रविवार, 10 अगस्त 2014

जीवन के अधूरेपन को पूर्णता देता अध्यात्म


अध्यात्म क्या?
आजकल अध्यात्म का बाजार गर्म है। टीवी पर आध्यात्मिक चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। रोज मार्केट में अध्यात्म पर एक नई पुस्तक आ जाती है। न्यू मीडिया अध्यात्म से अटा पड़ा है। लेकिन अध्यात्म को लेकर जनमानस में भ्रम-भ्राँतियों का कुहासा भी कम नहीं है। इस ब्लॉग पोस्ट में अध्यात्म तत्व के उस पक्ष पर प्रकाश डालने का एक बिनम्र प्रयास किया जा रहा है, जिससे कि हमारा रोज वास्ता पड़ता रहता है। 

     शाब्दिक रुप में अध्यात्म, अधि और आत्मनः शब्दों से जुड़ कर बना है। जिसका अर्थ है - आत्मा का अध्ययन और इसका अनावरण।

मन एवं व्यक्तित्व का अध्ययन तो आधुनिक मनोविज्ञान भी करता है, लेकिन इसकी अपनी सीमाएँ हैं। इसके अंतर्गत अपना वजूद देह मन की जटिल संरचना और समाज-पर्यावरण के साथ इसकी अंतर्क्रिया से उपजे व्यक्तित्व तक सीमित है। इस सीमा के पार अध्यात्म अपने परामनोवैज्ञानिक एवं पारलौकिक स्वरुप के साथ व्यक्तित्व का समग्र अध्ययन करता है। इसीलिए अध्यात्म को उच्चस्तरीय मनोविज्ञान भी कहा गया है। देह मन के साथ यह व्यक्तित्व के उस सार तत्व से भी वास्ता रखता है, जिसे यह इनका आदिकारण मानता है और इनसे जुड़ी विकृतियों का समाधान भी। 

इसीलिए आध्यात्मिक दृष्टि में जीवन का लक्ष्य आत्मजागरण, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरप्राप्ति जैसी स्थिति है, जिनसे उपलब्ध पूर्णता की अवस्था को समाधि, कैवल्य, निर्वाण, मुक्ति, स्थितप्रज्ञता जैसे शब्दों से परिभाषित किया गया है। इस पृष्ठभूमि में अध्यात्म की एक प्रचलित परिभाषा है - अंतर्निहित दिव्यता या देवत्व का जागरण और इसकी अभिव्यक्ति। यह प्रक्रिया खुद को जानने के साथ शुरु होती है, अपनी अंतर्रात्मा से संपर्क साधने और उस सर्वव्यापी सत्ता के साथ जुड़ने के साथ आगे बढ़ती है। 

अध्यात्म की आवश्यकता,
जाने अनजाने में हम अध्यात्म को जी रहे होते हैं। जिन क्षणों में हम शांति, सुकून, अकारण सुख व आनन्द की अवस्था में होते हैं, हम अपने वास्तविक स्व में, गहन अंतरात्मा में जी रहे होते हैं। शांति, स्वतंत्रता व आनन्द के ये अंतस्थ-आत्मस्थ पल हमारा वास्तविक स्वरुप हैं, वास्तविक अवस्था है। इस अवस्था को सचेतन ढंग से हासिल करना, इसे बरकरार रखना, इसे जीना – यही अध्यात्म क्षेत्र का पुरुषार्थ है, प्रयोजन है, प्रावधान है।

मनोवैज्ञानिक मैस्लोव के अनुसार, अध्यात्म व्यक्ति की उच्चतर आवश्यकता (मेटा नीड) है। जब व्यक्ति की शारीरिक, भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक जरुरतें पूरी हो जाती हैं, तो उसकी आध्यात्मिक जरुरत शुरु होती है। अर्थात् भौतिक उपलब्धियों के बावजूद जो खालीस्थान रहता है, जो शून्यता रहती है, जो अधूरापन कचोटता है, जो अशांति बेचैन करती है, अध्यात्म उसको भरता है, उसका उपचार करता है, उसको पूर्णता देता है। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर सत्य, ज्ञान और आनन्द रुपी सत्ता ही तो हमारा असली रुप है।

