बुधवार, 25 मार्च 2015

परिवर्तन का शाश्वत विधान


 हर दिन वसंत कहाँ 



        
कालचक्र का पहिया घूम रहा,  
परिवर्तन का शाश्वत विधान,

आए सुख-दुख यहाँ बारी-बारी
लेकिन हर दिन वसंत कहाँ ।1।

 

   
अंगार बरसात गर्मी का मौसम, 
चरम पर बरसात की शीतल फुआर,


जग सारा जलमग्न हो इसमें, 
सताए भूस्खलन, बाढ़ की मार।2।




 
 समय पर फूटे कौंपल जीवन की, 
आए फल-हरियाली की बहार,




फसल कटते ही फिर मौसम सर्दी का, 
पतझड़ का मौसम अबकी बार।3।




  
पतझड़ के साथ मौसम ठंड का, 
हाड़ कंपाती शीतल व्यार,



जीवन ठहर सा जाए, सब घर में दुबके,  
अब ठंड से राहत का इंतजार।4।




बर्फ के बाद मौसम वसंत का, 
झरने झर रहे घाटी-पहाड़,



उत्तुंग शिखरों से गिरते हिमनद, 
मस्ती का तराना घाटी के आर-पार।5।



  
 यही सच जीवन का शाश्वत सनातन, 
उतार-चढ़ाव, सुख-दुख आए क्रम बार,

 गमों की तपन झुलसाए मन को,  
सौगात में दे जाए जीवन का सार।6।




धुल जाए गिले-शिक्बे फिर सारे,
हो सृजन की नई शुरुआत,




सत्कर्मों के बीजों का रोपण, 
 पग-पग पर वासंती अहसास।7।







लेकिन साल भर कहाँ रहता बसंत, 
अगले मोड़ पर पतझड़ की मार,



शीतनिद्रा में गुमसुम सा जीवन, 
नए सृजन का फिर लम्बा इंतजार।8।


 



इंतजार का फल मीठा, 

दे गहन तृप्ति सुख आनन्द अपार,


छा जाए फिर मौसम वसंत का, 
 इसका भी आलम कहाँ शाश्वत अविराम।9।





समझ में रहे गर यह चक्र जीवन का, 
और प्रकृति का शाश्वत विधान,



बुलंदी में न फिर इंसान बौराए, 
न मंदी का जिम्मेदार भगवान।10।



खुशी में जाने फिर गम की सच्चाई, 
गमों में दिखे सुख की परछाई,
द्वन्दों के बीच फिर मस्त गंभीरा, 
सृजन में मग्न हिमवीर फकीरा।11।


समझ आए गर यह जीवन विज्ञान, 
तो नहीं कठिन फिर लक्ष्य संधान,

  परिवर्तन चक्र अपनी जगह
 मुट्ठी में ्रष्टा का द्रष्टा विधान।12।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

जीवन शैली के चार आयाम, रहे जिनका हर पल ध्यान



आधुनिक जीवन के वरदानों के साथ जुड़ा एक अभिशाप है बिगड़ती जीवन शैली, जिससे तमाम तरह की शारीरीक-मानसिक व्याधियाँ पैदा हो रही हैं। इसके चलते जवानी के ढ़लते ही व्यक्ति तमाम तरह के मनो-कायिक (साइकोसोमेटिक) रोगों से ग्रस्त हो रहा है। इतना ही नहीं डिप्रेशन, मोटापा, डायबिटीज जैसी बीमारियां बचपन से अपना शिकंजा कसने लगी हैं। युवा इसके चलते अपनी पूरी क्षमता से परिचित नहीं हो पा रहे और जवानी का जोश सृजन की बजाए निराशा और अवसाद के अंधेरे में दम तोड़ने लगा है।

जीवन शैली क्या है? इसके प्रमुख आयाम क्या हैं?, इतना समझ आ जाए और इनके सर्वसामान्य सरल सूत्रों का दामन थाम कर जीवन शैली से जुड़ी विकृतियों से बहुत कुछ निजात पाया जा सकता है और एक स्वस्थ, सुखी एवं संतोषपूर्ण जीवन की नींव रखी जा सकती है। 
जीवन शैली के चार आयाम हैं – आहार, विहार, व्यवहार और विचार।

