गुरुवार, 28 मई 2015

मेरी पहली कुमाऊँ यात्रा-भाग 2



अल्मोड़ा से मुनस्यारी, मदकोट




दौलताघट से अल्मोड़ा की ओर दौलताघट से हम लोक्ल बस से होते हुए अल्मोड़ा की ओर चल दिए। हालांकि हम रानीखेत के विपरीत चल रहे थे, लेकिन मोड़ पर रानीखेत की ओर की हिमध्वल पर्वत श्रृंखलाएं घाटी के पार एक मनोरम
नजारा पेश कर रही थी।


कोसी नदी के किनारे, चीड़ के जंगलों के बीच हम कुछ ही मिनटों में अल्मोड़ा पहुँचे। यहाँ से जीप टेक्सी में मुनस्यारी के लिए चल पड़े। रास्ते में चित्तई के गोलू देवता और गायत्री शक्तिपीठ को प्रणाम करते हुए आगे बढ़े। गोलू देवता यहाँ के लोकप्रिय स्थानीय देवता हैं। आगे रास्ते में चीड़ के जंगल बहुतायत में मिले। हालांकि दृश्यावली सुंदर थी, लेकिन ये सर्वश्रेष्ठ विकल्प नहीं थे। क्योंकि जितना अल्पज्ञान हमें है, उसके अनुसार, चीड़ के बन पहाडों में आग का प्रमुख कारण हैं। इनसे बिरोजा का लाभ जरुर मिलता है, लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से ये आदर्श नहीं हैं। फिर ये पानी का बहुत अवशोषण करते हैं। एक बिरोजा के लाभ के लिए पूरे पहाड़ों को चीड़ के जंगलों से पाटना कौन सी दूरदर्शिता का काम है, यह हमारी समझ से परे रहा। चीड़ के जंगलों के बीच सफर करते हुए इसके कर्णधारों के बौद्धिक दिवालिएपन पर तरस आता रहा और कुछ आक्रोश का भाव भी पनपता रहा। इनकी जगह बान, देवदार से युक्त अन्य मिश्रित बनों को यहाँ लगाया जा सकता था, जिससे यहाँ के सौंदर्य में चार चांद लगते, जल संरक्षण होता, मिट्टी पर पकड़ बनती, क्षेत्रीय लोगों के लिए चारा, इंधन के विकल्प मिलते और प्राँत के सर्वाँगीण विकास की एक नयी धारा बहती।
 

राह में घाटियों और कई पर्वतों के पार सुदूर पंचाचूली पर्वत श्रृंखला की झलक भी मिल चुकी थी, इन हिमध्वल श्रृंखलाओं में एक सुई की तरह तीखी चोटी, जो सबसे बड़ी भी थी, एक श्रद्धा मिश्रित रोमाँच का भाव जगा रही थी। रास्ते में मोड व पहाड़ियों के बीच इसके लुकाछिपी भरे दर्शन कुछ दूर तक होते रहे, जिसको निहार कर हम रोमाँचित होते रहे। लगा जब इतनी दूर से इतने शानदार दर्शन हो रहे हैं, पास से, मुनस्यारी पहुँचने पर कैसा नजारा दिखेगा। इसके दूरदर्शन के साथ नागाधिराज हिमालय से सहज ही ये प्रार्थना के भाव फूट रहे थे कि इस देवभूमि के लिए एक विकास पुरुष का इंतजार कब तक करना पड़ेगा, जो बिजनरी हो, जिसके पास यहाँ के बहुमुखी विकास की समग्र समझ हो और जो यहाँ के पलायन को रोक कर, विकास की नयी धारा बहा सके। हालाँकि कई विकास पुत्रों का भावभरा सहयोग इस देवभूमि के कायाकल्प के निमित अपेक्षित है।

जीप में पहाड़ी गीतों और हिंदी फिल्मी गीतों की धुन के साथ रास्ते का सफर खुशनुमा रहा। टेडे-मेढ़े रास्तों के साथ घाटियों की उतराई-चढाई का क्रम काफी एडवेंचर भरा लगा, जिसके लिए रफ-टफ तन-मन की जरुरत महसूस हुई। नाजुक यात्रियों के लिए यह सफर कष्टप्रद ही साबित होगा, ऐसा स्पष्ट था। इसी तरह हम नदी के किनारे किनारे थल नामक स्थान पर पहुँचे। यहाँ रामगंगा नदी की निर्मल जल की नीली धार को देख मन निर्मल हो गया। इतना साफ जल, ऐसा लग रहा था कि जैसे सीधे गलेशियर से निकलकर यह जल आ रहा हो। पानी इतना साफ था कि नीचे पत्थर स्पष्ट दिख रहे थे और इसमें तैरती मछलियां भी। किराए के बाहन की मजबूरी थी कि इस जल का पान करने और इसमें डूबकी के अरमान अधूरे ही रह गए।

