बचपन की मासूम यादें और बदलते सरोकार
(गांव के नाले व झरने से जुड़ी बचपन की यादें पिछली ब्लॉग पोस्ट में शेयर हो चुकी हैं।) इनके पीछे के राज को जानने की चिर-इच्छा को पूरा करने का सुयोग आज बन रहा था। सुबह 6 बजे चलने की योजना बन चुकी थी। सो
उठकर सुबह की चाय के साथ हम मंजिल के सफर पर चल पड़े। आज उपवास का दिन था, सो झोले में अपनी स्वाध्याय-पूजा किट के साथ रास्ते के लिए
अखरोट, सेब, जापानी फल जैसे पाथेय साथ लेकर चल पड़े।
आज हम उसी रास्ते से दो दशक बाद चल रहे
थे, जिस पर कभी गाय भेड़ बकरियों के साथ हम छुट्टियों में जंगल के चरागाहों,
घाटियों, वुग्यालों में जाया करते थे। अकसर जुलाई माह में 1-2 माह की छुट्टियां
पड़ती, तो गाय चराने की ड्यूटी मिलती। आज दो दशकों के बाद इलाके के मुआयने का
संयोग बन रहा था, सो आज इस अंतराल में आए परिवर्तन को नजदीक से देखने-अनुभव करने
का दिन था। घर से पास में सटे नेउंड़ी-सेरी गांव से गुजरते हुए आगे के विराने
में पहुंचे। गांव में सभी घर पक्के दिखे। साफ सुथरे, रंगों से सजे, आधुनिक तौर
तरीकों से लैंस। विकास की व्यार यहाँ तक साफ पहुंची दिख रही थी।
इसके आगे, कझोरा आहागे पहुंचे, जहाँ
से पानी का वंटवारा होता था। घर-गाँव में खेतों की सब्जी के लिए पानी यहीं से आता
था। यह गांव का छोटा नाला था, जिसका पानी थोडी दूर नीचे मुख्य नाले में मिलता है,
जिसका जिक्र पिछली ब्लॉग पोस्ट में हो चुका है। नाउंड़ी सेरी गांव से होते हुए
कच्ची पगड़ंडी के सहारे पानी घर की कियारी तक लगभग 15-20 मिनट में पहुंच जाया करता
था। यही आगे बढ़ने का पड़ाव और वापसी का विश्राम स्थल था। यहीं चट्टान के ऊपर बैठ
कर विश्राम, खेल हुआ करते थे, यहीं से गाय-भेडों का काफिला आगे जंगल के लिए कूच
करता था और शाम को बापिसी में यहीं कुछ पल विश्रांति के बाद घर वापसी हुआ करती थी।
आज यह स्थल खेतों एवं सेब बगानों की जद में आ गया है, पुराना नक्शा गायब दिखा।
बचपन की यादें बाढ़ें में बंद दिखीं। आज पूरा मैदान, पूरा क्रीडा स्थल गायब था। आगे
बढ़ते गए, पानी का टेंक यथावत था, लेकिन इसके इर्द-गिर्द की बंजर जमीं, सीढ़ी दार
खेत, मैदान नादारद थे।
वह घास के खेत, क्यारियों, जंगल, वियावन
सब गायव थे, पत्थरों की दिवालों में कैद। इनमें सेब व दूसरे फलों के बाग लहलहा रहे
थे। लगा आवादी का दवाव, कुछ इंसान के विकास का संघर्ष, तो कुछ लोभ का अंश। सबने
मिलजुलकर बचपन की मासूम समृतियों पर जैसे डाका डाल दिया है। विकास का दंश साफ
दिखा। वह प्राकृत अवस्था नादारद थी, जिसकी मिट्टी में हम खेलते-कूदते अपने मासूम
बचपन को पार करते हुए बढ़े हुए थे।
यह क्या सुवह सुवह ही गांव की कन्याएं
पीठ में घास की गठरी लादे नीचे उतर रही थी। निश्चित ही ये प्रातः अंधेरे में ही घर
से निकली होंगी, साथ में इनके भाई औऱ माँ। यह, यहाँ की मेहनतकश जिंदगी की बानगी थी,
जो ताजा हवा के झौंके की तरह छू गई। इसके साथ ही याद आए बचपन के वो दिन, जब हम
यदा-कदा बान जंगलों में घास-पत्तियों को लाने के लिए घर के बढ़े-बुजुर्गों के साथ
इसी तरह सुबह अंधेरे में निकल पड़ते थे और सूर्योदय से पहले ही घर पहुंच जाया करते
थे। पहाड़ों पर ऊतार-चढाव भरी मेहनतकश जिंगदी और साफ आवो-हबा शायद एक कारण रही, जो
यहाँ के लोग, औसतन शहरी लोगों से अधिक स्वस्थ, निरोग और दीर्घायु थे। गांव में
