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शनिवार, 7 दिसंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-5

मुखबा गाँव के दर्शन और घर बापिसी

रोज रात को और सुबह होटल की वाल्कनी से भगीरथी नदी के पार मुखबा गाँव  की टिमटिमाती रोशनी ध्यान आकर्षित करती रही। अपने गृह प्रदेश में ठीक कुछ ऐसा ही दृश्य घर के सामने गाँव पेश करता। बैसे ही गगनचूम्बी पर्वतों की गोद में बसे यह गाँव दिखता। लेकिन शैक्षणिक भ्रमण के व्यस्त कार्य़क्रम के चलते मुखबा गाँव छूटता दिख रहा था, लगा कि अगली बार ही यहाँ के दर्शन संभव होंगे।

टूर के अंतिम दिन प्रातः 6 बजे हरिद्वार के लिए कूच करना था, सो पिछली रात को नौ बजे ही निद्रा देवी की गोद में सो गए थे और प्रातः स्नान-ध्यान के पश्चात पौने छः बजे ही नीचे बस की ओर निकल देते हैं। लेकिन दल के सदस्यों की तैयारी देखकर लगा कि आधा-पौन घंटा अभी इनको तैयार होने में लगेगा, तब तक हम कल्प-केदार मंदिर के समीप स्थित तपोवनी माता की तपःस्थली के दर्शन कर आते हैं। यह मंदिर तो हमें नहीं मिला, लेकिन भटकते-भटकते 10 मिनट में नीचे भगीरथी पुल तक पहुँच गए।

राह में सेब से लदे बगीचों के सुंदर नजारों को यथासंभव मोबाईल में कैप्चर करते रहे और पुल से भगीरथी का दृश्य देखते ही बन रहा था। इसको पार कर एक स्थान पर आसन जमाकर धराली साइड के दृश्य का अवलोकन करते हैं। यहाँ से सामने गाँव, पहाड़ और पीछे हिमशिखर का दृश्य देखते ही बन रहा था और उत्तर की ओर मार्कण्डेय ऋषि का मंदिर, भगीरथी नदी का विस्तार, देवदार के जंगल और पीछे गंगोत्री साइड की चोटियाँ – ध्यान के लिए एक आदर्श लोकेशन प्रतीत हो रही थी। कुछ मिनट सड़क किनारे चबूतरे पर यहाँ पालथी मार कर इसी दृश्य में खोए रहे।

स्थानीय लोगों से पता चला कि यहाँ से मुखबा मंदिर महज 1 किमी सीधी चढ़ाई के बाद पड़ता है, सो दल के शेष सदस्यों को फोन से बुलाकर वहाँ दर्शन की योजना बनती है। लगा कि दो दिन से चल रही ह्दय की उहापोह और गंगा मैया की कृपा के चलते संयोग घटित हो रहा था और जैसे बुलावा आ गया है।

कुछ ही मिनट में दल यहाँ पहुंचता है और मुख्य द्वार से प्रवेश करते हुए खेत-बगीचों के बीच ऊपर चढ़ते हैं। रास्ते में नए दर्शकों को राजमाँ, बागुकोशा, खुमानी, गोल्डन व रॉयल एप्पल, अखरोट आदि के वृक्षों, फलों व खेती से परिचय करवाते हैं। साथ ही जंगली पालक, बिच्छु बूटी व अन्य स्थानीय जंगली जड़ी बूटियों की भी जानकारी देते हैं।

आधे-पौन घंटे में हम सीधी चढ़ाई पार करते हुए ऊपर मोटर मार्ग तक पहुँच गए थे, जहाँ से बाईं ओर आगे का रास्ता हर्षिल की ओर जा रहा था। हम यहाँ से दाईं ओर ऊपर चढ़ते हैं और सौ मीटर ऊपर मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं।

मुखबा के मंदिर को मुखीमठ बोलते हैं, जो गंगाजी का शीतकालीन आवास है, जहाँ नबम्वर से अप्रैल तक छः माह इनका वास रहता है औऱ फिर गंगोत्री धाम के कपाट खुलने पर इनका प्रस्थान होता है और गंगोत्री में विधिवत पूजा शुरु होती है।

इस शांत एकांत गाँव में स्थित मंदिर का स्थापत्य देखते ही बनता है। लकड़ी के मंदिर में बहुत सुंदर नक्काशी हुई है। संयोग से पुरोहित जी मंदिर में हाजिर होते हैं, इसके बाद ये मार्कण्डेय ऋषि के मंदिर में प्रस्थान करने वाले थे। लगा हमारी टाइमिंग गंगा मैया ने निर्धारित कर रखी थी। विधिवत पूजन के बाद पंडित जी से यहाँ का संक्षिप्त व सारगर्भित परिचय प्राप्त होता है।

दर्शन के बाद मंदिर प्रांगण में सामूहिक फोटोग्राफी होती है। मंदिर के ठीक सामने दूसरी पहाड़ी से झांकते हिमाच्छादित श्रीखण्ड शिखर के दर्शन देखते ही बन रहे थे। नीचे उतरते हुए सामने धराली साइड के दर्शन करते रहे। उगते हुए सूरज की रोशनी में घाटी जगमगा रही थी। बापिसी में पेड़ से गिरे सेब, बागूकोश आदि फलों को प्रसाद रुप में एकत्र करते हैं। और आधे घंटे में धराली पहुँचते हैं।

