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शुक्रवार, 7 मार्च 2025

मेरी पहली काश्मीर यात्रा, भाग – 3


काश्मीर में विताए यादगार पल और घर बापिसी

श्रीनगर में पहली रात बीती, 1-2 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान के बीच, लेकिन ठण्ड का अहसास कुछ अधिक नहीं हुआ। शायद यह बिजली से गर्म होने वाली तलाई का कमाल था, जिससे बिस्तर गर्म रहा। सुबह वर्कशॉप के लिए 9 बजे का समय दिया गया था। इसके लिए काश्मीर यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम पहुँचना था, जो यहाँ से अढाई किमी दूरी पर था और लगभग आधा-पौन घंटे का पैदल रास्ता था। रास्ते में डल झील से होकर इसका रास्ता जाता है और डल झील के किनारे ही पास में यह विश्वविद्यालय बसा है। होटल में नाश्ता कर हम पैदल ही चल पड़ते हैं।

कुछ मिनट में हम डल झील के किनारे थे। झील का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। रास्ते में सुरक्षा गार्डों का पूरा पहरा दिखा। आगे रास्ते में पहले गेट से हम यूनिवर्सिटी में प्रवेश करते हैं। कोई अधिक पूछताछ नहीं हुई, सहज रुप में प्रवेश मिलता है। भीतर सुरक्षा गार्डों से ऑडिटोरियम का रास्ता पूछ कर बताई गई दिशा में बढ़ चलते हैं।

पगडंडी से होकर उस पार मुख्य सड़क तक पहुँचना था। बीच में चिनार का जंगल मिला।


इस समय पत्ते नाम मात्र के बचे थे। लेकिन यह जंगल, इसके बीच की नीरव शांति और आसमान छूते चिनार के पेड़ बहुत सुकून दे रहे थे। दृश्य को मोबाइल में कैप्चर किए बिना नहीं रह सका। आगे एक-दो विद्यार्थी पैदल जा रहे थे। बीच में एक बालक साइकल में सरपट दौड़ता दिखा। कुछ ही मिनट में हम पगडंडी के पार कैंपस के मुख्य मार्ग पर थे।

सड़क के दोनों ओर देवदार के युवा तरुओं की कतारें, जैसे लगा कि इस नव-आगंतुक का भाव भरा स्वागत कर रही थीं। अपने प्रिय वृक्षों के बीच, शीतल आवोहवा में पाकर हमें लग रहा था कि जैसे मैं अपने मनभावन लोक में विचरण कर रहा हूँ। यूनिवर्सिटी के भव्य भवन इस कैंपस की शोभा को चार चाँद लगा रहे थे। सुदूर कैंपस के चारों ओर पर्वत व इन पर कहीं-कहीं हल्की बर्फ हमें एक नए लोक में विचरण की अनुभूति दे रही थी।

इसी तरह अपने भावों में डूबे कदमताल करते हुए लगभग आधा घण्टे में हम ऑडिटोरियम के बाहर खड़े थे। इसके परिसर में लगे रंग-विरंगे झंडे जैसा सबका स्वागत कर रहे थे। भवन के बाहर बड़ा सा बैनर आयोजन के मकसद को स्पष्ट कर रहा था। बाहर घास के आंगन में प्रतिभागियों की भीड़ जुटी थी। हम भी इसमें शामिल होते हैं, उपयुक्त काउंटर पर पंजीयन करते हैं, वर्कशॉप की किट पाते हैं और एक बेंच पर बैठकर यहाँ का जायजा लेते हैं।

बग्ल में एक स्थानीय कॉलेज के काश्मीरी शिक्षक से संवाद होता है। उनका बोलने का विशिष्ट लहजा हमें अच्छा लगा। चर्चा से यहाँ पर उच्च शिक्षा में  राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी-2020) के लागू होने की स्थिति का भान होता है, जिसमें 40 प्रतिशत ऑनलाइन शिक्षा का प्रावधान रखा गया है। इसी संदर्भ में आज की कार्यशाला थी।

अंदर भव्य ऑडिटोरियम में प्रवेश कर अपना स्थान ग्रहण करते हैं। यहाँ पंजाव, चंडीगढ़, हिमाचल, उत्तराखण्ड, लद्दाख व जम्म-काश्मीर राज्यों के उत्तर भारत के स्वयं नोडल ऑफिसर्ज सहित कालेज के प्रिसिंपल्ज व शिक्षकों को वुलाया गया था। यूजीसी से चेयरमैन प्रो. मनीश जोशी स्वयं पधारे थे। इनके साथ कई विश्वविद्यालयों के वाइस-चांसलर, डीन्ज, आईआईटी, आईआईएम के प्रतिष्ठित प्रोफेसर्ज एवं शिक्षाविद इसमें विशेषज्ञ के रुप में आए थे।

