गुरुवार, 15 मई 2014

नीलकंठ महादेव – श्रद्धा और रोमाँच का अनूठा संगम

- नीलकंठ महादेव मंदिर, ऋषिकेश
हरिद्वार के समीप, ऋषिकेश क्षेत्र का भगवान शिव से जुड़ा सबसे प्रमुख तीर्थ स्थल। स्थल का पुरातन महत्व, प्राकृतिक सौंदर्य और मार्ग की एकांतिकता, यात्रा को श्रद्धा और रोमाँच का अद्भुत संगम बना देती है, जिसका अपना आध्यात्मिक महत्व है।

पुरातन पृष्ठभूमि – पौराणिक मान्यता है कि जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन के बाद कालकूट विष को कण्ठ में धारण किया तो वे नीलकंठ कहलाए। विष की उष्णता के शमन हेतु, शिव इस स्थल पर हजारों वर्ष समाधिस्थ रहे। उन्हीं के नाम से इसका नाम नीलकंठ तीर्थ पड़ा।

भौगोलिक स्थिति – यह स्थान समुद्र तल से 5500 फीट(1300 मीटर) की ऊँचाई पर स्थित है और गढ़वाल हिमालय की ब्रह्मकूट, विष्णुकूट और मणिकूट पर्वत श्रृंखलाओँ के बीच पंकजा और मधुमति नदियों के संगम पर बसा है।

मंदिर – मंदिर सुंदर नक्काशियों से सजा है, जिसमें समुद्र मंथन का दृश्य अंकित है। मंदिर में दक्षिण भारत का वास्तुशिल्प स्पष्ट है। मंदिर परिसर में शिवलिंग के साथ अखंड धुना भी विद्यमान है, जो अनादि काल से अनगिन सिद्ध-संतों की साधना का साक्षी रहा है। पीपल का अति विशाल एवं वृहद वृक्ष स्थल की पुरातनता की साक्षी देता है, जिसमें श्रद्धालु अपनी मन्नत का धागा बाँधते हैं और पूरा होने पर उसे निकालते हैं।

यात्रा मार्ग – नीलकंठ की यात्रा के चार मार्ग हैं, जिनमें दो प्रचलित हैं -

पहला, मोटर मार्ग – सबसे सरल मोटर मार्ग ऋषिकेश में गंगाजी के पार रामझूला या लक्ष्मण झूला से होकर जाता है। वहाँ से 45-50 किमी की यात्रा महज डेढ़ दो घंटे में पूरी हो जाती है। रास्ते में गंगाजी का पावन तट, आगे हिम्बल नदि के किनारे बसे गाँव का मनोरम दृश्य, बलखाती सर्पीली सड़कें, निकटवर्ती घाटियाँ, पहाड़ी गाँव व शिखर पर स्थित मंदिर के दृश्य यात्रा को यादगार बनाते हैं।


दूसरा, ट्रेकिंग मार्ग -  यह अपेक्षाकृत कठिन पैदल मार्ग है, जो रामझूला के पार, स्वर्गाश्रम से होकर जाता है। 7-8 किमी का यह ट्रैक मार्ग भी नयनाभिराम दृश्यावलियों से भरा है। चढ़ाई झर-झऱ बहते पहाड़ी नाले के किनारे से जाती है। मार्ग में सज्जन, शर्मीले व दोस्ताना लंगूरों का सामना सहज है, जो चन्ना खाने के लिए यात्रियों से हिलमिल जाते हैं। थोड़ा चढ़ाई पर नीचे गंगाजी के किनारे बसे ऋषिकेश शहर का विहंगम दृश्य दर्शनीय रहता है। सामने उत्तर की ओर शिखर पर बसा कुंजा देवी का मंदिर आश्चर्यचकित करता है। 4-5 किमी की चढ़ाई पार होते ही पहाड़ी के दूसरी ओर नीचे घाटी में नीलकंठ महादेव की झलक मिलती है। ढलती शाम के साथ परिसर से झिलमिलाती रोशनी में यहाँ एक स्वर्गीय दृश्य का सृजन होता है। 2 किमी की ढलान के बाद पहले भैंरो मंदिर आता है और फिर नीलकंठ महादेव।