समूह का एक दल जो छूट गया था, उसे भी दर्शन के लिए भेजते हैं। और धराली में बाजिव दाम पर यहाँ से सेब खरीदते हैं। यहाँ की एक दुकान में परांठा चाय का नाश्ता होता है। कस्बा कहें या गाँव, धरारी मार्केट का शांत माहौल भीड-भाड से भरे हिल स्टेशन के अशांत वातावरण के एकदम विपरीत शांति-सुकून भरा लग रहा था, यहाँ का जीवन ठहरा हुआ सा दिखा। जीवन जैसे प्रकृति की गति से धीरे-धीरे अनन्त धैर्य के साथ प्रवाहमान है।

इसी बीच समय निकाल कर हम यहाँ माँ सुभद्रा (तपावनी माता) की तपःस्थली के भी दर्शन किए, जो कल्प-केदार होटल के एकदम पास में निकला, जिसकी खोज में सुबह हम भगीरथी नदी तक पहुँच गए थे। यहाँ उनके शिष्य बाबा कालू से मुलाकात हुई, इस तपःस्थली के बारे में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया। कालू बाबाजी इस समय मंदिर की देखभाल कर रहे हैं और नैष्ठिक तीर्थयात्रियों के लिए अखण्ड भण्डारे व ठहरने की व्यवस्था देखते हैं।

अब तक पूरा दल बस में बैठ चुका था। और हमारी बापिसी का सफर आगे बढ़ता है। रास्ते में हर्षिल के दर्शन होते हैं, बगोरी गाँव को दूर से विदा करते हैं। और रास्ते में जो रुट तीन दिन पहले आते समय अंधेरे में कवर किए थे, उसे दिन के उजाले में देखने की तमन्ना पूरी होती है। इसी क्रम में झाला से लेकर सुक्खु टॉप तक पहुँचते हैं।

रास्ते भर सड़क के दोनों ओऱ सेब से लदे बगान, देवदार के जंगल, छोटे-छोटे कस्बे, होटल, होम-स्टे और सेब की पैकिंग के दृश्य। पहले ऊपर चढाई, फिर सीधे आगे दो-तीन किमी लम्बा मार्ग औऱ फिर सुक्खु टॉप से नीचे की जिगजैग उतराई। रास्ते भर छोड़े बड़े झरने व नालों के दर्शन होते रहे। उस पार बर्फ से ढके पहाड़ों से नीचे दनदनाते नाले भी दर्शनीय रहे। जिनको देखकर सहज ही परमपूज्य गुरुदेव की पुस्तक सुनसान के सहचर पुस्तक के संस्मरण याद आ रहे थे।

सुक्खु टॉप से नीचे घाटी में पहुँचने पर वायीं ओर गर्जन-तर्जन करती रौद्र रुप लिए भगीरथी के संग आगे बढ़ते हैं तथा पुल पार कर लेफ्ट बैंक में गंगनानी के दर्शन और राइट बैंक में भटवारी, गंगोरी और फिर वाईपास से होते हुए उत्तरकाशी पहुँचते हैं। रास्ते में दिन के ऊजाले में उत्तरकाशी शहर के दर्शन होते हैं और भूस्खलन के कारण समाचार में अक्सर सुर्खी बनते वर्णावत पर्वत को भी देखते हैं। यहाँ एक मैदान में भोजन के लिए गाड़ी रुकती है।

पहले हम पास ही स्थिति भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते हैं। इसके भव्य परिसर में दिव्य दर्शन का लाभ लेकर इससे जुड़े इतिहास, पौराणिक मान्यताओं एवं भविष्य कथन को पढ़कर अविभूत होते हैं, हालाँकि आज का दर्शन परिचयात्मक भर था। अगली बार अधिक समय लेकर उत्तरकाशी को एक्सप्लोअर करेंगे, ऐसा भाव प्रवल हो रहा था।

पेट पूजा कर पूरा दल बस में चढ़ता है और कमान्द से होकर चम्बा से पहले उस ठिकाने पर रुकता है, जहाँ जाते समय हम लोग रुके थे। यहाँ चाय-नाश्ता कर रोचार्ज होते हैं और किबी के पैकेट खरीदते हैं।

बापिसी में चम्बा पार करते-करते अंधेरा हो चुका था और आल बेदर रोड़ के संग सरपट दौड़ती हुई गाड़ी आगराखाल को पार करते हुए नरेंद्रनगर और फिर ऋषिकेश पहुँचती है तथा अगले आधा घंटे में 9 बजे तक देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण में पहुंचते हैं।

इस तरह गंगा मैया की कृपा से तीन दिन में सम्पन्न गंगोत्री धाम की यह सकुशल यात्रा एक अमिट छाप छोड़ जाती है, जिसमें कई प्रश्नों के उत्तर मिले, कई जिज्ञासाओं को शाँत किया और जिज्ञासाओं की कुछ नई कौंपलें भी फूंटी, जो अगली यात्राओं के लिए प्रेरक ईँधन का काम करती रहेंगी।

शनिवार, 30 नवंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-3

 

गंगोत्री धाम के दिव्य लोक में

यात्रा का दूसरा दिन हमारे गंगोत्री दर्शन के लिए समर्पित था। सो सुबह जल्दी ही धराली से निकल पड़ते हैं, जो गंगोत्री से 20 किमी की दूरी पर पड़ता है। भौर में जब हम बाहर निकलते हैं, तो उत्तर दिशा में गंगोत्री की ओर हिमशिखरों मध्य टिमटिमाते तारों से सजे नीले आकाश में बीचों-बीच स्थित अर्दचंद्र की शोभा देखते ही बन रही थी। लग रहा था कि वे ध्यानस्थ भगवान शिव के सर पर सुशोभित हों। गंगोत्री धाम की यात्रा व दर्शन का उत्साह सबके चेहरे पर स्पष्ट था, जिनमें अधिकाँश वहाँ पहली वार पधार रहे थे।

