड़ जाता है। पुल के नीचे से गुजरती, अपनी मंजिल (सागर) की ओर बढ़ती अलमस्त हुगली नदी (गंगा जी मुख्य धारा) अपने विराट वैभव के साथ श्रद्धानत कर देती है। पुल को पार करते ही सीधा बड़ा बाजार आता है, जिसे, कोलकाता का दिल कहा जाता है, रविवार होने के नाते आज भीड़ न के बरावर थी। अन्यथा यहाँ सड़क पर तिल धरने की जगह नहीं रहती और यहां का जाम तो खासा चर्चा का विषय है। यहां की खुली सड़कों को देखकर नहीं लग रहा था कि हम किसी मैट्रो शहर में हैं और पर से प्राचीन कई मंजिले देसी भवन, जिनका इतिहास सौ से दो सौ वर्ष पुराना तो रहा ही होगा। 

इतिहास से रुबरु होने के बहाने हम शहर की एक लोकप्रिय चाय की दुकान पर रुके। यहां अभी भी चाय बनाने औऱ पिलाने की सौ साल पुरानी परम्परा निभायी जा रही है अंगारों की अंगीठी-चूल्हे पर पानी गर्म हो रहा था, दूसरे वर्तन में चाय मसाला तैयार हो रहा था। तीसरे वर्तन में ग्राहकों के हिसाब से ताजा चाय तैयार की जा रही थी। और फंटाई के साथ इसे कुल्हड़ में परोसा जाता है। पता चला कि दुकान सिर्फ रात को बारह से अढाई बजे तक ही बंद होती है, बाकि के 20-22 घंटे यहां चाय बनती रहती है। परम्पराओं से जुड़े शहर के तार दिल को छूने बाले लगे, जिनके बाकि दिगदर्शन अभी होने शेष थे।

पुरातन विरासत पर आधुनिकता की चादर ओढ़त शहर -
बड़ा बाजार से बाहर निकलते ही रास्ते में सडक पर दौड़ती ट्राम दिखी, जिसकी शायद बदलते जमाने के साथ मैट्रो युग में कोई प्रासांगिकता नहीं है, लेकिन शहर का परम्परा के निर्वाह से प्रेम यथावत जारी दिखा। कोलकाता की गली मुहल्लों के बारे में जो बातें उपन्यासों में पड़े थे, वे हुबहू बैसे ही यहां जीवंत दिख रह। आधुनिकता की दौड़ में अभी भी शहर बहुत कुछ अपनी विरासत को संजोए हुए है। अंग्रेजों के समय में सड़कों में बिछी जल पाइपें व इनसे फूटते पानी के फब्बारे सड़कों का साफ कर रहे थे। अब तक हम बाहर आ चुके थे, आधुनिकता को गले लगाते कोलकाता के दर्शन हो रहे थे। हम वीआईपी सड़क से गुजर रहे थे। फलाई ओबर पता तला शहर की लाइफ लाईन है, जहां जाम से मुक्त रास्ते पर गाड़ी को सरपट दौड़ा सकते हैं, नहीं तो कोलकाता का जाम जिंदगी की गति को ठहराए रहता है। रास्ते में टाबर से होते हुए आगे बढ़े। राह में परिजन के मिशन से जुड़ने की बातें, आचार्यश्री से जुड़े भाव विभोर करते संस्मरण सुनते रहे और यात्रा से जुड़े दैवीय प्रवाह को अनुभव करते रहे। रास्ते में प्रदूषण का बढ़ता स्तर थोड़ा परेशान जरुरत करता रहा। डस्ट व धुंएं की हल्की चादर ओढे शहर पर आधुनिकता का दंश, बढ़ते बाहनों की मार साफ झलक रही थी।
रास्ते में पानी की नहर मिली, पानी काफी गंदा दिख रहा था, लेकिन नोएडा-दिल्ली की सडांध-बदबू से मुक्त दिखा। पता चला यह अंग्रेजों द्वारा निर्मित गंग नहर का जल है, जो पूरे कोलकाता को पार करते हुए आगे बांगला देश तक वहता है। पता चला कि ऐसे जल में मछलियाँ खूव पलती हैं औऱ मछली यहाँ का प्रमुख आहार हैं। रास्ते में ठेले पर हर वेरायटी की मछलियों को देखने का मौका मिला। कुछ इंच से लेकर कई हाथ लम्बी। कुछ तो वर्तन के पानी में तैर रही थी। कुछ मूँछ वाली तो कुछ कांटे व टांगों बाली। यहाँ का मछली प्रेम जिसका जिक्र हम ट्रेन में सुन चुके थे, यहां की मच्छली मार्केट को देखकर प्रत्यक्ष दिख रहा था।