इस नदी के किनारे सफर आगे बढ रहा था। रास्ते में ऊर्बर खेत मिले। लेकिन वही विडम्बना दिखने को मिली जिसकी चर्चा मैं कर चुका हूँ। आर्थिक स्वावलम्बन देने वाले फल सब्जी के व्यापक प्रयोग से यह उर्बर क्षेत्र बंचित दिखा।
रास्ते में ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों के दर्शन शुरु हो चुके थे और घाटी संकरी होती जा रही थी। लग रहा था अब हम उच्चतर हिमालय की गोद में प्रवेश करने जा रहे हैं। रास्ते में ही शिवलिंग जैसे पर्वत शिखर के दर्शन हुए। इनकी गोद में ऊँचाई में बसे गाँव एक रूमानी भाव जगा रहे कि वहाँ का एकांतिक जीवन कितना शांति-सुकून भरा होता होगा। 

इस घाटी के मार्ग में भूस्खलन के कारण रामगंगा में एक झील बनी मिली। आगे बढ़ते हुए हम एक गिरगांव घाटी में प्रवेश कर चुके थे, जिसके पीछे ऊँचे-ऊँचे पर्वत दिख रहे थे। पता चला की हमें इनको पार कर उस पार जाना है। घाटी के छोर पर टैक्सी अब मुड़कर मोढ़दार, घूमाबदार सड़क के संग ऊपर चढ़ रही थी। इस घाटी में एक नयी चीज ध्यान आकर्षित कर रही थी, वह थी फूलों से लदे पाजा के पेड़। पूरी घाटी इनसे गुलजार थी। गाँव में इनके गुलाबी पेड़ यहाँ की सुंदरता को चार चाँद लगा रहे थे। बागवान भाई से  पता चला कि ये चैरी की जंगली बेरायटी है। इस पर चैरी की कलम कर चैरी फल को उगाया जा सकता है। लेकिन इस क्षेत्र के लोगों को इस तरह की कोई जानकारी नहीं थी। यहाँ के कृषि एवं वागवानी शोध केंद्र से यह जानकारी क्यों नहीं पहुँच रही, यह आश्चर्य करने वाली बात थी। 

आगे हम पहाड़ी नाले को पार कर पहाड़ पर उपर चढ़ रहे थे। नीचे सीधी ढलान और गहरी खाई एक खत्तरनाक दृश्य थी। अगर गल्ती से गाड़ी एक भी इंच इधऱ ऊधऱ खिसकी तो क्या होगा, कल्पना भी रोंगटे खडे करने वाली थी। लेकिन यहाँ के पहाड़ी चालक बहुत ही कुशलता से हर मोड़, भूस्खलन से बिगड़ी ऊबड़ खाबड़ तंग सड़क को बडी कुशलता से पार कर रहे थे। इनको देख एक सबक मिल रहा था कि यदि ध्यान सारा रास्ते, लक्ष्य पर केंद्रित हो तो फिर भय को घुसने का प्रवेश द्वार ही न मिले। मार्ग से ध्यान हटाकर भय के ही चिंतन करने पर यह हम पर हावी हो जाता है और हम भय के वशीभूत हो जाते हैं।

अब हम उच्चतर हिमालय में पहुँच चुके थे। गगनचुम्बी देवदार के बृक्ष इसका आभास दे रहे थे। ऊँचाई बढ़ती जा रही थी। अब देवदार के वृक्ष भी बिरल हो रहे थे। रई तोस जैसी देवदार की कोनीफर वृक्षों की प्रजातियाँ और इस ऊँचाई की स्वच्छ-विरल हवा एक नए प्रदेश में विचरण की दिव्य अनुभूति दे रही थी। इनके जंगलों के बीच यात्रा का सुखद अहसास वर्णनातीत है। साथ में पहाड़ी नालों व झरनों का शुद्ध निर्मल औऱ शीतल जल एक ताजगी का अहसास दे रहा था। यह क्षेत्र बहुत ही सुंदर है। आगे सब वृक्ष समाप्त हो चुके थे। केबल भोज वृक्ष शेष थे। यह यहाँ की ऊँचाई को दर्शा रहे थे। भोजपत्र के वृक्ष कोनीफर बनों के बाद ही उगते हैं। अब हम लगभग पहाड़ के शिखर पर थे। उसको पार करने वाला द्वार साफ दिख रहा था। यह लो अंतिम मोड़ और हम शिखर पर थे। दायीं और माँ काली का मंदिर था। कई बसें, बाहन खड़े थे।
हमारी जीप भी यहाँ रुकी। इस प्वाइंट पर काली मंदिर का तत्वदर्शन स्पष्ट हो चला। साक्षात मौत के दर्शन करते हुए सुरक्षित सफर के बाद महाकाली को धन्यवाद करने हम भी मंदिर में पहुंचे व माथा टेके। यहीं बाहर आंगन में बाबाजी के भी दर्शन हुए। 
  