यदि बात भौतिक बुलन्दी की ही करें जो दुनियाँ पर एक नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि अध्यात्म कालजयी सफलता का आधार है। हम अपने क्षेत्र के चुड़ाँत सफल व्यक्ति ही क्यों न बन जाएं – प्रेज़िडेंट, पीएम, सीएम, मंत्री, नेता, अधिकारी, जनरल, धन कुबेर, स्टार रचनाकार, खिलाड़ी, अभिनेता आदि। यदि इनके साथ भी हमारी आंतरिक शाँति, स्थिरता, संतुलन बरकरार है तो मानकर चल सकते हैं कि हम अपने अध्यात्म तत्व में जी रहे हैं। अन्यथा इन बैसाखियों के हटते ही, रिटायर होते ही जिंदगी नीरस, बोझिल एवं सूनेपन से आक्रांत हो जाती है। स्पष्टतयः अध्यात्म के अभाव में जिंदगी की सफलता, सारी बुलंदी अधूरी ही रह जाती है।

यहीं से अध्यात्म का महत्व स्पष्ट होता है और इसका एक नया अर्थ पैदा होता है। अध्यात्म एक आंतरिक तत्व है, आत्मिक संपदा है, जो हमें सुख, शांति, शक्ति, आनन्द का आधार अपने अंदर से ही उपलब्ध कराता है। बाहरी अबलम्बन के हटने, छूटने, टूटने के बावजूद हमारी आंतरिक शक्ति व संतुलन का स्रोत बना रहता है और तमाम अभाव-विषमताओं के बीच भी व्यक्ति अपनी मस्ती व आनन्द में जीने में सक्षम होता है। अर्थात् अध्यात्म अंतहीन सृजन का आधार है, आगार है, जिसमें जीवन की हर परिस्थिति, हर मनःस्थिति सृजन की संभावनाओं से युक्त रहती है।

इस तरह अध्यात्म एक प्रभावी जीवन का एक अनिवार्य पहलू है, जिसकी उपेक्षा किसी भी तरह हितकर नहीं। जीवन में इसके महत्व को निम्न बिंदुओं के तहत समझा जा सकता है -

अध्यात्म का महत्व -
1.  जीवन की समग्र समझ - जितना हम खुद को जानने लगते हैं, उतना ही हमारी मानव प्रकृति की समझ बढ़ती है। व्यक्तित्व की समग्र समझ के साथ जीवन की जटिलताओं का निपटारा उतने ही गहनता एवं प्रभावी ढंग से संभव बनता है।

2.    एकतरफा भौतिक विकास का संतुलक–अध्यात्म एकतरफे भौतिक विकास को एक संतुलन देता है। आज की प्रगति की अँधी दौड़ से उपजी विषमता व असंतुलन का परिणाम आत्मघाती-सर्वनाशी संकट है, जिसका जड़ मूल से समाधान अध्यात्म में निहित है।

3. अपने भाग्य विधाता होने का भाव – अध्यात्म जीवन की समग्र समझ देता है। व्यक्तित्व की सूक्ष्म जटिलताओं से रुबरु कराता है, इन पर नियंत्रण का कौशल सिखाता है और क्रमशः खुद पर न्यूनतम कंट्रोल एवं शासन का विश्वास देता है कि हम अपने भाग्य के विधाता आप हैं।

4.  द्वन्दों से पार जाने की शक्ति व सूझ – अध्यात्म जीवन की अनिश्चितता के बीच एक सुनिश्चितता का भाव देता है। जीवन के द्वन्दों के बीच सम रहने और विषमताओं को पार करने की शक्ति देता है। घोर निराशा के बीच भी आशा का संचार करता है।