काश्मीरी स्टाइल में मंच पर दीप प्रज्जबलन हमारे लिए एक नई चीज थी। और कार्य़शाला के प्रारम्भ में युनिवर्सिटी का कुलगीत नया रस घोलता है। यूजीसी चेयरमेन महोदय के उद्बोधन से पता चला कि देश भर के 1200 विश्वविद्यालयों में अभी मात्र 350 ही स्वयं (SWAYAM) के ऑनलाइन कोर्सेज को अपनाए हुए हैं। जिनकी संख्या में वृद्धि की जाने की आवश्यकता है।

सभी शिक्षकों व शिक्षण संस्थानों को बढ़चढ़ कर स्वयं पर उपलब्ध निःशुल्क 1515 ऑनलाइन कोर्स को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। साथ ही दिनभर गुणवत्तापरक शिक्षा के प्रतिमानों पर गंभीर विचार-विमर्श हुआ। और विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों की वेस्ट प्रेक्टिसिज से परिचित होने का अवसर मिला।

दिन भर कई सत्रों में विचार मंथन चलता रहा। चाय व लंच के सिलसिले के बीच शाम को चार बजे वर्कशॉप का समापन होता है।

यहाँ से देवदार के युवा तरुओं की कतारों से जड़े कैंपस से बापिस होते हुए हम पहले गेट से बाहर निकलते हैं। सामने पर्वत श्रृंखलाएं प्रत्यक्ष थी। यूनिवर्सिटी गेट के बाहर थोड़ा ऊपर आकर, मुख्य सड़क के उस पार नीचे पार्क में प्रवेश करते हैं, जहाँ से डल झील का विहंगम दृश्य स्पष्ट था। झील में अपनी नाव में बैठा अकेला नाविक इसको खवेते हुए जैसे जीवन का संदेश दे रहा था कि, ओ नदिया चले चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा, तुझे चलना होगा, तुझे चलना होगा...


पार्क के दूसरे छोर तक टहलते हुए झील को कई एंग्ल से देखते हैं, यथासंभव कैप्चर करते हैं। और फिर बाहर निकलकर अपने होटल की ओर चल पड़ते हैं।

डल झील के उस पार के पर्वतों, शिखर पर जमीं सफेद बर्फ औऱ इसकी गोदी में बसी आवादी बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। झील के ऊपर से उड़ते चहचाते पक्षियों के झुंड हवा में मस्ती का माहौल बना रहे थे। पार्क में बैठे परिवार व दोस्तों के समूह निश्चित भाव से आपसी संवाद कर रहे थे। यहाँ का ठहरा सा शांत जीवन सुकून दे रहा था। बस झील का गंदला पानी इसमें थोड़ा व्यवधान पैदा कर रहा था। लगा कि काश यह निर्मल होता, तो कितना बेहतर होता।

होटल में स्वागत कक्ष में पहुँचकर कल का हिसाब-किताब करते हैं और यहाँ बैठे दक्षिण भारत के यात्रियों की समूह चर्चा सुन पता चला कि ये लोग आगे गुलमर्ग के लिए जा रहे थे। इसी तरह आसपास पहलगाँव व सोनमार्ग लोकप्रिय डेस्टिनेशन हैं, जिनमें सोनमर्ग अमरनाथ तीर्थयात्रा की राह का एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहता है। होटल से इन स्थलों के लिए घुमाने की भी उचित व्यवस्था दिखी।

इस बार समय सीमित होने के कारण बाहर श्रीनगर एक्सपलोअर करने की संभावना न के बराबर थी। कल सुबह साढ़े सात बजे ही हमारी बस बुक थी। अतः अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए हम कमरे में जाकर काश्मीर को इंटरनेट पर ही एक्सप्लोअर करते हैं। जिसमें श्रीनगर की लाइफ-लाइन झेलम नदी के बारे में खोजते-खोजते पता चला कि यह बीच में वुलर लेक से होकर गुजरती है, जो एशिया की सबसे बड़ी ताजे जल की झील है। इसका उद्गम स्थल बेरीनाग हमें रोमाँच का शिखर लगा, जहाँ भारी मात्रा में पानी एक वृहद कुँड से निकलते हुए तीव्र वेग के साथ बाहर प्रवाहित होता है, वह चकित करने वाला है। लगा कि कभी समय निकालकर काश्मीर के ऐसे प्राकृतिक एवं रोमाँचक स्थलों को देखने अवश्य आएंगे।