यहाँ से उस पार पंचाचूली शिखर साफ दिख रहे थे और इतना पास, जिनका विहंगम दृश्य अवलोकनीय था। यहाँ कुछ यादगार फोटो भी लिए। ढाबे में गर्मागर्म चाय के साथ सर्दी का उपचार किया। शाम ढल रही थी। ढलती शाम के साथ हमारा सफर भी पूरा होने वाला था। अब मुनस्यारी शहर कुछ ही कि.मी. की दूरी पर था। उस पहाड़ के पार हमे जाना था। जीप देवदार के घने जंगलों के बीच उस पहाड़ को भी पार कर गयी। अब हम नीचे उतर रहे थे, घने जंगल के बीच। अब तक की सबसे सुंदर प्राकृतिक दृश्यावली के बीच सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था। रास्ते में मिश्रित बनों से जड़ा जंगल इस क्षेत्र के समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र का सुखद अहसास दे रहा था।


यहाँ का बन विभाग काफी सक्रिय दिखा, क्योंकि देवदार के नये जंगल बीच में पनप रहे थे। जलस्रोत इतने समृद्ध थे कि निश्चित ही पानी की इस क्षेत्र में किसी तरह की समस्या नहीं दिखी। रास्ते में केंपिंग साइट्स भी मिले, जहाँ तम्बूओं के बीच एडवेंचर प्रेमी रुके हुए थे। बांस के जंगल यहाँ की सुंदरता में इजाफा कर रहे थे। बांज के घने जंगलों के साथ देवदार, मोहरू, बुराँश के पेड़ यहाँ की समृद्ध बन संपदा की झलक दे रहे थे। प्रकृति प्रेमी पर्यटकों के लिए यहाँ का सफर पैसा बसूल सफल साबित हो रहा था।
सामने पंचाचूली पर्वतमाला, नीचे मुनस्यारी घाटी का विंहगम दृश्य उस पार पहाड़ों में बसे गाँव, सब एक आलौकिक सृष्टि का दर्शन करा रहे थे। लो हम घाटी के पहले मंदिर, गायत्री चेतना केंद्र के द्वार पर खड़े थे। शाम हो चुकी थी। और हम अपने गन्तव्य पर पहुँच चुके थे। कल मुनस्यारी को एक्सप्लोर करना था।


मुनस्यारी – यहाँ ठंड बहुत थी। हम ठंड में कुड़कुडा रहे थे। गर्म पेय के बाद कुछ राहत अवश्य मिली। रजाई में घुसकर किसी तरह खुद को गर्म करते रहे। ठंड के कारण रात को नींद खुल चुकी थी, सुबह के तीन बजे थे। बाहर बरामदे में आकर कुर्सी पर बैठ गए। अंधेरी रात में सामने पंचाचूली के दर्शन हो रहे थे। इनके सान्निध्य में जीवन के तत्वदर्शन पर विचार करते रहे। फिर विस्तर में घुस गए और सुबह पाँच बजे पर्वत श्रृंखला पर सूर्योदय का इंतजार करते रहे। धीरे-धीरे क्षितिज प्रकाशित हो रहे थे। पर्वत जैसे गहरी योग निद्रा से उठकर ध्यानस्थ हो अपना प्रकाशपूर्ण दर्शन दे रहे थे। दर्शन के बाद मोर्निंग वॉक के लिए पीछे सड़क पर आ गए। थोड़ी ही दूरी पर पहाड़ी नाला दनदना कर बह रहा था। इसमें निर्मल जल की छलछलाती तेज धार पहाड़ों में ऊपर जमी बर्फ की समृद्ध जलराशि का संकेत दे रही थी। फिर रास्ते के मिश्रित बन भी इसके जल स्रोत को पुष्ट कर रहे थे।