दक्षिणेश्वर की एक शाम -
क्षेत्रीय परिजन के घर में पारिवारिक माहौल, आत्मीय व्यवहार के बीच हम रिलेक्स हुए। चाय के साथ चार बातें कर नहा धोकर तैयार हो गए। भोजन के बाद कुछ विश्राम किए और आज पूरी शाम हमारे पास थी, सो इसका सदुपयोग करते हुए दक्षिणेश्वर का प्रोग्राम बनाए। चलते-चलते शाम हो चुकी थी, सो दक्षिणेश्वर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा छा चुका था। गाड़ी के पार्किंग स्थल से ही ताड़ के झुरमुटों के पार रोशनी में जममगा रह मंदिर का आलौकिक दृश्य मंत्रमुग्ध कर रहा था। आज उस तीर्थ स्थल के दर्शन का दुर्लभ संयोग बन रहा था, जो रामकृष्ण परमहंस की लीला भूमि – तपःस्थली रही है। हाँ मां काली से ठाकुर का सीधा संवाद होता था। यहीं नरेंद्र की माँ से भक्ति-शक्ति और विवेक-वैराग्य का संवाद हुआ था। इसी तीर्थ की पंचवटी में ठाकुर साधना करते थे और युवा शिष्यों को रात के एकांत में साधना करने के लिए प्रेरित करते थे। इसी तपःस्थली में ठाकुर ने विभिन्न धर्मों के आध्यात्मिक सत्य को जांच-परख कर सभी धर्मों के आध्यात्मिक सत्य को सिद्ध किया था।
जैसे ही हम आगे बढ़ते हैं, भक्तों की अनुशासित भीड़, मंदिर के भव्य शिल्प, द्वादश ज्योतिर्लिंगों के मंदिर और सामने रोशनीं में जगमगाता दक्षिणेश्वर काली मंदिर – स मिलाकर एक जीवंत-जाग्रथ तीर्थ की अनुभूति करा रहे थे। दर्शन के लिए लाइन काफी लंबी थी, लेकिन मंडप से मां के दर्शन के साथ हम कृतार्थ हुए और ठाकुर (रामकृष्ण) के कक्ष में माथा टेककर बापिस चल दिए। समय अभाव के कारण गंगा स्नान व बाकि कार्य़क्रम अगली यात्रा के लिए छोड़कर, अगले पड़ाव की ओऱ बढ़ चले।
गायत्री साधकों के बीच -
यह क्षेत्रीय गायत्री परिजनों की रविवारीय गोष्ठी में भागीदारी थी। यहां हर रविवार को सामूहिक सतसंग व पंचकोशीय साधना का सत्र चलता है। स्थानीय परिजनों द्वारा अपने नैष्ठिक प्रयास से चलाए जा रहे सत्साहित्य प्रसार के सुंदर प्रयास को नजदीक से देखा। आचार्य़श्री द्वारा प्रवर्तित बानप्रस्थ परम्परा यहां जीवंत दिखी। आचार्यश्री का मत था कि गृहस्थ को नौकरी-पेशा व अपने पारिवारिक दायित्व से मुक्त होने के बाद अपना समय आत्म-साधना व लोक सेवा में नियोजित करना चाहिए। अपने ज्ञान व अनुभव से समाज में सत्प्रवृति संबर्धन व दुष्प्रवृति उन्मूलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। यही आत्मसंतुष्टि, लोकसम्मान और दैवी अनुग्रह का राजमार्ग है। अपने परिवार, स्वार्थ और अहंकार तक सीमित मोह-लोभ ग्रस्त रिटायर्ड जीवन, मानवीय गरिमा को व्यक्त नहीं कर सकता।  

