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गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

यात्रा वृतांत - मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-1

हरिद्वार से उत्तकाशी

आज एक चिरप्रतिक्षित यात्रा का संयोग बन रहा था। पिछले कई वर्षों से बन रही योजना आज पूरा होने जा रही थी। लग रहा था कि जैसे गंगोत्री धाम का बुलावा आ गया। पत्रकारिता के 31 सदसीय छात्र-छात्राओं के दल के साथ गंगोत्री का शैक्षणिक भ्रमण सम्पन्न हो रहा था। पूरी यात्रा के पश्चात समझ आया कि इसकी टाइमिंग यह क्यों थी, जबकि पिछले चार-पांच वर्षों से गंगोत्री जाने की योजना बन रही थी, लेकिन किसी कारण टलती रही। इस बार की यात्रा के साथ घटित संयोग एवं सूक्ष्म प्रवाह के साथ स्पष्ट हुआ कि तीर्थ स्थल का बुलावा समय पर ही आता है, जिसमें अभीप्सुओं की संवेत पुकार के साथ जेहन के गहनतम प्रश्नों-जिज्ञासाओं के प्रत्युत्तर मिलते हैं और यह सब दैवीय व्यवस्था के अचूक विधान के अंतर्गत होता है, विशेषकर जब मकसद आध्यात्मिक हो।

6:15 AM, DSVV

29 सितम्बर की सुबह विद्यार्थियों एवं शिक्षकों का 39 सदसीय दल देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण से गायत्री महामंत्र की गुंजार के साथ प्रातः सवा छः बजे निकल पड़ता है। सभी के चेहरे पर नए गन्तव्य की ओर कूच करने के उत्साह, उमंग एवं रोमाँच के भाव स्पष्ट थे।

आधे घंटे में काफिला ऋषिकेश को पार करते हुए दोराहे पर माँ भद्रकाली के द्वार से आशीर्वाद लेते हुए वाईं सड़क पर नरेंद्रनगर की ओर बढ़ता है।


आल वेदर रोड़ की चौड़ी एवं साफ सड़क पर गाड़ी सरपट दौड़ रही थी। रास्ते में घाटी से उठते व बस का आलिंग्न करती धुंध और बादलों के फाहे खुशनुमा अहसास दिला रहे थे। स्थान-स्थान पर जलस्रोत ध्यान आकर्षित कर रहे थे। नरेंद्रनगर के प्रख्यात आनन्दा रिजॉर्ट को पार करते हुए बस कुंजापुरी के नीचे हिंडोलखाल से होते हुए आगरा खाल पहुंचती हैं, जहाँ प्रातःकालीन चाय-नाश्ता के लिए गाड़ी रुकती है।

8:30-9:00 AM, HINDOLKHAL, BREAKFAST

इस रुट पर अक्टूवर 2018 में सम्पन्न यात्रा वृतांत (गढ़वाल हिमालय की गोद में सफर का रोमाँच https://www.himveeru.dev/2018/11/blog-post.html) में इस रुट की तात्कालीन स्थिति को पढ़ सकते हैं और इस बीच हुए परिवर्तनों को भी समझ सकते हैं।

बांज बहुल इस क्षेत्र में हिमालयन वृक्षों के वनों व इनकी विशेषताओं से विद्यार्थियों को परिचित कराते है और साथ ही पनपे हुए चीड़ के वृक्षों से भी।


साथ लाई गई पूरी-सब्जी के साथ चाय का नाश्ता होता है और रिफ्रेश होकर काफिला आगे बढ़ता है। पहाड़ों में हिमालयन गांव के दृश्यों को देखकर रहा नहीं गया और केबिन में बैठकर मोबाईल से इनके सुंदर दृश्यों को कैप्चर करने का क्रम शुरु होता है।

बस में चल रहे सुमधुर गीतों की धुन एवं कालजयी संगीत के साथ किसी जमाने के फिल्मी गीतों की अपार सृजनात्मकता क्षमता पर विचार आता रहा और आज के अर्थहीन, वेसुरे और हल्के गीत-संगीत पर तरस आता रहा।

सेम्बल नदी पारकर बस इसके संग नई घाटी में प्रवेश करती है और चम्बा वाईपास से होकर आगे बढ़ती है।