शायद की कोई व्यक्ति रहा हो जिसे मधुमेह, ह्दयरोग. मोटापा या ऐसी जीवनशैली से जुड़ी
बिमारियों का शिकार होता था। लेकिन आज नक्शा बदल रहा है, नयी पीढ़ी में श्रम के
प्रति निष्ठा क्रमशः क्षीण हो रही है और जीवन शैली अस्त-व्यस्त व असंयमित। जीवन
शैली से जुड़ी समस्याएं-रोग सर उठा रहे हैं।
अब तक हम कझोरे नाले के समानान्तर चढ़ाई
चढ रहे थे। अब इसको पार कर हल्की चढ़ाई के साथ उस पार मुख्य नाले तक पहुँचना था,
जो गांव के झरने के पीछे का मध्यम स्रोत है। छाउंदर नाले के रुप में जेहन
में बसा यह स्थान हमारी स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। इससे जुड़ी कई रोचक, रोमांचक
यादें गहरे अवचेतन में दबी, आज इस ओर बढ़ते हुए ताजा हो रही थीं। मार्ग में गांव
का विहंगम दृश्य उपर से दर्शनीय था। सामने पहाड से सुबह का सूर्योदय नीचे उतर रहा
था। कुछ मिनटों में विरान मार्ग पार हो गया, रास्ते में कंटीली केक्टस की झाड़ियों
में खिले सफेद पुष्प गुच्छ ताजगी का अहसास दिला रहे थे। सडक के दोनों ओर वही नजारा
था। राह के विरान, बंंजर चरागाह अब खेत- बागानों में बदल चुके थे। थोड़ी ही देर में
हम छाउंदर नाला पहुंच चुके थे।
यहीं से होते हुए गांव का मुख्य नाला नीचे
रुपाकार लेता है। इस तक का रास्ता नीचे खरतनाक खाई और उपर भयंकर चट्टानों के बीच
से होकर गुजरता है। जीवन-मरण के बीच की पतली रेखा इस मार्ग में कुछ पल के लिए
कितनी स्पष्ट हो जाती है। रास्ता पूरा होते ही फिर नाले का कलकल करता स्वच्छ
निर्मल जल आता है। इसी पर घराट बने हैं। सरकार के जल विभाग द्वारा इस पर विशेष पुल
तैयार किया गया है और बर्षा बाढ़ से रक्षा के लिए चैक डैम। यहीं से कई पाइपें नीचे
चट्टानों से उतरती दिखीं, जो पता चला कि सुदूर खेतों व बागों के लिए सिंचाई के लिए कई कि.मी. मार्ग तय करती हुई जाती हैं।
नाले के उस पार खड़ी चढ़ाई को चढ़ते हुए
मंजिल की ओर आगे बढते गए। इस ऊँचाई पर गांव पीछे छूट चुके थे। ऐसे विरान में भी
अकेला घऱ, बाहर आंगन में काम करते स्त्री-पुरुष, खेलते बच्चे। इस ऊँचाई में
एकांतिक जीवन का रुमानी भाव जाग रहा था। कितना शांति रहती होगी यहाँ इस एकांत शांत
निर्जन बन में। सृजन व एकांतिक ध्यान-साधना के लिए कितना आदर्श स्थल है यह। लेकिन
साथ ही यह भी लगा कि यह सब संसाधनों के रहते ही संभव है। यदि खाने-पीने व दवाई-दारु
का अभाव रहा तो यहां जीवन कितना विकट हो सकता है। आपातकाल में यहाँ कैसे जुरुरी
साधन-सुविधाएं जुटती होंगी। इसी विचार के साथ आगे की कष्टभरी चढ़ाई चढ़ते गए।
पसीने से बदन भीग रहा था, सांसें फूल रहीं
थी। हल्का होने के लिए बीच-बीच में अल्प विराम भी लेते। अभी पहाड़ी पगडंडियों को मिलाते तिराहे पर
बने चट्टानी आसन पर विश्राम कर रहे थे। पहाड़ में इधर ऊधर बिखरे घरों में दैनिक
जीवनचर्या शुरु हो चुकी थी। रास्ते में गाय बछड़ों के साथ खेतों की ओर कूच करते महिलाएं,
बच्चे, पुरुष मिलते रहे। अब हम पहाड़ के काफी पीछे आ चुके थे। नीचे की घाटी पीछे
छूट चुकी थी। मुख्य नाला वाईं ओर गहरी खाई में गायव था। सामने फाड़मेंह गांव के माध्यमिक
स्कूल का भवन दिख रहा था। कभी इस गांव के बच्चे रोज हमारे गांव के स्कूल में 3-4
किमी सीधी खडी उतराई, चढाई को पार कर आते थे। आज गांव के अपने स्कूल में बच्चों की
इस दुविधा का समाधान दिखा।
यहां से थोड़ी की चढाई के बाद हमे मुख्य
मार्ग में पहुंच चुके थे। यह इन दो दशकों में हुआ बड़ा विकास दिखा। अब इस इलाके के