अगली सुबह ऑटो-टेक्सी से टीआरसी बस स्टैंड पहुँचते हैं। सामने श्री आदि शंकराचार्य मंदिर पहाड़ के शिखर पर प्रत्यक्ष था। यथासंभव इसको केप्चर करते हैं।


मालूम हो श्रीअरविंद को वर्ष 1903 में इसी मंदिर परिसर में शांत ब्रह्म (अनन्त) की अनुभूति हुई थी, जब उन्होंने विधिवत योग साधना का अभ्यास प्रारम्भ नहीं किया था। वर्ष 1898 में स्वामी विवेकानन्द भी अपनी काश्मीर यात्राओं के दौरान यहाँ पधारे थे। और अमरनाथ में उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए थे और उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान मिला था।

आज हमारे लिए इनके दूरदर्शन ही पर्याप्त थे। अपना भाव निवेदन कर हम बस में बैठते हैं।

हमने जो बस ऑनलाइन बुक की थी, उसमें मात्र तीन ही सीटें भरी थीं। वाकि बस खाली थी। काउटंर पर ही सीधे इनकी बुकिंग हो रही थी, जिनका किराया भी कुछ कम था। श्रीनगर से जम्मु जा रहे या जम्मु से श्रीनगर आ रहे यात्रियों को हमारा सुझाव है कि संभव हो तो वे बुकिंग की बजाए बस स्टैंड से सीधे काउंटर पर बसें बुक करें और वह भी किफायती दामों में। सोलो ट्रेवलिंग में ऐसे रोमांचक प्रयोग कठिन नहीं। अपनी मनपसंद सीट तथा परिवार के साथ सफर में ऐसे प्रयोग थोड़े रिस्की हो सकते हैं।

ठीक 8 बजे यहाँ से बस चल पड़ती है। अब हम बस के वायीं ओर थे, जो नजारे आते समय नहीं देख पाए थे, उनको देखने का संयोग बन रहा था। रास्ते में श्रीनगर शहर के पर्वतों के समीप आगे बढ़ते हुए, बीच में जेहलम नदी को पार करते हुए शहर के बाहर निकलते हैं।


आगे मार्ग में खेत, घाटी, पर्वत, नदी, गाँव-कस्वे, सबको और अच्छी तरह से देख पा रहे थे। काश्मीर जहाँ एक ओर हमारे कैमरे से कैप्चर हो रहा था, वहीं दूसरी ओर हमारी आंखों से सीधे हमारे चित्त में गहरी छाप छोड़ रहा था।

सही में लग रहा था कि जैसे ईश्वर में तवीयत में काश्मीर को गढ़ा हो। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य, उर्बर भूमि, प्राकृतिक उत्पादों की असीम संभावनाएं, पर्यटन के अकूत पोटेंशियल सब मिलाकर इसको स्वर्ग सा रुप दे सकता है। आवश्यकता बस यहाँ अमन चैन शांति की है व समझदार नेतृत्व की, जो अपने स्वार्थ से अधिक जनता के हित को समझते हों।

एक सज्जन मिले अगली सीट में, जो जम्मु जा रहे थे, इनसे मोटी-मोटी जानकारी रास्ते भर मिलती रही। मैं जिस क्रिकेट बल्ले को पोपलर के पेड़ों से जोड़ कर देख रहा था वह गल्त निकला, इन्होंने स्पष्ट किया कि ये बैट काश्मीरी बिल्लो पेड़ की लकड़ी से बनते हैं।

काजी कुंड में बस नाश्ता के लिए रुकती है। वहाँ आलू-पराँठा, आलू की सब्जी व चाय का नाश्ता करते हैं, जो यहाँ का लोकप्रिय नाश्ता प्रतीत हुआ। साथ में स्वाद को बैलेंस करने के लिए दही लेते हैं। यहाँ से अखरोट 200 से 250 रुपए किलो में बिक रहे थे। हम भी प्रसाद स्वरुप व यादगार के लिए कुछ अखरोट लेते हैं, जो स्वाद में बहुत टेस्टी निकले। लगा कि यहाँ की मिट्टी में कुछ बात तो है, जो अखरोट इतने टेस्टी रहे। और काश्मीर के सेब भी हमारे मनपसन्द फलों में हैं। जबकि हमारे गृह प्रदेश में भी सेब होते हैं, लेकिन स्वाद व रसीलेपन में काश्मीर के सेब का कोई जबाव नहीं रहता।