5.  खुद से रुबरु कर, विराट से जोड़े – खुद के जानने की प्रक्रिया से शुरु अध्यात्म व्यक्ति को अंतर्रात्मा से जोड़ता है और एक जाग्रत विवेक तथा संवेदी ह्दय के साथ व्यक्ति परिवार, समाज एवं विश्व से जुड़ता है और विराट का एक संवेदी घटक बन जीता है।
6.   विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का आधार – अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता है,  जो सहज स्फूर्त नैतिकता को संभव बनाता है, और हम जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ते हैं। इससे व्यक्तित्व में दैवीय गुणों का विकास होता है और एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता व्यक्तित्व में जन्म लेती है।

7.  व्यक्तित्व की चरम संभावनाओं को साकार करे – अध्यात्म अंतर्निहित दिव्य क्षमताओं एवं शक्तियों के जागरण-विकास के साथ व्यक्तित्व की चरम सम्भावनाओं को साकार करता है। आज हम जिन महामानवों-देव मानवों को आदर्श के रुप में देखते हैं वे किसी न किसी रुप में इसी विकास का परिणाम होते हैं।
अतः अध्यात्म जीवन का ऐसा सत्य है, एक ऐसी अनिवार्यता है, जो देर-सवेर जीवन का सचेतन हिस्सा बनती है और लौकिक अस्तित्व को पूर्णता देती है। इस तरह यह बहस, विश्लेषण, विवेचन व चर्चा से अधिक जीने का अंदाज है जिसे जीकर ही जाना व पाया जा सकता है। प्राण वायु की तरह हर पल अध्यात्म तत्व को जीवन में धारण कर हम अपने जीवन की खोई जीवंतता और लय को पुनः प्राप्त करते हैं।


गुरुवार, 31 जुलाई 2014

जब पहिया जीवन का ठहर सा जाए


  अवसाद से वाहर निकलें कुछ ऐसे
जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब जिंदगी का पहिया थम सा जाता है, जीवन ठहर सा जाता है। लगता है जीवन की दिशाएं धूमिल हो चलीं। प्रगति का चक्का जाम सा हो चला। विकास की राह अबरुद्ध सी हो चली। तमस के गहन अंधेरे ने वजूद को अपने आगोश में ले लिया।
इन पलों में बेचैनी-उद्विग्नता भरी निराशा-हताशा स्वाभाविक है। निराशा का दौर यदि लम्बा चले तो जीवन का अवसादग्रस्त होना तय है। जीवन के इन विकट पलों में जीवन अग्नि परीक्षाओं की एक अनगिन कड़ी बन जाता है। छोटी छोटी बातें गहरा असर डालती हैं, सांघातिक प्रहार लगती हैं। थोड़ा सा श्रम तन-मन को थका देता है। जीवन के उच्च आदर्श, लक्ष्य, ध्येय, क्राँतिकारी विचार-भाव सब न जाने किस अंधेरी माँद में जाकर छिप जाते हैं। जीवन एक निरर्थक सी ट्रेजिक कॉमेडी लगता है। भाग्य का विधान, भगवान का मजाक समझ नहीं आता। वह कैसा करुणासागर है, जिसका विधान इतना क्रूर, मन प्रश्न करता है। यथार्थ के पथरीले व कंटीले धरातल पर लहुलूहान जीवन ऐसा लगता है जैसे जेल में कैदी किसी जुर्म की सजा भुगत रहा हो।
इन पलों को धैर्य, संतुलन, संजीदगी से जीना ही वास्तविक कला है, असल बहादुरी व समझदारी है। जो इन क्षणों को साहसपूर्वक पार कर ले जाते हैं, वे समझ पाते हैं कि ये विकट पल प्रगति के लिए कितने जरुरी थे। नवल विकास के लिए परिवर्तन की यह प्रक्रिया कितनी आवश्यक थी, जैसे सुबह से पहले का घनघोर अंधेरा, रोशनी से पहले की लम्बी अंधेरी सुरंग, बरसात से पहले की अंगारे बरसाती गर्मी, बसंत से पहले की पतझड़ व हाड़ कंपाती ठंड।


