रविवार, 20 जुलाई 2014

ऐसी प्रभुता मत देना हे स्वामी


ऐसा सुख मत  देना हे प्रभु,
जिससे किसी की जिंदगी बर्बाद हो।

ऐसा धन मत देना, जो हराम का हो ,
ऐसी गुरुता मत देना, जो अर्जित न हो,
ऐसी प्रभुता मत देना, जो कलंकित हो ,
ऐसी महानता मत देना, जिससे अपने लघुता को प्राप्त हों ,

ऐसी ऊँचाई मत देना, जिसका पतन हो,
ऐसा बढ़प्पन मत देना, जिसमें क्षुद्रता हो ,
ऐसी वरिष्ठता मत देना, जो हज़म न हो,
ऐसा चैन मत देना,जिससे अपनों की नींद हराम हो ,

ऐसी प्रभुता मत देना हे स्वामी,
जिससे आप विस्मृत हों।।


शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

नश्वर भटकन के उस पार


कब से तुम्हें पुकार रहा, कब से रहा निहार,

बीत चले युगों-जन्म, करते-2 तुम्हारा इंतजार।
कब सुमिरन होगा वह संकल्प शाश्वत-सनातन,
 कब कूच करोगे अपने ध्येय की ओर महान,

ैसे भूल गए तुम अमृतस्य पुत्र का आदि स्वरुप अपना,

लोटपोट हो नश्वर में, कर रहे अपनी सत्ता का अपमान।

धरती पर भेजा था क्यों, क्या जीवन का ठोस आधार,

क्यों खो बैठे सुधबुध अपनी, यह कैसा मनमाना आचार,
संसार में ही यह कैसे नष्ट-भ्रष्ट हो चले,
आत्मन् ज़रा ठहर करो विचार।

चले थे खोज में शांति-अमृत की,
यह कैसा उन्मादी चिंतन-व्यवहार,
कदम-कदम पर ठोकर खाकर,
नहीं उतर रहा बेहोशी का खुमार

कौन बुझा सका लपट वासना की,
लोभ-मोह की खाई अपार,
अहंकार की माया निराली,
सेवा में शर्तें, क्षुद्र व्यापार।

कब तक इनके कुचक्र में पड़कर,
रौरनरक में झुलसते रहोगे हर बार,
कितना धंसोगे और इस दलदल में,
पथ यह अशांति, क्लेश, गुलामी का द्वार।

बहुत हो गया वीर सब खेल तमाशा, समेट सकल क्षुद्र स्व, मन का ज़्वार,
जाग्रत हो साधक-शिष्य संकल्प में, बढ़ चल नश्वर भटकन के उस पार।



मंगलवार, 8 जुलाई 2014

मेरी जंग-ऐ-लड़ाई


ऐ जमाने, ऐ दुनियाँ,
नहीं कोई बड़ी शिकायत-गिला-शिक्वा तुमसे मेरा,
पूरी इज्जत करता हूँ मैं तेरी 
तेरे अधिकार, तेरी स्वतंत्रता, तेरी निजता की,
कोई अपमान का ईरादा नहीं है हमारा।

लेकिन झूठ के औचक प्रहार खाकर,
तिलमिला जाता हूँ अभी,
प्रत्युत्तर देना नहीं आता झूठ के स्तर पर गिरकर,
किंतु झूठ का प्रत्युत्तर अपने स्तर से, अपने ढंग से देना,
फर्ज मानता हूँ अपना,
नहीं देना चाहता जिसकी अधिक सफाई।

जानता हूँ नहीं कोई परमहंस भगवान इस जग में,
हर इंसान है पुतला गल्तियों का, अज्ञात से संचालित,
फिर सबकी अपनी अतृप्त इच्छाएं, कामनाएं अधूरी,
चित्त के विक्षोभ, द्वन्द, कुँठा, घाव संग अपनी मजबूरी,
अपने ढंग से उलझा है खुद से हर इंसान, 
हैं सबके अपने गम घनेरे,
और गहरा नहीं करना चाहता हूँ इनको अपने कर्म से।