धराली से गंगोत्री की 20 किमी की यात्रा देवदार के घने जंगलों के बीच होती है। शुरु में वायीं ओर साथ में भगीरथी नदी प्रवाहमान थी। चौड़ी घाटी क्रमिक रुप से संकरी हो रही थी। रास्ते भर देवदार के जंगल और भगीरथी नदी के विस्तार को निहारते हुए यहाँ की सुंदर वादियों के बीच एक नई घाटी में प्रवेश होता है। गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ दोनों ओर एक दम पास दिख रहे थे।

पुल को पार कर अब भगीरथी हमारे दायीं ओर थी और चट्टानी रास्ते से चढ़ाई पार करते हुए कुछ ही पलों में हम भैरों घाटी पहुँचते हैं, जहाँ पर गहरी घाटी में एक नदी नेलाँग की ओर से आती है और यहाँ की चट्टानी दिवारों के संग गार्दांग गली का प्राचीन ट्रैकिंग रुट प्रख्यात है। बापिसी में इसके दर्शन की योजना थी। भैरों घाटी के पुल को पार हम गंगोत्री धाम की ओर बढ़ते हैं। राह में हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत के दर्शन प्रारम्भ हो गए थे।

देवदार से अटे गगनचुंबी पहाड़ दोनों ओर जैसे हमारा स्वागत कर रहे थे। रास्ते में आईटीवीपी कैंप से गुजरते हैं। पहाड़ों से गिरी चट्टानों के बीच बसा यह कैंप इन ऊंचाईयों के चट्टानी सत्य का दिग्दर्शन करा रहे थे, जहाँ जीवन कितना रिस्क से भरा हो सकता है। रास्ते भर तीखे मोड़ और देवदार के जंगल एक नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का सुखद अहसास जगा रहे थे, साथ ही राह में आंख मिचौली करते हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत गंगोत्री धाम के समीप होने का तीखा अहसास दिला रहे थे और मन में गंगोत्री धाम के पहले दर्शन-दीदार के जिज्ञासा और रोमाँच से भरे भाव हिलोरें मार रहे थे।

राह में ही भैरों मंदिर आता है, जहाँ से आगे सड़क मार्ग वायीं ओर से नेलांग की ओर जाता है, जिसे चीन की सीमा से अटा अंतिम स्टेशन माना जाता है, जो यहाँ से 22 किमी था। लो, कुछ ही मिनट में हम गंगोत्री में प्रवेश करते हैं, गाडियों का जमघट और पर्यटकों की भीड़ इसका अहसास दिला रही थी। हमारी गाड़ी भी बाहर सड़क के किनारे निर्देशित स्थान पर पार्क होती है।

सड़क के साथ पहाड़ों को छूते चट्टानी शिखर भय मिश्रित श्रद्धा का भाव जगा रहे थे। मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था कि इन चट्टानी पहाड़ों से चट्टान टूटकर नीचे आती होंगी, तो क्या होता होगा। बाद में लोगों से बातचीत करने पर समाधान मिला कि ये चट्टानें स्थिर हैं, आए दिन गिरने की कोई ऐसी घटना यहाँ नहीं होती।

लगभग 2 किमी पैदल यात्रा, जिसमें गंगोत्री धाम की मार्केट, आश्रम, होटल, होम-स्टे आदि के दर्शन करते हुए अंततः एक बड़ा सा द्वार पार करते हुए गंगोत्री मंदिर में प्रवेश होता है। यहाँ के दिव्य प्रांगण में जुत्ते उतार कर दर्शनार्थियों की पंक्ति में खड़ा होकर मंदिर में गंगा मैया के दर्शन करते हैं। और बाहर निकल कल समूह फोटो लेते हैं।

गंगोत्री मंदिर की लोकेशन स्वयं में अद्भुत है, चारों और गंगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के बीच में स्थित धाम, एक नए लोक में विचरण का दिव्य अहसास दिला रहा था। लग रहा था कि हम एकदम नए संसार में पहुँच गए हैं। यहाँ से प्रसाद ग्रहण कर नीचे स्नान घाट पहुँचते हैं। भगीरथी नदी के ग्लेशियर से निकले बर्फीले जल से आचमन कर अपने पात्र में गंगाजल भरते हैं। बापिसी में भगीरथी शिला के दर्शन करते हैं, जहाँ भगीरथ ने भगीरथी तप कर गंगा अवतरण को संभव किया था और सगरसुतों के उद्धार के साथ जगत के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था।

परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य़जी के हिमालय प्रवास के दौरान गंगोत्री धाम में रुकने व आगे तपोवन में साधना करने के प्रसंगों को यहाँ प्रत्यक्ष देखने का मन था। तीर्थ की सूक्ष्म चेतना ने जैसा इसका भी इंतजाम कर रखा था। यहाँ के साठ वर्षीय कुलपुरोहित से अचानक परिचय होता है औऱ वे आचार्यजी से जुड़े रोचक प्रसंगों का भाव भरा वर्णन करते हैं। और भगीरथी के उस पार सामने के आश्रमों - ईशावास्य, कृष्णानन्द आश्रम, तपोवन आश्रम आदि से भी परिचय करवाते हैं, जहाँ गुरुदेव का प्रवास रहा।

परिसर में ही जाह्नवी माता के दर्शन होते हैं, लगा कि जैसे गंगा मैया के ही मूर्तिमान अंश से मुलाकात हो रही है। इन्हीं के सान्निध्य में यहाँ कृष्णानन्द आश्रम के वयोवृद्ध शिष्य स्वामी जी के दर्शन होते हैं, जो अपने आश्रम में आने का नेह भरा आमंत्रण दे जाते हैं। इस तरह मंदिर से नीचे उतरते हुए एक पुलिया को पार कर हम कृष्णानन्द आश्रम पहुँचते हैं। रास्ते में पुल से शिवलिंग एवं भागीरथी पर्वत के दिव्य दर्शन होते हैं। कृष्णानन्द आश्रम में गुरुदेव की साधना स्थली गुफा के दर्शन करते हैं। बाबाजी का स्वागत सत्कार और भक्ति भाव हम सबको भाव विभोर करता है। उनके द्वारा खिलाए गए छेने के रस्गुल्ले और सुर्ख लाल सेब यदा रहेंगे।