इस संकरी घाटी में सफर एक नया ही अनुभव रहता है, जिसमें सड़क के किनारे तमाम ढावे-रेस्टोरेंट्स यात्रियों को चाय-नाश्ता का नेह भरा निमंत्रण देते रहते हैं, जिनके आंगन में सजी लोक्ल दालों, सब्जियों व फलों की नुमाइश भी दर्शनीय रहती है। इनकी विशेषता इनका आर्गेनिक स्वरुप रहता है, जिसे बापिसी में देवभूमि की याद के रुप में प्रसाद रुपेण खरीदा जा सकता है।

10:00 AM, CHAMBA

चम्बा शहर को वाईपास से पार करते हैं और अनुमान था कि हम नई टिहरी से होकर उत्तरकाशी की ओर बढ़ेंगे। लेकिन पता चला कि हम टिहरी से न होकर नए रास्ते से आगे जा रहे हैं। पहले टिहरी से होकर उत्तरकाशी का रास्ता जाता था। आल वेदर रोड़ के चलते नया रुट शुरु हो गया है, जिसमें संभवतः कई गाँव कवर होते हैं और साथ ही दूरी भी शायद कम पड़ती हो। चम्बा से लगभग 12 किमी आगे एक शांत-एकाँत स्थल पर बस चाय के लिए रुकती है।


10:30-11:00 AM, TEA BREAK

प्रकृति की गोद में बसे ढावे के संग बह रहा पहाड़ी नाला कलकल निनाद के साथ गुंज रहा था। साथ ही झींगुरों की सुरीली तान भी गुंज रही थी, जो स्थल की निर्जनता को पुष्ट कर रही थी। ढावे के बाहर साइड में एक क्षेत्रीय महिला वाजिब दामों में लोक्ल किवी बैच रही थी, जिसे हम बापिसी में खरीदने की योजना बनाते हैं।

सफर फिर आगे बढ़ता है। वृक्ष वनस्पतियों व जंगल पहाड़ों के स्वरुप को देखकर स्पष्ट था कि हम मध्य हिमालय की खूबसूरत वादियों से गुजर रहे थे। बीच-बीच में सुंदर-स्वच्छ पहाड़ी बस्तियों के दर्शन होते रहे।


रास्ते में टिहरी बाँध के वेकवाटर से बनी झील के दर्शन होते हैं, जो हमारे लिए एक नया आकर्षण था। उस पार के गाँव में चल रहे खेती के साथ सोलर लाइट के प्रयोग भी ध्यान आकर्षित करते रहे।

पूरा मार्ग जल स्रोतों की न्यूनता की मार से ग्रस्त दिखा। हाँ पीछे गगनचूंबी पहाड़ों से पुष्ट नाले व छोटे नद बीच-बीच में अवश्य दिखते रहे। अगले कुछ घंटों में सर्पिली सड़क के संग, कई पुलों को पार करते हुए हम 12 बजे तक कमान्द को पार करते हैं और चिन्यलिसौर, धरासु जैसे स्थलों को पार करते हुए उत्तरकाशी की ओर बढ़ते हैं।

1:00 PM, UTTARKASHI

दिन के 1 बजे हम उत्तरकाशी शहर में प्रवेश करते हैं, जो इस राह का एक प्रमुख स्थल है। यह विश्वनाथ मंदिर के लिए प्रख्यात है, जहाँ परशुरामजी द्वारा निर्मित विशाल त्रिशूल विद्यमान है। उत्तरकाशी में पर्य़ाप्त गर्मी का अहसास हो रहा था। यहाँ आल वेदर रोड़ भी समाप्त हो गया था। और अब आगे तंग रास्ते से होकर सफर शुरु होता है, जो बीच-बीच में उबड़-खाबड़ होने के कारण कहीं-कहीं थोड़ा असुविधाजनक भी अनुभव हो रहा था। इस रास्ते में आगे का अहम पड़ाव था गंगोरी। जहाँ कई आध्यात्मिक संस्थानों के आश्रम, मंदिर व धर्मशालाएं दिखी। अब हम हिमालय की गहन वादियों में प्रवेश कर चुके थे। मौसम की गर्मी कम हो रही थी और एक शीतल अहसास अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रोमाँच के भाव को तीव्र कर रहा था। (भाग-2, जारी...)

बुधवार, 26 मई 2021

यात्रा वृतांत कैसे लिखें?

