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शनिवार, 7 दिसंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-5

मुखबा गाँव के दर्शन और घर बापिसी

रोज रात को और सुबह होटल की वाल्कनी से भगीरथी नदी के पार मुखबा गाँव  की टिमटिमाती रोशनी ध्यान आकर्षित करती रही। अपने गृह प्रदेश में ठीक कुछ ऐसा ही दृश्य घर के सामने गाँव पेश करता। बैसे ही गगनचूम्बी पर्वतों की गोद में बसे यह गाँव दिखता। लेकिन शैक्षणिक भ्रमण के व्यस्त कार्य़क्रम के चलते मुखबा गाँव छूटता दिख रहा था, लगा कि अगली बार ही यहाँ के दर्शन संभव होंगे।

टूर के अंतिम दिन प्रातः 6 बजे हरिद्वार के लिए कूच करना था, सो पिछली रात को नौ बजे ही निद्रा देवी की गोद में सो गए थे और प्रातः स्नान-ध्यान के पश्चात पौने छः बजे ही नीचे बस की ओर निकल देते हैं। लेकिन दल के सदस्यों की तैयारी देखकर लगा कि आधा-पौन घंटा अभी इनको तैयार होने में लगेगा, तब तक हम कल्प-केदार मंदिर के समीप स्थित तपोवनी माता की तपःस्थली के दर्शन कर आते हैं। यह मंदिर तो हमें नहीं मिला, लेकिन भटकते-भटकते 10 मिनट में नीचे भगीरथी पुल तक पहुँच गए।

राह में सेब से लदे बगीचों के सुंदर नजारों को यथासंभव मोबाईल में कैप्चर करते रहे और पुल से भगीरथी का दृश्य देखते ही बन रहा था। इसको पार कर एक स्थान पर आसन जमाकर धराली साइड के दृश्य का अवलोकन करते हैं। यहाँ से सामने गाँव, पहाड़ और पीछे हिमशिखर का दृश्य देखते ही बन रहा था और उत्तर की ओर मार्कण्डेय ऋषि का मंदिर, भगीरथी नदी का विस्तार, देवदार के जंगल और पीछे गंगोत्री साइड की चोटियाँ – ध्यान के लिए एक आदर्श लोकेशन प्रतीत हो रही थी। कुछ मिनट सड़क किनारे चबूतरे पर यहाँ पालथी मार कर इसी दृश्य में खोए रहे।

स्थानीय लोगों से पता चला कि यहाँ से मुखबा मंदिर महज 1 किमी सीधी चढ़ाई के बाद पड़ता है, सो दल के शेष सदस्यों को फोन से बुलाकर वहाँ दर्शन की योजना बनती है। लगा कि दो दिन से चल रही ह्दय की उहापोह और गंगा मैया की कृपा के चलते संयोग घटित हो रहा था और जैसे बुलावा आ गया है।

कुछ ही मिनट में दल यहाँ पहुंचता है और मुख्य द्वार से प्रवेश करते हुए खेत-बगीचों के बीच ऊपर चढ़ते हैं। रास्ते में नए दर्शकों को राजमाँ, बागुकोशा, खुमानी, गोल्डन व रॉयल एप्पल, अखरोट आदि के वृक्षों, फलों व खेती से परिचय करवाते हैं। साथ ही जंगली पालक, बिच्छु बूटी व अन्य स्थानीय जंगली जड़ी बूटियों की भी जानकारी देते हैं।

आधे-पौन घंटे में हम सीधी चढ़ाई पार करते हुए ऊपर मोटर मार्ग तक पहुँच गए थे, जहाँ से बाईं ओर आगे का रास्ता हर्षिल की ओर जा रहा था। हम यहाँ से दाईं ओर ऊपर चढ़ते हैं और सौ मीटर ऊपर मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं।

मुखबा के मंदिर को मुखीमठ बोलते हैं, जो गंगाजी का शीतकालीन आवास है, जहाँ नबम्वर से अप्रैल तक छः माह इनका वास रहता है औऱ फिर गंगोत्री धाम के कपाट खुलने पर इनका प्रस्थान होता है और गंगोत्री में विधिवत पूजा शुरु होती है।

इस शांत एकांत गाँव में स्थित मंदिर का स्थापत्य देखते ही बनता है। लकड़ी के मंदिर में बहुत सुंदर नक्काशी हुई है। संयोग से पुरोहित जी मंदिर में हाजिर होते हैं, इसके बाद ये मार्कण्डेय ऋषि के मंदिर में प्रस्थान करने वाले थे। लगा हमारी टाइमिंग गंगा मैया ने निर्धारित कर रखी थी। विधिवत पूजन के बाद पंडित जी से यहाँ का संक्षिप्त व सारगर्भित परिचय प्राप्त होता है।