फिर हर इंसान की अपनी मंजिल अपना सफर,
नहीं किसी से तुलना-कटाक्ष में है बड़ी समझ,
है सबका अपना मौलिक सच, मौलिक झूठ,
चित्त की शाश्वत वक्रता, अंतर की अतल गहराई,
हैं सबके सामने शिखर आदर्शों के उत्तुंग पड़े अविजित,
ऐसे में किसको करुं तलब, किससे माँगू विफलता की सफाई,  

जीवन की पहेली सुलझा रहा हूँ, परत दर परत ,
लड़ रहा हूँ खुद से अपनी लडाई।।
ऐसे में परिस्थितियों के प्रहार अपनी जगह,
चुनौतियों के जवाब अपनी जगह,

लेकिन, इनके स्रोत-समाधान पाता हूँ अंतर में,
खुद से मेरी जंग-ऐ-लड़ाई,
दुनियाँ को जीतने का रखता था ईरादा कभी,
लेकिन खुद को जीतने में समझता हूँ आज भलाई,
अपने तय मानक हैं, शिखर हैं, आदर्श हैं, 
स्व के साथ, स्व के पार कर रहा हूँ जिनका आरोहण,
खुद से है मेरी असल जंग-ऐ-लड़ाई।
 


सोमवार, 30 जून 2014

कभी किसी का मजाक मत उडाना


हर इंसान की अपनी कथा-व्यथा,

है अपनी एक अनकही कहानी,

वह जैसा है, उसका सम्मान करना।

पूरा इतिहास है हर इंसान का,

कुछ सुलझा, तो बहुत कुछ अलसुलझा,

वह क्यों है वैसा?

समय हो, धीरज हो तो,

कभी पास बैठ, सुनना-समझना,

उसकी कथा-कहानी, उसकी अपनी जुबानी।

ठोस कारण हैं उसके, कुछ भूल-चूकें, कुछ मजबूरियाँ,

कुछ अपने गम-ज़ख्म हैं उसके,

वो जो है, जैसा है, उसके कारण हैं,

यदि संभव हो तो तह तक जाना,

अन्यथा, कभी किसी का मजाक मत उड़ाना।



मंगलवार, 24 जून 2014

इन्हीं पलों को बना दें निर्णायक क्षण (Perfect moments)


परफेक्ट मोमेंट्स कभी-कभी ही आते हैं, लेकिन इनके इंतजार में अंतहीन अनिर्णय की स्थिति जीवन का एक कटु सच है। परफेक्ट क्षणों के इंतजार में न जाने कितनी प्रतिभाएं अपनी चमक बिखेरे बिना ही इस संसार से विदा हो जाती हैं। कितने ही जीवन ऐसे में कुंद इच्छाओं के साथ कुँठित जीवन जीने के लिए विवश होते हैं। कितने ही विचारकों के विचार, भावनाशीलों के भाव, कलाकारों की कल्पनाएं इस इंतजार में बिना प्रकट हुए चित्त की अंधेरी गुहा में खो जाती हैं। फिर, दूसरों को वही दिलचाहा काम करते देख, एक कुढ़न-जलन और पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं बचता। यह सही समय के इंतजार में सही निर्णय न ले पाने की कष्टप्रद स्थिति है और दीर्घसूत्रता के रुप में व्यक्तित्व विकास की एक बड़ी बाधा भी, जिससे निज़ात पाना जरुरी है।

