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शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

शांघड़ - सैंज घाटी का छिपा नगीना

 

शांग्चुल महादेव के पावन धाम में


शांघड़ सैंज घाटी के एक गुमनाम से कौने में प्रकृति की गोद में बसा एक अद्भुत गाँव है, जिसकी सैंज घाटी में प्रवेश करने पर शायद ही कोई कल्पना कर पाए। इसके नैसर्गिक सौंदर्य को शब्दों में वर्णन करना हमारे लिए संभव नहीं, इसे तो वहाँ जाकर ही अनुभव किया जा सकता है।

शांघड़ देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों से घिरा 228 बीघे में फैला घास की मखमली चादर ओढ़े ढलानदार मैदान है, जिसे देवसंरक्षित माना जाता है, क्योंकि यहाँ पर शांग्चुल महादेव का शासन चलता है। किसी को इस क्षेत्र में अवाँछनीय गतिविधियों की इजाजत नहीं। यहाँ के परिसर में किसी तरह की अपवित्रता न फैले, इसके लिए यहाँ कायदे-कानून बने हुए हैं। कोई यहाँ शोर नहीं कर सकता, शराब व नशा नहीं कर सकता, मैदान तक बाहन का प्रवेश वर्जित है। यहाँ तक कि पुलिस अपनी बर्दी व चमड़े की बेल्ट के साथ प्रवेश नहीं कर सकती। नियमों के उल्लंघन पर शांग्चुल महादेव की ओर से दण्ड का विधान भी है। इस तरह दैवीय विधान द्वारा संरक्षित शांघड़ प्रकृति का एक नायाव तौफा है, जिसके आगोश में कोई भी प्रकृति प्रेमी गहनतम शांति व आनन्द की अनुभूति पाता है और यहाँ बारम्बार आने व लम्बे अन्तराल तक रुकने के लिए प्रेरित होता है।

अक्टूबर माह में हमारी यहाँ की पहली यात्रा का संयोग बनता है, कह सकते हैं कि बाबा का बुलावा आ गया था, क्योंकि कार्य़क्रम यकायक बन गया था। इस स्थान के बारे में पहले काफी कुछ सुन व देख चुके थे, लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन शेष थे। कल्पना के आधार पर एक मोटा-मोटा अक्स बन चुका था, जो प्रत्यक्ष दर्शन के बाद कहीं टिक नहीं पाया। यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य में प्रवेश करते ही मन किसी दूसरे लोक में विचरण की अनुभूतियों के साथ आनन्द से सरावोर हो उठा।

घर से निकलते ही कुछ मिनटों में कुल्लू लेफ्ट बैंक से होकर यात्रा आगे बढ़ती है। बिजली महादेव के नीचे जिया पुल से होकर पार्वती नदी पार करते हुए नवनिर्मित भुंतर – बजौरा फोरलेन बाईपास से आगे बढ़ते हैं। फिर ब्यास नदी को पार करते हुए बजौरा से होकर राईट बैंक से नगवाईं, पनारसा होते हुए ओउट टन्नल को पार करते हैं। इसके बाहर वायें मुड़ते हैं और लारजी के छोटे बाँध को पार करते हुए सैंज घाटी में प्रवेश करते हैं। रास्ते में सैंज नदी और तीर्थन नदी का संगम दिखता है, जिसके आगे पुल पार करते ही दायीं सड़क बंजार की ओर जाती है, जो आगे तीर्थन घाटी से लेकर जलोड़ी पास तक पहुँचाती है, लेकिन हम वाईँ ओर मुड़कर सैंज घाटी में प्रवेश करते हैं।

यह हमारी सैंज घाटी की पहली यात्रा थी, सो इस यात्रा के प्रति उत्सुक्तता और रोमाँच के भाव स्वाभाविक थे। साथ में अपने भतीजे के फेवरेट चिप्स, कुरकुरे व फ्रूट जूस के संग आंशिक भूख की तृप्ति करते हुए यात्रा का आनन्द लेते रहे। सैंज नदी के किनारे कई झरने व जल स्रोत मिले। इस घाटी में विद्युत परियोजनाओं के दर्शन कदम-कदम पर होते गए। पता चला कि मणिकर्ण घाटी में वरशैणी के पास चल रहे हाइडेल प्रोजेक्ट से जल सुरंग के माध्यम से इस घाटी में जल पहुँचता है और इसके संग कई स्थानों पर विद्युत उत्पादन का कार्य चल रहा है, जिनके दिग्दर्शन मार्ग में कई स्थानों पर होते रहे।

रास्ते भर कहीं पहाड़ीं की गोद में, तो कहीं पहाड़ों के शिखर पर, तो कहीं जैसे बीच हवा में टंगे गाँव दिखे। कई गाँवों तक पहाड़ काटकर जिगजैग सड़कों को जाते देखा, तो कुछ लगा अभी भी नितांत एकांतिक शांति में बसे हुए हैं। 


देखकर आश्चर्य होता रहा कि लोग कितना दूर व दुर्गम क्षेत्रों में बसे हैं और ये कभी किन परिस्थितियों में ऐसे दुर्गम स्थलों में बसकर घर-गाँव तैयार किए होंगे। ये स्वयं में एक शोध की विषय वस्तु लगी, जो कभी इनके बीच रहकर अनावृत की जा सकती है।

इस संकरी घाटी के अंत में रोपा स्थान से एक सड़क दायीं ओर मुड़कर आगे बढ़ती है, जहाँ साईन बोर्ड देखकर पता चला कि यहाँ से शांघड़ मेहज 6 किमी दूर रह गया है। अब आगे की सड़क चढ़ाई भरी एवं मोड़दार निकली। क्रमशः ऊँचाई के साथ प्राकृतिक सौंदर्य़ में भी निखार आता जा रहा था। सामने घाटी में आबाद गाँव की एकाँतिक स्थिति मन में रुमानी भाव जगाती रही, कि यहाँ के लोग कितने सौभाग्यशाली हैं, जो इतने एकाँत-शांत स्थल में रहने का सौभाग्य सुख पा रहे हैं।

देवदार के पेड़ हिमालयन ऊँचाईयों में प्रवेश का पावन अहसास दिला रहे थे। कुछ ही वाहन रास्ते में मिले जो शांघड़ से बापिस आ रहे थे। राह में देसी नस्ल के नंदी व गाय देखने को मिले। लगा इस इलाके में अभी कृषि-गौपाल की देसी परम्परा कायम है। ऐसे में सड़क के किनारे चरती भेड़-बकरियों को देखकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। थोड़ी ही देर में साईन बोर्ड व देवदार के जंगलों से घिरी घाटी को देखकर अहसास हो चला कि हम मंजिल के करीव पहुँच गए हैं। कुछ दुकानों को पार करते हुए हम एक खाली स्थान पर गाड़ी पार्क करते हैं और शांघड़ मैदान की ओर चल देते हैं।