येही वे क्षण होते हैं जब सबसे अधिक व्यक्ति के विश्वास की परीक्षा होती है। इन्हीं क्षणों में आत्म-श्रद्धा और ईश्वरीय न्याय पर आस्था काम आती है। धैर्य, ईमान, धर्म और भगवान इन्हीं क्षणों में काम आते हैं। अपने परायों की, मित्र-बैरी की, सच्चे झूठे की परीक्षा भी इन्हीं पलों में हो जाती है। अपनी अंतर्निहित क्षमताओं व शक्तियों से गाढ़ा परिचय भी इन्हीं पलों में होता है। यदि इन पलों को धैर्य, साहस व सूझ के साथ पार कर गए तो ये अनुभवों की ऐसी सोगात झोली में दे जाते हैं, जो जीवन को हर स्तर पर कृतार्थ कर देते हैं। अनुभव से मिला शिक्षण, बुद्धि को प्रकाशित करता है, भावनाओं को मजबूत करता है और व्यक्तित्व में एक नई शक्ति का संचार करता है। अपने चरम पर ये अनुभव आत्म जागरण के पल साबित होते हैं।
इन बोझिल पलों को सरल, सहज व संजीदा बनाने और इनसे उबरने में निम्न सुत्रों को अपनाया जा सकता है -
1.     इनको अपनी प्रगति का अनिवार्य अंग माने। धैर्यपूर्वक इनका सामना करें।
2.     अपने पुरुषार्थ को जारी रखें। सामाधान की दिशा में हर कदम मायने रखता है।
3.     ऐसे सत्पुरुषों का संग साथ करें, जो हौंसला देते हों।
4.     यदि ऐसा संग सहज न हो तो, इसकी पूर्ति महापुरुषों के प्रेरक सत्साहित्य से की जा सकती है।
5.     किसी से अपनी तुलना न करें। प्रपंच (परचर्चा-परनिंदा) से दूर ही रहें।
6.     अपने सपनों को मरने न दें। जो रुचिकर लगे, उस कार्य को करते रहें।
7.     प्रकृति का सान्निध्य ऐसे दौर में नई ऊर्जा व प्रेरणा का संचार करता है। यथासंभव इसका लाभ उठाएं।
8.     ऐसे दुष्कृत्यों से दूर ही रहें, जो जीवन के अंधेरे को और घना करते हों।
9.     प्रार्थना, जप-ध्यान जैसे आध्यात्मिक उपचारों का सहारा ऐसी अवस्था में कारगर रहता है।
जीवन के प्रवाह को अवरुद्ध करने वाली चट्टान को चटकाने में ये सत्प्रयास हथोड़े की मार जैसे होते हैं, जिनका हर प्रहार अपना काम करता है। शनैः-शनैः चट्टान में दरारें पड़ती हैं और चट्टान को चटकाने वाला अंतिम प्रहार भी एक दिन बन पड़ता है। इसीके साथ जाम पड़ी जीवन की गाड़ी, पटरी पर आ जाती है और जीवन का प्रवाह अपनी लय में बहने लगता है।


रविवार, 20 जुलाई 2014

ऐसी प्रभुता मत देना हे स्वामी


ऐसा सुख मत  देना हे प्रभु,
जिससे किसी की जिंदगी बर्बाद हो।

ऐसा धन मत देना, जो हराम का हो ,
ऐसी गुरुता मत देना, जो अर्जित न हो,
ऐसी प्रभुता मत देना, जो कलंकित हो ,
ऐसी महानता मत देना, जिससे अपने लघुता को प्राप्त हों ,