तीसरा, शॉर्ट कट मार्ग – ऋषिकेश बैराज से होकर जाने वाला यह मार्ग सबसे छोटा किंतु सबसे खतरनाक है। खतरनाक इस मायने में कि यह घने जंगल से होकर जाता है, जिसमें कहीं भी हाथी, गुलदार, बाघ व अन्य वन्य पशुओं से साक्षात्कार हो सकता है। अतः बैराज में प्रवेश द्वार पर अंधेरे में या अकेले इसे पार न करने की चेतावनी दी जाती है। खड़ी चढ़ाई से भरा यह रास्ता प्रायः स्थानीय वासियों या एडवेंचर प्रेमियों द्वारा पसंद किया जाता है। महज 2-3 घंटे में यह पार हो जाता है। रास्ते में बहते नालों-झरनों व हरे-भरे घने जंगल के बीच से होकर निकलता मार्ग एक रोमाँचक अनुभव दे जाता है। ऊपर यह रास्ता गंगा दर्शन ढावा के पास मिलता है, जो झिलमिल गुफा और भुवनेश्वरी मंदिर के बीच स्थित है। यहाँ से नीचे गंगाजी की धाराओं का विहंगम दृश्य अवलोकनीय रहता है और सुदूर हरिद्वार तक का विस्तार दूर्बीन से देखा जा सकता है।

चौथा, सबसे लम्बा ट्रेकिंग मार्ग – भोगपुर गाँव व विंध्यवासनी से होकर जाने वाला सबसे लम्बा ट्रेकिंग मार्ग है, और शायद सबसे रोमाँचक भी। प्रायः शिवरात्रि में कांबड़धारी शिवभक्त इस रास्ते से वापिस आते हैं। चीलारेंज की नीलधारा नहर के किनारे भोगपुर गाँव से इसका प्रवेश होता है। 3-4 किमी के बाद पहाड़ की चोटी पर बसा मनोरम विंध्यवासनी मंदिर आता है। यहाँ तक वाहनों के लिए कच्चा मार्ग है। यहाँ से आगे 12-14 किमी पैदल ट्रैकिंग करनी पड़ती है। रास्ते में पहाड़ी नदी के किनारे 4-6 किमी तक मैदानी रास्ता चलता है। दोनों ओर अर्जुन व भोजपत्र के घने वनों से ढकी पहाड़ियाँ सफर को रोमाँचक बना देती हैं। 4-6 किमी के बाद चढ़ाई शुरु होती है। 2-3 किमी के बाद पहाड़ी बस्तियाँ आती हैं। यहीँ देवली इंटर कालेज रास्ते में पड़ता है। यहाँ वाईँ ओर से गाँव से होकर झिलमिल गुफा की ओर चढ़ाईदार रास्ता जाता है। पहाड़ी नाले, सुंदर गाँव, वहाँ के सीधे-सादे व मिलनसार लोगों के बीच 3-4 किमी के बाद झिलमिल गुफा आती है। इसे शिवपुत्र कार्तिकेय की तपःस्थली माना जाता है। मान्यता यह भी है कि यहाँ गुरु गोरखनाथ ने शाबर मंत्रों को साधा था। गुफा उपर से खुली है, लेकिन आश्चर्य जनक तथ्य इससे जुड़ा यह है कि कितनी भी बारिश हो, गुफा में रमायी गई धुनी में पानी नहीं गिरता। यहाँ कई गुफाएं हैं। जहाँ पर स्थानीय साधु-संतों की अनुमति से ध्यान-साधना के कुछ यादगार पल बिताए जा सकते हैं।
मंदिर के ही आगे गणेशजी का मंदिर है। जिसे लगता है पिछले की कुछ वर्षों में रुपाकार दिया गया है। यह इस घाटी के अंतिम छोर पर है, जहाँ से आगे के घने वनों व सुदूर घाटी के दर्शन किए जा सकते हैं।
झिलमिल गुफा से नीलकंठ की ओर रास्ते में 2-3 किमी की दूरी पर भुवनेश्वनरी माता का मंदिर पड़ता है। यह पहाड़ी पर स्थित है। मान्यता है कि जब भगवान शिव समाधिस्थ थे तो माता पार्वती यहीं पर उनकी समाधि खुलने का इंतजार करती रही। मंदिर से थोड़ा नीचे खेत में, पीपल के पेड़ के नीचे शीतल व निर्मल जल की एक बावड़ी भी है। मान्यता है कि माँ पार्वती इसी जल का उपयोग करती थीं।
मार्ग में पौढ़ी-गढ़वाल की सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं व घाटियों के साथ इनमें बसे गाँव, क्षेत्रीय फसलें, घर-परिवार, रहन-सहन व संस्कृति का दर्शन, रोमाँच के साथ एक ज्ञानवर्धक अनुभव बनता है।
भुवनेश्वरी मंदिर से ढलान के साथ 2 किमी की दूरी पर नीचे घाटी में नीलकंठ महादेव का मंदिर स्थित है। मंदिर के नीचे प्राकृतिक झरना बह रहा है, जिसमें स्नान यात्रियों की थकान को छूमंतर कर देता है। हालाँकि तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या के साथ इसका जल प्रदूषित हो चला है, जिस पर ध्यान देने की जरुरत है। 