रास्ते में शाग्चुल महादेव की कमेटी द्वारा टंगे बोर्ड में इस पावन स्थल से जुड़े नियमों को पढ़ा। सो हम इसकी पावनता का ध्यान रखते हुए आगे कदम बढ़ाते हैं। इस बुग्यालनुमा मैदान का विहंगम दृश्य विस्मित करता है और इसके चारों ओर देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों तथा इनके पीछे कई पर्वतश्रृंखलाओं के दिग्दर्शन रोमाँचित करते हैं। इस आलौकिक सौंदर्य को एक जगह बैठकर निहारते रहे। सामने ढलानदार बुग्याल, इसमें चरती गाय, भेड़-बकरियों के झुण्ड। इसके पार एक काष्ट मंदिर, जो शिव को समर्पित है। यहाँ से फिर हम नीचे स्लेटों से जड़ी पैदल पगडंडी तक पहुँचते हैं और इसके संग शांग्चुल महादेव के नवनिर्मित मंदिर की ओर बढ़ते हैं, जो शांघड़ गाँव में लगभग 5-700 दूरी पर बसा है।

5-7 मंजिले इस मंदिर की भव्य उपस्थिति दूर से ही ध्यान आकर्षित करती है, जो क्रमशः पास आने पर और निखर रही थी। मैदान को पार करने के बाद हम खेतों के बीच बनी पगडंडियों के साथ आगे बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों ओर राजमां, मक्की, चौलाई जैसी यहाँ की पारम्परिक फसलें पकती दिखीं, जिनका कहीं-कहीं पर कटान भी चल रहा था। साथ ही कुछ खेतों में सेब, नाशपति व अन्य फलों के पौधे दिखे।

इस तरह कुछ मिनटों में हम शांग्चुल महादेव के मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैँ। गाँव के उस पार निकल कर दूसरी ओर से मंदिर का नजारा निहारते हैं और साथ लाए पुष्प एवं प्रसाद को अंदर शिवमंदिर में चढ़ाकर आशीर्वाद लेते हैं। यहाँ पर 90 वर्षीय बुजुर्ग पुजारी पं. नरोत्तम शर्मा के सर्वकामधुक आशीर्वचनों के साथ कृतार्थ होकर बापिस आते हैं। रास्ते में गाय और बछड़े के साथ मुलाकात हुई, जो खेलने के मूड़ में थे। मंदिर परिसर में चाय-नाश्ता व भोजन आदि की उचित व्यवस्था दिखी। खेतों में साग-सब्जियाँ आदि उगती दिखी, जो घरेलु उपयोग में काम आती होंगी।

गाँव के खेतों को पार करते हुए हम फिर मैदान के बीच पगडंडी पर बढ़ रहे थे। यहाँ घास के मैदान में चर रही गाय, भेड़-बकरियों का दृश्य देखने लायक था। हमें पता चला कि इस मैदान को पाण्डवों ने एक रात में तैयार किया था। अज्ञातवास के दौरान पाण्डवों ने यहाँ कुछ समय विताया था। यहाँ की मिट्टी को छानकर धान की खेती की थी। आश्चर्य़ नहीं कि इसके मैदान में एक भी पत्थर नहीं खोज सकते। देवदार से घिरे इस मैदान को देख खजियार का दृश्य याद आता है। इसके नैसर्गिक सौंदर्य के आधार पर इसे मिनी स्विटजरलैंड की संज्ञा दें, तो अतिश्योक्ति न होगी। बल्कि इससे जुड़ी दैवी आस्था व पौराणिक महत्व के आधार पर यह श्रद्धालुओं व प्रकृति प्रेमियों के लिए एक सिद्ध तीर्थ स्थल है, जहाँ माना जाता है कि आपके सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूर्ण होती है।

यहाँ पर कुछ क्वालिटी समय बिताने के पश्चात अपने बाहन में बापिसी का सफर तय होता है। अचानक बना आज का ट्रिप हालाँकि एक ट्रैलर जैसा लगा। पूरी फिल्म तो आगे कभी खुला समय निकालकर यहाँ कुछ दिन बिताकर ही पूरा होगी। शाम को सामने के पहाड़ों से सूर्यास्त के नजारे के बीच हम नीचे रोपा तक उतरते हैं और आगे सैंज घाटी से होते हुए लारजी-आउट पहुँचते हैं और फिर बजौरा-भुन्तर होते हुए जिया पुल से पार्वती नदी को पार कर अपने गन्तव्य स्थल तक पहुँचते हैं।

समय अभाव के कारण यह टूर हमें अधूरा ही प्रतीत हुआ। लेकिन यहाँ की सुखद स्मृतियों का खुमार कई दिनों तक सर चढ़कर बोलता रहा। देखते हैं अब बाबा का अगला बुलावा कब आता है, जब इस यात्रा की पूर्णाहुति विधान के साथ पूरा कर पाते हैं। जो भी हो अकूत सौंदर्य व शांति को सेमेटे शांघड़ सैंज घाटी का एक छिपा नगीना है, प्रकृति का विशिष्ट उपहार है, जो हर खोजी यात्री व प्रकृति प्रेमी के लिए किसी वरदान से कम नहीं और आस्थावान के लिए एक प्रत्यक्ष तीर्थ। यदि आप कुल्लू-मानाली की ओर आते हैं, तो एक वार अवश्य इस डेस्टिनेशन को आजमा सकते हैं।

यहाँ आने के लिए बस, टैक्सी आदि की समुचित व्यवस्था है। शांघड़ कुल्लू से लगभग 60 किमी, भूंतर हवाई अड्डे से 45 किमी तथा समीपस्थ रेल्वे स्टेशन बैजनाथ से 117 किमी की दूरी पर है। कुल्लू से यहाँ के लिए बस और टैक्सी सुविधा उपलब्ध रहती है। बाकि चण्डीगढ़ से यहाँ के लिए मण्डी से होकर आया जा सकता है, शिमला से जलोड़ी पास या मण्डी से होकर सैंजघाटी में प्रवेश किया जा सकता है।

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2021

ग्रीन एप्पल के गुण हजार

 

विदेशों में लोकप्रिय किंतु भारत में उपेक्षित हरा सेब



सेब विश्व का एक लोकप्रिय फल है, जो अमूनन ठण्डे और बर्फीले इलाकों में उगाया जाता है। हालाँकि अब तो इसकी गर्म इलाकों में उगाई जाने वाली किस्में भी तैयार हो रही हैं, लेकिन ठण्डे इलाकों में तैयार सेब का कोई विकल्प नहीं।

सेब में भी यदि भारत की बात करें, तो लाल रंग को ही अधिक महत्व दिया जाता है। सेब की मार्केट वैल्यू इसकी रंगत के आधार पर ही तय की जाती है और खरीदने वाले भी लाल रंग को ही तबज्जो देते हैं। ग्राहकों व मार्केट की इस माँग को देखते हुए सेब में लाल रंगत को बढ़ाने के लिए किसान अपने स्तर पर जुगाड़ भिड़ाते हैं, जिनमें ईथर जैसे रसायनों का छिड़काव भी शामिल है, जिसका चलन स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं।