आहार हल्का एवं पौष्टिक ही उचित है। स्वस्थ तन-मन का यह सबल आधार है। यदि हम भोजन ठूस कर खाते हैं तो सात्विक भोजन को भी तामसिक बनते देर नहीं लगती। आहार का सार इतना है कि वह शरीर का पोषण करे,  इसे सशक्त बनाए व स्फुर्त रखे। 
भोजन शांत मन से खूब चबाकर खाएं, जिससे कि दांत का काम आंत को न करना पड़े। देश, काल, परिस्थिति के अनुरुप अपनी रुचि, प्रकृति एवं क्षमता के अनुरुप इसका विवेकसंगत चयन अभीष्ट है।

इसके साथ श्रम, व्यायाम का अनुपान। यथासम्भव शारीरिक श्रम को महत्व दें। यदि समय हो तो लिफ्ट की बजाए सीढियाँ चढ़कर जाएं। आस-पास कैंपस या मार्केट में स्कूटर की बजाए साइकल से जाएं या पैदल चलें। अपनी आयु और समय-क्षमता के अनुरुप नित्य टहल, कसरत या व्यायाम का न्यूनतम क्रम निर्धारित किया जा सकता है।

साथ में उचित नींद-विश्राम। औसतन नींद के 6-8 घंटे पर्याप्त होते हैं, जिसके बाद व्यक्ति तरोताजा अनुभव करता है। इसके लिए रात को कम्प्यूटर, गैजट्स व टीवी के अनावश्यक प्रयोग से बचें। दिन में थकान के पलों में झपकी (कैट नैप) का सहारा लिया जा सकता है।
यह शारीरिक स्वास्थ्य औऱ निरोगिता का सर्वसामान्य कार्यक्रम है, जिसके आधार पर व्यक्ति ताउम्र न्यूनतम फिटनेस के साथ जीवन का आनंद उठा सकता है।
इसके साथ जीवन शैली का दूसरा आयाम है – विहार
विहार – विहार का अर्थ है दैनन्दिन विचरण। सुबह उठने से लेकर रात्रि शयन तक की जीवन चर्या। समय पर शयन और समय पर प्रातः जागरण - पहला स्वर्णिम सुत्र है। सुबह जागते ही, अपने जीवन लक्ष्य व ईष्ट-आदर्श के सुमरण के साथ दिनचर्या का आगाज। फिर दिन भर के कार्यों का निर्धारण, इनको प्राथमिकताओं के आधार पर अंजाम देने की चुस्त-दुरुस्त व्यवस्था। इस तरह व्यवस्थित, अनुशासित दिनचर्या जहाँ एक ओर कर्तव्य निर्वाह का संतोष देती है, तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक जीवन में सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। 

इसके साथ दिनभर का संग साथ मायने रखता है। अंग्रेजी कहावत है कि – अ मेन इज नोन वाई द कंपनी ही कीप्स। क्योंकि आपका संग-साथ आपकी सोच व व्यवहार को प्रभावित करता है। अतः सकारात्मक एवं प्रेरक संग-साथ ही वांछनीय है। आज के विषाक्तता से भरे टीवी, इंटरनेट, सिनेमा एवं मोबाइल के युग में सात्विक, प्रेरक एवं लक्ष्य को पोषित करने वाला संग-साथ महत्वपूर्ण है। ऐसे संग साथ से दूर ही रहें जो मन को दूषित करता हो, चित्त को कलुषित करता हो और ह्दय को दुर्भावनाओं से भरता हो।
दिनचर्या में प्रार्थना, ध्यान-जप, स्वाध्याय आदि का समावेश सकारात्मक विचारों से भरे वातावरण का सृजन करता है, जो नकारात्मकता भरे दमघोंटू वातावरण में हमारे लिए संजीवनी का काम करता है। इस तरह अनुशासित आहार-विहार के आधार पर हममें वह आत्म-विश्वास आता है, जिसके बल पर हम सकारात्मक एवं प्रभावी व्यवहार की ओर बढ़ते हैं।