                       


                              यात्रा वृतांत लेखन के चरण

निश्चित रुप में यात्रा वृतांत का पहला ठोस चरण तो यात्रा के साथ शुरु होता है। व्यक्ति कहाँ की यात्रा कर रहा है, किस भाव और उद्देश्य के साथ सफर कर रहा है और किस तरह की जिज्ञासा व उत्सुक्तता लिए हुए है, इनकी गहनता, गंभीरता एवं व्यापकता एक अच्छे यात्रा वृतांत के आधार बनते हैं तथा यात्रा वृतांत में रोचकता और रोमाँच का रस घोलते हैं और साथ ही ज्ञानबर्धक भी बनाते हैं।

यात्रा वृतांत ज्ञानबर्धक बने इसके लिए यह भी आवश्यक हो जाता है कि यात्रा स्थल या रुट का पहले से कुछ अध्ययन किया गया हो। या कह सकते हैं कुछ रिसर्च की हो। पहले इसका एक मात्र साधन दूसरों के लिखे यात्रा वृतांत पढ़ना या वहाँ से घूम आए लोगों से की गई चर्चा होती थी। लेकिन आज इंटरनेट के जमाने में यह काम बहुत आसान हो गया है। लगभग हर लोकप्रिय ठिकानों पर ब्लॉग से लेकर वीडियोज मिल जाएंगे। बाकि कसर गूगल गुरु पूरा कर देते हैं, जिसमें किसी भी स्थान पर तमाम तरह की जानकारियाँ उपलब्ध रहती हैं।

यहीं से यात्रा वृतांत में नूतनता लाने के सुत्र भी मिल जाते हैं, कि अब तक दूसरे यात्री क्या कवर कर चुके हैं और इसमें कौन से पहलु या एंग्ल अभी बाकि हैं। हो सकता है कि अमुक यात्रा में आपकी रुचि के विषय पर अभी कोई प्रकाश ही न डाला गया हो या जो जानकारियाँ उपलब्ध है वे आपकी जिज्ञासा व उत्सुक्तता का समाधान नहीं कर पा रही हों। ऐसे में यह जानकारी का अभाव या खालीपन आपके यात्रा लेखन के नूतनता का एक प्रेरक तत्व बन जाता है।

उदाहरण के लिए हम एक शैक्षणिक भ्रमण में ऋषिकेश के पास कुंजादेवी शक्तिपीठ से बापसी में नीरझरना घूमना चाहते थे, लेकिन हमें कोई इसकी जानकारी देने वाला नहीं मिला। इंटरनेट खंगालने पर भी नीरझरने की कुछ फोटो या वीडियो के अलावा रुट की कोई जानकारी नहीं मिली। सो शिखर पर बसे कुँजापुरी से बापसी में लोगों से पूछते हुए, बीच में राह भटकते हुए हम इसको कवर किए थे। लेकिन यह स्वयं में एक रोचक एवं रोमाँचक यादगार यात्रा बन गई थी। इसे आप चाहें तो आगे दिए लिंक में पढ़ सकते हैं।यात्रा वृतांत - कुंजापुरी से नीरझरना ट्रैकिंग एडवेंचर।

और यदि स्थान बहुत लोकप्रिय है और इसमें पर्याप्त कवरेज हो चुकी है, तो भी यात्रा लेखक  अपने विशिष्ट नजरिए, अंदाज व शैली के आधार पर इसे नयापन दे सकता है, बल्कि देता है। एक ही स्थान को देखने के अनगिन नजरिए हो सकते हैं। किसी भी स्थान का प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक विशेषता, ऐतिहासिक-पौराणिक पृष्ठभूमि, वहाँ का रहन-सहन, खान-पान, लोक संस्कृति, विशिष्टता, राह की खास बातें आदि कितनी बातें, कितने तरीकों से व्यक्त हो सकती हैं। इसमें व्यक्ति के अपने मौलिक अनुभव एक नयापन घोलने में सक्षम होते हैं, जिससे कि यात्रा वृतांत एक ताजगी लिए तैयार होता है।

