हरिद्वार से टाटानगर (जमशेदपुर) की रेल यात्रा
हरिद्वार रेल्वे स्टेशन, 17 दिसम्बर, 2023 |
नौ वर्ष वाद मेरी यह चौथी झारखण्ड यात्रा थी, 2014 में संयोगवश प्रारम्भ यात्रा अभियान की पूर्णाहुति जैसी और एक नए अभियान के शुभारम्भ जैसी। यहाँ हमारे अंतिम शोध छात्र की पीएचडी उपाधि पूर्ण हो रही थी। जीवन की विषम परिस्थितियों के साथ कोविड की दुश्वारियों को पार करते हुए तमाम विघ्न-बाधाओं के बावजूद कार्य पूर्ण हो रहा था, यह दर्शाते हुए कि जिसके भाग्य में जो वदा होता है, वह उसको मिलकर रहता है। हालाँकि इसमें व्यक्ति का श्रम, लग्न, त्याग और अपनों के सहयोग की अपनी भूमिका रहती है। बस व्यक्ति हिम्मत न हारे, आशा का दामन न छोड़े और अपने लक्षिय ध्येय की खातिर अनवरत प्रय़ास करता रहे, जो मंजिल देर-सबेर मिलकर ही रहती है।
इस बार धनवाद-रांची की वजाए पहले टाटानगर - जमशेदपुर जाने का संयोग बन रहा था। इसलिए पहली बार कलिंगा उत्कल एक्सप्रेस रेल से जा रहा था, जो सीधा हरिद्वार से होकर जमशेदपुर-टाटानगर पहुंचती है और इसका अंतिम पड़ाव रहता है उड़ीसा प्रांत का प्रख्यात तीर्थ स्थल श्री जगन्नाथधाम पूरी। दस दिवसीय यह यात्रा कई मायनों में यादगार रही। रेल से लेकर बस तथा हवाई सफर के रोमाँच के बीच अनुभव की कमी तथा कुछ लापरवाही के चलते छोटी-छोटी चूकें कड़क सवक देती गई और अनुभव से शिक्षण का क्रम भी यात्रा के समानान्तर चलता रहा। फिर कुछ देव निर्धारित जीवन के संयोग, जिनके साथ ईश्वर हर जीवात्मा की विकास यात्रा को अपने ढंग से पूर्णता के मुकाम की ओर गतिशील करता है। अगले 4-5 ब्लॉगज की सीरिज में इन्हीं जीवन यात्रा के अनुभवों को साझा करने का प्रयास रहेगा, जो शायद पाठकों के लिए कभी कुछ काम आएं।
इस यात्रा का शुभारम्भ ही अद्भुत रहा, रेल अपने प्रारम्भिक पड़ाव योग-नगरी ऋषिकेश से ही पूरा तीन घंटा लेट थी। यात्रा के प्रारम्भ में ही ऐसी लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था, कि ऐसा भी हो सकता है। आगे से फिर घर से ही रेल के स्टेटस का अपडेट लेकर चला जाए, जिससे रेल्वे स्टेशन पर मौसम की विषमता के बीच अनावश्यक तप न करना पड़े। हालाँकि आज के अनुभव का अपना कड़क मजा रहा। आधा समय तो स्टेशन के प्रतीक्षालय कक्ष में इंतजार करते बीते, एक चौथाई समय स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर टहलते हुए और शेष चौथाई समय ट्रेन की आने की घोषणा के चलते ट्रेन के इंतजार में टकटकी लगाए हुए। सूर्योदय से पहले की ठण्डी में हाथ जैसे जम रहे थे, गंगाजी से बह रहे ठंडी हवा के तीखे झौंके सीधे टोपी के आर-पार हो रहे थे। क्योंकि हमारे इंतजार का स्थल स्टेशन के थोड़ा बाहर पड़ रहा था, रेल की सेकण्ड लास्ट बोगी में हमें चढ़ना था। लेकिन यात्रा के उत्साह की ऊर्जा इंतजार की वाध्यता और शीतल हवा के तीखे झौंको पर भारी पड़ रही थी।
दिसम्बर की सर्दी के बीच सफर का रोमाँच |