व्यवहारशालीन एवं सहकार-सहयोग भरा व्यवहार, जीवन शैली प्रबन्धन का तीसरा चरण है। वाणी व्यवहार की मुख्य वाहक है। अतः इसका स्वर्णिम सुत्र विज्ञजनों द्वारा दिया गया है – मित, मधुर और कल्याणी। वाणी ऐसी हो जिससे किसी की भावना आहत न हो, जिसके सबका कल्याण हो। लेकिन अवांछनीय तत्वों से भरे इस संसार में आवश्यकता पड़ने पर प्रभावी निपटारे के लिए उपेक्षा का सहारा लिया जा सकता है। उपेक्षा कर सकते हैं अपमान नहीं, एक मार्गदर्शक वाक्य हो सकता है। व्यवहार में उदारता-सहिष्णुता का समावेश निश्चित रुप में व्यक्तित्व को भावप्रवण बनाता है और भावनात्मक स्थिरता की ओर ले जाता है, जो चारों ओर सहयोग-सहकार भरा सुख-शांतिपूर्ण वातावरण का सृजन करता है।

और अंत में, विचार, जीवन शैली का चौथा एवं सबसे सूक्ष्म एवं महत्वपूर्ण पक्ष है। विचारों की शक्ति सर्वविदित है। विचार ही क्रमशः कर्म बनते हैं, जो आगे चलकर आदतें बनकर व्यक्ति के भाग्य का निर्धारण करते हैं। सो विचारों की शक्ति का सही नियोजन महत्वपूर्ण है। विचारों का सकारात्मक, विवेकसंगत, परिष्कृत और सशक्त होना वरेण्यं है। इसके लिए अपने आदर्श का सुमरण, सतसंग एवं सुदृढ़ धारणा आवश्यक है। 

इसके साथ मस्तिष्क का लक्ष्य केंद्रित होना जरुरी है, जिससे अपना कैरियर एवं प्रोफेशनल लक्ष्य का भेदन हो सके। इसके साथ व्यापक एवं गहन अध्ययन, बौद्धिक विकास को सुनिश्चित करता है। लेखन के रुप में विचारों की रचनात्मक अभिव्यक्ति मौलिक सोच को पुष्ट करती है, वहीं सृजन का आनंद देती है। इसी के साथ सामाजिक जीवन में एक प्रभावी संचार का मार्ग प्रशस्त होता है।

इस तरह जीवन शैली के चार आयाम हैं – आहार, विहार, व्यवहार और विचार, जो व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास को सुनिश्चित करते हैं। इनको साधने के लिए बनाया गया न्यूनतम कार्यक्रम स्वस्थ, सुखी एवं सफल जीवन की दिशा में एक समझदारी भरा साहसिक कदम माना जाएगा। 

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

यात्रा वृतांत - मेरी पहली झारखण्ड यात्रा


धनबाद से राँची का ट्रेन सफर



यह मेरी पहली यात्रा थी, झारखण्ड की। हरिद्वार से दून एक्सप्रेस से अपने भाई के संग चल पड़ा, एक रक्सेक पीठ पर लादे, जिसमें पहनने-ओढने, खाने-पीने, पढ़ने-लिखने व पूजा-पाठ की आवश्यक सामग्री साथ में थी। ट्रेन की स्टेशनवार समय सारिणी साथ होने के चलते, ट्रेन की लेट-लतीफी की हर जानकारी मिलती रही। आधा रास्ता पार करते-करते ट्रेन 4 घंटे लेट थी। उम्मीद थी कि, ट्रेन आगे सुबह तक इस गैप को पूरा कर लेगी, लेकिन आशा के विपरीत ट्रेन क्रमशः लेट होती गयी। और धनबाद पहुंचते-पहुंचते ट्रेन पूरा छः घंटे लेट थी।