कुछ पहाड़ी गाँव सूर्य की रोशनी में जगमगा रहे थे। पहाड़ों मे सामने की घाटी में बने सीसे की खिड़कियों का जगमगाना हमें बचपन से ही अविभूत करता रहा है, ऐसा ही दृश्य यहाँ भी दिखा। पूरी मुनस्यारी शहर और घाटी धीरे धीरे जाग रही थी। घरों से उठता धुँआ इसका संदेश दे रहा था। सुबह के गर्म स्नान के बाद चाय नाश्ता के बाद हम अगली मंजिल की ओर चल पड़े, जो यहाँ से 20 की.मी. दूरी पर स्थित गर्मपानी का स्रोत मदकोट था। 


जीप में स्थानीय यात्रियों के साथ यात्रा आगे बढ़ती है। कर्णप्रिय गीत सफर को खुशनुमा बना रहे थे। यहाँ भी आगे मुनस्यारी घाटी के विहंगम दर्शन मिले। यहाँ भी वेमौसमी फूलों से लदे पाजा के वृक्ष आकर्षण का केंद्र थे। पता चला की यहाँ लोग इसे बहुत पवित्र फूल मानते हैं और मंदिर में चढाते हैं। यहाँ भी इस पर  चैरी फल लगाने की जानकारी का अभाव दिखा। स्थानीय लोगों से पता चला की आगे पहाडों के बीच संकरी घाटी को पार करते हुए जौहार घाटी आती है, जो कि तिब्बत के साथ व्यापार का एक ऐतिहासिक केंद्र रहा है। यहाँ का मिलम ग्लेशियर भी प्रसिद्द है, जो पर्वतारोही व ट्रैकिंग प्रेमियों को आकर्षित करता रहता है। इसी ग्लेशियर से निसृत गौरी गंगा के किनारे मुनस्यारी शहर वसा है। यहाँ मूलतः भोटिया लोग निवास करते हैं, नंदा देवी इनकी ईष्ट आराध्य हैं। 7200 फीट की ऊँचाई पर वसा मुनस्यारी आज पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। सामने की गगनचुम्बी पंचचूली पर्वतश्रृंखलाएं, वाईं ओर नंदा देवी और त्रिशूल पर्वत, दाईं और अन्य पर्वत यहाँ के नजारे को चिताकर्षक और सुकूनदायी बनाते हैं। लोकमान्यता है कि पाँचों पाण्डव स्वर्गारोहण इसी स्थान से किए थे, इन्हीं के प्रतीक बिम्ब के रुप में पंचचुली शिखर आज भी विराजमान हैं।
मुनस्यारी के पार घाटी में कई पहाड़ी गांंव दिखाई देते हैं। यहाँ तक यातायात के कोई साधन नहीं हैं। पैदल ही पहाड़ों की चढाई करनी पड़ती है। जीप में सामने पहाड़ों पर बसे गाँव का एक युवक भी बैठा था। बातचीत करने पर पता चला की वह यहीं इंटर पढ़ रहा है। डेली अपडाउन करता है। इनका मोबाईल इंटरनेट सुबिधा से लैंस था। देखकर अहसास हो रहा था कि इस क्षेत्र में तकनीकी विकास गाँव तक पहुँच चुका है। लेकिन विकास की समग्र धारा से अभी यह क्षेत्र वंचित है, क्योंकि पढ़ा लिखा युवा नौकरी की तलाश में मैदानों या शहरों की ओर कूच कर रहा है। बाहर स्थापित लोग फिर बापिस गाँव की ओर मुड़ने को तैयार नहीं हैं। इस पर्वतीय क्षेत्र को विकास की पटड़ी पर लाने के लिए अभी कितना कुछ किया जाना शेष, यह समझ आ रहा था।
मार्ग में जीप अब मुड़ चुकी थी, हम गौरीगंगा नदी के किनारे आगे बढ़ रहे थे पिथौड़ागढ़ की ओर जिसकी राह पर मदकोट आता है। गलेशियर से निकला इसका निर्मल जल मन को ताजगी का अहसास दे रहा था। रास्ते में इसके रौद्र रुप के भी दर्शन हुए। पता चला की पिछली बरसात में यह कई कि.मी. मालटा के बगीचे के साथ पूरी बस्ती को यह उखाड़कर बहा ले गई थी। इसकी तबाही के निशान अभी ताजा थे। अभी नया रास्ता बन ही रहा था। रास्ते में सफेद चुना की खदाने मिली। कुछ ही देर में पुल पार करते ही हम मदकोट कस्बे में थे। पहाहियों के बीच बसा यह पहाड़ी कस्वा जनजीवन से सक्रिय दिखा। हर तरह की आधुनिक सुविधाएं यहाँ पहुंच चुकी हैं। स्थानीय इंटरकॉलेज के प्रिंसिपल महोदय से भेंट हुई तो पता चला की इस क्षेत्र में भी अभी पहाड़ी संस्कृति की कई विकृतियाँ शेष हैं। देवता के नाम पर बलि प्रथा और फिर शराब का शगल यहाँ गहराईयों में घुसा है। परमार्थ कार्यों में लोगों की रुचि कम है। यहाँ के विकास में लोगों की जड़ता भी एक अहम् कारण प्रतीत हुई।

