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रविवार, 31 दिसंबर 2023

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-3

 

दिव्य रथ से लेकर हवाई सफर का रोमाँच

टाटानगर से पटना, दिव्य रथ बस सेवा

जमशेदपुर में तीन दिवसीय अकादमिक कार्यक्रम को पूरा कर अब घर बापिसी होनी थी। बापिसी में रेल की वजाए बस और फ्लाइट से यात्रा का संयोग बन रहा था। अतः पहले चरण में टाटानगर से पटना दिव्य रथ में सवार होते हैं, जो एक नया अनुभव होने जा रहा था। हालाँकि एक बार अमृतसर से कटरा तक पिछले ही माह ऐसा सफर कर चुका था, लेकिन इस बार सिंगल बर्थ वाली सीट थी। रात को 7 बजे टिकट में चलने का समय था, लेकिन चलते-चलते बस को 8 बज चुके थे। प्रातः छः बजे पहुँचने का अनुमान था। लेकिन बस साढ़े पाँच बजे ही पटना पहुँचा देती है।

रात के अंधेरे में बाहर बहुत अधिक कुछ तो नहीं दिख रहा था, लेकिन रोशनी में जगमगाते शहर के भवन, दुकानें, मॉल्ज आदि के भव्य दर्शन अवश्य रास्ते भर होते रहे। दिव्य रथ की खासियत यह भी थी कि हमें नीचे लेट कर सफर करने का बर्थ मिला था, जिसमें सवारी जब चाहे लेट कर सो सकती थी। हालांकि हम तो अधिकाँश समय बाहर के नजारों को ही निहारते रहे और पिछले तीन-चार दिनों के यादगार अनुभवों व लिए गए शिक्षण की जुगाली करते रहे।



रास्ते में बस ग्यारह बजे के आसपास एक स्थान पर भोजन के लिए रूकती है। भोजन के साथ यहाँ एक नई तरह की व्यवस्था थी। जिसमें परात में सजे सफेद रसगुल्ले और गुलाव जामुन की दुकान थी। रात्रि भोजन के लिए बस यहाँ आधे घण्टे के लिए रुकती है। लेकिन सवारियां सबसे पहले रसगुल्लों व गुलाव जामुन पर ही टूट पड रही थी। इसके दस मिनट बाद यहाँ गर्मागर्म चाय-कॉफी परोसी जा रही थी। ठंडी रात में इनका महत्व भुगतभोगी समझ सकते हैं।

रसगुल्ला, गुलाब-जामुन की विशेष व्यवस्था

प्रातः पटना में पहारी नामक स्थान पर बस रुकती है। यह मेन रोड पर स्थित एक खुला स्टेशन है। पटना का आईएसबीटी यहाँ से 3 किमी अन्दर है। सड़क के किनारे बना लकड़ी-तरपाल आदि का रैनवसेरा सवारियों की एक मात्र शरणस्थली थी। सो हम भी अगली व्यवस्था होने से पूर्व यहीं एक बैंच पर बैठते हैं। यहाँ से गायत्री शक्तिपीठ 6.7 किमी तथा पटना साहिब गुरुद्वारा 4.5 किमी औऱ एयरपोर्ट 15 किमी की दूरी पर था। 

कुल्हड चाय का नया अंदाज

कंकरवाग स्थित गायत्र शक्तिपीठ में रुकने की योजना के अनुरुप ऑटो से वहाँ पहुँचते हैं। मेट्रो का कार्य़ प्रगति पर था, सो ऑटो शॉर्टकट गलियों से गन्तव्य तक पहुँचा देता है। यहाँ का गायत्री शक्तिपीठ युवाओं की रचनात्मक गतिविधियों के लिए खासा प्रसिद्ध है। जिसका जिक्र खान सर कर चुके हैं, हाल ही के कार्यक्रम में अवध औझा सर भी इनके कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं।

गायत्री शक्तिपीठ, कांकरबाग, पटना

26 तारीक की प्रातः एक नए हवाई यात्रा का अनुभव जुड़ने वाला था, जो शायद हवाई यात्रियों के काम आए। स्पाइस जेट से टिकट बुक थी, जिसमें पहली बार हम सफर कर रहे थे। इनके निर्देश के अनुसार, 3 घंटा पहले एयरपोर्ट पर पहुँचना था, सो समय पर सुबह 8 बजे पहुँच जाता हूँ। पता चला कि फ्लाइट 2 घंटे लेट है। एजेंट के माध्यम से बुकिंग के कारण हमें मोबाइल तथा मेल से अपडेट नहीं मिल सके, यह पहला सबक था। अतः जब भी टिकट बुक करें, तो सवारी का मोबाइल नम्बर तथा जीमेल ही दें, ताकि लेट लतीफी के सारे संदेश यात्री तक आते रहें और वह उसी अनुरुप अपनी यात्रा की व्यवस्था को पुनर्निधारित कर सके। एक घंटा इंतजार के बाद 9 बजे अंदर प्रवेश मिलता है।

अपना सामान जमा करने के बाद, अंदर प्रतीक्षालय में पहुँचते हैं। लेकिन अब फ्लाइट 11 की बजाए 1 बजे तक लेट हो चुकी थी। अपने मोबाइल, साथ रखी पुस्तकों तथा वहाँ उपलब्ध समाचार पत्रों के साथ समय का सदुपयोग करता रहा। बीच में मूड बदलने के लिए यहाँ के जल तथा गर्म पेय का भी स्वाद चखते हैं। पानी 70 रुपए का और चाय 160 रुपए की, मसाला डोसा 270 का और ब्रेड पकौड़ा 150 रुपए। ये सस्ते बाले काउंटर के दाम थे। दूसरे में इस पर 50-100 रुपए और जोड़ सकते हैं।

प्रतीक्षालय कक्ष में, पटना हवाई अड्डा

1 घंटे बाद पता चला कि फ्लाइट 2 घंटे औऱ लेट हो चुकी है अर्थात् 3 बजे चलेगी। सवारियों का धैर्य का बाँध टूट रहा था। वहाँ के कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों का घेराव होता है, पूछताछ होती है। इस सबके बावजूद फ्लाइट और लेट हो रही थी। अंततः 4 बजे फ्लाइट के चलने का निर्देश मिलता है, जो सबके लिए बड़ी राहत का संदेश था।