रास्ते में भोर पारसनाथ स्टेशन पर हो चुकी थी। सामने खडी पहाड़ियों को देख सुखद आश्चर्य़ हुआ। क्योंकि अब तक पिछले दिन भर मैदान, खेत और धरती-आकाश को मिलाते अनन्त क्षितिज को देखते-देखते मन भर गया था। ऐसे में, सुबह-सुबह पहाड़ियों का दर्शन एक ताजगी देने वाला अनुभव रहा। एक के बाद दूसरा और फिर तीसरा पहाड़ देखकर रुखा मन आह्लादित हो उठा। हालांकि यह बाद में पता चला की यहाँ पहाड़ी के शिखर पर जैन धर्म का पावन तीर्थ है।


धनबाद पहुंचते ही ट्रेन रांची के लिए तुरंत मिल गयी थी। 11 बजे धनबाद से राँची के लिए चल पड़े। धनबाद से राँची तक का वन प्रांतर, खेत, झरनों, नदियों, कोयला खदानों व पर्वत शिखरों के संग ट्रेन सफर एक चिरस्मरणीय अनुभव के रुप में स्मृति पटल पर अंकित हुआ।

रास्ते में स्टेशनों के नाम तो याद नहीं, हाँ साथ में सफर करते क्षेत्रीय ज्वैलर बब्लू और पॉलिटेक्निक छात्र अमर सिंह का संग-साथ व संवाद याद रहेगा। इनके साथ आटा, गुड़, घी से बना यहाँ का लोकप्रिय ठेकुआ, आदिवासी अम्मा द्वारा खिलाए ताजे अमरुद और कच्चे मीठे आलू का स्वाद आज भी ताजा हैं। स्टेशन पर इडली और झाल मुईं यहाँ का प्रचलित नाश्ता दिखा। साथ ही यहाँ राह में ठेलों पर कमर्शियल सेब खूब बिक रहा था, जिसे हमारे प्रांत में पेड़ से तोड़कर शायद ही कोई खाता हो। (क्योंकि यह बहुत कड़ा होता है, पकाने पर कई दिनों बाद ही यह खाने योग्य होता है)


रास्ते में तीन स्टेशन बंगाल प्रांत से जुड़े मिले। यहाँ जेट्रोफा के खेत दिखे, जिनसे  पेट्रोलियम तैयार किया जाता है। पता चला कि झारखँड में देश की 45 फीसदी कोयला खदाने हैं और यह यूरेनियम का एकमात्र स्रोत वाला प्रांत है। इसके बावजूद राजनैतिक अस्थिरता का दंश झेलती जनता का दर्द साफ दिखा। 2000 में अस्तित्व में आए इस प्रांत में अब तक 15 वर्षों में 9 मुख्यमंत्री बदल चुके हैं। हाल ही में पिछले सप्ताह हुए चुनाव में भागीदार जनता का कहना था कि इस बार मिली जुली सरकार के आसार ज्यादा हैं। अखबारों से पता चला कि आज रांची में प्रधानमंत्री मोदी जी की रैली है। (हालाँकि मोदी लहर के चलते परिणाम दूसरे रहे और आज वहाँ एक स्थिर सरकार है।)
रास्ते में हर आधे किमी पर एक नाला, छोटी नदी व रास्ते भर जल स्रोत के दर्शन अपने लिए एक बहुत ही सुखद और रोमाँचक अनुभव रहा। इनमें उछलकूद करते बच्चे, कपड़े धोती महिलाएं औऱ स्नान करते लोगों को देख प्रवाहमान लोकजीवन की एक जीवंत अनुभूति हुई। खेतों में पक्षी राज मोर व तालावों में माइग्रेटरी पक्षियों के दर्शन राह में होते रहे। साथ ही तालाब में लाल रंग के खिलते लिली फूल इसमें चार चाँद लगा रहे थे।