खैर हम यहाँ से मदकोट के गर्म जल स्रोत की ओर चल पडे। पुल पारकरते ही महज एक कि.मी. दूरी पर इसके दर्शन हुए। पुल से पंचाचुली की सबसे ऊँची चोटी के दर्शन हो रहे थे। स्थानीय परिजन से पता चला की यहाँ से होकर इस चोटी के तल तक जाने का रास्ता है, जो 2-3 दिन में पूरा हो जाता है। थोड़ी ही देर में हम गौरी गंगा के तट पर गर्म पानी के स्रोत पहुँच चुके थे। इसके दुधिया गर्म जल में स्नान का पूरा आनन्द लिए। साथ ही गौरी गंगा के हाड़ जमाने बाले हिमालय टच भरे जल में भी डूबकी लगाए। कुछ पल हिमालय पिता और माँ गौरी की गोद में ध्यानस्थ विताए और तरोताजा होकर बापिस मदकोट और फिर जीप से मुनस्यारी की ओर चल पड़े।
रात को चर्चा के दौरान पता चला की यहाँ कभी सेब के बगान हुआ करते थे और यहां जंगली भालू सेब खाने आया करते थे। इसी के चलते एक व्यक्ति की जान गई। तबसे यहाँ के लोगों ने सारे पेड़ ही काट डाले और फिर यहाँ सेब के फल या बगीचे नहीं दिखे। गायत्री चेतना केंद्र में सेब के पेड़ लगा कर एक पहल हुई है, जो कुछ ही वर्षों में इस क्षेत्र में सेब की समृद्ध संभावनाओं को साकार करने की दिशा में एक अहम कदम माना जा सकता है।
रात हो चुकी थी। भोजन के बाद शयन के लिए चले गए और सुबह उठकर अगले पड़ाव की तैयारी करनी थी, जो था अल्मोड़ा से होते हुए रानीखेत की यात्रा। (जारी..भाग-3) 
यात्रा के अंतिम भाग को आप पढ़ सकते हैं, आगे दिए लिंक पर - मेरी पहली कुमाऊँ यात्रा, भाग-3, एडवेंचर भरी मस्ती का रोमाँच।

रविवार, 17 मई 2015

यात्रा वृतांत - मेरी पहली कुमाउँ यात्रा – भाग-1

विकासपुत्रों की राह निहारती यह देवभूमि

यह मेरी पहली कुमाउं यात्रा थी। यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक संपदा के वारे में बहुत कुछ पढ़ सुन चुका था। अतः कई मायने में यह मेरी चिरप्रतीक्षित यात्रा थी, भावों की अथाह गहराई लिए, नवांतुक की गहन जिज्ञासा के साथ एक प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ की निहारती दृष्टि लिए। अपने युवा साथियों, पूर्व छात्रों एवं कृषि-वागवानी विशेषज्ञ भाई के साथ सम्पन्न यह रोमाँचक यात्रा कई मायने में ऐतिहासिक, शिक्षाप्रद एवं यादगार रही।


1.     अल्मोड़ा
 हरिद्वार से हल्दवानी होते हुए अल्मोड़ा पहुंचे। रात्रि यात्रा थी, सो रास्ते के विहंगावलोकन से वंचित रहे, लेकिन प्रातः भौर होते होते अल्मोड़ की पहाडियों में बस अपनी मंजिल पर पहुँच चुकी थी। बस स्टेंड के पास ही अपने छात्र के परिचित समाजसेवी पांगतीजी के क्वार्टर – जोहार सहयोग निधि में रुकने का संयोग बना। यहाँ से अल्मोड़ा शहर के साथ उस पार की दूरस्थ पहाडियों का दूरदर्शन मन में कहीं गहरे प्रवेश कर जाता। इसी के साथ पूर्व की ओर से सुबह का स्वर्णिम सूर्योदय एक दर्शनीय दृश्य था। अल्मोड़ा में अधिक घूमने का समय नहीं था, सो फ्रेश होकर, गर्म चाय की प्याली के साथ वार्म अप होकर, अगली मंजिल की ओर चल पड़े, जो था हमारे शोध छात्र का पहाड़ी गाँव दौलाघट, जिसकी भावयात्रा चर्चा के दौरान कई बार कर चुका था, दर्शन बाकि थे, जिसके लिए मन अकुला रहा था और इसके विकास का सर्वेक्षण भी किया जाना था।