मालूम हो कि सेब की लाल रंग के अलावा पीली और हरी किस्में भी पाई जाती हैं। अब तो सफेद सेब भी तैयार हो चला है। पीले रंग की किस्म को गोल्ड़न सेब कहते हैं, जो स्वाद में काफी मीठा होता है, लेकिन लाल रंग के अभाव में इसकी भी मार्केट वेल्यू कम ही रहती है, जिसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। इसी तरह हरे सेब की लोकप्रिय किस्म ग्रेन्नी स्मिथ है, जो स्वाद में खट्टी होती है और समय के साथ इसमें मिठास आना शुरु होती है।


यह विश्व में सबसे लोकप्रिय सेब की वेरायटी में से एक है। हालाँकि यह बात दूसरी है कि सेब की इस किस्म को भारत में बहुत कम लोग जानते हैं, ठेलों पर शायद ही इसके दर्शन होते हों। जबकि अमेरिका में यह सबसे लोकप्रिय सेब की किस्मों में शुमार है, जो अकारण नहीं है। वहाँ लोग सेब के रंग की बजाए इसकी गुणवत्ता को आधार बनाकर प्राथमिकता देते हैं। इस जागरुकता का अभी हमारे देश में अभाव दिखता है।

ग्रीन एप्पल के गुण – ग्रीन एप्पल की शेल्फ लाईफ अधिक होती है अर्थात इसे पेड़ से तोड़ने के बाद 4-5 महिने तक बिना किसी खराबी के सामान्य तापमान (रुम टेम्परेचर) पर स्टोर किया जा सकता है। भारत के पहाड़ी इलाकों में अक्टूबर माह में तुड़ान के बाद इसे मार्च-अप्रैल तक सुरक्षित रखा जा सकता है। साथ ही समय के साथ इस खट्टे सेब में मिठास आना शुरु हो जाती है। अपने खट्ट-मिठ स्वाद के कारण इसके सेवन का अपना ही आनन्द रहता है। साथ ही यह सेब ठोस होता है तथा इसमें भरपूर रस होता है, अतः इससे बेहतरीन जूस तैयार किया जा सकता है। इसकी चट्टनी बनाकर या बेक कर उपयोग किया जा सकता है। अन्य़था दूसरी ओर लाल रंग के सेब की शेल्फ लाईफ कम होने की वजह से इन किस्मों को लम्बे समय तक दुरुस्त रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज में रखना पड़ता है, जो छोटे किसानों के बूते की बात नहीं रहती। साथ ही बड़े व्यापारियों द्वारा संरक्षित ऐसे सेब को आम ग्राहक महंगे दाम पर खरीदने के लिए विवश होते हैं।


ग्रीन एप्पल बेस्ट पॉलिनाईजर किस्म की वेरायटी में आता है, जिस कारण सेब के बगीचे में बीच-बीच में इसके पौधे होने से पूरे बगीचे में बेहतरीन परागण होती है और सेब की उम्दा फसल सुनिश्चित होती है। साथ ही ग्रीन एप्पल में फ्लावरिंग शुरु से अंत तक बनी रहती है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से हरा सेब एंटी ऑक्सिडेंट गुणों से भरपूर पाया गया है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से अपना महत्व रखता है। बजन कम करने के लिए ग्रीन एप्पल को सबसे प्रभावशाली सेब पाया गया है।


हरे सेब में पेक्टिन नाम का तत्व पाया जाता है, जो आंत के स्वास्थ्यबर्धक बैक्टीरिया के विकास में सहायक होता है। इसमें मौजूद फाईबर पाचन तंत्र को दुरूस्त करता है व कब्ज के उपचार में प्रभावशाली रहता है। हरे सेब में पोटेशियम, विटामिन-के और कैल्शियम प्रचूर मात्रा में रहते हैं, जो हड्डियों को मजबूत करते हैं। इसमें विद्यमान विटामिन-ए आँखों की रोशनी के लिए बहुत लाभकारी रहता है। अपने इन गुणों के आधार पर हरा सेब कॉलेस्ट्रल, शुगर व बीपी के नियंत्रण में मदद करता है व भूख सुधार में सहायक होता है। हरे सेब में विद्यमान फ्लेवोनॉयड्स को फैफड़ों के लिए लाभदायक पाया गया है व यह अस्थमा के जोखिम को कम कर देता है। इसे एक अच्छा ऐंटीएजिंग भी माना जाता है, जो आयुबर्धक है तथा त्वचा का साफ रखता है।

आश्चर्य़ नहीं कि इतने गुणों व विशेषताओं के आधार पर ग्रीन एप्पल विश्व के विकसित देशों में एक लोकप्रिय सेब के रुप में प्रचलित है, जबकि भारत में यह एक उपेक्षित वैरायटी है। न ही आम लोग इससे अधिक परिचित हैं और न ही मार्केट में इसको उचित भाव मिलता है। इसलिए बागवान व किसान भी इसको व्यापक स्तर पर लगाने के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित नहीं होते। हालाँकि बड़े शहरों में स्वास्थ्य के प्रति सजग लोगों के बीच बढ़ती जागरुकता के चलते अब बड़ी मंडियों में ग्रीन एप्पल को उत्साहबर्धक भाव मिलना शुरु हो रहे हैं। लेकिन व्यापक स्तर पर इसके प्रति जागरुकता के अभाव में अभी हरे सेब को मुख्यधारा की सेब वैरायटीज में स्थान मिलना शेष है।


शुक्रवार, 18 जून 2021

मेरा गाँव मेरा देश – मौसम गर्मी का

गर्मी के साथ पहाड़ों में बदलता जीवन का मिजाज

मैदानों में जहाँ मार्च-अप्रैल में बसन्त के बाद गर्मी के मौसम की शुरुआत हो जाती है। वहीं पहाड़ों की हिमालयन ऊँचाई में, जंगलों में बुराँश के फूल झरने लगते हैं, पहाड़ों में जमीं बर्फ पिघलने लगती है, बगीचों में सेब-प्लम-नाशपाती व अन्य फलों की सेटिंग शुरु हो जाती है और इनके पेड़ों व टहनियों में हरी कौंपलें विकसित होकर एक ताजगी भरा हरियाली का आच्छादन शुरु करती हैं। मैदानों में इसी समय आम की बौर से फल लगना शुरु हो जाते हैं। मैदानों में कोयल की कूकू, तो पहाड़ों में कुप्पु चिड़िया के मधुर बोल वसन्त के समाप्न तथा गर्मी के मौसम के आगमन की सूचना देने लगते हैं।

मई माह में शुरु यह दौर जून-जुलाई तक चलता है, जिसके चरम पर मौनसून की फुआर के साथ कुछ राहत अवश्य मिलती है, हालाँकि इसके बाद सीलन भरी गर्मी का एक नया दौर चलता है। ये माह पहाड़ों में अपनी ही रंगत, विशेषता व चुनौती लिए होते हैं। अपने विगत पाँच दशकों के अनुभवों के प्रकाश में इनका लेखा जोखा यहाँ कर रहा हूँ, कि किस तरह से पहाड़ों में गर्मी का मिजाज बदला है और किस तरह के परिवर्तनों के साथ पहाड़ों का विकास गति पकड़ रहा है।