     इसलिए जब भी कोई सशक्त विचार मस्तिष्क में कौंधे, दमदार भाव दिल में प्रस्फुटित हो, कल्पना का उद्दात झोंका चिदाकाश में तैर जाए, उसे पकड़ लें और क्रिया रुप में परिणत करने की कार्ययोजना बना डालें। हो सकता है इसे क्रिया रुप देने में कुछ समय लगे, कुछ तैयारी करनी पड़े, लेकिन ऐसा न हो कि परफेक्ट क्षण के इंतजार में यह किसी अंजाम तक पंहुचे बिना ही दम तोड़ ले। यह जीवन की एक बड़ी दुर्घटना होगी। ऐसे में अधूरे सपनों, बिखरे विचारों, अमूर्त कल्पनाओं, टूटे संकल्पों से भरे चित्त का मरघट सा सन्नाटा, किसी सुखी, सफल व संतुष्ट जीवन की परिभाषा नहीं हो सकती।

     और इस सामान्य से सच को समझना भी जरुरी है कि हर बड़ा कार्य पहले किसी व्यक्ति के अंतःकरण में एक विचार-भाव-कल्पना बीज के रुप में प्रकट होता है। फिर इसे खाद-पानी देने के लिए संकल्पित प्रयास करने पड़ते हैं और इसे पुष्पित-पल्लवित करने के लिए साहस भरे सरंजाम जुटाए जाते हैं। साथ ही, जिन ऊँचाइयों तक व्यक्ति उड़ान भर सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं। अधिकाँशतः इंसान अपना मूल्याँकन कमतर करता है, क्योंकि उसके सोचने का तरीका अपने अहं की परिधि में सिमटा होता है। लेकिन जब व्यक्ति एक विराट भाव के साथ जुड़कर आगे बढ़ता है, तो उसकी जिंदगी के मायने बदल जाते हैं। उन क्षणों में सृष्टि की तमाम् शक्तियां उसके साथ जुड़ जाती हैं और सामने संभावनाओं के असीम द्वार खुलते जाते हैं। ऐसे में जो घटित होता है वह आशा से परे आश्चर्यजनक और अद्भुत होता है।


     माना बचपन की कल्पनाएं बहुत ही अनगढ़ व मासूम हो सकती हैं, जवानी का जोश बहुत मदहोशी भरा व रुमानी हो सकता है, लेकिन इन्हीं में व्यक्ति की मौलिक संभावनाओं का सच भी छिपा होता है। इस बीजमंत्र को तलाशने व तराशने भर की जरुरत होती है। आश्चर्य नहीं कि इस प्रयास में शुरुआती तौर-तरीके बहुत ही एकांकी, अनगढ़ व अतिवादी हो सकते हैं। दुनियाँ को मध्यम मार्ग का उपदेश देने वाले भगवान बुद्ध की शुरुआत एक कठोर त्याग-तपस्या भरे अतिवाद से होती है। स्वामी विवेकानंद का शुरुआती दौर कट्टर संन्यासी के रुप में था, लेकिन भावों की उद्दातता क्रमशः प्रकट होती है। इसी तरह विराट से जुड़कर महत् कार्यों को अंजाम देने वाले हर इंसान की शुरुआत कुछ ऐसी ही कथा व्यां करती है, जो समय के साथ परिष्कृत, परिपक्व एवं पुष्ट होती है।

     अगर ये परफेक्ट समय के इंतजार में रहे होते, समय रहते अपने साहसिक निर्णय न लिए होते, तो इंसानियत इनके वरदानों से वंचित रह जाती। यही तमाम शोध, आविष्कारों से लेकर जीवन के हर क्षेत्र की खोजों, उपलब्धियों व सफलताओं से जुड़ा सच है। यहीं से एक बड़ा सच प्रकट होता है कि अपने बचपन व जवानी के सपनों, कल्पनाओं, संकल्पों के बीच रुहानी बीज को समझने की जरुरत है, जिन्हें हम प्रायः असंभव मानकर, ढर्रे के जीवन जीने के लिए अभिशप्त होते हैं। इसकी बजाए अपने मौलिक सच को खोज कर, उसे निष्कर्ष तक पहुँचाने की साहसिक शुरुआत ही इस नश्वर जीवन का सच्चा पुरुषार्थ हो सकता है।