ऐसी ऊँचाई मत देना, जिसका पतन हो,
ऐसा बढ़प्पन मत देना, जिसमें क्षुद्रता हो ,
ऐसी वरिष्ठता मत देना, जो हज़म न हो,
ऐसा चैन मत देना,जिससे अपनों की नींद हराम हो ,

ऐसी प्रभुता मत देना हे स्वामी,
जिससे आप विस्मृत हों।।


शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

नश्वर भटकन के उस पार


कब से तुम्हें पुकार रहा, कब से रहा निहार,

बीत चले युगों-जन्म, करते-2 तुम्हारा इंतजार।
कब सुमिरन होगा वह संकल्प शाश्वत-सनातन,
 कब कूच करोगे अपने ध्येय की ओर महान,

ैसे भूल गए तुम अमृतस्य पुत्र का आदि स्वरुप अपना,

लोटपोट हो नश्वर में, कर रहे अपनी सत्ता का अपमान।

धरती पर भेजा था क्यों, क्या जीवन का ठोस आधार,

क्यों खो बैठे सुधबुध अपनी, यह कैसा मनमाना आचार,
संसार में ही यह कैसे नष्ट-भ्रष्ट हो चले,
आत्मन् ज़रा ठहर करो विचार।

चले थे खोज में शांति-अमृत की,
यह कैसा उन्मादी चिंतन-व्यवहार,
कदम-कदम पर ठोकर खाकर,
नहीं उतर रहा बेहोशी का खुमार

कौन बुझा सका लपट वासना की,
लोभ-मोह की खाई अपार,
अहंकार की माया निराली,
सेवा में शर्तें, क्षुद्र व्यापार।

कब तक इनके कुचक्र में पड़कर,
रौरनरक में झुलसते रहोगे हर बार,
कितना धंसोगे और इस दलदल में,
पथ यह अशांति, क्लेश, गुलामी का द्वार।

बहुत हो गया वीर सब खेल तमाशा, समेट सकल क्षुद्र स्व, मन का ज़्वार,
जाग्रत हो साधक-शिष्य संकल्प में, बढ़ चल नश्वर भटकन के उस पार।



मंगलवार, 8 जुलाई 2014

मेरी जंग-ऐ-लड़ाई


ऐ जमाने, ऐ दुनियाँ,
नहीं कोई बड़ी शिकायत-गिला-शिक्वा तुमसे मेरा,
पूरी इज्जत करता हूँ मैं तेरी 
तेरे अधिकार, तेरी स्वतंत्रता, तेरी निजता की,
कोई अपमान का ईरादा नहीं है हमारा।

लेकिन झूठ के औचक प्रहार खाकर,
तिलमिला जाता हूँ अभी,
प्रत्युत्तर देना नहीं आता झूठ के स्तर पर गिरकर,
किंतु झूठ का प्रत्युत्तर अपने स्तर से, अपने ढंग से देना,
फर्ज मानता हूँ अपना,
नहीं देना चाहता जिसकी अधिक सफाई।

जानता हूँ नहीं कोई परमहंस भगवान इस जग में,
हर इंसान है पुतला गल्तियों का, अज्ञात से संचालित,
फिर सबकी अपनी अतृप्त इच्छाएं, कामनाएं अधूरी,
चित्त के विक्षोभ, द्वन्द, कुँठा, घाव संग अपनी मजबूरी,
अपने ढंग से उलझा है खुद से हर इंसान, 
हैं सबके अपने गम घनेरे,
और गहरा नहीं करना चाहता हूँ इनको अपने कर्म से।

फिर हर इंसान की अपनी मंजिल अपना सफर,
नहीं किसी से तुलना-कटाक्ष में है बड़ी समझ,
है सबका अपना मौलिक सच, मौलिक झूठ,
चित्त की शाश्वत वक्रता, अंतर की अतल गहराई,
हैं सबके सामने शिखर आदर्शों के उत्तुंग पड़े अविजित,
ऐसे में किसको करुं तलब, किससे माँगू विफलता की सफाई,  