इसके साथ कोई भी स्थान या रुट कितना ही सुंदर, आकर्षक या मनभावन क्यों न हो, वहाँ कि कुछ कमियाँ, राह की दुर्गमताएं, समस्याएं या क्लचरल शॉक्स आदि भी यात्रा वृतांत के रोचक विषय बनते हैं, जो पाठकों के लिए उपयोगी हो सकते हैं। इससे नए यात्री या पर्यटक इनसे परिचित होकर आवश्यक तैयारी या सावधानी के साथ यात्रा का पूरा आनन्द ले पाते हैं। यदि लेखक किसी विषय की जानकारी रखता हो या विशेषज्ञता लिए हो तो स्थानीय समस्याओं के संभावित समाधान पर भी प्रकाश डाल सकता है, जो यात्रा वृतांत में ज्ञानबर्धन आयाम जोड़ते हैं और इसकी पठनीयता बढ़ जाती है। इसमें संवेदनशील व संतुलित रवैया उचित रहता है तथा दोषारोपण या छिद्रान्वेषण आदि से हर हालत में बचना उचित रहता है।

यात्रा वृतांत में राह में मिले अन्य यात्रियों, स्थानीय लोगों के साथ चर्चाएं भी यात्रा वृतांत के अनिवार्य पहलु रहते हैं, जो जानकारी को और प्रामाणिक तथा रोचक बनाते हैं। इससे पाठकों की कई सारी जिज्ञासाओं व प्रश्नों के समाधान बात-बात में मिल सकते हैं। अतः यात्रा में लोगों से संवाद एक महत्वपूर्ण तत्व रहता है, जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यात्रा लेखक यदि घूमने के जुनून व जिज्ञासाओं से भरा हुआ है, तो ऐसे संवाद सहज रुप में ही घटित हो जाते हैं और प्रकृति भी राह में उचित पात्र के साथ मुलाकात में सहायक बनती है। इसमें कई लोगों को थोड़ा अचरज हो सकता है, लेकिन अनुभवी घुम्मकड़ ऐसे संयोगों को सहज रुप में समझ रहे होंगे व ऐसे संस्मरणों से नित्य रुबरु होते रहते हैं।

यात्रा वृतांत में फोटो का अपना महत्व रहता है। सटीक फोटो इसकी पठनीयत को बढ़ा देता है। यात्रा लेखक अपने लेखकीय कौशल के आधार पर जो कह नहीं पाता, वह एक उचित चित्र बखूबी व प्रभावशाली ढंग से स्पष्ट कर देता है, जिससे पाठक को यात्रा के साथ भाव चित्रण में सहायता मिलती है। हालाँकि किसी स्थल के प्राकृतिक सौंदर्य़, भौगोलिक विशेषता या भावों के सुंदर व जीवंत चित्रण को लेखक अपनी कलम से करने में काफी हद तक सक्षम होता है, जिसको पढ़ने का अपना आनन्द रहता है। किसी जमाने में जब फोटोग्राफी का चलन नहीं था, तो लोग पेन या पेंसिल के स्कैच से भी चित्रों का काम चला लिया करते थे।

यात्रा वृतांत लेखन में एक महत्वपूर्ण पहलू राह के पड़ाव व स्थानों के नाम व उनसे जुड़ी मोटी व खास जानकारियाँ भी रहते हैं। इसके लिए एक डायरी व पेन साथ में रहे, तो उचित रहता है। जहाँ भी जो स्थान आए, इनके नाम नोट किए जा सकते हैं। और यदि पहले से कुछ रिसर्च कर रखें हैं, तो इन स्थानों को पहले से ही डायरी में सुचिबद्ध कर रखा जा सकता है तथा साथ में सफर कर रहे लोगों से कुछ खास जानकारियों को बटोरा जा सकता है। फिर अपने अनुभव के आधार पर इनमें अतिरिक्त नयापन जोड़ा जा सकता है। अपनी डायरी या नोटबुक में नोट किए गए ये नाम या बिंदु बाद में लेखन में सहायक बनते हैं।

यात्रा पूरी होने के बाद फिर लेखन की बारी आती है। इसमें लेखन से जुड़े सर्वसामान्य नियमों का अनुसरण करते हुए पहला रफ ड्राफ्ट तैयार किया जाता है, जिसमें अपनी यात्रा के अनुभवों को एक क्रम में कागज या कम्पयूटर-लैप्टॉप पर उतारा जाता है। फिर शांत मन से कुछ और विचार मंथन व शोध के आधार पर दूसरे ड्रॉफ्ट में अतिरिक्त आवश्यक तथ्यों व जानकारियों को शामिल किया जा सकता है तथा इसमें भाषा की अशुद्धियों को ठीक करते हुए इसे पॉलिश किया जाता है। यदि लेखन की इस प्रक्रिया को विस्तार से जानना है तो हमारे ब्लॉग पर लेखन कला - लेखन की शुरुआत करें कुछ ऐसे को पढ़ा जा सकता है।