     इसके लिए किनारों पर लहरों को गिनते हुए सागर पार करने के सपने लेते रहने भर से काम चलने वाला नहीं। पथिक को उफनते सागर में कूदने का साहस करना होगा, नाव पर सवार होने का इंतजाम करना होगा। ठोस एक्शन का शुरुआती जोखिम उठाना होगा। इसी के साथ जीवन अपने स्वप्न-सच को जीवंत करते हुए एक सार्थक अभियान बन सकता है और समाधान का एक हिस्सा बनकर व्यापक जनहित का महत कार्य सध सकता है। 


गुरुवार, 12 जून 2014

शांति सुकून भरा बुलंदी का सफर

समग्र सफलता का राजमार्ग
जीवन में हर जिंदा इंसान कुछ ऐसी बुलंदी भरी चाह रखता है, जिससे उसे एक विशिष्ट पहचान मिले, सफलता का नया आयाम मिले और साथ ही सुख-शांति, सुकून भरा अपना जहां मिले। लेकिन उत्कर्ष और अभ्युदय का ऐसा संगम-समन्वय किसी विरले को ही नसीब होता है। अधिकाँश तो सफलता की बुलंदी पर खुद को अकेला पाते हैं; संसार से कटा हुआ और खुद से भी अलग-थलग।

एकांकी सफलता का अभिशाप ऐसे में आश्चर्य नहीं कि सफलता के शिखर पर भी व्यक्ति खुद को सार्थकता के बोध से वंचित पाता है और तमाम उपलब्धि, समृद्धि व शोहरत के बावजूद एक खालीपन से अशांत-क्लाँत रहता है। फिर इस खालीपन को भरने के लिए व्यसनों से लेकर नशों का जो सहारा लिया जाता है, वह व्यक्ति को शांति-सकून से ओर दूर ले जाता है। ऐसे में, सफलता पर संदेह पैदा होता है और इसके सही मायनों की खोज शुरु हो जाती है। जीवन के मर्मज्ञ सत्पुरुषों का सत्संग सफलता के प्रति समग्र समझ पैदा करता है।

समग्र सफलता का राज मार्ग - ज्ञानियों के सत्संग में मिली जीवन दृष्टि के आधार पर पता चलता है कि जीवन में सफलता, बुलंदी के सही मायने क्या हैं। अधिकाँश लोग इस समझ के अभाव में दुनियाँ की भीड़ का एक हिस्सा बनकर एक अंधी दौड़ में शामिल रहते हैं, बिना जाने की कहाँ जा रहे हैं। परिणाम यह होता है कि हर सफलता के साथ व्यक्ति का गरुर एवं बेहोशी बढ़ती जाती है और व्यक्ति अपना शांति-संतुलन खोता जाता है। सफलता के चरम पर भीतर एक शून्य और अंतर को कचोटती पीड़ा-अशाँति के साथ जीने के लिए अभिशप्त होता है। अनवरत बाहरी दौड़ में अंतर का इतना कुछ खो चुका होता है कि जीवन को नए सिरे से परिभाषित करने की जरुरत अनुभव होती है। विज्ञजनों के अनुसार, इस दुर्घटना से बचने का राज मार्ग है, समय रहते अपने मौलिक सच को जानने की ईमानदार कोशिश, उसे जीने की साहस भरी पहल और उस पर कायम रहने की धैर्यपूर्ण दृढ़ता।