2.  गांव की ओर
अल्मोड़ा से गांव का रास्ता चीड़ के बनों के बीच पहाड़ियों के बीच गुजरता है। इसकी मोड़दार सड़कें, नीचे बादलों के सघन गुब्बारों से ढकी घाटी, और दूर उतर दिशा में लुकाछुपी करती हिमाच्छादित ध्वल नंदा देवी पर्वत श्रृंखला सब इस सफर को सुहाना बना रहे थे। रास्ते में पहाड़ी नाले, हालाँकि पानी इस समय न्यूनतम अवस्था में था, लेकिन नीचे खड़्ड में आकर छोटी नदी के रुप में इसके दर्शन होते हैं, जिसके किनारे आगे का सफर मन को सुकून दे रहा था। 

रास्ते में यह सड़क रानीखेत के मुख्यमार्ग से हटती हुई, गांव की ओर चल पड़ती है। रास्ते में चीड के बन ही बहुतायत में मिले। लगभग एक घंटा बाद गांव के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। पहाड़ियों पर वसे गाँव, हरे भरे जंगल, सीढ़ीदार खेत सब गाँव की एक नयी दुनियाँ में प्रवेश का अहसास दिला रहे थे। लो गाँव का स्टॉप आ गया। सड़क के साथ ही अपनी मंजिल भी आ गयी।

छोटी सी जलधार के किनारे पर बना खेत, खेत के ऊपर मकान। मकान के किनारे कियारियों में हरी सब्जियां, अनार, अंगूर, अमरुद के पेड। वनौषधियों व हरी सब्जियों से भरा पूरा बगीचा। घर के सामने ही नदी के पार जंगल, दूर गांव का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। इस बीच पक्षियों का कलरव गान शहर के भीड़ भरे कोलाहल से दूर गांव की नीरव शांति में स्वर्गीय आनन्द का अहसास दे रहा था। लग  रहा था जैसे ये पक्षी हम अजनबी आगंतुकों के बारे आपस में कुछ कानाफूसी कर रहे हों। इसी बीच जड़ी-बूटियों से बना गर्म पेय आया, जिसने यात्रा की थकान और ठंड़क को छूमंतर कर दिया। कुछ देर यहाँ के भूगोल, संस्कृति, समाज की चर्चा होती रही, फिर दिन का भोजन, जिसमें घर की क्यारी में उगी साग और भट्ट की दाल सब पर भारी थी। भोजन से तृप्ति के बाद विश्राम के कुछ पल रहे।

दोपहर विश्राम के बाद तरोताजा होकर गाँव के अवलोकन के लिए निकल पड़े। एक गाँववासी होने के नाते स्वाभाविक रुप से इस प्राँत के गाँव को देखने का मन था, एकदम नए परिवेश में, नए देश में। एक तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन अवलोकन व शोध भी चल रहा था। गाँव के साथ जल की धार बह रही थी। पक्की सड़क के किनारे गाँव की जरुरतों को पूरा करती हर तरह की दुकानें दिखी। परचून से लेकर मोवाईल रिचार्ज और हलवाई, टी-स्टाल व अन्य दुकानें। स्कूल भी सड़क के किनारे पर ही थे, पास मेें ही एक प्राइमरी स्कूल तो थोड़ी दूरी पर इंटर कालेज। यह पक्की सड़क पता चला कि रानीखेत जाने का वैकल्पिक रास्ता है, आगे का लैंडस्केप बहुत सुन्दर था, जिसे किसी अगली यात्रा में पूरा करने के भाव के साथ इस मार्ग से हट गए।