इस बीच खाली समय का सदुपयोग करने के लिए लैप्टॉप पर कुछ लेखन कार्य करता हूँ। आखिर 4 बजे फ्लाइट में प्रवेश, साढ़े 4 बजे यात्रा शुरु।

उड़ान के लिए तैयार विमान

स्पाइस जेट को रास्ते में गाली देते हुए लोग इसके सामने खड़े होकर जमकर सेल्फी से लेकर फोटो ले रहे थे, आखिर सवारियों का जड़ प्लेन से क्या शिकायत। शिकायत तो इनका संचालन करने वाले लोगों की लेट-लतीफी तथा लापरवाही से थी। सवारियों के घेराव का दवाव कुछ ऐसा रहा कि 2 घंटे का सफर महज ढेढ़ घंटे में पूरा होता है और 6 बजे दिल्ली हवाइ अड्डे पर विमान उतरता है। 

हवाइ जहाज में सीट इस बार वाईं ओर बीच की मिली थी, बाहर ढलती शाम के साथ आसमां में डूबते सूर्य़ का नजारा विशेष था, जिसकी फोटो खिड़की के साथ बैठे बालक से खिंचवाते रहे।

सूर्यास्त का दिलकश हवाई नजारा

पुरानी हवाई यात्राओं की स्मृतियां झंकृत हो रहीं थी और फ्लाइट की लेट-लतीफी एक दैवीय प्रयोजन का हिस्सा लग रहीं थी। 
हवाई जहाज में यात्री सेवा

उतरने की तैयारी में हवाई यान

दिल्ली पहुँचने से पहले उतरने की तैयारी की घोषणा होती है। आश्चर्य हो रहा था कि एक घंटे में ही हमें यह शुभ सूचना मिल रही थी। दिल्ली राजधानी में प्रवेश का नजारा अद्भुत था। नीचे रोशनी के जममगाते दिए कतारबद्ध जल रहे थे। कहीं चौकोर, तो कहीं षटकोण और कहीं गोल - भिन्न-भिन्न कोणों के जगमगाते डिजायन आकाश से दिख रहे थे। आसमां के सारे तारे जैसे जमीं पर सजकर हमारी फ्लाइट के स्वागत के लिए खड़े प्रतीत हो रहे थे।

मंजिल के समीप हवाई यान


यान से दिल्ली शहर का नजारा

जो भी हो हम शहर के एकदम ऊपर से नीचे उतर रहे थे और कुछ ही मिनटों में एक झटके के साथ विमान हवाई पट्टी पर उतरता है और अपनी गति को नियंत्रित करते हुए कुछ मिनटों के बाद खड़ा हो जाता है। फीडर बस से बाहर उतरकर 7 नबंर काउंटर से अपना बैगेज इकटठा करते हैं। 

एयरपोर्ट के एराइवल गेट पर टेक्सी से लेकर बस आदि की उम्दा सुविधाएं हैं। यहाँ से हर 15 मिनट में विशेष बसें दिल्ली रेलवे स्टेशन तथा आईएसबीटी कश्मीरी गेट के लिए चलती रहती हैं।

अराइवल गेट से  रेल्वे स्टेशन व आईएसबीटी के लिए बस सेवा

हमें याद है पाँच वर्ष पहले ये सुविधा नहीं थी, मेट्रो से होकर जाना पड़ता था, जो काफी मशक्कत भरा काम रहता था। पौन घंटे में हम आईएसबीटी पहुंचते हैं।

यहाँ से हमें सीधा ऋषिकेश-श्रीनगर जा रही बस साढ़े 8 बजे मिल जाती है, साढ़े बारह तक हरिद्वार पहुँचने का अनुमान था। लेकिन रास्ते में कोहरा शुरु हो गया था, जो सारा गणित बिगाड़ देता है। 200 किमी का दो तिहाई सफर कोहरे में पूरा होता है। 

भारी धुंध के बीच दिल्ली से हरिद्वार की ओर 

खतोली में एक छोटा वाहन सड़क से नीचे उतर चुका था। हमारी सीट चालक के पीछे थी। घने कोहरे के बीच जब बस गुजरती तो हमें रह रहकर अंदेशा होता कि बस कहीं खाइ में न लूढक जाए, क्योंकि सड़क तो कहीं दिख ही नहीं रही थी। विजिविलटी कहीं शून्य प्रतीत हो रही थी।

जीरो विजिबिल्टी के बीच चुनौतीभरा सफर

उठ उठकर सड़क को देखता, बीच में सफेद रंग की रेखा सडक का अहसास करवाती। लगता ठीक है, चालक कॉमन सेंस के सहारे चला रहा है। हम अपनी चटांक बुद्धि से तड़का क्यों लगा रहे हैं, ड्राइवर के अनुभव पर विश्वास क्यों नहीं कर लेते। 

इस तरह कब रूढ़की आ गया पता ही नहीं चला, नींद की झपकी खुली तो बस हरिद्वार में प्रवेश हो चुकी थी। हरिद्वार बस स्टैंड की कोई सबारी न होने के कारण बस सीधा हर-की-पौड़ी साइड से होकर शांतिकुंज पहुंचती है और फ्लाइऑवर के पास हमें उतार देती है। रात के अढाई बज चुके थे। धुंध के कारण हम लगभग 2 घंटे लेटे थे। लेकिन सही सलामत घर पहुँचने का संतोष साथ में था।

इस तरह वर्ष 2023 का उत्तरार्ध दस दिन के बस, ट्रेन व हवाई सफर के रोमाँच के बीच गुजरता है। मौसम की मार से लेकर, मानवीय त्रुटि, जनसेवा की लचर व्यवस्था के बीच जीवन का अनुभवजन्य शिक्षण भी चलता रहा। आखिर अनुभव से शिक्षण, यही तो जीवन का सार है। किताबी सबक हम भूल सकते हैं, लेकिन जीवन की पाठशाला में मिले अनुभवजन्य सबक सीधे ह्दय एवं अंतरात्मा के पटल पर अंकित होते हैं। आपस में सांझा करने पर कुछ शायद इन राहों पर चल रहे मुसाफिरों के कुछ काम आए।

युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव का संदेश

सोमवार, 29 नवंबर 2021

हरिद्वार दर्शन - गंगा तट पर घाट-घाट का पानी

 