शुरुआत – अपने मौलिक बीज की खोज, शुरुआत अपनी मूल इच्छा की पहचान और उसके सम्मान से होती है। स्व-संवाद स्थापित करते हुए अपना आंतरिक अवलोकन करना पड़ता है, कि बचपन से ही कुछ करने की कुलबुलाहट, क्या रही है? अंदर की कुछ खास बातें, मौलिक विशेषताएं, जो दुनियाँ की भीड़ से हमें अलग करती हैं, वे क्या हैं? मन की गहराईयों में दबे, सतहों पर तैरते सपने, सशक्त विचार, दमदार भाव जो यदा-कदा अभिव्यक्त होने के लिए कुलबुलाते रहते हैं, वो क्या हैं? इन सब के बीच अपने जीवन के मौलिक सच का बीज प्रकट होता है।

प्रारम्भिक चुनौती - इससे जुड़ा एक सत्य यह भी है, कि प्रायः एकदम नया होने के कारण ये विचार बीज इस संसार के लिए विचित्रता लिए, समझ से परे हो सकते हैं। और इस कारण प्रायः हंसी, उपहास का कारण बन सकते हैं। इसे उपेक्षा-अवमानना, और विरोध-बहिष्कार का सामना भी करना पड़ सकता है। लेकिन यही तो अपने मौलिक सच की कसौटी है। जितना अधिक अवाँछनीय प्रतिरोध, उतना ही बड़ी आगे बढ़ने की चुनौती और अपने स्वप्न-सच को साबित करने की रोमाँचभरी जिद्द। ऐसे उदाहरणों से मानव विकास का इतिहास भरा पड़ा है, जिसमें समय से आगे सोचने व चलने वालों को काल ने कसौटी पर सका और फिर अग्नि परीक्षा से पार होने के बाद व्यापक स्वीकृति के साथ उचित स्थान दिया।  

निताँत वैयक्तिक प्रक्रिया – इस मार्ग में राह की चुनौतियों का सामना करने का बल आंतरिक स्रोत से आता है जहां अस्तित्व की गुत्थी को सुलझाने के तमाम सूत्र जुड़े होते हैं, जिसमें लोककल्याण के तत्व भी छुपे होते हैं। इसकी व्यवहारिक अभिव्यक्ति हर व्यक्ति के लिए पूर्णतः भिन्न होती है। व्यक्ति की भावनात्मक, बौद्धिक, क्रियात्मक संरचना, पारिवारिक पृष्ठभूमि, सामाजिक परिवेश, जेनेटिक रचना, पूर्व जन्म के संस्कार आदि कारक, हर व्यक्ति को दूसरे से भिन्न रुप देते हैं। हर व्यक्ति का अपना मौलिक सच है, जिसका उत्खनन उसे अपने अंतःकरण की गहराईयों से करना होता है। तमाम बाहरी मदद के बावजूद यह नितांत वैयक्तिक प्रक्रिया है, आत्मा के अनावरण की एक निजी विधि।

अगला चरण – इसे गीताकार के शब्दों में अपने स्वधर्म की खोज भी कह सकते हैं। जिसके बोध के लिए पर्याप्त मशक्कत करनी पड़ती है। इसके लिए नित्य अपना निरीक्षण-परीक्षण करना पड़ता है। इस तरह दीर्घकालीन आत्म समीक्षा के साथ क्रमशः अपना मौलिक स्वप्न-सच स्पष्ट होता जाता है। इसी प्रक्रिया में सही समय पर अनुभवी गुरुजनों का सत्संग मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है, जो इस कार्य को सरल बना देता है। लेकिन अपने मौलिक सच को जीने का अंदाज निहायत अपने दम-खम और जिम्मेदारी के बल पर शुरु होता है, आगे बढ़ता है और निष्कर्ष तक पहुँचाना होता है। गुरुजनों का सहयोग राह में उत्प्रेरक व दिशाबोधक भर होता है। मूलतः अपने बूते ही इस रोमांचक सफर को तय करना होता है।