हमें याद है वर्ष 2010 से 2013 के बीच मई माह में शिमला में बिताए एक-एक माह के दो स्पैल (दौर), जब हम जैकेट पहने एडवांस स्टडीज के परिसर में विचरण करते रहे। पहाड़ी की चोटी पर भोजनालय में दोपहर के भोजन के बाद जब 1 बजे के लगभग मैस से बाहर निकलते तो दोपहरी की कुनकुनी धूप बहुत सुहानी लगती। सभी एशोसिऐट्स बाहर मैदान में खुली धूप का आनन्द लेते। अर्थात यहाँ मई माह में भरी दोपहरी में भी ठण्डक का अहसास रहता।

इससे पहले हमें याद हैं वर्ष 1991 में मानाली में मई-जून माह में बिताए वो यादगार पल, जब पर्वतारोहण करते हुए, कुछ ऐसे ही अहसास हुए थे। यहाँ इस मौसम में भी ठीक-ठाक ठण्ड का अहसास हुआ था और गुलाबा फोरेस्ट में तो पीछे ढलान पर बर्फ की मोटी चादर मिली थी, जिसपर हमलोग स्कीईंग का अभ्यास किए थे।

हमारे गाँव में भी मई माह में गर्मी नाममात्र की रहती है, बल्कि यह सबसे हरा-भरा माह रहता है। इसी तरह की हरियाली वरसात के बाद सितम्बर माह में रहती है। इस तरह घर में मई माह अमूनन खुशनुमा ही रहा। गर्मी की शुरुआत जून माह में होती रही, जो मोनसून की बरसात के साथ सिमट जाती। इस तरह मुश्किल से 3 से 4 सप्ताह ही गर्मी रहती। इस गर्मी में तापमान 38 डिग्री से नीचे ही रहता। इसके चरम को लोकपरम्परा में मीर्गसाड़ी कहा जाता है, जो 16 दिनों का कालखण्ड रहता है, जिसमें 8 दिन ज्येष्ठ माह के तो शेष 8 दिन आषाढ़ माह के रहते। इस वर्ष 2021 में 6 जून से 22 जून तक यह दौर चल रहा है। इस दौर के बारे में बुजुर्गों की लोकमान्यता रहती कि जो इन दिनों खुमानी की गिरि की चटनी (चौपा) के साथ माश के बड़े का सेवन करेगा, उसमें साँड को तक हराने की ताक्कत आ जाएगी। हालाँकि यह प्रयोग हम कभी पूरी तरह नहीं कर पाए। कोई प्रयोगधर्मी चाहे तो इसको आजमा सकता है।

इस गर्मी के दौर के बाद जून अंत तक मौनसून का आगमन हो जाता और इसके साथ जुलाई में तपती धरती का संताप बहुत कुछ शाँत होता, लेकिन बीच बीच में बारिश के बाद तेज धूप में नमी युक्त गर्मी के बीच दोपहरी का समय पर्याप्त तपस्या कराता, विशेषकर यदि इस समय खेत या बगीचे में श्रम करना हो या चढाई में पैदल चलना हो।

अधिक ऊँचाई और स्नो लाईन की नजदीकी के कारण मानाली साईड तो यह समय भी ठण्ड का ही रहता है। यहाँ पूरी गर्मी ठण्ड में ही बीत जाती है। पहाड़ों की ऊँचाईयों में तो यहाँ तक कि स्नोफाल के नजारे भी पेश होते रहते। हमें याद है मई-जून माह में ट्रेकिंग का दौर, जिसमें नग्गर के पीछे पहाड़ों की चोटी पर चंद्रखणी पास में ट्रैकरों ने बर्फवारी का आनन्द लिया था और बर्फ के गलेशियर को पार करते हुए अपनी मंजिल तक पहुँचे थे।

जून में गर्मी के दिनों में भी यदि एक-दो दिन लगातार बारिश होती तो फिर ठण्ड पड़ जाती, क्योंकि नजदीक की पीर-पंजाल व शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं में बर्फवारी हो जाती। इस तरह गर्मी का मौसम कुछ सप्ताह तक सिमट जाता। हालाँकि बारिश न होने के कारण और लगातार सूखे के कारण हमनें बचपन में दो माह तक गर्मियों के दौर को भी देखा है, जब मक्की की छोटी पौध दिन में मुरझा जाती।

यदि फसलों (क्रॉपिंग पैटर्न) की बात करें, तो हमें याद है कि पहले गर्मी में जौ व गैंहूं की फसल तैयार होती। फलों में चैरी, खुमानी, पलम, नाशपती, आढ़ू सेब आदि फल एक-एक कर तैयार होते। जापानी व अखरोट का नम्बर इनके बाद आता। सब्जियों में पहले मटर, टमाटर, मूली, शल्जम आदि उगाए जाते। फिर बंद गोभी, फूल गोभी, शिमला मिर्च आदि का चलन शुरु हुआ और आज आईसवर्ग, ब्रौक्ली, स्पाईनेच, लिफी(लैट्यूस) जैसी इग्जोटिक सब्जियों को उगाया जा रहा है। इनको नकदी फसल के रुप में तैयार किए जाने का चलन बढ़ा है।

ये मौसमी सब्जियाँ यहाँ से पंजाब, राजस्थान जैसे मैदानी राज्यों में निर्यात होती हैं, जहाँ गर्मी के कारण इनका उत्पादन कठिन होता है और वहां से अन्न का आयात हमारे इलाके में होता है। क्योंकि हमारे इलाकों में अन्न उत्पादन का रिवाज समाप्त प्रायः हो चला है, क्योंकि अन्न से अधिक यहाँ फल व सब्जी की पैदावार होती है व किसानों को इसका उचित आर्थिक लाभ मिलता है। इस क्षेत्र में जितनी आमदनी पारम्परिक अन्न व दाल आदि से होती है, उससे चार गुणा दाम पारम्परिक सब्जियों से होता है और इग्जोटिक सब्जियाँ इससे भी अधिक लाभ देती हैं। वहीं फलों का उत्पादन सब्जियों से भी अधिक लाभदायक रहता है, हालाँकि इनके पेड़ को पूरी फसल देने में कुछ वर्ष लग जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अब किसानों ने अन्न उगाना बंद प्रायः कर दिया है तथा यहाँ बागवानी का चलन पिछले दो-तीन दशकों में तेजी से बढ़ा है और यह गर्मी में ही शुरु हो जाता है। सेब प्लम आदि की अर्ली वैरायटी जून में तैयार हो जाती हैं, हालाँकि इसकी पूरी फसल जुलाई-अगस्त में तैयार होती है।