यहाँ एक बात हमें आश्चर्य करने वाली लगी कि, सड़क के साथ जल स्रोत के होते हुए भी लोग सामान्य खेती तक ही सीमित दिखे। ऊर्बर जमीन के साथ पहाड़ी क्षेत्र होते हुए यहाँ फल व सब्जी की अपार सम्भावनाएं हमारे बागवान भाई को दिख रही थी। इस ऊँचाई पर नाशपति, पलम, आड़ू, अनार, जापानी फल की शानदार खेती हो सकती है। सेब की भी विशिष्ट किस्में यहाँ आजमायी जा सकती हैं। सब्जियों में मटर, टमाटर, शिमलामिर्च से लेकर औषधीय पौधे, फूल, लहसुन, प्याज, गोभी जैसी नकदी फसलें उग सकती हैं। यदि क्षेत्रीय युवा इस पर ध्यान केंद्रित कर दें, तो गांव-घर छोड़कर दूर रहने, पलायन की नौबत ही न आए। आर्थिक स्बावलम्बन के ठोस आधार यहाँ की ऊर्बर जमीं में दिख रहे थे। प्रश्न यह भी था कि सरकार इस संदर्भ में क्या रही है, जबकि पंतनगर कृषि विवि का शोध केंद्र यहाँ से मुश्किल से 10 किमी की दूरी पर स्थित है। यहाँ के किसान इनका लाभ क्यों नहीं उठा पा रहे हैं व इस तरह की पहल क्यों नहीं कर रहे हैं, यह प्रश्न कचोटता रहा। शायद उचित मार्गदर्शन का अभाव था। हालाँकि हमारे शोधछात्र के प्रयोगधर्मी पिता के साथ भाई की व्पायक चर्चा के साथ लगा ऐसी ठोस पहल जल्द ही शुरु हो जाएगी। और इस क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन (विकास) की लहर अवश्य आएगी।

फिर मुख्य सड़क से हटकर पहाड़ी नाले के किनारे से होते हुए गाँव के अंदर प्रवेश करते गए। रास्ते में ही सीढ़ीदार बंजर खेत मिले। आंशिक पलायन का दंश यहाँ साफ दिख रहा था। खेत बंजर थे। पानी के स्रोत एक दम साथ थे। ठप्प पड़ा पुराना घराट इसकी बानगी पेश कर रहा था। अगर कोई इन खेतों में फिर हल चलाए, यहाँ अन्न के साथ फल-सब्जि के प्रयोग करें, तो यही मिट्टी सोना उगले। केंट के जंगली पेड़ इतनी तादाद में थे कि इन पर आसानी से उमदा नाशपाती की कलमें लगाकर मेड में ही एक अच्छी खासी फसल काटी जा सकती है। लेकिन मार्गदर्शन व चलन का अभाव साफ दिखा। पूरे गाँव में सैंकड़ों पेड़ इस प्रयोग का इंतजार करते दिखे। ऐसा लगा इस देवभूमि को एक विकास पुरुष का इंतजार है, जो यहाँ विकास की व्यार वहा सके।

गाँव में अंदर प्रवेश करते गए, तो चढ़ाई के साथ आगे गाँव आया। पंचायत भवन की हालात कुछ ऐसी थी कि लगा यहाँ सालभर से कोई मीटिंग नहीं हुई है। आगे रिश्तेदारी में चाचा के घर पहुँचे, जिनका एक फोजी वेटा आज ही छुट्टी पर घर आया था। पता चला कि इस क्षेत्र से फौज में जाने का चलन है। और कई महीनों बाद ही घर आना होता है। काश्मीर बोर्डर पर तैनात फौजी को आने जाने में ही सप्ताह-दस दिन लग जाते हैं। ऐसे में बर्ष भर में एक दो चक्कर ही मुश्किल से घर के लग पाते हैं। परिवार में ऐसे दुर्लभ मिलन के सुखद पलों के हम साक्षी बने और यहाँ की वीर प्रसूता भूमि में मोर्चे पर लड़ने बाले जांबाज वीरों के प्रति ह्दय श्रद्धा भाव से नत हो उठा।

गाँव को पार करते हुए हम जंगल से होकर पहाड़ी पर बसे भगवती के मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। आढे-तिरछे रास्ते से सीधी चढ़ाई चढ़ते हुए हम आगे बढ़ रहे थे।
ऊपर से नीचे गाँव का और दूर घाटी का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। रास्ते में यहाँ के पारम्परिक जल स्रोत के दर्शन भी हुए, जिसे हमारी भाषा में जायरु बोलते हैं। बाँज के पेड़ के नीचे से यहाँ जल एक बाबड़ी में इकट्ठा था। गाँववालों का कहना था कि कितनी भी गर्मी हो यहाँ का पानी सूखता नहीं। बास्तव में यह बाँज के पेड़ की जड़ें नमी को सोखती हैं व इसे संरक्षित रखती हैं। हमारे मन में आया कि यदि गाँव बाले इस जंगल में बाँज के पेड़ों के साथ मिश्रित बनों को बहुतायत में लगा लें तो शायद यहाँ के सूखे पड़ते जलस्रोत फिर रिचार्ज हो जाएं। संभवतः ऐसे प्रयोग हमें आगे चलकर इस क्षेत्र में देखने को मिलें। वास्तव में ऐसे प्रयोगों की साहसिक पहल की हर पहाड़ी क्षेत्रों में जरुरत है, जहाँ के जलस्रोत सुखते जा रहे हैं।