दर्शन के बाद मंदिर प्रांगण में सामूहिक फोटोग्राफी होती है। मंदिर के ठीक सामने दूसरी पहाड़ी से झांकते हिमाच्छादित श्रीखण्ड शिखर के दर्शन देखते ही बन रहे थे। नीचे उतरते हुए सामने धराली साइड के दर्शन करते रहे। उगते हुए सूरज की रोशनी में घाटी जगमगा रही थी। बापिसी में पेड़ से गिरे सेब, बागूकोश आदि फलों को प्रसाद रुप में एकत्र करते हैं। और आधे घंटे में धराली पहुँचते हैं।

समूह का एक दल जो छूट गया था, उसे भी दर्शन के लिए भेजते हैं। और धराली में बाजिव दाम पर यहाँ से सेब खरीदते हैं। यहाँ की एक दुकान में परांठा चाय का नाश्ता होता है। कस्बा कहें या गाँव, धरारी मार्केट का शांत माहौल भीड-भाड से भरे हिल स्टेशन के अशांत वातावरण के एकदम विपरीत शांति-सुकून भरा लग रहा था, यहाँ का जीवन ठहरा हुआ सा दिखा। जीवन जैसे प्रकृति की गति से धीरे-धीरे अनन्त धैर्य के साथ प्रवाहमान है।

इसी बीच समय निकाल कर हम यहाँ माँ सुभद्रा (तपावनी माता) की तपःस्थली के भी दर्शन किए, जो कल्प-केदार होटल के एकदम पास में निकला, जिसकी खोज में सुबह हम भगीरथी नदी तक पहुँच गए थे। यहाँ उनके शिष्य बाबा कालू से मुलाकात हुई, इस तपःस्थली के बारे में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया। कालू बाबाजी इस समय मंदिर की देखभाल कर रहे हैं और नैष्ठिक तीर्थयात्रियों के लिए अखण्ड भण्डारे व ठहरने की व्यवस्था देखते हैं।

अब तक पूरा दल बस में बैठ चुका था। और हमारी बापिसी का सफर आगे बढ़ता है। रास्ते में हर्षिल के दर्शन होते हैं, बगोरी गाँव को दूर से विदा करते हैं। और रास्ते में जो रुट तीन दिन पहले आते समय अंधेरे में कवर किए थे, उसे दिन के उजाले में देखने की तमन्ना पूरी होती है। इसी क्रम में झाला से लेकर सुक्खु टॉप तक पहुँचते हैं।

रास्ते भर सड़क के दोनों ओऱ सेब से लदे बगान, देवदार के जंगल, छोटे-छोटे कस्बे, होटल, होम-स्टे और सेब की पैकिंग के दृश्य। पहले ऊपर चढाई, फिर सीधे आगे दो-तीन किमी लम्बा मार्ग औऱ फिर सुक्खु टॉप से नीचे की जिगजैग उतराई। रास्ते भर छोड़े बड़े झरने व नालों के दर्शन होते रहे। उस पार बर्फ से ढके पहाड़ों से नीचे दनदनाते नाले भी दर्शनीय रहे। जिनको देखकर सहज ही परमपूज्य गुरुदेव की पुस्तक सुनसान के सहचर पुस्तक के संस्मरण याद आ रहे थे।

सुक्खु टॉप से नीचे घाटी में पहुँचने पर वायीं ओर गर्जन-तर्जन करती रौद्र रुप लिए भगीरथी के संग आगे बढ़ते हैं तथा पुल पार कर लेफ्ट बैंक में गंगनानी के दर्शन और राइट बैंक में भटवारी, गंगोरी और फिर वाईपास से होते हुए उत्तरकाशी पहुँचते हैं। रास्ते में दिन के ऊजाले में उत्तरकाशी शहर के दर्शन होते हैं और भूस्खलन के कारण समाचार में अक्सर सुर्खी बनते वर्णावत पर्वत को भी देखते हैं। यहाँ एक मैदान में भोजन के लिए गाड़ी रुकती है।

पहले हम पास ही स्थिति भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते हैं। इसके भव्य परिसर में दिव्य दर्शन का लाभ लेकर इससे जुड़े इतिहास, पौराणिक मान्यताओं एवं भविष्य कथन को पढ़कर अविभूत होते हैं, हालाँकि आज का दर्शन परिचयात्मक भर था। अगली बार अधिक समय लेकर उत्तरकाशी को एक्सप्लोअर करेंगे, ऐसा भाव प्रवल हो रहा था।

पेट पूजा कर पूरा दल बस में चढ़ता है और कमान्द से होकर चम्बा से पहले उस ठिकाने पर रुकता है, जहाँ जाते समय हम लोग रुके थे। यहाँ चाय-नाश्ता कर रोचार्ज होते हैं और किबी के पैकेट खरीदते हैं।

बापिसी में चम्बा पार करते-करते अंधेरा हो चुका था और आल बेदर रोड़ के संग सरपट दौड़ती हुई गाड़ी आगराखाल को पार करते हुए नरेंद्रनगर और फिर ऋषिकेश पहुँचती है तथा अगले आधा घंटे में 9 बजे तक देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण में पहुंचते हैं।