फिर शरीर को गर्म रखने के लिए प्लेटफॉर्म पर लगे स्टाल पर बीच-बीच में गर्म पेय का सहारा लेते रहे, जिससे कड़क ठंड के बीच कुछ राहत अवश्य महसूस होती रही। जिस रेल से 6.55 पर प्रातः हरिद्वार से कूच करना था, वो आखिर पौने 10 बजे पहुँचती है और दस मिनट के विराम के बाद लगभग 10 बजे चल पड़ती है। इस तरह पूरा 3 घण्टा लेट। 2 बजे के आसपास गाजियावाद और पौने 3 बजे निजामुद्दीन से होती हुई, मथुरा को पार कर सवा छः बजे आगरा पहुँचती है। रेल साढ़े तीन घंटा लेट हो चुकी थी। ग्वालियर पहुँचते-पहुँचते रेल लगभग 4 घंटा लेट थी। रात को पौने 9 बजे यहाँ पहुंचती है। साइड अपर बर्थ में सीट होने के कारण नीचे उतर कर बाहर देखने की अधिक गुंजाइश नहीं थी और मनःस्थिति भी एकांतिक चिंतन-मनन तथा अध्ययन के साथ विश्राम करते हुए सफर की थी। रास्ते में साथ लिए ब्रेड तथा जैम के साथ गर्म पेय का मिश्रण रात्रि आहार बनता है। रात को रेल थोड़ा गति पकड़ती है। प्रातः दिन खुलते-खुलते साढ़े 6 बजे हम वीरसिंहपुर पहुंच चुके थे। रेल अब 2 घंटे लेट थी। अपने बर्थ में ही बैठे-लेटे भाव सुमिरन के साथ मानसिक ध्यान-पूजा आदि का क्रम चलता रहा।
सुबह 9 बजे के आस-पास पेंद्रा रोड़ पर रेल रुकती है। यहाँ छुट्टियों में घर गई विभाग की एक छात्रा से मुलाकात होती है, जो हमारे लिए नाश्ते की व्यवस्था कर रखी थी।
पेंद्रा रोड़ स्टेशन का दृश्य |
बिलासपुर आते-आते रेल 3 घंटे लेट हो चुकी थी और 11 बजे के आसपास यहाँ पहुंचते हैं, जहाँ विश्वविद्यालय के योगा में दीक्षित पुराने छात्रों से मुलाकात होती है, जो सफर के लिए लंच की व्यवस्था कर बैठे थे। हालाँकि हम स्वभाववश ऐसी सेवा लेने से संकोच करते हैं, लेकिन संयोग से घटी ये अप्रत्याशित मुलाकातें विश्वविद्यालय परिवार के आत्मीय विस्तार से गाढ़ा परिचय करवा रही थी और इनका भावनात्मक स्पर्श अंतःकरण को कहीं गहरे स्पर्श कर रहा था।
रात को राउरकेला पहुँचते – पहुंचते रेल पाँच घंटा लेट हो चुकी थी और रात के आठ बज चुके थे। शाम छः बजे जमशेदपुर पहुंचने वाली रेल रात 12 बजे पहुँचती है और रेल 6 घण्टे लेट हो चुकी थी। इस तरह रेल की लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था। स्टेशन पर मार्ग में आतिथ्य के सुत्रधार डॉ. दीपकजी हमारा इंतजार कर रहे थे, जिन्होंने रात्रि विश्राम की व्यवस्था घर पर कर रखी थी।
रेल में हमारी सीट साइड अपर बर्थ की थी, सो हमें किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई। रेल के लम्बे सफर में यह सीट हमारे अनुभव में सबसे विश्रामदायी रहती है। एक बैग को पैर की और रखे, तो दूसरे को साइड में टांगे आराम से कभी लेटे, तो कभी उठकर पढते-लिखते व चिंतन-मनन करते बिताते रहे। बीच-बीच में अधिक बोअर होते तो गर्म पेय की चुस्कियों के साथ मूड बदलते। केविन में बैठे परिवार की बातें, छोटे बच्चों की आपसी नोक-झौंक भरी शरारतें, बड़ों से खाने-पीने की उनकी तमाम तरह की फरमाइशें रास्ते भर केविन में घर-परिवार जैसा माहौल बनाऐ रखीं।
एक नन्हें शिशु की चपलता भरी तोतली बातें विशेषरुप से आकर्षित कर रही थीं। छोटे बालक से भावनात्मक तार जुड़ रहे थे, लेकिन बहुत घुलने-मिलने से बचते रहे। क्योंकि सफर कुछ घंटों का साथ का था, फिर रास्ते में अलग होना था। परिवार पुरी धाम जा रहा था। ऐसे में अस्तित्व के सुत्रधार भगवान जगन्ननाथ को सुमरण करते हुए तटस्थ भाव से वाल गोपाल की भोली चपलता को निहारते रहे। लगा प्रभु ही आखिर हर जीवात्मा के स्वामी, परमपिता हैं, और उनकी लीला वही जाने। आज इस नन्हें बालक के माध्यम से प्रभु एक ओर हमारे सफर को आनन्ददायी बना रहे हैं और साथ ही जीवन के किन्हीं गहनतम भावनात्मक तारों को भी झंकृत कर रहे थे।