इस तरह से पूरा शिव परिवार, नीलकंठ महादेव के इर्द-गिर्द 4-5 किमी के दायरे में बसा है। तीर्थयात्री अपनी रुचि, क्षमता व समय के अनुरुप किसी एक मार्ग का चयन कर सकता है।

आगमन हेतु निकटम स्टेशन -

यहाँ आने के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश है, जहाँ से यह 32 किमी की दूरी पर है। हवाई मार्ग से जोली ग्रांट, देहरादून निकटम एयरपोर्ट है, जो यहाँ से 49 किमी है। पैदल यात्रियों के लिए यह रामझूले को पार कर 22 किमी की दूरी लिए है। हरिद्वार से महज एक दिन में सुबह जाकर शाम तक वापिस आया जा सकता है। ट्रेकरों के लिए क्षेत्र के व्यापक अवलोकन  के लिए दो दिन पर्याप्त होते हैं।

ठहरने की व्यवस्था – नीलकंठ में ठहरने व भोजनादि की उचित व्यवस्था है। मंदिर परिसर में मंदिर की ओर से धर्मशाला है। पास ही कालीकम्बली व अन्य धर्मशालाएं हैं।

मौसम – बारह महीने इस स्थल की यात्रा का आनंद लिया जा सकता है। हालाँकि मार्च से अक्टूबर सबसे बेहतरीन माने जाते हैं। वर्ष में दो बार यहाँ विशेष भीड़ रहती है। फरवरी-मार्च में महाशिवरात्रि तथा साबन में जुलाई-अगस्त के दौरान शिवरात्रि के अवसर पर लाखों कांवड़धारी शिवभक्त यहाँ शिव आराधना के लिए आते हैं।

इस तरह नीलकंठ महादेव श्रद्धालुओं, प्रकृति प्रेमी, खोजी घुमक्कड़ों को वर्ष भर आमंत्रण देता रहता है। यहाँ की शाँत प्रकृति की गोद में लाखों यात्री जहाँ अपार सुकून पाते हैं, वहीं भावपूर्ण की गई इस सिद्धक्षेत्र की यात्रा, जीवन के पाप-ताप व संताप को हरने वाली है। हो भी क्यों न, आखिर हजारों वर्ष यहाँ समाधिस्थ रहकर नीलकंठ महादेव ने कालकूट का शमन जो किया था।
 
नीलकंठ महादेव से जुड़े अन्य यात्रा वृतांत आप नीचे पढ़ सकते हैं -
सावन में नीलकंठ महादेव की रोमाँचक यात्रा 

सोमवार, 5 मई 2014

छेड़ चला मैं तान झिंगुरी

ब्लॉग सृजन प्रेरणा
  
 
कितनी बार आया मन में,
मैं भी एक ब्लॉग बनाउं,
दिल की बातें शेयर कर,
अपनी कुलबुलाहट जग को सुनाउं।