यात्रा वृतांत लेखन में यदि इन बातों का ध्यान रखा जाए व इन चरणों का अनुसरण किया जाए, तो निश्चित ही एक बेहतरीन यात्रा ब्लॉग तैयार हो जाएगा। और पाठक इसको पढ़कर यात्रा के साथ जुडी रोचकता व रोमाँच को अनुभव करेंगे। उनके ज्ञान में इजाफा होगा तथा वे आपके साथ भावयात्रा करते हुए सफर के आनन्द का हिस्सा बनेंगे। शायद यही तो एक यात्रा लेखन का मकसद रहता है।

यात्रा लेखन के ऊपर दिए बिंदुओं को और बेहतर समझने के लिए नीचे दिए कुछ यात्रा वृतांतों को पढ़ा जा सकता है -

यात्रा वृतांत - हमारी पहली झारखण्ड यात्रा

यात्रा वृतांत - सुरकुण्डा देवी का वह यादगार सफर, भाग-1

यात्रा वृतात - कुल्लू से नेहरुकुण्ड-वशिष्ट वाया मानाली लेफ्ट बैंक

यात्रा लेखन से जुड़े कुछ अन्य उपयोगी लेख -

यात्रा लेखन के मूलभूत तत्व

हिंदी यात्रा लेखन की परम्परा एवं यात्रा लेखन के महत्व

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

यात्रा वृतांत-सुरकुंडा देवी का वह यादगार सफर, भाग3


गढ़वाल हिमालय के सबसे ऊँचे शक्तिपीठ के दिव्य प्राँगण में
माँ सुरकुडा देवी शक्तिपीठ का भव्य प्रांगण


कद्दुखाल से सुरकुंडा देवी तक 3 किमी का ट्रेकिंग मार्ग है, जहाँ हमें 8000 फीट से लगभग 10000 फीट ऊँचाई तक का आरोहण करना था। पूरा रास्ता पक्का, पर्याप्त चौड़ा और सीढ़ीदार है, प्रायः हल्की चढ़ाई लिए समतल, लेकिन बीच-बीच में खड़ी चढ़ाई भी है। जो चल नहीं सकते, उनके लिए घोड़े-खच्चरों की भी व्यवस्था है, लेकिन हमारे दल में कोई ऐसा नहीं था जिसे इनकी जरुरत पड़ती। पहाड़ को चढ़ने का सबका उत्साह और जोश देखते ही बन रहा था। अगले ही कुछ मिनटों में दल का बड़ा हिस्सा दृष्टि से औझल हो चुका था, कुछ ही पथिक साथ में बचे थे।
सुरकुण्डा हिल के चरणों से आगे बढ़ता काफिला


लगभग आधा पौन घंटे की चढ़ाई के बाद दम फूल रहा था, सो यहाँ एक बड़े से बुराँश पेड़ की छाया तले रेलिंग के सहारे खड़े हो गए, कुछ दम लिए, जल के दो घूंट से सूखे गले को तर किए और फिर आगे चल दिए। इन विशिष्ट पलों को यादगार के रुप में कैमरे में केप्चर किए।

प्यासे कंठ को तर करता पथिक

इस रास्ते की खासियत ये बुराँश के पेड़ भी हैं, जो पर्याप्त मात्रा में लगे हैं। गुच्छों में लगी लम्बी हरि पत्तियाँ इनकी पहचान है। अप्रैल-मई माह में इनमें सुर्ख लाल रंग के फूल लगते हैं, जिनसे तैयार किया गया जूस औषधीय गुणों से भरपूर रहता है, विशेषरुप से ह्दय के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी।
राह में बुराँश के पेड़

इसी रास्ते में खट्टे-मीठे जंगली फलों की झाडियां भरपूर मात्रा में लगी हैं, बल्कि बीच में तो सड़क इन्हीं से घिरी हुई दिखीं। इनमें कांटेदार पत्तों बाली दारू हल्दी(शाम्भल), आंछा आदि विशेषरुप में दिखी। कुछ नए पौधे व झाड़ियां भी थीं। लगा, इनके जानकार किसी जड़ी-बूटी विशेषज्ञ के साथ इस इलाके की यात्रा यहाँ की दुर्लभ वनस्पतियों पर रोचक प्रकाश डाल सकती है।
शॉर्टकट को आजमाता काफिला