जून माह में ही जुलाई की बरसात से पहले धान की बुआई, जिसे हम रुहणी कहते – एक अहम खेती का सीजन रहता, जिसका हम बचपन में बड़ी बेसब्री से इंतजार करते। हमारे लिए इसमें भाग लेना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। काईस नाला से पानी के झल्कों (फल्ड इरिगेशन का किसानों की पारी के हिसाब से नियंत्रित प्रवाह) के साथ काईस सेरी में धान के खेतों की सिंचाई होती। घर के बड़े बुजुर्ग पुरुष जहाँ बैलों की जोडियों के साथ रोपे को जोतते, मिट्टी को समतल व मुलायम करते, हम लोग धान की पनीरी को बंड़ल में बाँधकर दूर से फैंकते और महिलाएं गीत गाते हुए पूरे आनन्द के साथ धान की पौध की रुपाई करती। खेत की मेड़ पर माष जैसी दालों के बीज बोए जाते, जो बाद में पकने पर दाल की उम्दा फसल देते।

गाँव भर की महिलाएं धान की रुपाई (रुहणी) में सहयोग करती। सहकारिता के आधार पर हर घर के खेतों में धान की रुपाई होती। दोपहर को बीच में थकने पर पतोहरी (दोपहर का भोजन) होती, जिसे घरों से किल्टों (जंगली वाँस की लम्बी पिट्ठू टोकरी) में नाना-प्रकार के बर्तनों में पैक कर ले जाया जाता। इसकी सुखद यादें जेहन में एक दर्दभरा रोमाँच पैदा करती हैं। आज इन रुहणियों के नायक कई बढ़े-बुजुर्ग पात्र घर में नहीं हैं, इस संसार से विदाई ले चुके हैं, लेकिन उनके साथ विताए रुहणी के पल चिर स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। समय के फेर में हालाँकि रुहणी का चलन आज बिलुप्ति की कगार पर है, मात्र 5 से 10 प्रतिशत खेतों में ऐसा कुछ चलन शेष बचा है, लेकिन गर्मी का मौसम इसकी यादों को ताजा तो कर ही देता है।

गाँव-घर में गर्मियाँ की छुट्टियाँ भी 10 जुन से पड़ती, जो लगभग डेढ़-दो माह की रहती। ये अगस्त तक चलती। हालाँकि अब इन छुट्टियों के घटाकर क्रमशः कम कर दिया गया है, जो अभी महज 3 सप्ताह की रहती हैं। शेष छुट्टियों के सर्दी में देने का चलन शुरु हुआ है। इस दौरान जंगल में गाय व भेड़-बकरियों को चराने की ड्यूटी रहती। साथ में एक बैग में स्कूल का होम वर्क भी साथ रहता। मई, जून में ही गैर दूधारु पशुओं को जंगल में छोड़ने का चलन रहता, जिनकी फिर अक्टूबर में बापिसी होती। इनको छोड़ते समय एक-आध रात जंगल में बिताने का संयोग बनता, जिसकी यादें आज भी भय मिश्रित रोमाँच का भाव जगाती हैं।

हालाँकि गर्मी का मौसम घर में बिताए लम्बा अर्सा हो चुका है, लेकिन स्मरण मात्र करने से ये पल अंतःकरण को गुदगुदाते हुए भावुक सा बनाते हैं और दर्दभरी सुखद स्मृतियों को जगाते हैं। शायद जन्मभूमि से दूर रह रहे हर इंसान के मन में कुछ ऐसे ही भावों को समंदर उमड़ता होगा, खासकर तब, जब लोकडॉउन के बीच लम्बे अन्तराल से वहाँ जाने का संयोग न बन पा रहा हो।

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार, भाग-2 (समापन किश्त)



 बचपन की मासूम यादें और बदलते सरोकार

(गांव के नाले व झरने से जुड़ी बचपन की यादें पिछली ब्लॉग पोस्ट में शेयर हो चुकी हैं।) इनके पीछे के राज को जानने की चिर-इच्छा को पूरा करने का सुयोग आज बन रहा था। सुबह 6 बजे चलने की योजना बन चुकी थी। सो उठकर सुबह की चाय के साथ हम मंजिल के सफर पर चल पड़े। आज उपवास का दिन था, सो झोले में अपनी स्वाध्याय-पूजा किट के साथ रास्ते के लिए अखरोट, सेब, जापानी फल जैसे पाथेय साथ लेकर चल पड़े। 

आज हम उसी रास्ते से दो दशक बाद चल रहे थे, जिस पर कभी गाय भेड़ बकरियों के साथ हम छुट्टियों में जंगल के चरागाहों, घाटियों, वुग्यालों में जाया करते थे। अकसर जुलाई माह में 1-2 माह की छुट्टियां पड़ती, तो गाय चराने की ड्यूटी मिलती। आज दो दशकों के बाद इलाके के मुआयने का संयोग बन रहा था, सो आज इस अंतराल में आए परिवर्तन को नजदीक से देखने-अनुभव करने का दिन था। घर से पास में सटे नउंड़ी-सेरी गांव से गुजरते हुए आगे के विराने में पहुंचे। गांव में सभी घर पक्के दिखे। साफ सुथरे, रंगों से सजे, आधुनिक तौर तरीकों से लैंस। विकास की व्यार यहाँ तक साफ पहुंची दिख रही थी। 

इसके आगे, कझोरा आहागे पहुंचे, जहाँ से पानी का वंटवारा होता था। घर-गाँव में खेतों की सब्जी के लिए पानी यहीं से आता था। यह गांव का छोटा नाला था, जिसका पानी थोडी दूर नीचे मुख्य नाले में मिलता है, जिसका जिक्र पिछली ब्लॉग पोस्ट में हो चुका है। नाउंड़ी सेरी गांव से होते हुए कच्ची पगड़ंडी के सहारे पानी घर की कियारी तक लगभग 15-20 मिनट में पहुंच जाया करता था। यही आगे बढ़ने का पड़ाव और वापसी का विश्राम स्थल था। यहीं चट्टान के ऊपर बैठ कर विश्राम, खेल हुआ करते थे, यहीं से गाय-भेडों का काफिला आगे जंगल के लिए कूच करता था और शाम को बापिसी में यहीं कुछ पल विश्रांति के बाद घर वापसी हुआ करती थी। आज यह स्थल खेतों एवं सेब बगानों की जद में आ गया है, पुराना नक्शा गायब दिखा। बचपन की यादें बाढ़ें में बंद दिखीं। आज पूरा मैदान, पूरा क्रीडा स्थल गायब था। आगे बढ़ते गए, पानी का टेंक यथावत था, लेकिन इसके इर्द-गिर्द की बंजर जमीं, सीढ़ी दार खेत, मैदान नादारद थे।

वह घास के खेत, क्यारियों, जंगल, वियावन सब गायव थे, पत्थरों की दिवालों में कैद। इनमें सेब व दूसरे फलों के बाग लहलहा रहे थे। लगा आवादी का दवाव, कुछ इंसान के विकास का संघर्ष, तो कुछ लोभ का अंश। सबने मिलजुलकर बचपन की मासूम समृतियों पर जैसे डाका डाल दिया है। विकास का दंश साफ दिखा। वह प्राकृत अवस्था नादारद थी, जिसकी मिट्टी में हम खेलते-कूदते अपने मासूम बचपन को पार करते हुए बढ़े हुए थे।