लेकिन हर बार संशय, प्रमाद ने घेरा,
कभी हीनता, संकोच ने हाथ फेरा,
छाया रहा जड़ता का सघन अंधेरा,
लंबी रात बाद आया सृजन सवेरा।

ढलती शाम थी, वह वन प्रांतर की,
सुनसान जंगल में था रैन बसेरा,
रात के सन्नाटे को चीरती,
गुंज रही थी तान झिंगुरी,
बनी यही तान मेरी ब्लॉग प्रेरणा,
जब झींगुर मुझसे कुछ यूँ बोला।

क्या फर्क पड़ता है तान,
बेसुरी है या सुरमय मेरी,
प्रकृति की गोद में रहता हूँ अलमस्त,
गाता हूँ जीवन के तराने,
दिल खोलकर सुनाता हूं गीत जीवन के,
हैं हम अपनी धुन के दीवाने।

तुम इसे झींगुरी तान कहो या संगीत या फिर,
एक प्राणी का अलाप-प्रलाप या कुछ और,
लेकिन मेरे दिल की आवाज़ है यह,
अनुभूतियों से सजा अपना साज़ है यह,
और शायद अकेले राहगीरों का साथ है यह।

नहीं समझ आ रहा हो तो,
निकल पड़ना कभी पथिक बनकर,
निर्जन बन में शिखर की ओर अकेले,
कचोटते सूनेपन में राह का साथ बनूंगा,
सुनसान अंधेरी रात में एक सहचर लगूंगा,
भटके डगों के लिए दिशाबोधक सम्बल बनूँगा।

फिर भी न समझ आए तो, घर जाकर,
तुम भी अपना एक ब्ल़ॉग बनाना,
शेयर करना अपनी बातें दिल की,
दुनियाँ को अपनी झींगुरी तान सुनाना।

सुर बेसुरे ही क्यों न हो शुरु में,
धीरे-धीरे शब्द लय-ताल-गति पकडेंगे,
टूटने लगेगी जड़ता कलम की,
विचार-भावों की सुरसरि बह चलेगी।

जीवन ठहराव से बाहर निकल,
मंजिल की ओर बह चलेगा,
क्या मिलता है दुनियाँ से, नहीं मालूम,
हाँ, एक सुखद झौंका ताजगी का जरुर सुकून देगा।।

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

अपना सच जीने की तैयारी

पहचानो अपने मौलिक स्वप्न-सच की गहराई


कहाँ भागते हो इस जग से,
                              कहाँ फिरते हो दूर देश एकांत वन प्रांतर में,
कहीँ ऐसा तो नहीं, भाग रहे हो तुम,
                              खुद से, बोए बबूल वन, अपने अंतर के ।1।

यह कैसी दौड़ अँधी, नहीं पग के ढग स्वर में,
                              यह कैसी खुमारी, नहीं होश आगत कल के,
कहीं ऐसा तो नहीं, भाग रहे हो तुम,
                              खुद से, खोए-उलझे तार अपने मन के ।2।

दुनियाँ को दिशा देने चले थे बन प्रहरि,
                             यह कहाँ अटक गए खड़े दिग्भ्रमित चाल ठहरी,
कहीं ऐसा तो नहीं, भाग रहे हो तुम खुद से,
                        जी रहे हो सपने दूसरों से लिए उधारी ।3।

 करो तुम सामना अब हर सच का वीर बनकर,
                             सत्य में ही किरण समाधान की, साधो वीर बनकर,
संग गर ईमान तो, परवाह न करना उस जग की,
           जो खुद ही नहीं कायम कायदे पर, नहीं फ्रिक जिसे सच की।4।

करना संयम साधना तुम बन शक्ति साधक,
                            जग का उपकार करना बन शिव आराधक।
वज्र सा कठोर बन पुष्प सा कोमल,
                          करना शोध उस सत्य की, जो शाश्वत-शिव-सुंदर ।5।