काजीकुंड से आगे फिर हमें बर्फ से ढ़के पहाड़ों को नजदीक से दर्शन होते हैं, जिसको यथासंभव कैमरे व चित्त में कैप्चर करते हुए आगे बढ़ते हैं। सुरंग के पार सुंदर वादियों से होते हुए वनिहाल रेल्वे-स्टेशन को पार करते हैं और इसी के साथ काश्मीर घाटी की वादियाँ क्रमिक रुप से सिमटती जाती हैं


और संकरी घाटी से होते हुए कई सुरंगों को पार करते हुए रामवन पहुँचते हैं। इस बार हम वाईं ओर से इसके नए स्वरुप के दर्शन कर रहे थे।

आगे पुल से चनाव नदी का दृश्य देखते ही बन रहा था, जो कुछ देर साथ बना रहा।


नदी के उस पर पहाड़ियों की गोद में पीछे छिपी घाटियाँ, वहाँ से निस्सृत हो रहे झरने मन में कौतुक व रोमाँच का भाव जगा रहा थे। आगे फिर टनल पार कर थोड़ी देर में बस चेनानी स्थान पर लंच के लिए रुकती है। यहाँ नए ढावे में राजमाह चावल औऱ दही का लंच करते हैं। दही के स्थान पर देसी घी का भी विकल्प उपलब्ध था।

फिर यहाँ की फोरलेन सड़क पर बस सरपट दौड़ते हुए कटरा की ओर बढ़ती है। रास्ते भर सडक के किनारे नीचे घाटी में छोटी सी नदी व उस पार वाईं ओर से गाँव, पहाडियों व जंगलों को समीप से निहारते रहे, जो जाते समय हमारे लिए दुर्लभ थे। कटरा को पार करते हुए फिर थोड़ी देर में जम्मु शहर में प्रवेश करते हैं। जाते समय पुल के नीचे बह रहा गंदा नाला जम्मु तवी नदी थी। इसकी स्थिति देख थोड़ा विचलन हुआ कि नदी की ऐसी स्थिति इंसान कैसे कर देता है।

शहर से गुजरते हुए राह में वाईं ओर जम्मु विश्वविद्यालय के दीदार होते हैं और फिर आता है रेल्व स्टेशन के बाहर बस का अड्डा। अंदर स्टेशन में जाकर काश्मीरी सेब लेते हैं और स्टेशन पर थोड़ा विश्राम करते हुए एक सेब काट कर खाते हैं। इसके रसीले व खीरखंड मिठेपन के साथ मूड रिफ्रेश हो जाता है। फिर बस से मुख्य बस स्टैंड तक आते हैं। स्टेशन से बसें चलती रहती हैं, मात्र 20 रुपए में लगभग चार किमी का सफर तय करवाती हैं। आटों में शायद 2-300 रुपए से कम क्या लेते होंगे।

लोकल बस स्टैंड में गंदगी का स्रामाज्य हमें सही मायने में विचलित करता है। इसे किसी तरह से पार करते हुए हम इंटर स्टेट बस स्टैंड पहुँचते हैं, जिसकी स्थिति बेहतर थी। काउंटर 9 पर हमें जम्मु-हरिद्वार बस मिली। बस में एक पंडितजी मिले जो हरिद्वार अस्थि विसर्जन करने जा रहे थे। इनसे चर्चा करने पर इस रुट की कई जानकारियाँ मिली।

साढ़े पाँच बजे बस चल पड़ती है। जम्मु से पठानकोट, जालन्धर, लुधियाना वाई पास, अम्बाला, यमुनानगर, भगवानपुर, रुढकी, बहादरावाद होते हुए 12 घंटे का सफर पूरा होता है औऱ सुबह 6 बजे हम हरिद्वार पहुँचते हैं। रास्ते में पठानकोट तथा अम्बाला के समीप बस डिन्नर व चाय के लिए रुकती है।

इस तरह हमारी तीन दिवसीय जम्मु-काश्मीर की यात्रा पूरी होती है। रास्ते का संक्षिप्त विवरण, भाव-विचार व कुछ उपयोगी जानकारियाँ आपके संज्ञान के लिए प्रस्तुत हैं, जो शायद पहली वार जम्मु-काश्मीर जा रहे यात्रियों के लिए कुछ काम की हो सकती है। हमारी पहली काश्मीर यात्रा का यह वृतांत कैसा लगा, अवश्य लिखें। आपके सुझाव और फीडबैक का हार्दिक स्वागत रहेगा।

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