इस क्षेत्र की बड़ी विशेषता इसकी अपनी खेती-बाड़ी से जुड़ी जड़ें लगी। धान की कटाई का सीजन चल रहा था। कहीं खेत कटे दिखे, तो कहीं फसल कट रही थी।  कहीं-कहीं ट्रेक्टरों में फसल लद रही थी। धान के खेतों में ठहरा पानी जल की प्रचुरता को दर्शा रहा था। अभी सब्जी और फल उत्पादन व अन्य आधुनिक तौर-तरीकों से दूर पारम्परिक खेती को देख अपने बचपन की यादें ताजा हो गयी, जब अपने पहाड़ी गाँवों में खालिस खेती होती थी।(आज वहाँ कृषि की जगह सब्जी, फल और नकदी फसलों (कैश क्रोप) ने ले ली है। जबकि यहाँ की प्रख्यात पारम्परिक जाटू चाबल, राजमा दाल जैसी फसलें दुर्लभ हो गई हैं।) लेकिन यहाँ के ग्रामीण आंचल में अभी भी वह पारंपरिक भाव जीवंत दिखा। फिर हरे-भरे पेड़ों से अटे ऊँचे पर्वतों व शिखरों को देखकर मन अपने घर पहुँच गया। अंतर इतना था कि वहाँ देवदार और बाँज के पेड़ होते हैं तो यहाँ साल और पलाश के पेड़ थे। ट्रेन सघन बनों के बीच गुजर रही थी, हवा में ठंड़क का स्पर्श सुखद अहसास दे रहा था। स्थानीय लोगों से पता चला कि रात को यहाँ कड़ाके की ठंड पड़ती है। रास्ते में बोकारो स्टील प्लांट के दूरदर्शन भी हुए। पता चला कि बोकारो का जल बहुत मीठा होता है।

रास्ते में साल के पनपते वन को देख बहुत अच्छा लगा। यहाँ के वन विभाग का यह प्रयास साधुवाद का पात्र लगा। ट्रेन में गेट पर खड़ा होकर वनों, पर्वत शिखरों का अवलोकन का आनन्द लेता रहा। साथ ही मोड़ पर ट्रेन के सर और पूँछ दोनों को एक साथ देखने का नजारा, हमें शिमला की ट्वाय ट्रेन की याद दिलाता रहा। हालाँकि यहाँ के वनों में बंदर-लंगूर का अभाव अवश्य चौंकाने वाला लगा।

राँची से कुछ कि.मी. पहले बड़े-बड़े टॉवर दिखने शुरु हो गए। बढ़ती आबादी को समेटे फूलते शहर का नजारा राह की सुखद-सुकूनदायी अनुभूतियों पर तुषारापात करता प्रतीत हुआ। बढ़ती आबादी के साथ पनपती गंदगी, अव्यवस्था और स्थानीय आबादी में बिलुप्त होती सरलता-तरलता मन को कचोट रही थी।

यहाँ का लोकप्रिय अखबार प्रभात खबर हाथ में लगा, जिसके ऑप-एड पेज में आधुनिक टेक्नोलॉजी के संग पनपते एकांकी जीवन के दंश को झेलते पश्चिमी जगत पर विचारोत्तेजक लेख पढ़ा। पढ़कर लगा कि यह तो पांव पसारता यहां का भी सच है। सच ही किसी ने कहा है – जितना हम प्रकृति के करीब रहते हैं, उतना ही संस्कृति से, अपनी जड़ों से जुड़े होते हैं औऱ जितना हम प्रकृति से कटते हैं, उतना ही हम खुद से और अपनी संस्कृति से भी दूर होते जाते हैं। रास्ते का यह विचार भाव रांची पहुंचते-पहुंचते सघन हो चुका था और स्टेशन से उतर कर महानागर की भीड़ के बीच मार्ग की सुखद अनुभूतियाँ धुंधली हो चुकीं थीं।

रास्ते भर मोबाइल की बैटरी डिस्चार्ज होने के कारण रास्ते के वर्णित सौंदर्य को कैमरे में कैद न कर पाने का मलाल अवश्य रहा। भारतीय रेल्वे की इस बेरुखी पर कष्ट अवश्य हुआ। लेकिन आभारी भी महसूस करता हूँ कि इसके चलते मैं रास्ते भर के दिलकश नजारों को अपनी आंखों से निहारता हुआ, स्मृति पटल पर गहराई से अंकित करता रहा, जो आज भी स्मरण करने पर एक ताजगी भरा अहसास देते हैं।
(28-29 नवम्बर, 2014)

पाँच साल बाद सम्पन्न यहां की यात्रा को आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
मेरी दूसरी झारखण्ड यात्रा, हर दिन होत न एक समान।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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