उधारी सपनों का बोझ – सामान्यतः इसकी राह में जो व्यवधान आते हैं वे प्रायः अपनी मूल प्रेरणा की उपेक्षा के परिणाम होते हैं, जिनके चलते हम उधारी सपनों को जीने के लिए अभिशप्त होते हैं। इसमें कभी परिवारजनों की अपेक्षाओं का दबाब, तो कभी अधिक धन का प्रलोभन, कभी समाज का चलन, तो कभी झूठी प्रतिष्ठा का जाल। लेकिन ये बाहरी निर्धारण जब तक अंतर्वाणी से मेल न खाएं तब तक इनका अधिक मोल नहीं। जीवन की राह, जीवन का ध्येय, जीवन की खोज अंतःप्रेरित हो, आत्मा की गहराईयों से प्रस्फुटित हो, दिल के गहनतम भावों की अभिव्यक्ति हो, तभी उनमें जीवन को सार्थकता का बोध देने की क्षमता होती है। अन्यथा उधारी सपनों का बोझ तथा विषम परिस्थितियों के प्रहार राह में ही पथिक को विचलित कर देते हैं।  

हर श्रेष्ठता को आत्मसात करने की तत्परता – राह में यह भी आवश्यक है कि दूसरों से अनावश्यक तुलना से बचें और किसी जैसा बनने की कोशिश न करें। ऐसा करना अपने मौलिक सच के साथ बेइंसाफी है। इसकी बजाए हर श्रेष्ठ व्यक्ति से प्रेरणा लेते हुए उनकी श्रेष्ठता को अपने ढ़ंग से आत्मसात करें। इसके साथ अपने मौलिक एवं अद्वितीय स्वरुप के विकास तथा अभिव्यक्ति में ही सार्थक-सफलता का मर्म छिपा है। इसी राह पर अपने स्वभाव के अनुरुप अपनाया गया कर्तव्य-कर्म अंतर्निहित क्षमताओं से साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करता है। शनैः-शनैः उधारी सपनों का बोझ हल्का होता है और अपनी आत्मा को खोए बिना, शांति सुकून भरी बुलंदी की चाहत मूर्त रुप लेने लगती है।


शनिवार, 31 मई 2014

वो पल दो-चार


मई माह में बाद दोपहरी की शीतल वयार,


सूरज अस्ताचल की ओर बढ़ रहा,




झुरमुट के आंचल में बैठा चाय का कर रहा था इंतजार,

गगनचुम्बी देवतरु के सान्निध्य में बैठा विचारमग्न,

घाटी की गहराईयों से चल रहा था कुछ मूक संवाद,

बाँज-बुराँश के हिलते पत्ते झूम रहे थे अपनी मस्ती में,

आकाश में घाटी के विस्तार को नापती बाज़ पक्षियों की उड़ान,

वृक्षों पर वानरसेना की उछलकूद, घाटी से गूंजता पक्षियों का कलरव गान,

मन में उमड़-घुमड़ रही थी संकल्प-विकल्प की बदलियाँ,

चिदाकाश पर मंडरा रहे थे अवसाद के अवारा बादल दो-चार,

विदाई के नजदीक आते दिनों के लिए, कर रहा था मन को तैयार।

लो आ गई प्रतीक्षित प्याली गर्म चाय की,

चुस्की के साथ छंटने लगी आकाश में छाई काली बदलियाँ,

अड़िग हिमालय सा ध्यानस्थ हो चला गहन अंतराल,

थमने लगी चित्त की चंचल लहरें,

शांत हो चली प्राणों की हलचल, मन का ज्वार,

भूत भविष्य के पार स्मृति कौंध उठी अंतर में कुछ ऐसे,

वर्तमान में चैतन्य हो चला अंतस तब जैसे,

नई ताज़गी, नई स्फुर्ति का हो चला संचार,

बढ़ चले कदम कर्मस्थल (लाइब्रेरी) की ओर,

आज भी याद हैं शीतल दोपहरी में,

चाय की चुस्की के साथ, ध्यान के वे पल दो-चार।


(स्मृति, IIAS, Shimla, May 2013)




चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...