घाट 1 से 20 तक गंगा मैया के संग

गंगा तीरे, उत्तरीय हरिद्वार

हर-की-पौड़ी के आगे स्वामी सर्वानंद घाट के पुल को पार करते ही, हरिद्वार-ऋषिकेश हाईवे से दायीं ओर का लिंक रोड़ घाट न. 1 की ओर जाता है। पीपल के बड़े से पेड़ के नीचे शिव मंदिर और फिर आम, आँबला व अन्य पेड़ों के समूहों का हरा-भरा झुरमुट। इसके आगे नीचे गंगा नदी का विस्तार, जो नीचे भीमगौड़ा बैराज तक, तो सामने राजाजी नेशनल पार्क तक फैला है। गंगाजी यहाँ एक दम शांत दिखती हैं, गहराई भी काफी रहती है और जल भी निर्मल। लगता है जैसे पहाड़ों की उछल-कूद के बाद गंगा मैया कुछ पल विश्राम के, विश्राँति भरी चैन के यहाँ बिता रही हैं – आगे तो फिर एक ओर हर-की-पौड़ी, गंग नहर और दूसरी ओर मैदानों के शहरों व महानगरों का नरक...।

यहीं से गंगाजी की एक धारा थोड़ा आगे दायीं ओर मोडी गई है, जो खड़खड़ी शमशान घाट से होकर हर-की-पौड़ी की ओर बढ़ती हैं।

यह घाट नम्बर-1 2010 के पिछले महाकुंभ मेले में ही तैयार हुआ है, जहाँ रात व दिन को बाबाओँ व साधुओं के जमावड़े को विश्राम करते देखा जा सकता है। और यह घाट पुण्य स्नान के लिए आए तीर्थयात्री व पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय है। बाँध के दूसरी ओर पार्किंग की सुविधा है, जहाँ वाहन खड़ा कर पूरा दलवल यहाँ स्नान कर सकता है। विशेष अवसरों पर तो यहाँ सामूहिक हवन व पूजा आदि भी होते देखे जा सकते हैं। साथ में गाय-बछड़ों के झुण्ड आदि भी यहाँ सहज रुप में चरते व भ्रमण करते मिलेंगे।

घाट न.1 से जब आगे बढ़ते हैं, तो बीच में थोड़ी दूरी पर 2,3,4,5,6,7,8,9 घाट पड़ते हैं। जो सार्वजनिक न होकर थोड़े अलग-थलग हैं। यहाँ प्रायः शात एकांत स्थल की तलाश में घूम रहे यात्री, साधु व स्थानीय लोग जाते हैं, गंगाजी का सान्निध्य लाभ लेते हैं और ध्यान के कुछ पल बिताते हैं। घाट नं 6,7 से नील धारा की ओर से बहकर आती गंगाजी की वृहद निर्मल धारा के भव्य दर्शन होते हैं, जहाँ गंगाजी बहुत सुंदर नजारा पेश करती हैं। वसन्त के मौसम में यहाँ विदेशों से आए माइग्रेटरी पक्षियों के झुण्डों को जल क्रीड़ा करते देखा जा सकता है। इनके झुण्डों का नजारा वेहदर खूवसूरत व दर्शनीय रहता है।

गंगा तीरे, उत्तरीय हरिद्वार
 

घाट 10 – बाबाओं की जल समाधि के लिए बना है, जिसमें अब जन-जागरुकता एवं पर्यावरणीय संवेदना के चलते धीरे-धीरे यह चलन कम हो रहा है। यहाँ से सामने नीलधारा का दृश्य प्रत्यक्ष रहता है और इसके ऊपर घाट 11 – 12 पड़ते हैं, जहाँ साधु-बाबाओं की कुटियाएं सजी हैं। बंधे के पार भूमा निकेतन आश्रम है, जिसके संरक्षण में घाट के मार्ग में बनी कुटियानुमा विश्राम स्थल व नदी के तट पर कलात्मक दृश्यों का अवलोकन किया जा सकता है। यहाँ भी शाम को दर्शनार्थियों की काफी भीड़ रहती है। इसके आगे घाट 13 निर्जन स्थान पर पड़ता है। बहुत कम ही लोग यहाँ तक आ पाते हैं।

फिर घाट 14 – धर्मगंगा घाट के रुप से जाना जाता है, जो तीर्थयात्रिंयों के बीच खासा लोकप्रिय है। यहाँ की एक विशेषता है सामने आ रही गंगा की निर्मल धार, जिसका नजारा देखने लायक रहता है व इसमें पक्षियों का क्रीडा क्लोल बहुत सुंदर नजारा पेश करता है। यह लोकेशन फोटोग्राफी के लिए भी बहुत उपयुक्त रहती है। आश्चर्य नहीं कि दिनभर यहाँ यात्रियों का जमावड़ा लगा रहता है, जिसमें जल का स्तर स्वल्प होने के कारण यह गंगा स्नान के लिए सर्वथा उचित रहता है। पानी का जल स्तर बढ़ने पर यहाँ स्नान के दौरान सावधानी अपेक्षित रहती है। इसमें  परमार्थ आश्रम द्वारा संचालित इस घाट में शाम को गंगा आरती होती है, जिसमें पर्याप्त लोगों की भीड़ रहती है।

घाट 15 – संत पथिक घाट के रुप में जाना जाता है। इसके मार्ग में संत पथिक की समाधि मंदिर है। यह भी साधु भक्तों व साधकों के लिए विश्राम व ध्यान का लोकप्रिय ठिकाना है। भारतमाता मंदिर और शांतिकुंज का ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान भी इसी की सीध में पड़ता है। इसी के आगे है घाट 16, जो बालाजी घाट के नाम से जाना जाता है। इसमें हनुमानजी एवं शिवपरिवार के विग्रह गंगा स्नान के लिए आए दर्शनार्थियों के लिए वंदनीय रहते हैं। यहाँ भी शाम को लोगों को ध्यान विश्राम से लेकर स्नान करते देखा जा सकता है। यहाँ भी गाय-बछडों व पक्षियों का जमावड़ा देखा जा सकता है, जिन्हें श्रद्धालु कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं।