पास के केविन में एक बाबाजी का कथा-प्रवचन भी इस यात्रा की विशेषता रही, जो पहली वार घटित होता देख रहा था। केविन की सवारियाँ भी सतसंग का पूरा आनन्द ले रही थी और बाबाजी की बातों के साथ हामी भरती हुई, इनके समर्थन में अपनी दो बातें जोड़ती हुई ज्ञान-गंगोत्री में डुबकी लगा रहीं थी। काफी देर यह सतसंग चलता रहा। हालांकि छोटा बालक बोअर हो रहा था, जब उसके धैर्य का बाँध टूट गया तो वह रोने व चिल्लाने तक लगा था। हमारा बाबाजी से विनम्र निवेदन था कि सत्संग को बालक के स्तर पर क्यों नहीं ले आते, बाल-गोपाल की लीला-कथाओं के साथ इसका मन क्यों नहीं बहलाते। खेैर, रेल में ऐसे सत्संग का माहौल हमारे लिए एक नया अनुभव था। इसके साथ रेल की लेट-लतीफी का मलाल जाता रहा। साथ ही बीच-बीच में नीचले बर्थ में आकर बाहर निहारते तो हरियाली की चादर औढे खेत खलिहान व जंगल के दृश्य मन को तरोताजा करते।
हरियाली की चादर औढे खेत-खलिहान व जंगल का बाहरी दृश्य |
अगले दिन इसी रेल से आ रहा विश्वविद्यालय के छात्रों का दल, जिसे
शाम 6 बजे टाटानगर पहुँचना था, वो ब्रह्ममुहूर्त में सवा 3 बजे प्रातः पहुचता है।
अर्थात आज रेल पूरा 9 घंटा लेट थी। थोड़ा बहुत कोहरे का भी असर रहा होगा, लेकिन
पता चला कि यह रेल ऐसी लेट-लतीफी के लिए कुख्यात है, जो प्रायः सवारियों के लिए
परेशानी का सबब बनती है। विशेषकर जब किसी को आपात में जल्दी पहुँचना हो, या आगे की
यात्रा इससे जुड़ी हुई हो, तो ऐसी लेत-लतीफी घातक एवं अक्षम्य श्रेणी की चूक में गिनी जा
सकती है। रेल मंत्रालय को इस ओर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
रास्ता भर मसाले वाली इलायची व अदरक चाय तथा कॉफी ही गर्म पेय में मिलती रही। पहले दिन सर्विस चुस्त-दुरुस्त रही, दिन भर पेंट्री सेवाकर्मियों के केविन में यदा-कदा चक्कर लगते रहे। कितनी बार भोजन और नाश्ते के वारे में पूछते रहे। लेकिन दूसरे दिन सर्विस ढीली पड़ गई थी, दिन में 12-1 बजे तक पानी की बातल तक नसीव नहीं हो पायी थी। मसाला चाय से तंग आ चुकी सवारियों के लिए स्टेशन पर केतली में ताजा चाय और लेमन टी की व्यवस्था स्वागत योग्य अनुभव था। स्वाभाविक रुप में स्वारियां दिन भर टाइमपास के लिए कुछ न कुछ चुगती रहती हैं। ऐसे में लंच या डिन्नर में हल्का भोजन अपेक्षित रहता है। लेकिन रेल में पूरी थाली से कम कोई दूसरी व्यवस्था नहीं दिखी, जिसमें लगा सुधार की जरुरत है। हल्का आहार लेने के इच्छुक सवारियों के लिए हाल्फ प्लेट जैसी व्यवस्था रेल विभाग कर सकता है।
टाटानगर पहुँचकर संक्षिप्त विश्राम कर हम, प्रातः अगले गन्तव्य की ओर बढ़ते हैं, जो था यहाँ से 132 किमी की दूरी पर स्थित झारखण्ड की राजधानी रांची का एक अकादमिक संस्थान। पिछली तीन झारखण्ड यात्राओं में हम अधिकाँशतः धनवाद से होकर राँची आए थे और इस बार टाटानगर से राँची की ओर जाने का संयोग बन रहा था। सुवर्णानदी के किनारे टाटानगर-राँची एक्सप्रेैस मार्ग पर हमारी पहली यात्रा होने वाली थी। नए रुट पर सफर की उत्सुक्तता और रोमाँच का भाव स्वाभाविक था, जिसका यात्रा विवरण आप अगली पोस्ट में पढ़ सकते हैं। सुवर्णरेखा के संग टाटानगर से राँची का सफर
जुबिली पार्क, टाटानगर, जमशेदपुर, झारखण्ड, भारत |