जीवन की पहेली सुलझा रहा हूँ, परत दर परत ,
लड़ रहा हूँ खुद से अपनी लडाई।।
ऐसे में परिस्थितियों के प्रहार अपनी जगह,
चुनौतियों के जवाब अपनी जगह,

लेकिन, इनके स्रोत-समाधान पाता हूँ अंतर में,
खुद से मेरी जंग-ऐ-लड़ाई,
दुनियाँ को जीतने का रखता था ईरादा कभी,
लेकिन खुद को जीतने में समझता हूँ आज भलाई,
अपने तय मानक हैं, शिखर हैं, आदर्श हैं, 
स्व के साथ, स्व के पार कर रहा हूँ जिनका आरोहण,
खुद से है मेरी असल जंग-ऐ-लड़ाई।
 


सोमवार, 30 जून 2014

कभी किसी का मजाक मत उडाना


हर इंसान की अपनी कथा-व्यथा,

है अपनी एक अनकही कहानी,

वह जैसा है, उसका सम्मान करना।

पूरा इतिहास है हर इंसान का,

कुछ सुलझा, तो बहुत कुछ अलसुलझा,

वह क्यों है वैसा?

समय हो, धीरज हो तो,

कभी पास बैठ, सुनना-समझना,

उसकी कथा-कहानी, उसकी अपनी जुबानी।

ठोस कारण हैं उसके, कुछ भूल-चूकें, कुछ मजबूरियाँ,

कुछ अपने गम-ज़ख्म हैं उसके,

वो जो है, जैसा है, उसके कारण हैं,

यदि संभव हो तो तह तक जाना,

अन्यथा, कभी किसी का मजाक मत उड़ाना।



मंगलवार, 24 जून 2014

इन्हीं पलों को बना दें निर्णायक क्षण (Perfect moments)


परफेक्ट मोमेंट्स कभी-कभी ही आते हैं, लेकिन इनके इंतजार में अंतहीन अनिर्णय की स्थिति जीवन का एक कटु सच है। परफेक्ट क्षणों के इंतजार में न जाने कितनी प्रतिभाएं अपनी चमक बिखेरे बिना ही इस संसार से विदा हो जाती हैं। कितने ही जीवन ऐसे में कुंद इच्छाओं के साथ कुँठित जीवन जीने के लिए विवश होते हैं। कितने ही विचारकों के विचार, भावनाशीलों के भाव, कलाकारों की कल्पनाएं इस इंतजार में बिना प्रकट हुए चित्त की अंधेरी गुहा में खो जाती हैं। फिर, दूसरों को वही दिलचाहा काम करते देख, एक कुढ़न-जलन और पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं बचता। यह सही समय के इंतजार में सही निर्णय न ले पाने की कष्टप्रद स्थिति है और दीर्घसूत्रता के रुप में व्यक्तित्व विकास की एक बड़ी बाधा भी, जिससे निज़ात पाना जरुरी है।

     इसलिए जब भी कोई सशक्त विचार मस्तिष्क में कौंधे, दमदार भाव दिल में प्रस्फुटित हो, कल्पना का उद्दात झोंका चिदाकाश में तैर जाए, उसे पकड़ लें और क्रिया रुप में परिणत करने की कार्ययोजना बना डालें। हो सकता है इसे क्रिया रुप देने में कुछ समय लगे, कुछ तैयारी करनी पड़े, लेकिन ऐसा न हो कि परफेक्ट क्षण के इंतजार में यह किसी अंजाम तक पंहुचे बिना ही दम तोड़ ले। यह जीवन की एक बड़ी दुर्घटना होगी। ऐसे में अधूरे सपनों, बिखरे विचारों, अमूर्त कल्पनाओं, टूटे संकल्पों से भरे चित्त का मरघट सा सन्नाटा, किसी सुखी, सफल व संतुष्ट जीवन की परिभाषा नहीं हो सकती।