यह क्या सुवह सुवह ही गांव की कन्याएं पीठ में घास की गठरी लादे नीचे उतर रही थी। निश्चित ही ये प्रातः अंधेरे में ही घर से निकली होंगी, साथ में इनके भाई औऱ माँ। यह, यहाँ की मेहनतकश जिंदगी की बानगी थी, जो ताजा हवा के झौंके की तरह छू गई। इसके साथ ही याद आए बचपन के वो दिन, जब हम यदा-कदा बान जंगलों में घास-पत्तियों को लाने के लिए घर के बढ़े-बुजुर्गों के साथ इसी तरह सुबह अंधेरे में निकल पड़ते थे और सूर्योदय से पहले ही घर पहुंच जाया करते थे। पहाड़ों पर ऊतार-चढाव भरी मेहनतकश जिंगदी और साफ आवो-हबा शायद एक कारण रही, जो यहाँ के लोग, औसतन शहरी लोगों से अधिक स्वस्थ, निरोग और दीर्घायु थे। गांव में शायद की कोई व्यक्ति रहा हो जिसे मधुमेह, ह्दयरोग. मोटापा या ऐसी जीवनशैली से जुड़ी बिमारियों का शिकार होता था। लेकिन आज नक्शा बदल रहा है, नयी पीढ़ी में श्रम के प्रति निष्ठा क्रमशः क्षीण हो रही है और जीवन शैली अस्त-व्यस्त व असंयमित। जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं-रोग सर उठा रहे हैं।

अब तक हम कझोरे नाले के समानान्तर चढ़ाई चढ रहे थे। अब इसको पार कर हल्की चढ़ाई के साथ उस पार मुख्य नाले तक पहुँचना था, जो गांव के झरने के पीछे का मध्यम स्रोत है। छाउंदर नाले के रुप में जेहन में बसा यह स्थान हमारी स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। इससे जुड़ी कई रोचक, रोमांचक यादें गहरे अवचेतन में दबी, आज इस ओर बढ़ते हुए ताजा हो रही थीं। मार्ग में गांव का विहंगम दृश्य उपर से दर्शनीय था। सामने पहाड से सुबह का सूर्योदय नीचे उतर रहा था। कुछ मिनटों में विरान मार्ग पार हो गया, रास्ते में कंटीली केक्टस की झाड़ियों में खिले सफेद पुष्प गुच्छ ताजगी का अहसास दिला रहे थे। सडक के दोनों ओर वही नजारा था। राह के विरान, बंंजर चरागाह अब खेत- बागानों में बदल चुके थे। थोड़ी ही देर में हम छाउंदर नाला पहुंच चुके थे।

यहीं से होते हुए गांव का मुख्य नाला नीचे रुपाकार लेता है। इस तक का रास्ता नीचे खरतनाक खाई और उपर भयंकर चट्टानों के बीच से होकर गुजरता है। जीवन-मरण के बीच की पतली रेखा इस मार्ग में कुछ पल के लिए कितनी स्पष्ट हो जाती है। रास्ता पूरा होते ही फिर नाले का कलकल करता स्वच्छ निर्मल जल आता है। इसी पर घराट बने हैं। सरकार के जल विभाग द्वारा इस पर विशेष पुल तैयार किया गया है और बर्षा बाढ़ से रक्षा के लिए चैक डैम। यहीं से कई पाइपें नीचे चट्टानों से उतरती दिखीं, जो पता चला कि सुदूर खेतों व बागों के लिए सिंचाई के लिए कई कि.मी. मार्ग तय करती हुई जाती हैं।

नाले के उस पार खड़ी चढ़ाई को चढ़ते हुए मंजिल की ओर आगे बढते गए। इस ऊँचाई पर गांव पीछे छूट चुके थे। ऐसे विरान में भी अकेला घऱ, बाहर आंगन में काम करते स्त्री-पुरुष, खेलते बच्चे। इस ऊँचाई में एकांतिक जीवन का रुमानी भाव जाग रहा था। कितना शांति रहती होगी यहाँ इस एकांत शांत निर्जन बन में। सृजन व एकांतिक ध्यान-साधना के लिए कितना आदर्श स्थल है यह। लेकिन साथ ही यह भी लगा कि यह सब संसाधनों के रहते ही संभव है। यदि खाने-पीने व दवाई-दारु का अभाव रहा तो यहां जीवन कितना विकट हो सकता है। आपातकाल में यहाँ कैसे जुरुरी साधन-सुविधाएं जुटती होंगी। इसी विचार के साथ आगे की कष्टभरी चढ़ाई चढ़ते गए।

पसीने से बदन भीग रहा था, सांसें फूल रहीं थी। हल्का होने के लिए बीच-बीच में अल्प विराम भी लेते। अभी पहाड़ी पगडंडियों को मिलाते तिराहे पर बने चट्टानी आसन पर विश्राम कर रहे थे। पहाड़ में इधर ऊधर बिखरे घरों में दैनिक जीवनचर्या शुरु हो चुकी थी। रास्ते में गाय बछड़ों के साथ खेतों की ओर कूच करते महिलाएं, बच्चे, पुरुष मिलते रहे। अब हम पहाड़ के काफी पीछे आ चुके थे। नीचे की घाटी पीछे छूट चुकी थी। मुख्य नाला वाईं ओर गहरी खाई में गायव था। सामने फाड़मेंह गांव के माध्यमिक स्कूल का भवन दिख रहा था। कभी इस गांव के बच्चे रोज हमारे गांव के स्कूल में 3-4 किमी सीधी खडी उतराई, चढाई को पार कर आते थे। आज गांव के अपने स्कूल में बच्चों की इस दुविधा का समाधान दिखा। 

यहां से थोड़ी की चढाई के बाद हमे मुख्य मार्ग में पहुंच चुके थे। यह इन दो दशकों में हुआ बड़ा विकास दिखा। अब इस इलाके के अंतिम गांव तक सड़क पहुंच चुकी है। हम इसी सड़क तक पहुंच चुके थे। पहले कभी इन गांव से फलों को क्रेन के माध्यम से नीचे पहुंचाया जाता था, आज इन सड़कों में जीप-ट्रोली के माध्यम से सेब-सब्जियां मंडी तक ले जायी जा रही हैं। गांव के युवा अपनी वाइकों में स्वार होकर यहां से सीधा शहर-कालेज जा रहे हैं। घर निर्माण के संसाधन सहज होने के कारण गांव का नक्शा बदल चुका है। विकास की व्यार इन सुदूर गांव तक स्पष्ट दिखी। पीने का साफ जल, बिजली, सड़क के साथ टीवी-नेट सुबिधाएं सब यहां सहज सुलभ हैं।