इसके आगे आता है, घाट 17 – पाण्डव घाट, जहाँ पंचमुखी हनुमानजी एवं सप्तऋषियों की प्रतिमाएं स्थापित है। पाण्डवों के स्वर्गारोहण के भी यहाँ पार्क में विग्रह स्थापित हैं। इसे सप्तसरोवर घाट के नाम से भी जाना जाता है। यह भी दर्शनार्थियों के बीच लोकप्रिय घाट है, जिसमें आरती पूजा से लेकर धार्मिक कार्यक्रम पास के शिवमंदिर में चलते रहते हैं। यहाँ के प्रशिक्षित पुजारी से विधि विधान से पूजापाठ व कर्मकाण्ड की सेवा उपलब्ध रहती है।

इसके आगे घाट 18 – गंगा कुटीर घाट है, इसके सामने का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। यह स्नान-विश्राम का एक लोकप्रिय स्थल है। इसके आगे आता है घाट 19 - विरला घाट। जिसके सामने थोड़ी आगे गंगाजी की धारा में लोगों को खेलते देखा जा सकता है और यहीं से वे उस पार टापूओं में भी आगे बढ़ते हैं। और अंत में इसके आगे आता है, घाट 20 जिसे व्यास मंदिर घाट के नाम से जाना जाता है। दक्षिण भारत की शैली में बने व्यास मंदिर का निकास यहाँ होता है। इसके किनारे गंगाजी की पतली धारा बहती है, जिसमें यात्रियों को पूजा पाठ से लेकर स्नान करने की सुविधा है। घाट की कुर्सियों व बेंचों पर बैठकर सामने के टापू का सुन्दर नजारा निहारा जा सकता है। दूर पहाड़ व इनकी गोद में बसे गाँवों का विहंगम दर्शन भी यहाँ सुलभ रहता है।

इस तरह गंगा किनारे 1 से लेकर 20 नम्बर तक के घाट यात्रियों, तीर्थयात्रियों, पर्यटकों व स्थानीय नागरिकों के दैनिक जीवन का अहं हिस्सा हैं। सुबह-शाम इनके किनारे बनें बाँध पर टहलने का आनन्द लिया जा सकता है और इनके किनारे गंगातट पर कुछ पल ध्यान, आत्म चिंतन व मनन के बिताए जा सकते हैं। प्रकृति की मनोरम गोद में बसे ये घाट व इनके किनारे बाँध का रुट भ्रमण के लिए आदर्श है। इन घाटों के किनारे गंगाजी के सात्विक प्रवाह के साथ दिव्य वातावरण में कुछ पल बिताकर पुण्य लाभ से लेकर आत्म-शांति सहज रुप में पायी जा सकती है।

गंगा किनारे बाँध के ऊपर भ्रमण-टहल पथ, उत्तरी हरिद्वार

बुधवार, 25 नवंबर 2020

कुम्भनगरी हरिद्वार - कुछ दर्शनीय स्थल

हिमालय के द्वार पर बसी धर्मनगरी - हरिद्वार 

धर्मनगरी के नाम से प्रख्यात हरिद्वार में शायद ही किसी व्यक्ति का वास्ता न पड़ता हो। 6 और 12 साल के अंतराल में महाकुंभ का आयोजन इसकी एक विशेषता है। फिर जीवन के अंतिम पड़ाव के बाद शरीर के अवसान की पूर्णाहुति अस्थि विसर्जन और श्राद्ध-तर्पण आदि के रुप में प्रायः हरिद्वार तीर्थ में ही सम्पन्न होती है। हिमालय में स्थित चारों धामों की यात्रा यहीं से आगे बढ़ती है, जिस कारण इसे हरद्वार या हरिद्वार के नाम से जाना जाता है। निसंदेह रुप में भारतीय संस्कृति व इसके इतिहास की चिरन्तन धारा को समेटे यहाँ के तीर्थ स्थल स्वयं में अनुपम हैं, जिनकी विहंगम यात्रा यहाँ की जा रही है।

इनमें निसंदेह रुप में कनखल सबसे प्राचीन और पौराणिक स्थल है, जहाँ माता सती ने अपने पिता दक्षप्रजापति द्वारा अपने पति शिव के अपमान होने पर हवन कुण्ड में स्वयं को आहुत किया था और फिर शिव के गणों एवं वीरभद्र ने यज्ञ को ध्वंस कर दक्ष प्रजापति का सर कलम कर दिया था और फिर भगवान शिव ने इनके धड़ पर बकरे का सर लगा दिया था। सती माता के जले शरीर को कंधे पर लिए शिव विक्षिप्तावस्था में ताण्डव नर्तन करते हुए पृथ्वी में विचरण करते हैं, चारों ओर प्रलय की स्थिति आ जाती है। तब विष्णु भगवान सुदर्शन चक्र से सत्ती के शरीर को कई खण्डों में अलग करते हैं। जहाँ माता सती के ये अंग गिरते हैं, इन्हें शक्तिपीठ का दर्जा दिया गया। भारतीय परम्परा में ऐसे 51 या 52 शक्तिपीठों की मान्यता है। कनखल दक्षप्रजापति मंदिर गंगाजी की धारा के किनारे शक्तिपीठों के आदि उद्भव स्रोत के रुप में हमें पौराणिक इतिहास का स्मरण कराते हैं, जो हरिद्वार बस स्टैंड से लगभग 4 किमी की दूरी पर स्थित हैं।

कनखल में ही रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम पधारने योग्य स्थल है, जिसे स्वामी विवेकानन्द एवं अनके गुरु भाईयों ने साधु, अनाथ एवं गरीब जनता की सेवा-सुश्रुणा के लिए एक आश्रम और चिकित्सालय स्थापित किया था। आज यहाँ पूरा हॉस्पिटल है और साथ ही एक समृद्ध पुस्तकालय के साथ रामकृष्ण आश्रम का मंदिर एवं मठ भी। इससे जुड़े कई रोचक एवं रोमाँचक संस्मरणों को विवेकानन्द साहित्य में पढ़ा जा सकता है। कनखल में ही माँ आनन्दमयी का आश्रम भी स्थित है। माँ आनन्दमयी बंगाल में पैदा हुई एक महान संत थी, जो योग विभूतियों से सम्पन्न थी। देश भर में कई स्थानों पर इनके मंदिर हैं, लेकिन कनखल, हरिद्वार में इनकी समाधि है, जो श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।