फिर जाह्नवी माता के आश्रम में पधार कर यहां के दिव्य भाव को ग्रहण करते हैं। माताजी पिछले तीन दशकों से साधनारत हैं और तपोवन में भी प्रवास कर चुकी हैं। यहाँ देवस्थापना कर हम, ब्रह्मकल का प्रसाद लेकर बापिस आते हैं। समय कम होने के कारण तपोवन आश्रम, सूर्य कुण्ड व अन्य स्थानों के दर्शन नहीं कर पाते और इनको अगले विजिट के लिए छोड़कर पुलिया को पार कर नीचे उतरते हैं।

बापिसी में एक आश्रम के भंडारे में भोजन-प्रसाद का संयोग बनता है। यहाँ अध्यात्मिक कंटेट को प्रसारित करने वाले यू-ट्यूबर युवा सन्यासी स्वामी अद्वैतानन्दजी से भेट होती है। संवाद के कुछ संक्षिप्त और यादगार पल इनके साथ बिताते हैं और बापिस गाड़ी तक आते हैं।

राह में चार शाखा वाले देवदार के वृक्ष के सामने सेल्फी लेते हैं। यह वृक्ष हमें जीवन के चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूर्तिमान प्रतीक लग रहा था, जो गंगोत्री धाम पधार रहे जागरुक तीर्थ यात्रियों को सतत एक मूक संदेश दे रहा हो।

दिन में सीधी धूप औऱ लगातार पिछले 3-4 घंटों से चलते रहने के कारण काफी गर्मी का अहसास हो रहा था, साथ ही भोजन उपरान्त की सुस्ती भी छा रही थी। अतः बापिसी में कार्दांग गली का प्लान छोड़ देते हैं, क्योंकि वहाँ सीधे धूप पड़ रही थी और नीचे सीधे खाई में नदी बहती हैं। किसी तरह का रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थे और न ही समूह की मनःस्थिति अभी इसको कवर करने की थी और इसे भी अगली यात्रा के लिए छोड़ आते हैं।

पाठकों को बता दें कि यह भारत तिब्बत के बीच व्यापार का पुरातन रुट था, जब किसी तरह की सड़क व्यवस्था नहीं थी। आज तो नेलाँग तक सड़क मार्ग बन चुका है, जो उत्तराखण्ड का इस इलाके का अंतिम गाँव है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद वहाँ के लोग हर्षिल में बगोरी गाँव में विस्थापित होकर रह रहे हैं। आज शाम हो हम वहीं पधारने जा रहे थे।

बस से हम बापिस धराली पहुँचते हैं औऱ होटल में कुछ देर रुककर तरोताजा होते हैं और दोपहर वाद आज के गन्तव्य हर्षिल और बगोरी गाँव के लिए निकल पड़ते हैं। (जारी, भाग-4)

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-2

उत्तरकाशी से हर्षिल - धराली

उत्तरकाशी से गंगोरी को पार करते हुए हम मनेरी से होकर गुजरते हैं, जहाँ भगीरथी पर विद्युत परियोजना के कारण ठहरी हुई जलराशि के दर्शन होते हैं।

02:00 PM, CHECK POST

मनेरी को पार करते हुए हम भटवारी पहुँचते हैं, जहाँ एक स्थान पर गाड़ी नीचे मैदान में रुकती है, कई टैंट लगे थे। वहाँ गंगोत्री के लिए पंजीयन होता है। जितना देर पंजीयन की औपचारिकता पूरी होती रही, हम नीचे भगीरथी नदी के दर्शन करते हैं। यह समीप से गंगा मैया के पहले दर्शन थे।

02:38 PM, MANERY WATERFALL

आगे मनेरी बांध के झरने के दर्शन करते हुए आगे बढ़ते हैं, जो एक वृहद जलराशि के रुप में एक सुरंग से नदी के तट पर गिरता है, जिसे शायद ही ऐसा कोई राही हो, जो दिल थामकर न निहारता हो।

आगे रास्ते भर स्थान-स्थान पर पानी के झरनों की भरमार दिखी। हर मोड़ पर इनके दर्शन होते रहे, जो उत्तरकाशी से पूर्व के मार्ग के एकदम विपरीत अनुभव था।

रास्ते में ही दयारा वुग्याल के लिए वायीं ओर से लिंक रोड़ जाता दिखा।

04:00 PM, TEA BREAK

इस घाटी के अंतिम स्टेशन में गाड़ी रुकती है, जहाँ कुछ चाय-नाश्ते व फल-सब्जी की दुकानें सजी थी। चाय नाश्ते के साथ काफिला रिफ्रेश होता है। यहाँ पालतु पहाड़ी गाय व बछ़डों के दर्शन होते हैं, जो आकार में काफी छोटे थे। ये यात्रियों से सहज ही घुलमुल जाते हैं। कारण, यात्री इन्हें श्रद्धावश कुछ खिलाते रहते हैं। हमने भी साथ लाई पुड़ियाँ खिलाई और इनके साथ फोटो खिंची।