इस सड़क के साथ कुछ दूर चलने के बाद हम फिर पगडंडी के साथ होते हुए मंजिल की ओर बढ़ चले। अब फिर सीधी खड़ी चढाई थी। रास्ता बहुत ही संकरा और फिसलन भरा, हमारे लिए कठिन परीक्षा थी, लेकिन यहां के क्षेत्रीय लोग तो यहाँ पीठ में बोझा लादे भी सहज ढंग से चढ़-उतर रहे थे। रास्ते में जल का शीतल-निर्मल स्रोत मिला, जो यह मार्ग की प्यास व थकान को दूर करने बाली औषधी सरीखा था। यह किसी भी तरह बोतलों में बंद मिनरल वाटर से कम नहीं था, बल्कि अपने प्राकृत औषधीय गुणों व स्वाद के कारण उससे बेहतर ही लगा। क्षेत्रीय लोगों का कहना है कि यह भूख को बढाता है और पाचन प्रक्रिया को तेज करता है। हमारा अनुभव भी ऐसा ही रहा।

थोडी ही देर में हम मंजिल पहुंच चुके थे। दूर नीचे घाटी का विहिंगम दृष्ट दर्शनीय था। पहाड के निर्जन गाँव नीचे छूट चुके थे औऱ यहां से इनका विहंगम दृश्य दर्शनीय था। पीछे गांव के नाले का मूल स्रोत रेउंश झरना अपनी मनोरम छटा के साथ अपने दिव्य दर्शन दे रहा था। गावं के पवित्र ईष्ट देव, स्थान देवों की पुण्य भूमि सामने थी। बचपन में जिन पहाड़ों को निहारा करते थे, देवदार से लदे वे पर्वत सामने थे। इस देवभूमि में सुबह का सूर्योदय होने वाला था। आसन जमाकर, हम इन दुर्लभ क्षणों को ध्यान की विषय बस्तु बनाकर अपने जीवन के शाश्वत स्रोत से जुड़ने की कवायद करते रहे। सूर्य की किरणें पूरी घाटी में ऊजाला फैला रही थी, हमारे शरीर-प्राण की जड़ता को भेदकर कहीं अंतरमन में गहरे उतर रही थीं।
आज हम गांव के नाले व झरने के स्रोत के पास ध्यान मग्न थे। इसकी गोद में विताए बचपन के मासूम दिनों को याद कर रहे थे, इसके बाद बीते दशकों की भी भाव यात्रा कर रहे थे। कैसे कालचक्र जीवन को बचपन, जवानी, प्रौढावस्था के पड़ाव से ले जाते हुए बुढ़ापे कओर धकेल देता है। परिवर्तन के शाश्वत चक्र में सब कैसे सिमट जाता है, बीत जाता है, खो जाता है। लेकिन साथ रहता है तो शायद वर्तमान। उसी वर्तमान के साथ हम भूत को समरण कर, भविष्य का ताना-बाना बुन रहे थे। अब आगे क्या होगा यह तो साहब जाने, हम तो नेक इरादों के साथ इस जीवन की यात्रा को एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचाने के भाव के साथ यहाँ खुद को खोजने-खोदने आए थे।

बापसी में इसी सीधी उतराई के साथ नीचे उतरे। छाउंदर नाले के पास केकटस की कंटीली झाड़ियों के पके मीठे फलों का लुत्फ लेते हुए, फिसलन भरी घास के बीच नीचे उतर कर गांव के हनुमान मंदिर पहुंचे। मंदिर में माथा टेकते हुए बापिस झरने व नाले की गोद में पहुँचे। आज की यात्रा पूरी हुई, जिसकी स्मृतियां हमेशा याद करने पर भावनाओं को उद्वेलित करती रहेंगी। अपने साथ कई सवाल भी छोड़ गई, जिनका समाधान किया जाना है। एक मकसद भी दे गई, जिसको समय रहते पूरा करना है।

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

यात्रा वृतांत - मेरी यादों का शिमला और पहला सफर वरसाती, भाग-2(अंतिम)




घाटी की इस गहराई में, इतने एकांत में भी युनिवर्सिटी हो सकती है, सोच से परे था। मुख्य सड़क से कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि शहर के बीहड़ कौने में प्रकृति की गोद में ऐसा प्रयोग चल रहा हो। लेकिन यही तो मानवीय कल्पना, इच्छा शक्ति और सृजन के चमत्कार हैं। लगा इंसान सही ढंग से कुछ ठान ले, तो वह कोई भी कल्पना साकार कर सकता है, मनमाफिक सृष्टि की रचना कर सकता है। यहाँ इसी सच का गहराई से अनुभव हो रहा था। कुछ ही मिनटों में हम कैंपस में थे। राह में विचारकों, शिक्षाविदों, महापुरुषों के प्रेरक वक्तव्य निश्चित ही एक विद्या मंदिर में प्रवेश का अहसास दिला रहे थे। प्रकृति की गोद में बसे परिसर में, नेचर नर्चरिंग द यंग माइंड्ज, की उक्ति चरितार्थ दिख रही थी। चारों और पहाडियों से घिरे इस परिसर में उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर सामने पहाड़ी पर तारा देवी शक्तिपीठ प्रत्यक्ष हैं। आसमां पूरी तरह से बादलों से ढ़का हुआ था, मौसम विभाग की सूचना के अनुसार भारी बारिश के आसार थे। सम्भवतः हमारा गुह्य मकसद पूरा होने वाला था।
गेस्ट हाउस में फ्रेश होकर, स्नान-ध्यान के बाद विभाग एवं विश्वविद्यालय के अकादमिक विशेषज्ञों के साथ निर्धारित मीटिंग सम्पन्न हुई। पूरे परिसर में दीवार पर हर कदम पर टंगे प्रेरक सदवाक्य मौन शिक्षण दे रहे थे। इनसे संवाद चलता रहा, जो अच्छे लगे, कैमरे में कैद करता रहा। आसमान में बादल तो सुबह से ही उमड़-घुमड़ रहे थे, लेकिन अब कुछ-कुछ बरसना शुरु हो चुके थे। लग रहा था, आज पूरा बरस कर ही रहेंगे और हमारी शिमला घूमने की योजना संभव न हो पाएगी। बाहर बादल क्रमशः घनीभूत हो रहे थे। पीठ में रक्सेक टांगे बाहर निकलते, इससे पहले ही बारिश शुरु हो चुकी थी। धीरे-धीरे बारिश जोर पकड़ती गई। कुछ ही मिनटों में मूसलाधार बारिश हो रही थी। पता चला कि इस सीजन की यह सबसे भयंकर बारिश थी। शुरु में तो हमें यह हमारी यात्रा में खलल डालता प्रकृति का हस्तक्षेप लगा। लेकिन थोड़ी ही देर में अनुभव हुआ कि शिमला के इसी रुप को निहारने की इच्छा लेकर तो हम आए थे, जो आज पूरी हो रही थी। लगभग एक घंटा तक विवि के स्वागत कक्ष में बारिश के नाद-ब्रह्म के बीच जीवन के नश्वर-शाश्वत खेल पर चिंतन-मनन करते रहे और वरसाती मौसम की शीतल फुआर का आनन्द उठाते रहे। इसको फोटो एवं बीडियो में भी यथासम्भव कैद करने का प्रयास करते रहे।