 इसके आगे सिंहद्वार से नीचे हरिद्वार-दिल्ली मार्ग पर गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय पड़ता है, जिसको आर्यसमाज के महान संत एवं सुधारक स्वामी श्रद्धानन्दजी ने स्थापित किया था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तथा बाद में यह विश्वविद्यालय मूर्धन्य साहित्यकारों, पत्रकारों, विचारकों, शिक्षाविदों एवं समाजसेवियों को तैयार करने की उर्बर भूमि रहा है। इसके आगे बहादरावाद सड़क पर गंगनहर के किनारे नवोदित उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित है, जो संस्कृत एवं आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध पर केंद्रित है।

सिंहद्वार के पास गंगनहर के उस पार श्रीअरविंद आश्रम स्थित है। यह इतने शाँत एकांत स्थल पर है कि बाहर सड़क के कोलाहल के बीच इसका अंदाजा नहीं लगता, जहाँ इसका छोटा सा पुस्तक विक्रय स्टाल लगा हुआ है। लेकिन अन्दर एक भव्य, बहुत ही सुंदर आश्रम है, जहाँ आश्रम के साधकों के सान्निध्य में बेहतरीन आध्यात्मिक सत्संग एवं मार्गदर्शन पाया जा सकता है।

यही मार्ग उत्तर की ओर सीधा बस स्टैंड तथा रेल्वे स्टेशन की ओर आता है, दोनों लगभग आमने-सामने पास-पास स्थित हैं। यहाँ से उत्तर की ओर 3 किमी की दूरी पर हर-की-पौड़ी पड़ती है, जहाँ तक ऑटो-रिक्शा से आया जा सकता है। यही श्राद्ध-तर्पण, अस्थि विसर्जन का मुख्य स्थल है। मान्यता है कि यहीं पर समुद्र मंथन के बाद अमृत की बूँदे छलकी थीं, जिसके आधार पर यहाँ क्रमशः छः और बारह वर्ष के अन्तराल में अर्ध-कुम्भ और महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है। वर्ष 2021 में यहाँ महाकुम्भ का आयोजन प्रस्तावित है। इसके घाट का निर्माण सर्वप्रथम 57 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य द्वारा अपने भाई भर्तृहरि की याद में किया गया माना जाता है, जिन्होंने यहाँ गंगा तट पर जीवन का उत्तरार्ध ध्यान-साधना में बिताया था।

हरकी पौड़ी की सांयकालीन गंगा आरती सुप्रसिद्ध है। शाम को सन्ध्या वेला के समय घंटे, घडियाल और शंख ध्वनियों के बीच प्रज्जवलित दीपों से सजे थालों की श्रृंखला दर्शनीय रहती है। इस भक्तिमय दृश्य के साक्षी बनने व इसमें भाग लेने के लिए नित्यप्रति श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। हरिद्वार पधारा शायद ही कोई दर्शनार्थी इसके दर्शनलाभ से वंचित रहता हो।

हर-की-पौड़ी के आसपास खाने पीने के कुछ बेहतरीन ठिकाने हैं, जिनका जिक्र करना उचित होगा। हर-की-पौड़ी के पास ही मोहन पूरी बाले की दुकान है, जो गर्मागर्म हल्वा, पूरी, कचौड़ी आदि के लिए प्रख्यात है। इसके अंदर मोती बाजार में प्रकाश लोक नाम से लाजवाब लस्सी की दुकान है, जिसका गर्मी के मौसम में विशेष रुप से लुत्फ उठाया जा सकता है। बस स्टैंड के पास त्रिमूर्ति के अंदर गली में गुजराती ढावा भी उल्लेखनीय है, जिसमें महज 50 रुपए में 15-20 व्यंजनों के साथ स्वादिष्ट एवं पौष्टिक गुजराती थाली परोसी जाती है। इसके आस-पास मोतीबाजार में तमाम दुकानें हैं, जहाँ से घर के लिए रुद्राक्ष, शंख, कंठी, मालाएं जैसी धार्मिक बस्तुएं प्रतीक एवं उपहार स्वरुप खरीदी जा सकती हैं।

हर-की-पौड़ी के दोनों और 2-3 किमी के फासले पर दो पहाड़ियाँ हैं, बीच में गंगाजी बहती हैं। दायीं ओर की पहाड़ी पर मनसा देवी का मंदिर है तो वायीं ओर की पहाड़ी पर चण्डी देवी का। दोनों मंदिरों तक उड़न खटोलों की सुविधा है। चण्डी देवी के प्रवेश द्वारा पर महाकाली का सिद्धपीठ है, जिसकी स्थापना महान तंत्र सम्राट कामराज महाराज ने की थी। इसी के आगे चण्डीघाट बना है, जो संभवतः हरिद्वार के भव्यतम घाटों में से एक है। यहीं पर कुष्ठाश्रम है, जो निष्काम सेवा का एक विरल उदाहरण है।

दोनों के मध्य पुलिस चौकी के पास मायादेवी का मंदिर है, जो यहाँ की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं, इन्हीं के नाम से हरिद्वार का एक नाम मायापुरी भी है। इसकी गणना 52 शक्तिपीठों में भी होती है। मान्यता है कि सती माता का ह्दय एवं नाभी स्थल यहाँ गिरा था। यहीं से थोड़ी दूरी पर ललिताराव पुल के आगे शिवालिक बाईपास के दायीं ओर बिल्केश्वर महादेव एवं गौरी कुण्ड पड़ते हैं। मान्यता है कि माँ पार्वती ने इसी स्थल पर बेल के पत्ते खाकर शिव की आराधना की थी और गौरी कुण्ड में वे स्नान किया करती थीं। यहीं से होकर शिवालिक पहाड़ियाँ आगे बढ़ती हैं।

यहाँ से उत्तर दिशा में सप्तसरोवर क्षेत्र के पास भारतमाता का सात मंजिला मंदिर है, जिसे स्वामी सत्यामित्रानन्दजी ने स्थापित किया था। इसमें भारत भर के हर प्राँत की संस्कृति, मातृशक्तियों, संतों-सुधारकों-यौद्धाओं, देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों एवं प्रस्तुतिओं को अलग-अलग मंजिलों में देखा जा सकता है। संक्षेप में भारतभूमि की युग-युगीन आध्यात्मिक-सांस्कृतिक परम्परा के दिग्दर्शन यहाँ किए जा सकते हैं। इसकी सातवीं मंजिल से गंगाजी की धाराओं के विहंगम दर्शन किए जा सकते हैं, जो हरिद्वार में अन्यत्र दुर्लभ हैं।