चाय-नाश्ते के साथ तरोताजा होकर हम आगे के लिए कूच करते हैं। रास्ते की आवोहवा में हिमालयन टच के साथ एक नया सुकून व शांति का अहसास शुरु हो चुका था। यहाँ से पुल पार कर हम अब भगीरथी के वाएं तट के संग संकरी घाटी में आगे बढ़ रहे थे। कुछ ही देर में आता है इस रुट का महत्वपूर्ण तीर्थस्थल गंगनानी, जो तप्तकुंडों के लिए प्रख्यात है।

05:00 – 05:30 PM, GANGNANI

माना जाता है कि यहाँ भगवान व्यास के पिता ऋषि पराशर ने तप किया था। यहां पुरुषों व महिलाओं के लिए अलग-अलग कुंड बने हुए हैं। बाहर खुले में वाईं ओर झर रहे झरनों में भी स्नान किया जा सकता है। यहाँ के गर्म कुँडों में स्नान कर हम सभी तरोताजा होते हैं और पितृपक्ष होने के कारण अपने पितरों का सुमरन करते हुए उनके कल्याण के लिए भाव निवेदन और प्रार्थना करते हैं।

यहाँ से सफर संकरी घाटी से होते हुए मंजिल की ओर बढता है। रास्ते में हर मोड़ पर खड़ी चट्टानें और मोड खतरनाक अहसास दिला रहे थे। लग रहा था कि कुशल चालक ही इस राह पर वाहन को चला सकते हैं। उस पार ऊंचे पहाड़ों की गोद में विरल गाँव के दृश्य देखकर आश्चर्य एवं रोमाँच होता रहा कि लोग इन ऊंचाइयों व निर्जन क्षेत्र में किन मजबूरियों या प्रेरणा के वश बसे होंगे।

06:00 PM

लेफ्ट बैंक के छोर पर एक पुल पार होता है, जिसके नीचे भगीरथी नदी गर्जन-तर्जन करती हुई बह रही थी। और पुल के पार झरने की कई धाराओँ में जलराशि झर रही थी, जहाँ फोटो खींचने के लिए लोगों की भीड़ लगी थी।

इसके आगे चट्टानों के बीच रास्ता बढ़ रहा था और वायीं और गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के संग हम आगे बढ़ रहे थे। यहीं मैदान में एक स्थान पर भेड़-बकरियों के झुंड के साथ गड़रिए रात्रि विश्राम के लिए अपना ठिकाना तैयार कर रहे थे।

6:15 – 6:30 PM

शाम का धुंधलका धीरे-धीरे हॉवी हो रहा था। भगीरथी नदी दायीं ओर अपने रौद्र रुप में ढलान के संग नीचे मैदानों की ओर बढ़ रही थीं। अपने मायके को छोड़कर मैदानों की ओर उसके उतरने का उत्साह देखते ही बन रहा था।

आगे रास्ते में अंधेरा शुरु हो चुका था। बस अब जिग्जैग सड़क के साथ ऊपर चढ़ रही थी। बाद में पता चला कि हम सुखू टॉप की ओर बढ़ रहे थे। मार्ग में सेब से लदे वृक्षों के दर्शन शुरु हो गए थे, जो पहली बार पहाड़ों में सफर कर रहे विद्यार्थी और शिक्षकों के लिए एक सुखद अहसास था। रास्ते भर सड़क के ऊपर और नीचे सेब के बगीचों के दर्शन होते रहे। लगा कि दिन के उजाले में इनके दर्शन होते, तो कितना अच्छा रहता। हम काफी ऊंचाई पर सफर कर रहे थे, नीचे घाटी में वस्तियों की टिमटिमाती रोशनी इसका अहसास दिला रही थी। बस आगे चलकर फिर नीचे उतरती दिखी। 

07:00 PM

हम अब नीचे उतर रहे थे और रोशनी से जगमग बस्ती को पार करते हैं। और भगीरथी के ऊपर एक पुल को पार कर फिर लेफ्ट बैंक के साथ आगे बढ़ते हैं। पता चला कि हम हर्षिल घाटी में प्रवेश कर चुके हैं। रास्ते में बस की रोशनी में देवदार के वृहद पेड़ों के दर्शन होते रहे और अंधेरे में भी इनको यथासंभव कैप्चर करने के प्रयास चलते रहे। अब हम आज के गन्तव्य के मात्र 2-3 किमी दूर थे। रास्ते में दनदनाते नाले व झरने बहुतायत में मिलते रहे। मंजिल के समीप पहुँचने का सुकून व उत्साह भी हिलोरें मार रहा था। वाइं और भगीरथी समीप ही विस्तार लिए बहती दिख रही थीं, जो पिछली संकरी घाटी के अनुभव के विपरीत खुली घाटी में पहुँचने का एक नया अहसास था।

08:00 PM

लो हम धराली में प्रवेश कर चुके थे और कुछ ही पलों में अपने होटल कल्प-केदार के सामने हमारी बस खड़ी होती है।

इस तरह लगभग 14 घंटे के सफर के बाद हम अपनी मंजिल पर पहुंचते हैं। मालूम हो कि धराली इस घाटी के 8 गावों में एक प्रमुख गाँव है, जो पौराणिक कल्प-केदार मंदिर के लिए प्रख्यात है, जो गंगोत्री से 20 किमी पहले पड़ता है। गौमुख के आगे तपोवन में रिकार्ड समय तक रहने वाली सुभद्रा माता की मुख्य तपःस्थली भी यहीं धराली में स्थित है। अपने सेब के बगानों के लिए धराली प्रख्यात है और इसके ठीक सामने भगीरथी नदी के उस पार मुख्वा गांव पड़ता है, जो गंगा मैया का शीतकालीन आवास है।