पहचानो वीर! मौलिक सच अब अपना,
             देखो जागते होश में हर सपना।
दिखाओ अपने स्वप्न-सच को जीने की होशियारी,
                               नहीं और बर्दाशत अब बिगड़ैल मन की मक्कारी।6।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

दुनियां को हिलाने जो मैं चला

सार्थक परिवर्तन का सच
 
जवानी के जोश में होश कहाँ रहता है। सो इस जोश में दुनियाँ को बदलने, समाज में क्राँति-महाक्राँति की बातें बहुत भाती हैं। और वह जवानी भी क्या जो एक बार ऐसी धुन में न थिरकी हो, ऐसी रौ में न बही हो। हम भी इसके अपवाद नहीं रहे। स्वामी विवेकानंद के शिकागो धर्मसभा के भाषण का संस्मरण क्या पढ़ा कि, अंदर बिजली कौंध गई, लगा कि हम भी कुछ ऐसी ही क्राँति कर देंगे। दुनियाँ को हिला कर रख देंगे।

आदर्शवाद तो जेहन में नैसर्ग से ही कूट कर भरा हुआ था, दुनियाँ को बेहतर देखने का भाव भी प्रबल था। लेकिन अपने यथार्थ से अधिक परिचति नहीं थे। सो चल पड़े जग को हिलाने, दुनियाँ को बदलने। घर परिवार, नौकरी छोड़ भर्ती हो गए युग परिवर्तन की सृजन सेना में। धीरे-2 गुरुजनों, जीवन के मर्मज्ञ सत्पुरुषों के सतसंग, स्वाध्याय व आत्म मंथन के साथ स्पष्ट हो चला की क्रांति, परिवर्तन, दुनियाँ को हिलाने का मतलब क्या है। इसके साथ दुनियाँ को हिलाने की बजाए खुद को हिलाने वाले अनगिन अनुभवों से भी रुबरु होते रहे।


   समझ में आया कि, दुनियाँ को हिलाने से पहले खुद को हिलाना पड़ता है, दुनियाँ को जगाने से पहले खुद जागना पड़ता है। और खुद को बदलने की प्रक्रिया बहुत ही धीमी, समयसाध्य और कष्टसाध्य है। रातों रात यहां कुछ भी नहीं होता। जो इस सत्य को नहीं जानते, वे छड़ी लेकर दुनियाँ को ठीक करने चल पड़ते हैं। खुद बदले या न बदले दूसरों को बदलते फिरते हैं और दुनियाँ के न बदलने पर गहरा आक्रोश व मलाल पाले रहते हैं। और प्रायः गहन असंतोष-अशांति में जीते देखे जा सकते हैं।

   जबकि सच्चाई यह है कि संसार को बदलने की प्रक्रिया खुद से शुरु होती है। हम दुनियां में उसी अनुपात में कुछ बदलाव कर सकते हैं, जितना की हमने स्वयं पर सफल प्रयोग किया हो। समाज का उतना ही कुछ भला कर सकते हैं, जितना कि हमने खुद का किया हो। हम कितने ही प्रवचन-कथा कर लें, कितने ही लेख-शोध पत्र छाप लें, कितनी ही पुस्तकें प्रकाशित कर डालें, लेकिन यदि अंतस अनुभूति से रीता है तो इनका अधिक मोल नहीं। अंतर आपा यदि अकालग्रस्त है, तो इसमें सुख शांति के फूल कैसे खिल सकते हैं, भीतर के पतझड़ में वासंती व्यार कैसे बह सकती है व आनंद के झरने कैसे फूट सकते हैं।

   चातुर्य, अभिनय के बल पर या संयोगवश हम दुनियां में बड़ी उपलब्धि पा सकते हैं और अपनी तथाकथ महानता की दमक से जनता की आँखों को चौंधिया सकते हैं। लेकिन, बाहरी जीवन की कितनी भी बड़ी उपलब्धि भीतर के सुखेपन को नहीं भर सकती। हम दुनियां का सबसे शक्तिशाली नेता-अभिनेता, सबसे दौलतमंद, सफल व शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न बन जाएं, लेकिन यदि अंतःकरण सार्थकता की अनुभूति से शून्य है तो यह सूनापन खुद को कचोटता-काटता फिरेगा। क्योंकि अपनी अंतरात्मा अंतर के सच को बखूबी जानती है।