इसी भाव के साथ हम गाँव के शिखर पर पहुँच चुके थे। भगवती का छोटा सा किंतु सुंदर मंदिर चोटी पर एकांत में एक बृहद बृक्ष के नीचे शोभायमान था। यहाँ से नीचे गांव के साथ सुदूर अलमोड़ा शहर का विहंगम दृश्य दर्शनीय था। घाटी के शिखर पर एकांत में स्थापित यह मंदिर एक जाग्रत देवस्थल के रुप में प्रतिष्ठित है, जो सशक्त ऊर्जा प्रवाह लिए हुए है। हर रविवार को इसके परिसर में नियमित रुप से पिछले बारह वर्षों से गायत्री यज्ञ चल रहा है, जिसमें गांव के बच्चे, महिलाएं व युवा सक्रिय भागीदारी ले रहे हैं। यहाँ  आत्मचिंतन भरे कुछ यादगार पल माँ की गोद में विताए और फिर गाँव के बीच से बापस चल पड़े। सूर्यदेव अस्ताचल की ओर बढ़ रहे थे। शाम का धुंधलका जोर पकड़ रहा था। गाँव के मिलनसार परिजन चाय के लिए निमंत्रण दे रहे थे। लेकिन समय अभाव के कारण हम इसे टालकर आगे बढ़ते रहे। गाँव में केला, माल्टे के पेड़, जंगली गुलाब के फूल, सर्दिओं के लिए इकट्ठा पुआल के ढेर, धुंआ छोड़ती घर की छतें पहाड़ी गाँव के सांयकालीन जीवन का दिग्दर्शन करा रहे थे। गाँव तो गाँव ही होते हैं, वे कहीं के भी हों, अधिक फर्क नहीं होता। राह में चार-पाँच अबोध बच्चे हंसते-खेलते मिले। कुछ बिस्कुट, कुछ सिक्के हाथ में क्या थमाए, इनकी खुशी देखते ही बन रही थी। 


गाँव के बाहर नल से लगा पीपा और टपकता पानी यहाँ पानी के सूखते स्रोत की व्यथा साफ दर्शा रहा था। नीचे दूर दूर तक हल से जुते हुए सूखे खेत, बहुत कुछ कह रहे थे। यह पूरा क्षेत्र बारिश पर निर्भर दिखा। यहाँ ऊँचाई में जल के स्रोत सूखे पड़े थे। इस राह में भी खेत की मेड़ के किनारे जंगली केंट के पेड़ बहुतायत में दिखे, जिनपर नाश्पाती की कलमें लगाकर सहज ही किसान अच्छी फसल ले सकते हैं।

इस तरह इन ढलानदार खेतों को पार करते हुए हम नीचे मुख्य सड़क तक पहुँचे। शाम हो चली थी। कुछ ही देर में हम सड़क के किनारे अपने शोधछात्र के घर के पास पहुंच चुके थे। घर पर अम्माजी द्वारा तैयार साग-सब्जी, भट्ट की दाल, मंडुए की रोटी, चाबल और देसी घी हमारा इंतजार कर रहे थे। लेकिन पहले हमने प्रयोगधर्मी पिता द्वारा तैयार जडी-बूटी बाला काढ़ा पिया, जिससे हम यात्रा की थकान के बाद काफी ऊर्जावान अनुभव कर रहे थे। साथ ही हम राह में ली फोटो का  अबलोकन करते रहे और रास्ते भर की अहम बातों की चर्चा करते रहे। इस क्षेत्र के विकास की संभावित रणनीतियों पर मंथन होता रहा। स्थानीय परिजनों, विशेषज्ञों एवं समाजसेवी संस्थानों से साक्षात्कार और चर्चा अभी बाकि थी, जिसे शोध के अगले चरण में शोध छात्र द्वारा अंजाम दिया जाना था।
अब रात हो चुकी थी, भूख लग रही थी। भरपेट भोजन के बाद हम सब रात्रि विश्राम के लिए निद्रा की गोद में चले गए। और सुबह तरोताजा होकर चाय-नाश्ता करके, अगली मंजिल की ओर चल पड़े, जो थी अल्मोड़ा से होते हुए मुनस्यारी की रोमाँचक यात्रा, जिसे आप आगे दिए जा रहे लिंक पर अगली ब्लॉग पोस्ट में सकते हैं - मेरी कुमाऊँ यात्रा, भाग-2, अल्मोड़ा से मुनस्यारी, मकदोट।


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