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शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

धर्म-अध्यात्म का मर्म बोध


एक सच्चे धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान

धर्म अध्यात्म इतने प्रचलित शब्द हैं, कि भारत भूमि में क्या बच्चा, क्या बुढ़ा, क्या युवा, क्या महिला – सब इनको जानते हैं। जानते ही नहीं, किसी न किसी रुप में इन्हें अपने जीवन में जीने का प्रयास भी कर रहे होते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद इनके बारे में भ्रम का कुहासा भी कम सघन नहीं है और धर्म-अध्यात्म के नाम पर नाना प्रकार के चित्र-विचित्र एवं हास्यास्पद कृत्यों को चारों ओर घटित होते देखा जा सकता है। सस्ते में बहुत कुछ लूटने-बटोरने के शार्टकट रास्तों को अपनाते लोगों को देखा जा सकता है।

आश्चर्य़ नहीं कि धर्म-अध्यात्म की समझ के अभाव में, अधिकाँश लोग सच्चे धार्मिक व आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान में प्रायः चूक कर बैठते हैं। बाहरी बेश-भूषा, रुप-रंग आदि को मानक मानते हुए लोग प्रभावित हो जाते हैं। इससे भी आगे किसी हठयोगी, कर्मकाण्डी, चमत्कार दिखाने वाले तांत्रिक-मांत्रिक को देखकर तो नतमस्तक ही हो बैठते हैं, जैसे धर्म-अध्यात्म का सार तत्व इनकी बाजीगरी में छिपा हुआ हो।

लेकिन धर्म-अध्यात्म की डगर थोड़ी विचित्र है, रहस्यमयी है, निराली है। जिसको इसमें गहरे उतरे बिना, इसके मर्म को जीवन में धारण किए बाना, अस्तित्व की पहेली को सुलझाने की ईमानदार कवायद के बिना समझ पाना थोड़ा कठिन है। क्योंकि धर्म-अध्यात्म बाहरी कर्मकाण्ड, वेशभूषा, हठयोग व प्रदर्शन से अधिक एक सूक्ष्म तत्व है, जिसे बाहरी स्वरुप देखकर नहीं पहचाना जा सकता।

यह सच है कि जनसाधारण के लिए धर्म के गर्भ से ही अध्यात्म का उद्भव होता है। जैसे बच्चों की स्कूली पढ़ाई कखग से शुरु होती है, जहाँ क से कबूतर, ख खरगोश के बालबोध के साथ अक्षरज्ञान करवाते हुए आगे की शिक्षा दी जाती है। ऐसे ही अध्यात्म की गुह्यता में प्रवेश करने के लिए धर्म के कर्मकाण्डों, पूजा-पाठ व स्थूल उपकरणों का सहारा लिया जाता है। इसके लिए बाहरी वस्त्र, वेश व प्रतीकात्मक उपचारों को भी धारण करना पड़ सकता है।

लेकिन यह प्राथमिक पाठशाला भर है। धार्मिक क्रियाक्लाप के साथ, स्वाध्याय-सतसंग का सहारा लेते हुए, व्यक्ति आस्तिकता के भाव को धारण करते हुए अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। मैं भी ईश्वर अंश अविनाशी हूँ, अमृतपुत्र हूँ और जीवन का सार तत्व अपने ही अंदर है और सारा संसार अंतर्निहित दिव्यता का ही विस्तार है, ऐसी जीवन दृष्टि के साथ अध्यात्म में प्रवेश पात्रता विकसित करते हुए साधक अस्तित्व की पहेली के समाधान के लिए गहराई में उतर पड़ता है।

व्यवहारिक रुप में धर्म और अध्यात्म की कसौटी मन की शांति, स्थिरता, प्रसन्नता और सुकून से है। एक कर्मयोगी अपने कर्तव्य कर्म को करते हुए इन्हें उपलब्ध हो सकता है, जिसको सामान्य सी सांसारिक वेशभूषा में जीवनयापन करते हुए देखने पर पहचानने में भूल हो सकती है। हो सकता है कि वह धार्मिक कर्मकाण्ड में अधिक विश्वास न रखता हो, न ही भक्ति के लिए उसके पास अधिक समय हो, न ही किसी योगी की तरह लम्बे ध्यान में बैठता हो। लेकिन अपने कर्तव्य कर्म को ही भगवान मानते हुए चेतना की उच्च अवस्था की अग्रसर हो रहा हो।