   तो क्यों न हम अंतर के छल-छद्म, झूठ-पाखण्ड की अंधेरी दुनियां से बाहर निकल कर सरलता-सच्चाई व अच्छाई के प्रकाश मार्ग पर बढ़ चलें। सच की आंच में खुद को तपाते हुए, अपने भूत को गलाते हुए, सृजन के पथ पर पर अग्रसर हों। नित्य अपनी दुर्बलताओं पर छोटी-छोटी विजय पाते हुए अंतर के अंधेरे कौने-कांतरों को प्रकाशित करते चलें। और समस्याओं से भरे इस संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का एक अकिंचन सा ही सही किंतु एक मौलिक योगदान दें।

   यदि इतना बन पड़ा तो समझो कि जीवन का एक नया अध्याय शुरु हो गया। तो क्यों न आज अभी से, जहां खड़े हैं वहीं से खुद को बदलने की एक छोटी सी ही सही किंतु एक ठोस शुरुआत कर दें। दुनियाँ कब बदलती है, कब हिलती है, नहीं कह सकते, लेकिन यदि खुद को बदलना शुरु कर दिया तो समझो की अपनी दुनियां तो बदल चली। और फिर ऐसा हो ही नहीं सकता कि परिर्वतन के लिए मचल रही आत्माएं आपकी चिंगारी से सुलगे बिना रह सकें।

रविवार, 13 अप्रैल 2014

इतना काफी नहीं


मंदिर में भगवान अच्छे,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
          मन मंदिर में स्थापित करना होगा।

        दीवालों पर टंगे चित्र आदर्शों के भले,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
      जीवन में धारण करना होगा।

नक्शा जीवन का क्या खूब,
 लेकिन, इतना काफी नहीं,
  जमीं पर उतारना होगा।

 भटक लिए मदहोशी में बहुत,
लेकिन, अब और नहीं,
         होश में, खुद को संवारना होगा।।

       बातें कर ली अच्छाई-भलाई की बहुत,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
               सच की आँच में खुद को तपाना होगा।

  इबादत कर लिए खुदा की बहुत,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
      खुदी को बुलन्द करना होगा।

  चर्चा हो गई परिवर्तन की बहुत,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
                                     परिवर्तन बनकर दिखाना होगा।

भांज लिए अंधेरे में लाठी बहुत,
लेकिन, समाधान कहाँ,
                                       अंतर का दीपक जलाना होगा।।

हो गयी शास्त्रों की चर्चा बहुत,
       लेकिन इतना काफी नहीं,
                     जीवन को शास्त्र बनाना होगा।

  बुलंदी को छूने का ईरादा क्या खूब,
लेकिन इतना काफी नहीं,
                             पहले खोदी खाई को पाटना होगा।

  कर लिए बातें गुरु भक्ति की वहुत,
 लेकिन इतना काफी नहीं
             शिष्यत्व को निखारना होगा।

घूमते रहे परिधि में बहुत,
            लेकिन पहुँचे कहाँ,
                                               परिधि के पार साहसिक कदम उठाना होगा।।

   कर लिए प्रार्थना, सुबह शाम बहुत,
       लेकिन इतना काफी नहीं,
                                             कर्म को प्रार्थनामय बनाना होगा।

हो गई देवत्व की बातें बहुत,
                   लेकिन क्षुद्रता से निजात कहाँ,
                         पहले एक सच्चा इंसान बनना होगा।

 हो गया भगवान का कीर्तन भजन बहुत,
लेकिन इतना काफी नहीं,
                                    छल-छिद्रों को पहले बंद करना होगा।

      हो गई क्राँति-महाक्राँति की लिखा-पढ़ी बहुत,
                    लेकिन जीवन ढर्रे पर क्यों,

      सुधार का ठोस कदमआज-अभी से उठाना होगा।।

            

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...