केंद्र के परिव्राजक के साधना-स्वाध्याय व सेवा मय जीवन और सत्साहित्य को घर-घर तक पहुंचाने के लिए चल रहे प्रसाय सर्वथा प्रेरक व अनुकरणीय लगे। आधे दाम में अब तक हजारों प्रेरक पुस्तकों को बांट चुके हैं। हर रविवार को यहाँ सामूहिक सतसंग व पंचकोषीय साधना का सत्र चलता है। युवा परिव्राजक इसमें सराहनीय योगदान दे रहे हैं। यदि ऐसे प्रयोग हर प्रज्ञापीठ-शक्तिपीठों व देवालयों में चल पड़ें तो हर देवस्थल जीवंत जाग्रत तीर्थ के रुप में अपने क्षेत्र को संस्कारित करने में समर्थ भूमिका निभा सके। क्षेत्रीय परिजनों के संस्मरणों को देखकर साफ झलकहा था कि गुरुस्ता का आश्वासन, कि तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे, आज भी कसौटी पर खरा उतर रहा है और परिजन पूरी निष्ठा के साथ अपना अकिंचन सा ही सही, कितु भाव भरा नैष्ठिक योगदान दे रहे हैं।....जारी, 
यात्रा का अगला व अंतिम भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - कोलकाता यात्रा, भाग-2, भावों के सागर में डुबकी

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार, भाग-2 (समापन किश्त)



 बचपन की मासूम यादें और बदलते सरोकार

(गांव के नाले व झरने से जुड़ी बचपन की यादें पिछली ब्लॉग पोस्ट में शेयर हो चुकी हैं।) इनके पीछे के राज को जानने की चिर-इच्छा को पूरा करने का सुयोग आज बन रहा था। सुबह 6 बजे चलने की योजना बन चुकी थी। सो उठकर सुबह की चाय के साथ हम मंजिल के सफर पर चल पड़े। आज उपवास का दिन था, सो झोले में अपनी स्वाध्याय-पूजा किट के साथ रास्ते के लिए अखरोट, सेब, जापानी फल जैसे पाथेय साथ लेकर चल पड़े। 

आज हम उसी रास्ते से दो दशक बाद चल रहे थे, जिस पर कभी गाय भेड़ बकरियों के साथ हम छुट्टियों में जंगल के चरागाहों, घाटियों, वुग्यालों में जाया करते थे। अकसर जुलाई माह में 1-2 माह की छुट्टियां पड़ती, तो गाय चराने की ड्यूटी मिलती। आज दो दशकों के बाद इलाके के मुआयने का संयोग बन रहा था, सो आज इस अंतराल में आए परिवर्तन को नजदीक से देखने-अनुभव करने का दिन था। घर से पास में सटे नउंड़ी-सेरी गांव से गुजरते हुए आगे के विराने में पहुंचे। गांव में सभी घर पक्के दिखे। साफ सुथरे, रंगों से सजे, आधुनिक तौर तरीकों से लैंस। विकास की व्यार यहाँ तक साफ पहुंची दिख रही थी। 