कमरों की व्यवस्था व भोजन आदि के साथ रात के दस बज जाते हैं। सफर में पहने हुए कपड़े कम प्रतीत हो रहे थे, क्योंकि यहाँ तापमान 12-14 डिग्री सेंटिग्रेट था, जो रात को 3-4 डिग्री तक तेजी से गिरने वाला था। रात को ही समीपस्थ कल्प-केदार मंदिर में भी माथा टेक आते हैं, जो एक सुंदर, स्वच्छ व भव्य कत्यूरी शैली में बना प्राचीन मंदिर है। इसे केदारनाथ मंदिर का ही समकालीन माना जाता है और पांडवों से जुड़ा हुआ है। दल के होटल में व्यवस्थित होने के बाद हम कमरे में प्रवेश करते हैं।

कमरा होटल की तीसरी मंजिल पर था, जहां की वाल्कनी से बाहर सेबों से लदा बगीचा प्रत्यक्ष था और सामने मुख्वा गाँव की टिमटिमाटी रोशनी से सजा आलौकिक दृश्य। चारों और गंगनचूंबी हिमालय के दर्शन आह्लादित कर रहे थे औऱ भगीरथी नदी की कलकल निनाद करती मधुर ध्वनि गृहप्रदेश की व्यास नदी की याद दिला रही थी। अगले दिनों इन सबका दीदार किया जाना था। इसी भाव के साथ कंबल व रजाई में प्रवेश कर, स्वयं को गरमाते हुए निद्रा देवी की गोद में प्रवेश करते हैं। (भाग-3, जारी)

यात्रा वृतांत - मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-1

हरिद्वार से उत्तकाशी

आज एक चिरप्रतिक्षित यात्रा का संयोग बन रहा था। पिछले कई वर्षों से बन रही योजना आज पूरा होने जा रही थी। लग रहा था कि जैसे गंगोत्री धाम का बुलावा आ गया। पत्रकारिता के 31 सदसीय छात्र-छात्राओं के दल के साथ गंगोत्री का शैक्षणिक भ्रमण सम्पन्न हो रहा था। पूरी यात्रा के पश्चात समझ आया कि इसकी टाइमिंग यह क्यों थी, जबकि पिछले चार-पांच वर्षों से गंगोत्री जाने की योजना बन रही थी, लेकिन किसी कारण टलती रही। इस बार की यात्रा के साथ घटित संयोग एवं सूक्ष्म प्रवाह के साथ स्पष्ट हुआ कि तीर्थ स्थल का बुलावा समय पर ही आता है, जिसमें अभीप्सुओं की संवेत पुकार के साथ जेहन के गहनतम प्रश्नों-जिज्ञासाओं के प्रत्युत्तर मिलते हैं और यह सब दैवीय व्यवस्था के अचूक विधान के अंतर्गत होता है, विशेषकर जब मकसद आध्यात्मिक हो।

6:15 AM, DSVV

29 सितम्बर की सुबह विद्यार्थियों एवं शिक्षकों का 39 सदसीय दल देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण से गायत्री महामंत्र की गुंजार के साथ प्रातः सवा छः बजे निकल पड़ता है। सभी के चेहरे पर नए गन्तव्य की ओर कूच करने के उत्साह, उमंग एवं रोमाँच के भाव स्पष्ट थे।

आधे घंटे में काफिला ऋषिकेश को पार करते हुए दोराहे पर माँ भद्रकाली के द्वार से आशीर्वाद लेते हुए वाईं सड़क पर नरेंद्रनगर की ओर बढ़ता है।


आल वेदर रोड़ की चौड़ी एवं साफ सड़क पर गाड़ी सरपट दौड़ रही थी। रास्ते में घाटी से उठते व बस का आलिंग्न करती धुंध और बादलों के फाहे खुशनुमा अहसास दिला रहे थे। स्थान-स्थान पर जलस्रोत ध्यान आकर्षित कर रहे थे। नरेंद्रनगर के प्रख्यात आनन्दा रिजॉर्ट को पार करते हुए बस कुंजापुरी के नीचे हिंडोलखाल से होते हुए आगरा खाल पहुंचती हैं, जहाँ प्रातःकालीन चाय-नाश्ता के लिए गाड़ी रुकती है।

8:30-9:00 AM, HINDOLKHAL, BREAKFAST

इस रुट पर अक्टूवर 2018 में सम्पन्न यात्रा वृतांत (गढ़वाल हिमालय की गोद में सफर का रोमाँच https://www.himveeru.dev/2018/11/blog-post.html) में इस रुट की तात्कालीन स्थिति को पढ़ सकते हैं और इस बीच हुए परिवर्तनों को भी समझ सकते हैं।

बांज बहुल इस क्षेत्र में हिमालयन वृक्षों के वनों व इनकी विशेषताओं से विद्यार्थियों को परिचित कराते है और साथ ही पनपे हुए चीड़ के वृक्षों से भी।


साथ लाई गई पूरी-सब्जी के साथ चाय का नाश्ता होता है और रिफ्रेश होकर काफिला आगे बढ़ता है। पहाड़ों में हिमालयन गांव के दृश्यों को देखकर रहा नहीं गया और केबिन में बैठकर मोबाईल से इनके सुंदर दृश्यों को कैप्चर करने का क्रम शुरु होता है।

बस में चल रहे सुमधुर गीतों की धुन एवं कालजयी संगीत के साथ किसी जमाने के फिल्मी गीतों की अपार सृजनात्मकता क्षमता पर विचार आता रहा और आज के अर्थहीन, वेसुरे और हल्के गीत-संगीत पर तरस आता रहा।

सेम्बल नदी पारकर बस इसके संग नई घाटी में प्रवेश करती है और चम्बा वाईपास से होकर आगे बढ़ती है।