जब मौसम शांत हुआ तो गाड़ी से शिमला की ओर चल पड़े। रास्ते में सूखे नाले दनदना रहे थे। रास्ते में जगह-जगह झीलें बन गई थी। कहीं थोड़ा बहुत लेंडस्लाइड भी हो गया था। प्रकृति स्नान के बाद तरोताजा दिख रही थी। राह की शीतल व्यार सफर को सुखद बना रही थी। चीड़, देवदार के बनों के बीच हम पँथाघाटी पहुंचे। मुख्यमार्ग से आईएसबीटी की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में आश्चर्यचकित हुए की यहां बारिश की एक भी बूंद नहीं गिरी है। सारी बारिशा पंथा घाटी तक सीमित थी। प्रकृति के दैवीय संतुलन पर हमारी आस्था और प्रगाढ़ हुई, जिससे हम बरसात का आनन्द भी उठा सके और शिमला की बाकि यात्रा भी बादलों की फाहों के बीच कर सके। आइएसबीटी से होते हुए हम बालूगंज पहुंचे। यहां से एडवांस स्टडीज के चरणस्पर्श करते हुए समर हिल और फिर दाईं और से संस्थान की परिक्रमा करते हुए मुख्य गेट से संस्थान में प्रवेश किए। 


भारतीय उच्च अध्यय संस्थान, शिमला का एक प्रमुख आकर्षण है। इसके दर्शन के बिना शिमला की यात्रा अधूरी ही मानी जाएगी। 1888 में बना यह संस्थान भारत में शासन कर रही अंग्रेजी सरकार के वायसराय का निवास था। अर्थात यहीं से अंग्रेजी सरकार चलती थी। इसी लिए इसे वायसराय लॉज भी कहा जाता है। आजादी के बाद इसे राष्ट्रपति निवास के रुप में रुपांतरित किया गया। राष्ट्रपति महोदय से साल में एक-आध बार कुछ सप्ताहृ-माह के लिए यहां आते थे, बाकि समय यह मंत्रियों की आरामगाह बना रहता था। भारत के दूसरा राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्ण की दूरदृष्टि का सत्परिणाम था कि इसे 1962 से उच्चस्तरीय शोध-अनुसंधान केंद्र के रुप में स्थापित किया गया। उद्देश्यों के अनुरुप इसकी पंच लाईन रही – ज्ञानमय तपः। इसी उद्देश्य के अनुरुप यहाँ देश-विदेश से फैलोज एवं एसोशिएट्स शोध-अध्ययन के लिए आते हैं। एक माह से लेकर दो वर्ष तक यहाँ रहकर शोधकार्य करते हैं। हर सप्ताह का एक सेमीनार इसकी विशेषता है। इसके अतिरिक्त सीजनल वर्कशॉप, सेमीनार, बौद्धिक आयोजन यहाँ चलते रहते हैं। मानविकी और सामाजिक विज्ञान में शोध-अनुसंधान के इच्छुक कोई भी पीएचडी धारी सत्पात्र यहाँ की ज्ञानसाधना का हिस्सा बन सकता है। इसका पुस्तकालय देश के वृहदतम और श्रेष्ठतम में से एक है। यही शोध का केंद्र होता है। यहाँ सुबह 9 बजे से लेकर शाम 7 बजे तक शोधार्थी ज्ञानसाधना में लग्न रहते हैं।


आज हम शाम को लेट हो चुके थे और संस्थान बंद हो चुका था। अतः वाहर से ही इसका विहंगावलोकन करते रहे, विताए पलों की यादें उमड-घुमड़ कर चिदाकाश पर बरसाती बादलों की तरह तैर रही थीं। इनकी शीतल फुआर से चित्त आनंदित-आल्हादित था। बादलों के साथ लुका-छिपी करते संस्थान के भव्य भवनों व देवतरुओं को केमरे में समेटते हुए कुछ मौसमी फोटो लिए। फिर यादों के समेटे बापिस लुगंज की ओर चल पड़े और अपनी फेवरट जलेवी-दूध की दुकान में पहुंचे। शिमला युनिवर्सिटी और एचवांस स्टडी का शायद की कोई छात्र एवं प्रोफेसर हों जो इस दुकान में न पधारे हों। यहाँ अपना मनपसंद नाश्ता किया। बाहर ढलती शाम का धुंधलका छा रहा था। साथ ही हल्की-हल्की बारिश भी शुरु हो चुकी थी। आज ही बापिस लौटना की बाध्यता थी, सो शिमला के बाकि हिस्से को अगली बरसात के लिए छोड़कर हम रात के बढ़ते अंधेरे को चीरती हुई रोशनी के बीच बस स्टेंड पहुंचे। यहाँ बस काउंटर पर खड़ी थी। टिकट लेकर प्रो. चौहान साहब से विदाई लेते हुए देहरादून के लिए बस में बैठ गए।
यहाँ से सोलन - चंडीगढ़ - नाहन - पांवटा साहिब होते हुए सुबह 5 बजे हम देहरादून पहुंच चुके थे। साढ़े छः बजे तक हम देसंविवि के गेट पर थे। बारिश की बूंदे अभिसिंचन करते हुए जैसा हमारा स्वागत कर रही थीं। बारिश से शुरु बारिश में खत्म शिमला का बरसाती सफर एक चिरस्मरणीय अनुभूति के रुप में अपने साथ था। यात्रा की खुमारी के साथ यात्रा की थकान को उतारते रहे। और नींद व थकान से हल्का होकर कलम उठाई, यात्रा के अनुभवों को कलमबद्ध करते रहे। यात्रा वृतांत आपके सामने है। 

शिमला घूमने के इच्छुक दोस्तों से इतना ही कहना है कि शिमला के हर मौसम के अपने रंग हैं। गर्मी में ठंड़क से राहत के लिए शिमला जाया जा सकता है, सर्दी में बर्फ का लुत्फ उठाया जा सकता है। पतझड़ और बसन्त के यहां अपने मनमोहक रंग हैं। लेकिन बरसात के मौसम के बिना शिमला का बास्तविक आनन्द अधूरा है। क्योंकि मौसम न अधिक गर्म होता है न अधिक ठंड़ा। उड़ते-तैरते आबारा बादलों के बीच घाटी का विहंगावलोकन एक स्वप्निल लोक में विचरण की अनुभूति देता है। हाँ बरसात में भारी बारिश से भीगने, भुस्खलन व बादल फटने जैसे खतरे तो अवश्य रहते हैं, लेकिन इन्हीं चुनौतियों के बीच तो यात्रा का रोमाँच अपने शवाब पर रहता है।
यदि इसका पहला भाग नहीं पढ़ा हो तो यहाँ पढ़ सकते हैं - मेरा शिमला का पहला सफर बरसाती, भाग-1।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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