इसके आगे, कझोरा आहागे पहुंचे, जहाँ से पानी का वंटवारा होता था। घर-गाँव में खेतों की सब्जी के लिए पानी यहीं से आता था। यह गांव का छोटा नाला था, जिसका पानी थोडी दूर नीचे मुख्य नाले में मिलता है, जिसका जिक्र पिछली ब्लॉग पोस्ट में हो चुका है। नाउंड़ी सेरी गांव से होते हुए कच्ची पगड़ंडी के सहारे पानी घर की कियारी तक लगभग 15-20 मिनट में पहुंच जाया करता था। यही आगे बढ़ने का पड़ाव और वापसी का विश्राम स्थल था। यहीं चट्टान के ऊपर बैठ कर विश्राम, खेल हुआ करते थे, यहीं से गाय-भेडों का काफिला आगे जंगल के लिए कूच करता था और शाम को बापिसी में यहीं कुछ पल विश्रांति के बाद घर वापसी हुआ करती थी। आज यह स्थल खेतों एवं सेब बगानों की जद में आ गया है, पुराना नक्शा गायब दिखा। बचपन की यादें बाढ़ें में बंद दिखीं। आज पूरा मैदान, पूरा क्रीडा स्थल गायब था। आगे बढ़ते गए, पानी का टेंक यथावत था, लेकिन इसके इर्द-गिर्द की बंजर जमीं, सीढ़ी दार खेत, मैदान नादारद थे।

वह घास के खेत, क्यारियों, जंगल, वियावन सब गायव थे, पत्थरों की दिवालों में कैद। इनमें सेब व दूसरे फलों के बाग लहलहा रहे थे। लगा आवादी का दवाव, कुछ इंसान के विकास का संघर्ष, तो कुछ लोभ का अंश। सबने मिलजुलकर बचपन की मासूम समृतियों पर जैसे डाका डाल दिया है। विकास का दंश साफ दिखा। वह प्राकृत अवस्था नादारद थी, जिसकी मिट्टी में हम खेलते-कूदते अपने मासूम बचपन को पार करते हुए बढ़े हुए थे।

यह क्या सुवह सुवह ही गांव की कन्याएं पीठ में घास की गठरी लादे नीचे उतर रही थी। निश्चित ही ये प्रातः अंधेरे में ही घर से निकली होंगी, साथ में इनके भाई औऱ माँ। यह, यहाँ की मेहनतकश जिंदगी की बानगी थी, जो ताजा हवा के झौंके की तरह छू गई। इसके साथ ही याद आए बचपन के वो दिन, जब हम यदा-कदा बान जंगलों में घास-पत्तियों को लाने के लिए घर के बढ़े-बुजुर्गों के साथ इसी तरह सुबह अंधेरे में निकल पड़ते थे और सूर्योदय से पहले ही घर पहुंच जाया करते थे। पहाड़ों पर ऊतार-चढाव भरी मेहनतकश जिंगदी और साफ आवो-हबा शायद एक कारण रही, जो यहाँ के लोग, औसतन शहरी लोगों से अधिक स्वस्थ, निरोग और दीर्घायु थे। गांव में शायद की कोई व्यक्ति रहा हो जिसे मधुमेह, ह्दयरोग. मोटापा या ऐसी जीवनशैली से जुड़ी बिमारियों का शिकार होता था। लेकिन आज नक्शा बदल रहा है, नयी पीढ़ी में श्रम के प्रति निष्ठा क्रमशः क्षीण हो रही है और जीवन शैली अस्त-व्यस्त व असंयमित। जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं-रोग सर उठा रहे हैं।

अब तक हम कझोरे नाले के समानान्तर चढ़ाई चढ रहे थे। अब इसको पार कर हल्की चढ़ाई के साथ उस पार मुख्य नाले तक पहुँचना था, जो गांव के झरने के पीछे का मध्यम स्रोत है। छाउंदर नाले के रुप में जेहन में बसा यह स्थान हमारी स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। इससे जुड़ी कई रोचक, रोमांचक यादें गहरे अवचेतन में दबी, आज इस ओर बढ़ते हुए ताजा हो रही थीं। मार्ग में गांव का विहंगम दृश्य उपर से दर्शनीय था। सामने पहाड से सुबह का सूर्योदय नीचे उतर रहा था। कुछ मिनटों में विरान मार्ग पार हो गया, रास्ते में कंटीली केक्टस की झाड़ियों में खिले सफेद पुष्प गुच्छ ताजगी का अहसास दिला रहे थे। सडक के दोनों ओर वही नजारा था। राह के विरान, बंंजर चरागाह अब खेत- बागानों में बदल चुके थे। थोड़ी ही देर में हम छाउंदर नाला पहुंच चुके थे।