इस संकरी घाटी में सफर एक नया ही अनुभव रहता है, जिसमें सड़क के किनारे तमाम ढावे-रेस्टोरेंट्स यात्रियों को चाय-नाश्ता का नेह भरा निमंत्रण देते रहते हैं, जिनके आंगन में सजी लोक्ल दालों, सब्जियों व फलों की नुमाइश भी दर्शनीय रहती है। इनकी विशेषता इनका आर्गेनिक स्वरुप रहता है, जिसे बापिसी में देवभूमि की याद के रुप में प्रसाद रुपेण खरीदा जा सकता है।

10:00 AM, CHAMBA

चम्बा शहर को वाईपास से पार करते हैं और अनुमान था कि हम नई टिहरी से होकर उत्तरकाशी की ओर बढ़ेंगे। लेकिन पता चला कि हम टिहरी से न होकर नए रास्ते से आगे जा रहे हैं। पहले टिहरी से होकर उत्तरकाशी का रास्ता जाता था। आल वेदर रोड़ के चलते नया रुट शुरु हो गया है, जिसमें संभवतः कई गाँव कवर होते हैं और साथ ही दूरी भी शायद कम पड़ती हो। चम्बा से लगभग 12 किमी आगे एक शांत-एकाँत स्थल पर बस चाय के लिए रुकती है।


10:30-11:00 AM, TEA BREAK

प्रकृति की गोद में बसे ढावे के संग बह रहा पहाड़ी नाला कलकल निनाद के साथ गुंज रहा था। साथ ही झींगुरों की सुरीली तान भी गुंज रही थी, जो स्थल की निर्जनता को पुष्ट कर रही थी। ढावे के बाहर साइड में एक क्षेत्रीय महिला वाजिब दामों में लोक्ल किवी बैच रही थी, जिसे हम बापिसी में खरीदने की योजना बनाते हैं।

सफर फिर आगे बढ़ता है। वृक्ष वनस्पतियों व जंगल पहाड़ों के स्वरुप को देखकर स्पष्ट था कि हम मध्य हिमालय की खूबसूरत वादियों से गुजर रहे थे। बीच-बीच में सुंदर-स्वच्छ पहाड़ी बस्तियों के दर्शन होते रहे।


रास्ते में टिहरी बाँध के वेकवाटर से बनी झील के दर्शन होते हैं, जो हमारे लिए एक नया आकर्षण था। उस पार के गाँव में चल रहे खेती के साथ सोलर लाइट के प्रयोग भी ध्यान आकर्षित करते रहे।

पूरा मार्ग जल स्रोतों की न्यूनता की मार से ग्रस्त दिखा। हाँ पीछे गगनचूंबी पहाड़ों से पुष्ट नाले व छोटे नद बीच-बीच में अवश्य दिखते रहे। अगले कुछ घंटों में सर्पिली सड़क के संग, कई पुलों को पार करते हुए हम 12 बजे तक कमान्द को पार करते हैं और चिन्यलिसौर, धरासु जैसे स्थलों को पार करते हुए उत्तरकाशी की ओर बढ़ते हैं।

1:00 PM, UTTARKASHI

दिन के 1 बजे हम उत्तरकाशी शहर में प्रवेश करते हैं, जो इस राह का एक प्रमुख स्थल है। यह विश्वनाथ मंदिर के लिए प्रख्यात है, जहाँ परशुरामजी द्वारा निर्मित विशाल त्रिशूल विद्यमान है। उत्तरकाशी में पर्य़ाप्त गर्मी का अहसास हो रहा था। यहाँ आल वेदर रोड़ भी समाप्त हो गया था। और अब आगे तंग रास्ते से होकर सफर शुरु होता है, जो बीच-बीच में उबड़-खाबड़ होने के कारण कहीं-कहीं थोड़ा असुविधाजनक भी अनुभव हो रहा था। इस रास्ते में आगे का अहम पड़ाव था गंगोरी। जहाँ कई आध्यात्मिक संस्थानों के आश्रम, मंदिर व धर्मशालाएं दिखी। अब हम हिमालय की गहन वादियों में प्रवेश कर चुके थे। मौसम की गर्मी कम हो रही थी और एक शीतल अहसास अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रोमाँच के भाव को तीव्र कर रहा था। (भाग-2, जारी...)

गुरुवार, 9 मई 2024

भाव यात्रा - गिरमल देवता संग तीर्थ यात्रा का यादगार रोमाँचक सफर, भाग-3

मलाणा से घर बापसी वाया दोहरा नाला

देवभूमि कुल्लू घाटी का पावन क्षेत्र

दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर

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दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला 

ट्रेकिंग के रोमाँच का शिखर

तीर्थ यात्रियों की अग्नि परीक्षा लेता यात्रा का सबसे रफ-टफ एवं खतरनाक रुट

सबसे खतरनाक रुट पर सफर के रोमाँच का शिखर आज जैसे इंतजार कर रहा था। अगले 2 दिन सबसे रोमाँचक औऱ यादगार यात्रा का हिस्सा बनने वाले थे। एक तरफ आधे सफर को तय करने का संतोष व रोमाँच अंदर हिलोरें मार रहा था, तो दूसरी ओर आगे का विकट मार्ग जैसे इस उत्साह की अग्नि परीक्षा लेने के सारे सरंजाम जुटाकर बैठा था।

देव-काफिला मलाणा से प्रातः 6.40 पर कूच करता है, 15-20 मिनट में मलाना गाँव पार होते ही धार के उस पार से दूर भेलंग गाँव की हल्की सी झलक मिलना शुरु होती है, जहाँ मलाना वासियों के शॉर्न अर्थात शीतकालीन आवास व खेत हैं। गाँव के दो हिस्से हैं - अपर भेलंग और लोअर भेलंग।