     और इस सामान्य से सच को समझना भी जरुरी है कि हर बड़ा कार्य पहले किसी व्यक्ति के अंतःकरण में एक विचार-भाव-कल्पना बीज के रुप में प्रकट होता है। फिर इसे खाद-पानी देने के लिए संकल्पित प्रयास करने पड़ते हैं और इसे पुष्पित-पल्लवित करने के लिए साहस भरे सरंजाम जुटाए जाते हैं। साथ ही, जिन ऊँचाइयों तक व्यक्ति उड़ान भर सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं। अधिकाँशतः इंसान अपना मूल्याँकन कमतर करता है, क्योंकि उसके सोचने का तरीका अपने अहं की परिधि में सिमटा होता है। लेकिन जब व्यक्ति एक विराट भाव के साथ जुड़कर आगे बढ़ता है, तो उसकी जिंदगी के मायने बदल जाते हैं। उन क्षणों में सृष्टि की तमाम् शक्तियां उसके साथ जुड़ जाती हैं और सामने संभावनाओं के असीम द्वार खुलते जाते हैं। ऐसे में जो घटित होता है वह आशा से परे आश्चर्यजनक और अद्भुत होता है।


     माना बचपन की कल्पनाएं बहुत ही अनगढ़ व मासूम हो सकती हैं, जवानी का जोश बहुत मदहोशी भरा व रुमानी हो सकता है, लेकिन इन्हीं में व्यक्ति की मौलिक संभावनाओं का सच भी छिपा होता है। इस बीजमंत्र को तलाशने व तराशने भर की जरुरत होती है। आश्चर्य नहीं कि इस प्रयास में शुरुआती तौर-तरीके बहुत ही एकांकी, अनगढ़ व अतिवादी हो सकते हैं। दुनियाँ को मध्यम मार्ग का उपदेश देने वाले भगवान बुद्ध की शुरुआत एक कठोर त्याग-तपस्या भरे अतिवाद से होती है। स्वामी विवेकानंद का शुरुआती दौर कट्टर संन्यासी के रुप में था, लेकिन भावों की उद्दातता क्रमशः प्रकट होती है। इसी तरह विराट से जुड़कर महत् कार्यों को अंजाम देने वाले हर इंसान की शुरुआत कुछ ऐसी ही कथा व्यां करती है, जो समय के साथ परिष्कृत, परिपक्व एवं पुष्ट होती है।

     अगर ये परफेक्ट समय के इंतजार में रहे होते, समय रहते अपने साहसिक निर्णय न लिए होते, तो इंसानियत इनके वरदानों से वंचित रह जाती। यही तमाम शोध, आविष्कारों से लेकर जीवन के हर क्षेत्र की खोजों, उपलब्धियों व सफलताओं से जुड़ा सच है। यहीं से एक बड़ा सच प्रकट होता है कि अपने बचपन व जवानी के सपनों, कल्पनाओं, संकल्पों के बीच रुहानी बीज को समझने की जरुरत है, जिन्हें हम प्रायः असंभव मानकर, ढर्रे के जीवन जीने के लिए अभिशप्त होते हैं। इसकी बजाए अपने मौलिक सच को खोज कर, उसे निष्कर्ष तक पहुँचाने की साहसिक शुरुआत ही इस नश्वर जीवन का सच्चा पुरुषार्थ हो सकता है।

     इसके लिए किनारों पर लहरों को गिनते हुए सागर पार करने के सपने लेते रहने भर से काम चलने वाला नहीं। पथिक को उफनते सागर में कूदने का साहस करना होगा, नाव पर सवार होने का इंतजाम करना होगा। ठोस एक्शन का शुरुआती जोखिम उठाना होगा। इसी के साथ जीवन अपने स्वप्न-सच को जीवंत करते हुए एक सार्थक अभियान बन सकता है और समाधान का एक हिस्सा बनकर व्यापक जनहित का महत कार्य सध सकता है। 


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...