यहीं से होते हुए गांव का मुख्य नाला नीचे रुपाकार लेता है। इस तक का रास्ता नीचे खरतनाक खाई और उपर भयंकर चट्टानों के बीच से होकर गुजरता है। जीवन-मरण के बीच की पतली रेखा इस मार्ग में कुछ पल के लिए कितनी स्पष्ट हो जाती है। रास्ता पूरा होते ही फिर नाले का कलकल करता स्वच्छ निर्मल जल आता है। इसी पर घराट बने हैं। सरकार के जल विभाग द्वारा इस पर विशेष पुल तैयार किया गया है और बर्षा बाढ़ से रक्षा के लिए चैक डैम। यहीं से कई पाइपें नीचे चट्टानों से उतरती दिखीं, जो पता चला कि सुदूर खेतों व बागों के लिए सिंचाई के लिए कई कि.मी. मार्ग तय करती हुई जाती हैं।

नाले के उस पार खड़ी चढ़ाई को चढ़ते हुए मंजिल की ओर आगे बढते गए। इस ऊँचाई पर गांव पीछे छूट चुके थे। ऐसे विरान में भी अकेला घऱ, बाहर आंगन में काम करते स्त्री-पुरुष, खेलते बच्चे। इस ऊँचाई में एकांतिक जीवन का रुमानी भाव जाग रहा था। कितना शांति रहती होगी यहाँ इस एकांत शांत निर्जन बन में। सृजन व एकांतिक ध्यान-साधना के लिए कितना आदर्श स्थल है यह। लेकिन साथ ही यह भी लगा कि यह सब संसाधनों के रहते ही संभव है। यदि खाने-पीने व दवाई-दारु का अभाव रहा तो यहां जीवन कितना विकट हो सकता है। आपातकाल में यहाँ कैसे जुरुरी साधन-सुविधाएं जुटती होंगी। इसी विचार के साथ आगे की कष्टभरी चढ़ाई चढ़ते गए।

पसीने से बदन भीग रहा था, सांसें फूल रहीं थी। हल्का होने के लिए बीच-बीच में अल्प विराम भी लेते। अभी पहाड़ी पगडंडियों को मिलाते तिराहे पर बने चट्टानी आसन पर विश्राम कर रहे थे। पहाड़ में इधर ऊधर बिखरे घरों में दैनिक जीवनचर्या शुरु हो चुकी थी। रास्ते में गाय बछड़ों के साथ खेतों की ओर कूच करते महिलाएं, बच्चे, पुरुष मिलते रहे। अब हम पहाड़ के काफी पीछे आ चुके थे। नीचे की घाटी पीछे छूट चुकी थी। मुख्य नाला वाईं ओर गहरी खाई में गायव था। सामने फाड़मेंह गांव के माध्यमिक स्कूल का भवन दिख रहा था। कभी इस गांव के बच्चे रोज हमारे गांव के स्कूल में 3-4 किमी सीधी खडी उतराई, चढाई को पार कर आते थे। आज गांव के अपने स्कूल में बच्चों की इस दुविधा का समाधान दिखा। 

यहां से थोड़ी की चढाई के बाद हमे मुख्य मार्ग में पहुंच चुके थे। यह इन दो दशकों में हुआ बड़ा विकास दिखा। अब इस इलाके के अंतिम गांव तक सड़क पहुंच चुकी है। हम इसी सड़क तक पहुंच चुके थे। पहले कभी इन गांव से फलों को क्रेन के माध्यम से नीचे पहुंचाया जाता था, आज इन सड़कों में जीप-ट्रोली के माध्यम से सेब-सब्जियां मंडी तक ले जायी जा रही हैं। गांव के युवा अपनी वाइकों में स्वार होकर यहां से सीधा शहर-कालेज जा रहे हैं। घर निर्माण के संसाधन सहज होने के कारण गांव का नक्शा बदल चुका है। विकास की व्यार इन सुदूर गांव तक स्पष्ट दिखी। पीने का साफ जल, बिजली, सड़क के साथ टीवी-नेट सुबिधाएं सब यहां सहज सुलभ हैं।