आश्चर्य़ नहीं की ऐसे कर्म में प्रवृत जुलाहा कबीर हो सकते हैं, मोची का काम करते हुए संत रविदास हो सकते हैं। कसाई धर्म निभाते हुए सदना संत हो सकते हैं। सामान्य से गृहस्थ नाग महाशय ईश्वरकोटी आत्मा हो सकते हैं। खेत में हल जोतता किसान, रेल्वे में नौकरी करते युक्तेश्वरगिरि महायोगी हो सकते हैं। ऐसे ही पुराणों में वर्णित एक सामान्य सी गृहिणि, पतिव्रता स्त्री आध्यात्मिक चेतना के शिखर पर जी रही हो सकती है। ऐसे अनगिन उदाहदरण हैं, जो धर्म-अध्यात्म की प्रचलित कसौटी के स्थूल मानदंडों  पर खरा नहीं उतरते, लेकिन धर्म-अध्यात्म की कसौटी पर सौ टक्का खरा उतरते हैं।

इसी तरह रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, तैलंग स्वामी, देवरहा बाबा को बाहर से देखने पर पहली बारगी कौन उनके सिद्धत्व को पहचान पाता है। इनका सामान्य से भी अतिसामान्य एवं साधारण स्वरुप किसी को भी भ्रमित करता है। लेकिन पारखी लोग इनका सतसंग कर तर जाते हैं और कितनों को तरने का मार्ग दिखा जाते हैं।

इस युग में साधारण सी हवाई चप्पल के साथ खादी का धोती-कुर्ता पहने एक सामान्य से गृहस्थ को देखकर कौन अनुमान लगा सकता था कि कोई गायत्री का सिद्ध साधक, सम्पूर्ण आर्षवांड्मय का युगानुकूल भाष्य कर 3200 पुस्तकों का रचियेता, जीवन के हर विषय पर अपनी कलम चलाने वाला युग व्यास, युग की हर समस्या के समाधान प्रस्तुत करने वाले युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्य 21वीं सदी उज्जवल भविष्य और युग परिर्वतन का युगांतरीय कार्य कर इस धराधाम से चले जाते हैं, जिनकी धर्म-अध्यात्म की युगानुकूल वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक व्याख्या आज भी लाखों-करोड़ों परिजनों का मार्गदर्शन कर रही है।

उनके द्वारा बताई गई धर्म-अध्यात्म की एक ही कसौटी रही, जो है व्यक्ति के सद्गुण। व्यक्ति कितना ईमानदार है, जिम्मेदार है ये उसकी व्यवहारिक कसौटियाँ हैं। उसके लिए अपना कर्तव्य धर्म पहली पूजा है, इसके बाद ही पूजा पाठ का कर्मकाण्ड उसके लिए मायने रखता है। अपार धैर्य, सहिष्णुता, उदारता और सद्भाव उसके अन्य गुण हैं। लेकिन इसका अर्थ ये भी नहीं कि वह असुरता, अधर्म को मूकदर्शक बनकर देखता रहे। इसलिए समझदारी और बहादुरी उसके अभिन्न गुण हैं। इनके साथ श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीनता, सहकारिता जैसे व्यवहारिक गुण य़ुगऋषि द्वारा परिभाषित हैं।

एक सच्चा धार्मिक एवं आध्यात्मिक व्यक्ति जीवन के अंदर और बाहर, अपने घर-परिवार, परिवेश और समाज में, राष्ट्र एवं विश्व में सत्यता, संवेदना, इंसानियत से युक्त धर्म की स्थापना का माध्यम बनता है, युग परिर्वतन के लिए उद्यत महाकाल की चेतना का संवाहक होता है।


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