काफिले के साथ बीच में मुख्य मार्ग से हटकर हमनें कुछ चढ़ाईदार शॉर्टकट्स भी मारे, जिसकी राह में वाचा घास के दर्शन हुए। इसको देखते ही जैसे बचपन आंखों के सामने तैर उठा, जब हमारे नानाजी अपने कपड़े की थैली से लोहे की कमानी निकालकर चकमक पत्थर पर चोट मारते और इसकी चिंगारी वाचा घास को सुलगा देती, जिसे चिल्म की तम्बाकू पर रखकर आग सुलगते हुए उनकी चिल्म तैयार हो जाती। तब नानाजी यह घास स्थानीय जंगलों से लाते थे। यहाँ यह अग्नि प्रज्जवल्क घास हमें प्रचुर मात्रा में ढलानों में उगी दिखी। लगा नहीं कि यहाँ कोई इसके इस गुण, धर्म व प्रयोग से परिचित है, क्योंकि यह निर्बाध रुप से ढलानों पर फैली थी।
जंगली बाचा घास 
रास्ते में चाय-नाश्ते आदि की व्यवस्था ढाबों में थी, लेकिन आज समय अभाव के चलते यहाँ रुकने की गुंजाइश नहीं थी। बाकि, साथ में रखी पानी की बोटल से काम चल रहा था। जहाँ थक जाते दो पल दम भरते और आगे चल देते। रास्ते में हमें हर उमर के सैलानी, तीर्थयात्री मिले, जिनमें बच्चे, बुढ़े, जवान, कप्पल, स्टुडेंट व प्रौढ़ शामिल थे। सबसे आश्चर्य नन्हें बच्चों को पैदल ट्रैकिंग करते हुए देखकर हुआ, जिनमें एक-ड़ेढ़ साल से लेकर 3 साल तक के बच्चे दिखे। इनको देखते ही मन रोमाँचित हो उठता, इनके जीवट को सलाम करते हुए इनसे हेंडशैक करते, इनको टॉफियाँ देते और लगता कि येही दुर्गम शिखरों पर शौर्य एवं जीवट का झंड़ा फहराने वाले भावी कर्णधार हैं।
यायावरी और तीर्थाटन का उज्जवल भविष्य

मंजिल के लगभग अंतिम शॉर्टकट के दौरान रास्ते में हमें हेलीकॉप्टर के दर्शन हुए, जो घाटी में हमसे काफी नीचे उड़ रहे थे। अहसास हुआ, जिन हेलीकॉप्टर को हम मैदान में नीचे से निहारते हैं, आज वो हमसे कितना नीचे हैं और जैसे वो हमको निहार रहे हों। लगा, यह ऊँचाईयों के साथ दोस्ती का परिणाम था। जितना हम ऊँचाईयों का संग-साथ करते हैं, उतना ही निचाईयां पीछे छूटती जाती हैं और अनायास ही हम ऊच्चता एवं महानता के संवाहक बन जाते हैं।
मंजिल के समीप और नीचे घाटी का विहंगम दृश्य

लेकिन अपनी उच्चता का मुगालता पालने की भी जरुरत नहीं। प्रभु की सृष्टि में हर इंसान व प्राणी अपनी मौलिक विशेषता के बावजूद अधूरा है और सबको मिलकर ही सर्वसमर्थ पूर्ण सत्ता बनती है। इन्हीं क्षणों में टीम के जागरुक सदस्यों ने  सर पर काफी ऊँचाईयों में मंडराते हुए ड्रोन कैमरे की ओर ईशारा किया। लगा सब प्रभु की माया है, हेलीकोप्टर नीचे और ड्रोन कैमरा हमारे ऊपर, हम बीच में कहीं। काहे का तथाकथित महानता का मुगालता-काहे का दंभ, काहे की तुलना और काहे का कटाक्ष। हम तो माता के दर्शन के लिए निकले थे, मंजिल पास थी, सो उस पर ध्यान केंद्रित कर सामने खड़ी मंजिल की ओर बढ़ चले।
मंजिल की पहली झलक - माँ सुरकण्डा परिसर

हम उस बिंदु पर थे, जहाँ से उड़न खटोले का काम चल रहा था। अगले कुछ ही महीनों में इसके तैयार होने के आसार हैं। कमजोर, बुजुर्ग और बीमार लोगों के लिए यह सुविधा वरदान सावित होने वाली है, जो पैदल चलकर या खच्चरों पर बैठकर यहाँ तक नहीं आ सकते। साथ ही यह भी लगा कि इस सुविधा के चलते कई स्वस्थ-सक्षम किंतु आरामतलब लोग इस राह के रोमाँच व सुंदर नजारों से बंचित रह जाएंगे। 
घाटी का विहंगम दृश्य और नीचे कद्दुखाल स्टॉप