इसके पास ही ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान है, जहाँ आद्यशक्ति गायत्री की 24 शक्तिधाराओं के भव्य मंदिर है, साथ ही विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करती प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय है।


यहाँ से थोड़ी आगे अजरअँध आश्रम पड़ता है, जिसमें अंधें बच्चों की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था है। इसके थोड़ी आगे गोस्वामी गणेशदत्तजी द्वारा स्थापित सप्तसरोवर आश्रम और संस्कृत विद्यालय है। सप्तसरोवर क्षेत्र के वारे में मान्यता है कि जब गंगा मैया हिमालय से मैदानों की ओर प्रवाहित हो रही थी, तो इस क्षेत्र में सप्तऋषि तप कर रहे थे। इनकी तपस्या में विघ्न न पड़े, इसलिए गंगा मैया यहाँ सात भागों में विभक्त हुईं थी। इसके थोड़ी आगे शांतिकुंज आश्रम आता है, जिसे विश्वामित्र की तपःस्थली पर स्थापित माना जाता है। पं. श्रीरामशर्मा आचार्य द्वारा 1970 में गायत्री तीर्थ के रुप में स्थापित इस आश्रम में गायत्री-यज्ञ, संस्कार के अतिरिक्त कई तरह की रचनात्मक गतिविधियाँ संचालित की जाती हैं।

यहाँ नौ दिन के साधना सत्र चलते हैं, कोई भी गायत्री साधक इनमें शामिल हो सकता है। इसी तरह एक मासीय युग शिल्पी सत्र तथा तीन माह के परिव्राजक प्रशिक्षण सत्र चलते हैं। नैष्ठिक साधकों के लिए पाँच दिवसीय अंतःऊर्जा सत्र भी चलते हैं। यहाँ युगऋषि द्वारा 1926 से प्रज्जवलित अखण्ड दीपक के दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ देवात्मा हिमालय मंदिर भी है। 


आगंतुकों के लिए लंगर जैसी निःशुल्क भोजन की व्यवस्था है। ऋषि परम्परा पर आधारित सप्तऋषि मंदिर एवं प्रदर्शनी भी है, जहाँ शांतिकुंज एवं युग निर्माण आंदोलन से सम्बन्धित गतिविधियों की जानकारी पाई जा सकती है। गेट नं. 4 से प्रवेश करते ही गाईड विभाग से सहज मार्गदर्शक उपलब्ध रहता है। श्राद्ध तर्पण, संस्कार और आदर्श विवाह संस्कार यहाँ की अन्य निःशुल्क सेवाएं हैं। यहाँ के बुक स्टॉल पर आचार्यजी द्वारा लिखित 3200 से अधिक पुस्तकों तथा अखण्ड ज्योति पत्रिका को अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार खरीदा जा सकता है। साथ ही विभिन्न जड़ी-बूटियाँ व इनके उत्पाद भी यहाँ उपलब्ध रहते हैं।

इसी के सामने दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित ब्यास मंदिर है, तो गंगाजी के किनारे बने घाट नं. 20 के तट तक फैला है। यहाँ से नीचे गंगाजी के किनारे घाट नम्बर एक तक घाटों की श्रृंखला फैली है। ये घाट गंगाजी के किनारे बने तटबंधों पर स्थित हैं। गंगाजी का जल बरसात में बाढ़ के कारण उफनने पर किसी तरह की त्रास्दी का कारण न बने, इसके लिए गंगाजी के किनारे हर-की-पौड़ी तक तटबंध बने हुए हैं। इस बाँध पर लोगों को सुबह-शाम भ्रमण करते देखा जा सकता है और शाम को घाट के किनारे साधक यहाँ स्नान-ध्यान करते हैं। यहाँ के सात्विक, शाँत, एकाँत एवं आध्यात्मिक ऊर्जा से चार्ज वातावरण से आगंतुक लाभान्वित होते हैं।

गंगाजी के उस पार प्राकृतिक रुप से टापू बने हुए हैं, जहाँ घने जंगल हैं। 


पहले यहाँ साधु-सन्यासी लोग कुटिया बनाकर रहते थे, लेकिन अब वन विभाग के नियमानुसार यहाँ किसी तरह का निर्माण अबैध ठहराया गया है, अतः यहाँ कोई स्थायी निवास नहीं है। लेकिन यात्रीगण गंगाजी की धाराओं को पार कर वहाँ पिकनिक मना सकते हैं, कुछ पल गंभीर चिंतन-मनन व ध्यान के बिता सकते हैं।

 कुम्भ के दौरान ये टापू आबाद रहते हैं, जब इसमें संत महात्मा अपनी शिष्य एवं भक्त मण्डली के साथ यहाँ डेरा जमा कर महीनों रहते हैं।

शांतिकुंज के आगे हरिद्वार के उत्तरी छोर पर है देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, जो 2002 में स्थापित हुआ था। युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के विजन पर आधारित यह विश्वविद्यालय शिक्षा के साथ विद्या के लिए समर्पित है। 


यहाँ पर मूल्य आधारित शिक्षा के अभिनव प्रयोग चल रहे हैं। छात्रों को स्वाबलम्बी बनाने के लिए तकनीकी कौशल एवं बौद्धिक ज्ञान देने के साथ ही जीवन जीने की विद्या का भी कुशल प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे वे जीवन के हर क्षेत्र में एक जिम्मेदार नागरिक के रुप में समाज, राष्ट्र एवं विश्वमानव के कुछ काम आ सकें। संक्षेप में यहाँ उच्च शिक्षा के साथ संस्कार की उत्तम व्यवस्था है।

हरिद्वार के उत्तर में जहाँ देवसंस्कृति विश्वविद्यालय है तो दक्षिण में बाहरी छोर पर पातंजलि योग पीठ एवं विश्वविद्यालय, जिन्हें योगगुरु बाबा रामदेव के अभिनव प्रयोगों के लिए जाना जाता है। योग को टीवी माध्यम से घर-घर पहुँचाने में इनका योगदान स्तुत्य रहा है। आचार्य बालकृष्ण के साथ मिलकर इनका आयुर्वेद एवं दैनन्दिन उपयोग के देशी उत्पादों को घर-घर पहुँचाना एक बड़ा योगदान है। इनके साथ योग आयुर्वेद के क्षेत्र में हो रहे शोध अनुसन्धान, बच्चों के लिए वैदिक शिक्षा पर आधारित गुरुकुलम् की अभिनव पहल आदि के दर्शन यहाँ किए जा सकते हैं।

