प्रकृति की गोद में जीवन का अभूतपूर्व दर्शन
वाल्डेन,
अमेरिकी दार्शनिक, विचारक एवं आदर्श पुरुष हेनरी डेविड़ थोरो की
कालजयी रचना है। मेसाच्यूटस नगर के समीप काँकार्ड पहाड़ियों की गोद में स्थित
वाल्डेन झील के किनारे रची गयी यह कालजयी रचना अपने आप में अनुपम है, बैजोड़ है।
प्रकृति की गोद में रचा गया यह सृजन देश, काल, भाषा और युग की सीमाओं के पार एक ऐसा
शाश्वत संदेश लिए है, जो आज भी उतना ही ताजा और प्रासांगिक
है।
ज्ञात हो
कि थोरो दार्शनिक के साथ राजनैतिक विचारक, प्रकृतिविद और गुह्यवादी समाजसुधारक भी
थे। महात्मा गाँधी ने इनके सिविल डिसओविडियेंस (असहयोग आंदोलन) के सिद्धान्त
को स्वतंत्रता संघर्ष का अस्त्र बनाया था। यह थोरो का विद्रोही स्वभाव और प्रकृति
प्रेम ही था कि वे जीवन का अर्थ खोजते-खोजते एक कुटिया बनाकर वाल्डेन सरोवर के
किनारे वस गए।
थोरो के
शब्दों में, मैने वन-प्रवास आरम्भ किया, क्योंकि
मैं विमर्शपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता था, जीवन के
सारभूत तथ्यों का ही सामना करना चाहता था,
क्योंकि मैं देखना चाहता था कि जीवन जो कुछ सिखाता है, उसे सीख
सकता हूँ या नहीं। मैं यह भी नहीं चाहता था कि जीवन की संध्या वेला में मुझे पता
चले कि अरे, मैंने तो जीवन को जीया ही नहीं। मैं तो गहरे में उतरना
चाहता था।
इस
उद्देश्य पूर्ति हेतु थोरो मार्च 1845 के वसन्त में वाल्डेन झील के किनारे पहुँच
जाते हैं, और अपनी कुटिया बनाते हैं। चीड़ के वन से ढके पहाड़ी ढाल पर अत्यन्त
मनोरम स्थान पर वे काम करते, जहाँ से झील का नजारा सहज ही उन्हें तरोताजा करता। झोंपड़ी
के आस-पास की दो-ढाई एकड़ जमीन में बीन्स, आलू, मक्का, मटर, शलजम
आदि उगाते हैं।
इस वन
प्रवास में जंगली जीव उनके साथी सहचर होते। इस निर्जन स्थल पर प्रकृति की गोद में
थोरो जीवन के सर्वोत्तम क्षण महसूस करते। जब वसन्त ऋतु या पतझड़ में मेह के लम्बे
दौर के कारण दोपहर से शाम तक घर में कैद रहना पड़ता, तो ये
थोरो के लिए सबसे आनन्दप्रद क्षण होते। एकांत प्रिय थोरो के अनुसार, साधारणतय
संग-साथ बहुत सस्ते किस्म का होता है। हम एक-दूसरे से जल्दी-जल्दी मिलते रहते हैं, इसलिए
एक-दूसरे के लिए कोई नई चीज सुलभ करने का मौका ही नहीं मिलता।...कम बार मिलने पर
ही हमारी सबसे महत्वपूर्ण और हार्दिक बातचीत हो सकती है।
थोरो की
दिनचर्या उषाकाल में शुरु होती। प्रातःकाल की शुद्ध वायु को थोरो सब रोगों की
महाऔषधि मानते। अगस्त माह में जब हवा औऱ मेंह दोनों थम जाते और मेघों वाले आकाश के
नीचे तीसरे पहर की नीरवता छा जाती तथा पक्षियों का संगीत इस किनारे से उस किनारे
तक गूँज उठता, उस समय सरोवर का सान्निध्य सबसे
मूल्यवान लगता।
कृषि को
थोरो एक पावन कर्म मानते थे। थोरो सुबह पाँच बजे उठकर कुदाली लेकर जाते, दोपहर तक खेत
की निंढाई-गुढ़ाई करते और दिन का शेष भाग दूसरे काम में गुजारते। थोरो सादा जीवन,