इस तरह गंगा मैया की कृपा से तीन दिन में सम्पन्न गंगोत्री धाम की यह सकुशल यात्रा एक अमिट छाप छोड़ जाती है, जिसमें कई प्रश्नों के उत्तर मिले, कई जिज्ञासाओं को शाँत किया और जिज्ञासाओं की कुछ नई कौंपलें भी फूंटी, जो अगली यात्राओं के लिए प्रेरक ईँधन का काम करती रहेंगी।

मंगलवार, 18 जनवरी 2022

पु्स्तक समीक्षा - हिमालय की वादियों में, दैनिक ट्रिब्यून

 हिमालयी वादियों में जोगी मन की तलाश

पुस्तक समीक्षा, हिमालय की वादियों में

हिमालय  की वादियों में पुस्तक के रचनाकार डॉ. सुखनन्दन सिंह का संबंध हिमाचल प्रदेश से है। उन्होंने जब से होश संभाला, अपने के पहाड़ों की गोद में पाया। पारिवारिक सदस्यों तथा अन्य लोगों से पर्वतीय यात्राओं के वृत्त सुनते-सुनते इन जिज्ञासाओं ने उकसाया, तो स्वयं इन पर्वतों को एक्सप्लोअर करना प्रारम्भ किया। ज्ञानीजनों से संपर्क से बोध हुआ कि ये साामान्य पर्वत नहीं। देवात्मा हिमालय की गोद में घुमक्कड़ी का सुअवसर मिला। अपना अनुभव जन-जन से साझा करने हेतु इसे कलमबद्ध करना जरुरी समझा।

हिमालयी यात्राओं के इस संकलन में उत्तराखंड के कुमाउं तथा गढ़वाल हिमालय में अलमोड़ा, नैनीताल, मुनस्यारी, रानीखेत, केदारनाथ, बद्रीनाथ, तुंगनाथ, हेमकुण्ड साहिव, नीलकंठ, ऋषिकेश, टिहरी, मसूरी आदि की यात्राएं सम्मिलित हैं। हिमाचल अंचल के शिमला, मंडी, कुफरी, चैअल, कुल्लू-मानाली, मणिकर्ण घाटी, सोलंग घाटी, रोहतांग पास, लाहौल घाटी आदि की मनोरम झल से भी पाठक आनंद अनुभव करता है।

प्रस्तुत कृति के संबंध में प्रो (डॉ.) दिनेश चमौला 'शैलेश' का सार्थक उल्लेख है, हिमालच व उत्तराखण्ड आदि के अनेक पर्यटन स्थलों, मंदिरों, देवतीर्थों तक हो आने का लेखा-जोखा उनकी (लेखक की) अध्यात्म प्रेरित प्रवृत्ति को भी द्योतित करता है।

हिमालय की वादियों में, पुस्तक समीक्षा

 लेखक ने पर्वतीय प्रदेश की यात्राओं और उनकी प्रस्तुति की प्रेरणाओं का भी सार्थक उल्लेख किया है। नग्गर स्थित निकोलाई रोरिक केंद्र में हिमालय के आलौकिक सौंदर्य को दर्शाती पेंटिंग्ज से उन्हें प्रेरणा मिली। चंडीगढ़ में अपनी शिक्षा की अवधि में लेख ने रामकृष्ण मिशन के साहित्य का अध्ययन किया, जिससे उसे हिमालय के आध्यात्मिक आयाम को समझने में सहायती मिली। हरिद्वार निवास में श्रीराम शर्मा के साहित्य के अध्ययन से एक नये सत्य से साक्षात्कार हुआ। अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति का लेखक का अपना ही अंदाज है। शिमला यात्रा के लिए उचित मौसम की ओर संकेत है - बरसात के मौसम के बिना शिमला का वास्तविक आनन्द अधूरा है, क्योंकि मौसम न अधिक गर्म होता है, न अधिक ठंडा। उड़ते-तैरते आवारा बादलों के बीच घाटी का विहंगावलोकन एक स्वप्निल लोक में विचरण की अनुभूति देता है।

पुस्तक की भूमिका में डॉ. दिनेश चमौला ने यात्रा के दौरान लेखक की मनःस्थिति का यों सार्थक विश्लेषण किया है - इस पुस्तक में कहीं सुखनंदन का जोगी मन यात्रा के मूल को तलाशता प्रकृति में ही तल्लीन प्रतीत होता है, तो कहीं जिज्ञासा का असीम क्षितिज असीम में बंध जाने के लिए आतुर दिखाई देता है। कहीं देखे को हुबहू न कह पाने तथा कहीं न देख पाने की बेचैनी यात्रा वृत्तांत को अधिक रोचक व रहस्यपूर्ण बनाती है।

पुस्तक समीक्षा - हिमालय की वादियों में

मोहन मैत्रेय, दैनिक ट्रिब्यून, 12 दिसम्बर, 2021, चण्डीगढ़

पुस्तक - हिमालय की वादियों में।, लेखक - प्रो. सुखनन्दन सिंह

प्रकाशक - एविंसपव पब्लिशिंग, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, पृष्ठ - 243, मूल्य - रु.369

पुस्तक समीक्षा, दैनिक ट्रिब्यून, 12.12.2021, हिमालय की वादियों में


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