 उत्तरी छोर के उस पार रायवाला क्षेत्र में तथा हरिपुर कलाँ के आगे नदी के पार गंगा के निकट एक अद्भुत आश्रम है ऑरोवैली, जिसका शांति व अध्यात्म की तलाश में भटक रहे अभीप्सु एक बार अवश्य अवलोकन कर सकते हैं। हालाँकि यहाँ तक पहुँचने का कोई बोर्ड या विज्ञापन कहीं नहीं मिलेगा, लेकिन किसी को साथ लेकर एक बार इसके परिसर में जीवंत नीरव-शांति को अनुभव किया जा सकता है। स्वामी ब्रह्मदेव 1985 से यहाँ एक तरह से धुनी रमाकर बैठे हैं। श्रीअरविंद एवं श्रीमाँ की अध्यात्म विद्या के आधार पर यहाँ आश्रम की गतिविधियों को देखा जा सकता है। यहाँ बहुत समृद्ध पुस्तकालय है, ध्यान कक्ष है, भोजनालय है, एक गौशाला है, स्कूली बच्चों के लिए स्कूल है। साथ ही एक सर्वधर्म समभाव एवं विश्व एकता को लेकर विश्व मंदिर है। पूरा आश्रम आम के बाग तथा हरियाली से आच्छादित है। अभीप्सु यहाँ स्वामीजी के सान्निध्य में सत्संग लाभ ले सकते हैं।

इस तरह हरिद्वार में एक-दो दिन के प्रवास में 


इन स्थलों के दर्शन किए जा सकते हैं। अपनी आध्यात्मिक सांस्कृतिक विरासत से परिचय के साथ अध्यात्म लाभ लेते हुए कुछ पल शांति, सुकून एवं आत्म-चिंतन मनन के बिताए जा सकते हैं। बस या आटो को किराए पर लेकर आसानी से ये दर्शन लाभ लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त और भी तमाम मंदिर, आश्रम एवं शिक्षा केंद्र यहाँ स्थित हैं, जिनका जिक्र यहाँ नहीं हो पाया है।
 

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

यात्रा - हरिद्वार से श्रीनगर वाया देवप्रयाग

 गढ़वाल हिमालय की गोद में गंगा मैया के संग

हरिद्वार से ऋषिकेश और श्रीनगर शहर केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुण्ड आदि की तीर्थयात्रा के कॉमन पड़ाव हैं। कितनी बार इनकी यात्राओं का संयोग बना। इस लेख में इस मार्ग की कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डाल रहा हूँ, जो नए पाठकों व यात्रियों के सफर को और रोचक एवं ज्ञानबर्धक बना सकते हैं और कुछ स्वाभाविक प्रश्नों के जबाव मिल सकते हैं। यह सब अपने सीमित ज्ञान के दायर में है, लेकिन कुछ तो इसका प्रयोजन सिद्ध होगा, ऐसा हमें विश्वास है।

हरिद्वार को हरि या हर का द्वार कहा जाता है, अर्थात केदारनाथ हो या बद्रीनाथ, चारों धामों की यात्रा यहीं से होकर आगे बढ़ती है। हरकी पौड़ी को पार करते ही विशाल शिव प्रतिमा यही अहसास दिलाती है और पुल पार करते ही आगे वायीं ओर शिवालिक तथा दायीं ओर गढ़वाल हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं इस अहसास को और गाढ़ा करती है। हरिद्वार से ऋषिकेश की आधे घण्टे की यात्रा के दौरान हिमालय अधिक समीप आता है और ऋषिकेश को पार करते ही जैसे हम इसकी गोदी में प्रवेश कर जाते हैं। बग्ल में गंगाजी की धीर गंभीर आसमानी नीले रंग की गहरी धारा जैसे पहाड़ों में उतरने के उत्साह से थकी कुछ अलसाए से अंदाज में मैदानों की ओर प्रवाहित होती हैं।

तपोपन से गुजरते हुए पहले रामझूला और फिल लक्ष्मण झूले के दर्शन होते हैं। जो हमें रामायण काल की याद दिलाते हैं। इस अहसास को रास्ते में विशिष्ट गुफा और गाढ़ा करती है और देवप्रयाग में तो जैसे इसका चरम आ जाता है। जहाँ एक और अलकनंदा और भगीरथी का संग होता है तथा इसके ऊपर भगवान राम को समर्पित राम मंदिर। यहीं से गंगा मैया की यात्रा आरम्भ मानी जाती है। इस रास्ते में एक दो स्थान पर चाय नाश्ते की व्यवस्था रहती है और प्रायः बाहन वहाँ रुकते हैं। जैसे व्यासी, कोडनाला, आदि। कोडनाला में सामने त्रिशंकु आकार के पर्वत ध्यान आकर्षित करते हैं, जैसे कोई तपस्वी गंगाजी के किनारे आसन जमा कर बैठे हों। यहाँ गंगाजी का प्रवाह भी गोल-गोल पत्थरों के बीच हल्की ढलान पर छलछलाते हुए नीचे बढ़ता है।

इसी रास्ते में शिवपुरी स्थान पर राफ्टिंग व कैंपिंग की बेहतरीन व्यवस्था है। इसे राफ्टिंग कैपिटल कहा जाता है। बैसे इस राह में तमाम ऐसे स्थान मिलेंगे। गंगाजी के रेतीले तट पर कैंपिंग साइट्स और तम्बुओं की सजी कतारों के दृश्य बहुत खूबसूरत नजारे पेश करते हैं। यदि कोई चाहे तो यहाँ रुककर यादगार नाईट हाल्ट कर सकता है और दिन में राफ्टिंग का लुत्फ उठा सकता है। इसके साथ बज्जी जंपिंग की भी यहाँ व्यवस्था है, जिसे काफी रोमाँचक माना जाता है, लेकिन साथ ही खरतरनाक भी। कोई पूर्णतया स्वस्थ व्यक्ति ही उसके लिए फिट माना जाता है।