उच्च विचार के हिमायती रहे। उनका वन प्रवास इसका पर्याय था। थोरो के शब्दों
में - सैंकड़ों-हजारों कामों में उलझने के बजाय दो-तीन काम हाथ में ले लीजिए। अपने
जीवन को सरल बनाइए, सरल। समूचे राष्ट्र की हालत, समुचित
ध्येय के बिना दुर्दशाग्रस्त है। इसका एक ही इलाज है - सुदृढ़ अर्थव्यवस्था, जीवन की
कठोर सादगी और ऊँचा लक्ष्य। इसके बिना अभी तो मानव बर्बादी के रास्ते पर चल रहा
है।
थोरो
जंगल प्रवास में हर पल जी भरकर जीए तथा इसी का वे संदेश देते हैं। उनके अनुसार - लोग
समझते हैं कि सत्य कोई बहुत दूर की, दूसरे
छोर की, दूर तारे के उस पार की । जबकि
ये स्थान, काल, अवसर आदि सभी यहीं पर हैं, अभी इसी क्षण हैं। स्वयं ईश्वर का
महानतम रुप वर्तमान में ही प्रकट होता है।...हम अपना एक दिन प्रकृति के समान
संकल्पपूर्वक बिताकर तो देखें और छोटी-मोटी बाधा से पथ-भ्रष्ट न हों। प्रातः जल्दी
उठें और शांत भाव से व्रत रखें। हम यथार्थ की ठोस चट्टानी जमीन पर नींव डालकर स्थिर
होकर खड़े होकर तो देखें। जीवन का अर्थ बदल जाएगा। थोरो इस तरह प्रयासपूर्वक अपने
जीवन का उत्थान करने की संशयहीन क्षमता को सबसे उत्साहबर्धक चीज मानते थे।
जीवन के
सचेतन विकास के लिए थोरो स्वाध्याय पर विशेष बल देते और स्वयं भी ग्रंथों के संग समूचे
आध्यात्मिक जगत की यात्रा का लाभ लेते। उनके अनुसार, क्लासिक ग्रन्थ मानव की
श्रेष्ठतम संग्रहित विचार पूंजी हैं, इनमें देववाणी निहित है और इनका अध्ययन एक
कला है। इनसे कुछ सीखने के लिए हमें पंजों के बल खड़ा होना पड़ता है, जीवन के सबसे
जागरुक और सतर्कतम क्षण अर्पित करने होते हैं। थोरो का वन प्रवास बहुत कुछ इसी का
पर्याय रहा।
वे
नित्य भगवद्गीता के विराट विश्वोत्पत्ति सम्बन्धी दर्शन का अवगाहन करते। उनके
शब्दों में, इसके सामने हमारा आधुनिक संसार औऱ साहित्य अत्यन्त तुच्छ
और महत्वहीन लगता है। इसकी विराटत्व हमारी कल्पना की अवधारणाओं से भी परे का है।
इसके परायण के साथ थोरो वाल्डेन औऱ गंगा के पवित्र जल को आपस में मिलता देखते।
शाकाहर
के पक्षधर - विगत सालों में मैंने अनेक बार महसूस किया है कि मैं जब भी
मछली मारता हूँ, तो हर बार थोडा-सा आत्म-सम्मान घट जाता
है। हर बार मछली मारने के बाद अनुभव किया है कि यदि मैंने यह न किया होता तो अच्छा
होता।...मेरा विश्वास है कि जो भी अपनी श्रेष्ठतर मनोवृतियों को उत्तम अवस्था में
सुरक्षित रखने का इच्छुक होता है, वह मांसाहार और किसी भी प्रकार के भोजन
से बचने की ओर मुड़ता है। फिर, अधिक खाना तो कीट की लार्वावस्था ही में होता है।
सरोवर
के तट पर दो वर्ष, दो माह, दो दिन के बाद थोरो यहाँ से विदा लेकर जीवन के अगले
पड़ाव की ओर रुख करते हैं। सरोवर के तट पर प्रकृति की गोद में विताए अनमोल पलों को
वाल्डेन के रुप में एक कालजयी रचना भावी पीढ़ी को दे जाते हैं, जिसका अवगाहन आज भी
सुधि पाठकों को तरोताजा कर देता है।