सुरकुंडा देवी के दिव्य प्रांगण में
जुत्ताघर में जुता उताकर हम मंदिर के पावन परिसर में प्रवेश किए। आगे पहुँचे हुए सदस्य सब इधऱ-उधर तितर-बितर हो चुके थे। हम मंदिर की परिक्रमा कर मंदिर में प्रवेश किए, माता का दर्शन किए, आशीर्वाद लिए और बाहर मंदिर के पीछे एक कौने पर आसन जमाकर बैठ गए। सामने बर्फ से ढकी हिमालय की विराट ध्वल श्रृंखलाएं अपने दिव्य वैभव के साथ अटल तपस्वी जैसी खड़ीं थी, उस ओर मुंह कर कुछ पल चिंतन-मनन व ध्यान के विताए। 
हमारे विचार से सुरकुंडा शक्तिपीठ से हिमालय का पावन सान्निध्य इस स्थल को विशिष्ट बनाता है। यहाँ विताए कुछ पल बैट्री चार्ज जैसा अनुभव रहते हैं।
मंदिर परिसर से सुदूर गढ़वाल हिमालय पर्वत श्रृंखला के दिव्य दर्शन

काफिले का फोटो और सेल्फी अभियान जारी था। आग्रह पर हम भी बीच में शामिल हो गए और अंत में सबको बटोरकर एक ग्रुफ फोटो के बाद भगवती को अपना भाव निवेदन करते हुए बापिस चल दिए।
छात्र-छात्राओं के संग शिक्षकगण - यादगार पल

ज्ञातव्य हो कि सुरकुंडा माता वह शक्तिपीठ है, जहाँ सती माता का सर व कंठ बाला हिस्सा गिरा था, इसलिए इसका नाम सरकंठ पड़ा, जो क्रमशः बदलते-बदलते सुरकुंडा हो गया। यहाँ नवरात्रियों व ज्येष्ठ माह के गंगा दशहरा के दौरान विशेष भीड़ रहती है। आज यहाँ भीड़ उतनी अधिक नहीं थी। 
मंदिर परिसर में हनुमान, शिव-परिवार सहित अन्य देवी-देवताओं के विग्रह स्थापित हैं, जो हिमालय की पृष्ठभूमि में विशिष्ट भाव जगाते हैं।
हिमालय अधिपति शिव-शक्ति 
     
मंदिर का नवनिर्माण पिछले ही वर्षों हुआ है, जो एक विशेष शैली में है। इस शैली का मंदिर हम पहली वार देखे। यह इस क्षेत्र के सबसे ऊँचे शिखर पर स्थापित है, जहाँ से देहरादून, ऋषिकेश, प्रतापनगर एवं चकराता साइड के सुंदर दृश्यों को निहारा जा सकता है। मौसम साफ होने पर कुंजादेवी, चंद्रबदनी सहित केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री क्षेत्र की समस्त चोटियों के दर्शन किए जा सकते हैं। 

हिमालय कुछ कह रहा है...

सामने बर्फ से ढकी सफेद चोटियों के दर्शंन तो हमें भी हो रहे थे, लेकिन ये कौन सी चोटियां हैं, बताने वाला यहाँ भी कोई नहीं मिला, सो इस अनुतरित प्रश्न के साथ हम बापिस चल पड़े।
बापसी का रास्ता
बापिसी में घाटी के विहंगम दर्शन

इस जिज्ञासा के साथ हम बापिस कद्दुखाल तक नीचे उतरे। उतरने में अधिक समय नहीं लगा। चढ़ाई जहाँ लगभग 2 घंटे में तय हुई थी, उतराई महज पौने घंटे में पूरी हो गयी। उतराई में हम अघोषित नियमानुसर सबसे आगे थे। रास्ते में बुराँश के पेड़ हमें विशेष रुप में प्रभावित करते रहे, लगा कि अप्रैल-मई में फूलने पर इनके सुर्ख लाल फूलों से गुलजार इनके जंगल कितने सुंदर लगते होंगे।
देहरादून साइड की खुबसूरत वादियाँ