अंतिम गांव तक सड़क पहुंच चुकी है। हम इसी सड़क तक पहुंच चुके थे। पहले कभी इन
गांव से फलों को क्रेन के माध्यम से नीचे पहुंचाया जाता था, आज इन सड़कों में
जीप-ट्रोली के माध्यम से सेब-सब्जियां मंडी तक ले जायी जा रही हैं। गांव के युवा अपनी
वाइकों में स्वार होकर यहां से सीधा शहर-कालेज जा रहे हैं। घर निर्माण के संसाधन
सहज होने के कारण गांव का नक्शा बदल चुका है। विकास की व्यार इन सुदूर गांव तक
स्पष्ट दिखी। पीने का साफ जल, बिजली, सड़क के साथ टीवी-नेट सुबिधाएं सब यहां सहज
सुलभ हैं।
इस सड़क के साथ कुछ दूर चलने के बाद हम
फिर पगडंडी के साथ होते हुए मंजिल की ओर बढ़ चले। अब फिर सीधी खड़ी चढाई थी।
रास्ता बहुत ही संकरा और फिसलन भरा, हमारे लिए कठिन परीक्षा थी, लेकिन यहां के
क्षेत्रीय लोग तो यहाँ पीठ में बोझा लादे भी सहज ढंग से चढ़-उतर रहे थे। रास्ते में
जल का शीतल-निर्मल स्रोत मिला, जो यह मार्ग की प्यास व थकान को दूर करने बाली औषधी
सरीखा था। यह किसी भी तरह बोतलों में बंद मिनरल वाटर से कम नहीं था, बल्कि अपने
प्राकृत औषधीय गुणों व स्वाद के कारण उससे बेहतर ही लगा। क्षेत्रीय लोगों का कहना
है कि यह भूख को बढाता है और पाचन प्रक्रिया को तेज करता है। हमारा अनुभव भी ऐसा
ही रहा।
थोडी ही देर में हम मंजिल पहुंच चुके थे।
दूर नीचे घाटी का विहिंगम दृष्ट दर्शनीय था। पहाड के निर्जन गाँव नीचे छूट चुके थे
औऱ यहां से इनका विहंगम दृश्य दर्शनीय था। पीछे गांव के नाले का मूल स्रोत रेउंश
झरना अपनी मनोरम छटा के साथ अपने दिव्य दर्शन दे रहा था। गावं के पवित्र ईष्ट देव,
स्थान देवों की पुण्य भूमि सामने थी। बचपन में जिन पहाड़ों को निहारा करते थे,
देवदार से लदे वे पर्वत सामने थे। इस देवभूमि में सुबह का सूर्योदय होने वाला था।
आसन जमाकर, हम इन दुर्लभ क्षणों को ध्यान की विषय बस्तु बनाकर अपने जीवन के शाश्वत
स्रोत से जुड़ने की कवायद करते रहे। सूर्य की किरणें पूरी घाटी में ऊजाला फैला रही थी,
हमारे शरीर-प्राण की जड़ता को भेदकर कहीं अंतरमन में गहरे उतर रही थीं।
आज हम गांव के नाले व झरने के स्रोत के पास ध्यान
मग्न थे। इसकी गोद में विताए बचपन के मासूम दिनों को याद कर रहे थे, इसके बाद बीते
दशकों की भी भाव यात्रा कर रहे थे। कैसे कालचक्र जीवन को बचपन, जवानी, प्रौढावस्था के पड़ाव से ले जाते हुए बुढ़ापे की ओर धकेल देता
है। परिवर्तन के शाश्वत चक्र में सब कैसे सिमट जाता है, बीत जाता है, खो जाता है।
लेकिन साथ रहता है तो शायद वर्तमान। उसी वर्तमान के साथ हम भूत को समरण कर, भविष्य
का ताना-बाना बुन रहे थे। अब आगे क्या होगा यह तो साहब जाने, हम तो नेक इरादों के
साथ इस जीवन की यात्रा को एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचाने के भाव के साथ यहाँ खुद
को खोजने-खोदने आए थे।
बापसी में इसी सीधी उतराई के साथ नीचे
उतरे। छाउंदर नाले के पास केकटस की कंटीली झाड़ियों के पके मीठे फलों का लुत्फ
लेते हुए, फिसलन भरी घास के बीच नीचे उतर कर गांव के हनुमान मंदिर पहुंचे। मंदिर
में माथा टेकते हुए बापिस झरने व नाले की गोद में पहुँचे। आज की यात्रा पूरी हुई, जिसकी स्मृतियां हमेशा याद करने पर भावनाओं को उद्वेलित करती रहेंगी। अपने साथ कई सवाल भी छोड़ गई, जिनका समाधान किया जाना है। एक मकसद भी दे गई, जिसको समय रहते पूरा करना है।