इस सड़क के साथ कुछ दूर चलने के बाद हम फिर पगडंडी के साथ होते हुए मंजिल की ओर बढ़ चले। अब फिर सीधी खड़ी चढाई थी। रास्ता बहुत ही संकरा और फिसलन भरा, हमारे लिए कठिन परीक्षा थी, लेकिन यहां के क्षेत्रीय लोग तो यहाँ पीठ में बोझा लादे भी सहज ढंग से चढ़-उतर रहे थे। रास्ते में जल का शीतल-निर्मल स्रोत मिला, जो यह मार्ग की प्यास व थकान को दूर करने बाली औषधी सरीखा था। यह किसी भी तरह बोतलों में बंद मिनरल वाटर से कम नहीं था, बल्कि अपने प्राकृत औषधीय गुणों व स्वाद के कारण उससे बेहतर ही लगा। क्षेत्रीय लोगों का कहना है कि यह भूख को बढाता है और पाचन प्रक्रिया को तेज करता है। हमारा अनुभव भी ऐसा ही रहा।

थोडी ही देर में हम मंजिल पहुंच चुके थे। दूर नीचे घाटी का विहिंगम दृष्ट दर्शनीय था। पहाड के निर्जन गाँव नीचे छूट चुके थे औऱ यहां से इनका विहंगम दृश्य दर्शनीय था। पीछे गांव के नाले का मूल स्रोत रेउंश झरना अपनी मनोरम छटा के साथ अपने दिव्य दर्शन दे रहा था। गावं के पवित्र ईष्ट देव, स्थान देवों की पुण्य भूमि सामने थी। बचपन में जिन पहाड़ों को निहारा करते थे, देवदार से लदे वे पर्वत सामने थे। इस देवभूमि में सुबह का सूर्योदय होने वाला था। आसन जमाकर, हम इन दुर्लभ क्षणों को ध्यान की विषय बस्तु बनाकर अपने जीवन के शाश्वत स्रोत से जुड़ने की कवायद करते रहे। सूर्य की किरणें पूरी घाटी में ऊजाला फैला रही थी, हमारे शरीर-प्राण की जड़ता को भेदकर कहीं अंतरमन में गहरे उतर रही थीं।
आज हम गांव के नाले व झरने के स्रोत के पास ध्यान मग्न थे। इसकी गोद में विताए बचपन के मासूम दिनों को याद कर रहे थे, इसके बाद बीते दशकों की भी भाव यात्रा कर रहे थे। कैसे कालचक्र जीवन को बचपन, जवानी, प्रौढावस्था के पड़ाव से ले जाते हुए बुढ़ापे कओर धकेल देता है। परिवर्तन के शाश्वत चक्र में सब कैसे सिमट जाता है, बीत जाता है, खो जाता है। लेकिन साथ रहता है तो शायद वर्तमान। उसी वर्तमान के साथ हम भूत को समरण कर, भविष्य का ताना-बाना बुन रहे थे। अब आगे क्या होगा यह तो साहब जाने, हम तो नेक इरादों के साथ इस जीवन की यात्रा को एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचाने के भाव के साथ यहाँ खुद को खोजने-खोदने आए थे।

बापसी में इसी सीधी उतराई के साथ नीचे उतरे। छाउंदर नाले के पास केकटस की कंटीली झाड़ियों के पके मीठे फलों का लुत्फ लेते हुए, फिसलन भरी घास के बीच नीचे उतर कर गांव के हनुमान मंदिर पहुंचे। मंदिर में माथा टेकते हुए बापिस झरने व नाले की गोद में पहुँचे। आज की यात्रा पूरी हुई, जिसकी स्मृतियां हमेशा याद करने पर भावनाओं को उद्वेलित करती रहेंगी। अपने साथ कई सवाल भी छोड़ गई, जिनका समाधान किया जाना है। एक मकसद भी दे गई, जिसको समय रहते पूरा करना है।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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