रास्ते भर गंगाजी के लुकाछिपी का खेल चलता रहता है। गंगाजी गहरी खाई में काफी शांत व धीर गंभीर नजर आती हैं। एक स्थान पर तो गंगाजी उतरायण भी हो जाती हैं, जहाँ इनका प्रवाह उत्तर की ओर यू टर्न ले लेता है। रास्ता चट्टानी पहाड़ों के बीच से काफी उँचाई से होकर गुजरता है, सो नए यात्रियों के लिए काफी खतरनाक अनुभव रहता है। हालाँकि अब तो सड़क काफी चौड़ी हो गई हैं, ऐसे में इसका बहुत अहसास नहीं होता। बारिश में इस मार्ग पर पहाड़ों का भूस्खलन आम नजारा रहता है। इस रास्ते में कुछ पड़ाव ऐसे हैं, जहाँ थोड़ी सी बारिश में रास्ता जाम मिलेगा। कितने ही अनुभव हैं दो-चार से सात-आठ घण्टे तक इंतजार के। एकबार तो गढ़वाल विश्वविद्यालय से वाइवा (मौखिकी परीक्षा) लेकर बापिस आ रहे थे, लैंड स्लाईड के कारण कीर्तिनगर के आगे पूरी रात बस की छत पर गुजारी थी। सुबह जाकर रास्ता खुला था। इसकी अपनी कठिनाईयों हैं और अपने रोमाँच भी। पहाड़ों में रात कैसे होती है, इसका बखूबी आनन्द और अनुभव लिया था उस रात को।

सफर के दौरान हिमालय की गोद में उस पार बसे गाँवों को देखकर हमेशा ही मन में कौतुक जगता है कि लोग इतने दुर्गम स्थल पर क्यों बसते होंगे। यदि कोई बिमार पड़ गया तो इसकी व्यवस्था कैसे होती होगी। फिर क्या वहाँ जंगली जानवरों का खतरा नहीं रहता होगा। फिर राशन को लेकर कितनी चढ़ाई चढ़नी पड़ती होगी आदि। लेकिन ऐस स्थलों की एकांतिक शांति में रहने का एडवेंचर भाव भी जगता है। रात में तो ये गाँव पहाड़ों में टिमटिमाते तारों का ऐसा अहसास जगाते हैं लगता है कि जुगनुओं ने जैसे अपना गाँव बसा रखा हो।

देवप्रयाग इस मार्ग का विशेष आकर्षण रहता है। यहाँ पर भगीरथी और अलकनंदा नदियों का संगम होता है। प्रायः दोनों के रंग में काँट्रास्ट पाया जाता है। एक आसमानी नीला रंग लिए हुए स्वच्छ निर्मल दिखती हैं, तो दूसरी मटमैला रंग लिए। सामने संस्कृत  संस्थान का तैयार हो रहा परिसर भी स्वयं में एक आकर्षण रहता है। देवप्रयाग के उस पार से पीछे पहाड़ में बसे गाँवों का नजारा हमेशा ही रोचक लगता है। कभी मौका मिला तो इनको नजदीक से जाकर अवश्य देखेंगे, ऐसा यहाँ से गुजरते हुए मन करता है। यहाँ रास्ते भर जगह-जगह दुकानों पर पहाड़ की प्राकृतिक मौसमी फसलें सजी मिलती हैं। अदरक, हल्दी, दालें, पहाड़ी खीरा, पालक, मालटा आदि।

इस तरह पहाड़ का सफर कीर्तिनगर तक पहुँचते-पहुँचते लगभग पूरा हो जाता है। अब मैदानी इलाका आता है, जहाँ खेतों में लगी फल सब्जी और अनाज के हरे भरे खेतों को देखकर आँखों को ठण्डक मिलती है। साथ ही खेतों के बीच नहर से होकर बहता जल अपने पहाड़ी गाँव की सिंचाई व्यवस्था की याद दिलाता है। अब तो यहाँ महत्वाकाँक्षी ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल्वे योजना का अहमं पड़ाव निर्माणधीन है, जिस पर काफी तेजी से काम चल रहा है। कई किमी लम्बी सुरंगे इन चट्टानी पहाड़ों के बीच तैयार की जा रही हैं, जो स्वयं में काफी चुनौतीपूर्ण काम प्रतीत होता है।

इसी के साथ आता है श्रीनगर शहर, जिसे कभी आदि शंकराचार्यजी ने श्रीयंत्र पर स्थापित किया था। हालाँकि जमाने की भयंकार बाढ़ों ने इसके नक्शे को काफी हद तक बदल दिया है लेकिन गढ़वाल विश्वविद्याल के कारण इस शहर का अपना महत्व तो है ही। उस पार चौरास कैंपस में कई विभाग स्थापित हैं। जहाँ कई बार पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष प्रो. डंगबालजी के निमंत्रण पर आना-जाना होता रहा है।

इनके नेतृत्व में विभाग कहाँ से कहाँ आ पहुँचा है। कभी खुले बरामदे में शुरु विभाग आज पूरा स्टूडियो, आडिटोरियम, लैब, पुस्तालय आदि लिए हुए है। प्रशिक्षित मानव संसाधन की थोड़ी कमी है, आशा है समय के साथ वह भी पूरी होगी। इस विभाग ने प्राँत एवं देश को कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले कितने साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षाविद, सामाजिक कार्यकर्ता और नेता दिए हैं। इसी तरह बाकि विभागों एवं विश्वविद्यालय की अपनी उपलब्धियाँ रही हैं।

हमेशा एक ही विचार आता है किसी भी विश्वविद्यालय को देखकर कि अपने नाम के अनुकूल पूरा विश्व इसके शोध-अध्ययन एवं अध्यापन के दायरे में होता है, राष्ट्रचिंतन स्वतः ही इसके केंद्र में आता है और इसका शुभारम्भ इसके प्राँत व क्षेत्र के प्रति इसके योगदान के आधार पर तय होता है। एक विश्वविद्यालय के रुप में हम इस दिशा में कितना सक्रिय हैं, इसका ईमानदार मूल्याँकन किया जा सकता है। हर विद्यार्थी, शिक्षक, विभागप्रमुख एवं विश्विविद्याल का नेतृत्व इस दिशा में अपने सचेष्ट प्रयास के आधार पर अपना भाव भरा योगदान दे सकता है।

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