जहाँ थोड़ा दम भरना होता, वहाँ खड़ा होकर नीचे की घाटी के विहंगम दृश्य को निहारते, जो स्वयं में अद्भुत, मनोरम एवं बेजोड़ हैं। लगता इन्हें निहारते हुए यहीं ठहर जाएं, लेकिन समय की सीमा इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। 
पूरा काफिला धीरे-धीरे उस बिंदु तक आ रहा था, जहाँ से ट्रेक शुरु हुआ था। यहाँ भूखे खच्चर सड़क किनारे घास चर रहे थे।
पैदल ट्रेकिंग मार्ग और घास चरते घोड़े

नीचे कद्दुखाल उतरकर पूरे समूह ने भोजन किया। महज 60 रुपए में पूरी थाली और गर्मागर्म रोटियाँ। भूख लगने पर भोजन का आनन्द कई गुणा बढ़ गया था। बाहर छत से नीचे घाटी का नजारा देखने लायक था। यहाँ तेज हवा चल रही थी, ठंड़ काफी बढ़ चुकी थी, बंद पड़े स्वाटर-जैकेट अब काम आ रहे थे। साथ में दूसरे पाठयक्रमों के बच्चों के साथ धीरे-धीरे जान-पहचान हो रही थी और इनकी बालसुलभ जिज्ञासाओं का समाधान करते-करते एक आत्मीयतापूर्ण भाव स्थापित हो चुका था तथा कुछ नाम याद भी हो गए थे। पूरे ग्रुप का अनुशासन व सहयोग काबिले तारीफ रहा। पूरा ट्रिप एक यादगार सफर के रुप में कई सुखद अनुभवों के साथ स्मृतिपटल पर अंकित रहेगा।
ढलती शाम और अंधेरे में बापसी का सफर
कद्दुखाल -धनोल्टी - मसूरी सड़क
शाम को साढ़े चार तक हम कद्दुखाल से चल चुके थे। ढलती शाम के साथ सफर आगे बढ़ रहा था। रास्ते में अँधेरा हावी हो चुका था। रात को सेलुपानी स्थान पर बस चाय के लिए रुकी। आधी सवारियाँ दिन भर की ट्रेकिंग से थकी निद्रादेवी की गोद में थीं। आगे रास्ते में कब हेंवल नदी पार हो गयी और आगराखाल पहुँचे, पता ही नहीं चला। अंधेरा होने के कारण बापसी में कुंजापुरी के दर्शन अब संभव नहीं थे। 
ऋषिकेश - रात के अंधेरे में टिमटिमाता शहर

यहाँ से नीचे डोईबाला और ऋषिकेश साइड के मैदानी इलाकों की शहरी रोशनियाँ ऐसे जगमगा रहीं थीं, जैसे कि दिपावली का नजारा हो। जब हम नरेंद्रनगर से नीचे उतर रहे थे, तो नीचे देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे आसमान के तारे जमीं पर उतर आए हों।
रात के अंधियारे में टिमटिमाता ऋषिकेश

शहर के रोशन नजारे को निहारते हुए हम क्रमशः 8 बजे तक ऋषिकेश पहुँचे और अगले आधे घंटे में देसंविवि के गेट पर थे। इस तरह पूरे 12 घंटे में हम सुरकुंडा देवी का यह यादगार सफर पूरा कर रहे थे

पहली बार दिन के उजाले में तय किया गया यह रास्ता हमारे ऑल टाइम फेवरेट रास्तों में शुमार हो चुका है। शायद इसका प्रमुख कारण इतना नजदीक से बर्फ से ढके हिमालय के दीदार थे, जो दूर होते हुए भी हमें बहुत पास लगे और हिमालय की गोद में सफर के अनुभव हमें कहीं गहरे अपने अंदर भावों की सुरम्य घाटियों व शिखरों के बीच विचरण के रोमाँचक अहसास जगा रहे थे, जो यात्रा वृतांत की तीन कड़ियों के रुप में आपके सामने प्रस्तुत हैं।
इस यात्रा के पहले दो भाग यदि न पढ़े हों, तो नीचे लिंक्स पर देख सकते हैं -

सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-1 (ऋषिकेश-नरेंद्रनगर-चम्बा)

सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-2 (चम्बा, कानाताल,कद्दुखाल)

 
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चुनींदी पोस्ट

Travelogue - In the lap of Surkunda Hill via Dhanaulti-Dehradun

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