कुछ देर चलने के बाद रास्ते में खूबसूरत झरने के दर्शन होते हैं, जिसमें ऊपर पावन चंद्रखणी पास के बर्फ से पिघलकर बह रहा शीतल व निर्मल जल झर रहा था। झरने का शोर करता दिव्य निनाद व इसकी शीतल फुआरें यात्रियों को तरोताजा करने वाला सुखद अहसास दे रहे थे।

पहाड़ी झरने का खूवसूरत दृश्य

रास्ते में भेड़-बकरियों के साथ मवेशियों के दर्शन होते हैं और पीठ पर लकड़ी के भारी स्लीपर को ढो रहे श्रमिक। इनके दर्शन कर इस शांत, एकांत एवं दिव्य क्षेत्र में जीवन के कठोर सत्य के दिग्दर्शन हो रहे थे। इसमें मुख्य था कि यह क्षेत्र सबके लिए संभव नहीं, क्योंकि यहाँ विचरण के लिए न्यूनतम फिटनेस व टफनेस का होना आवश्यक है। स्वयं के साथ 15-20 किलो बजन उठाकर चलने की क्षमता होनी जरुरी है, क्योंकि यहाँ यातायात के कोई साधन नहीं हैं, न ही कोई ढुलाई की सुविधा, जो अमूनन पर्वतीय तीर्थस्थलों पर देखी जाती है। दूसरा, बिना किसी गैजेट, इंटरनेट एवं मोबाइल कनेक्टिविटि के भी जीवन का आनन्द लेने की मानसिक मजबूती। निसंदेह रुप में प्रकृति एवं रोमाँचप्रेमी घुमक्कड़ इन शर्तों को सहज रुप में पूरा करते हैं व इसी के बीच जीवन की सार्थकता और मसकद को खोजते हैं व पाते हैं।

देव काफिला भी आज की तय मंजिल की ओर बढ़ रहा था। रात को हल्की बर्फवारी हुई थी, जिसके निशान रास्ते में जमीं बर्फ की हल्की परत के रुप में मिल रहे थे। काफिला पहले अपर भेलंग गाँव से गुजरता है, यहां लकड़ी से बने पुराने पारंपरिक घर इधर-उधर बिखरे थे।

पहाड़ की गोद में बसे भेलंग गांव का दृश्य
गांव से नीचे उतरते हुए लोअर भेलंग गाँव को पार करते है। गाँव में खेत फसल के लिए तैयार दिख रहे थे, जिसमें महिलाएं व बच्चे काम करते हुए दिख रहे थे, कुछ काम के बाद चट्टानों पर विश्राम कर रहे थे व देव-काफिले को कौतूहक भरी दृष्टि से निहार रहे थे। यहाँ कुछ महिलाएं दोनों हाथों में किल्णीं (छोटी कुदाली) लेकर खुदाई करती हुईं दिखीं, जो स्वयं में एक विरल दृश्य था।
खेत में काम के बाद चट्टान पर विश्राम करती महिलाएं-बच्चे

लोअर भेलंग से सीधे नीचे उतरते हुए नाला क्रोस करते हैं और फिर सीधी चढ़ाई के संग काफिला आगे बढ़ता है। बता दें कि सभी लोग जूता पहनकर ट्रेकिंग कर रहे थे लेकिन गुर व पूजारी पुला (धान की घास के बने पारंपरिक जुत्ते, जिन्हें शुद्ध माना जाता है) पहनकर आगे बढ़ रहे थे। दल लगभग 10 बजे आगम डूगा पहुँचता है, जो चरावाहों के रुकने का एक बेहतरीन मैदानी सा स्थान है, जो खोरशु (हिमालय की ऊंचाई में ओक (बांज) प्रजाति का एक सदावहार वृक्ष) के जंगल से घिरा हुआ स्थान है।


यहाँ से चंद्रखणी साइड की बर्फिली धार स्पष्ट दिख रही थी। यहीं पर भोजन-विश्राम होता है और इसके बाद दोपहर डेढ़ बजे काफिला आगम-डूगा से आगे बाबा ताड़ी की चढ़ाई को चढ़ाई को पार करता है।

यहाँ की खड़ी चढ़ाई को पार करते हुए लगभग अगले आधा घण्टा धार के साथ आगे बढ़ते हुए फिर इस यात्रा का सबसे कठिन रुट सामने था। रास्ते में थकने पर काफिला कुछ देर विश्राम कर दम भरता व आगे के लिए तैयार होता है।

विहड़ वन के बीच मार्ग में दम भरते काफिले के सदस्य

आगे डेंजर जोन की खड़ी चढ़ाई में काफिले की अग्नि परीक्षा शुरु होती है, जहाँ एक किमी को पार करने में लगभग डेढ़ घंटे लग जाते हैं। आग लगने के कारण मार्ग में पकड़ने के लिए झाड़ियां तक गायब थी। किसी तरह कुल्हाड़ी तथा किल्हणी (छोटी कुदाली) से जमीं खोदकर खड़ी चढाई में स्टेप्स बनाए जाते हैं।
मार्ग का सबसे कठिन ट्रैक

पीठ पर 10, 15 से 25 किलो का बोझा लादे हर व्यक्ति दैवी संरक्षण के भरोसे अपना पूरा साहस बटोरते हुए आगे बढ़ रहा था। खतरे का आलम यह था कि एक भी कदम किसी का स्लिप हो गया, तो समझो गया सीधा नीचे खाई में। दिल को धामे, फूलती सांस, धड़कते दिल के साथ चढ़ाई पार होती है। यहां की खड़ी चढ़ाई के नीचे की खाई के उस पार जरी साइड का ब्लाधि नाला पड़़ता है और इस ओर दोहरा नाला, जो आज का अगला पड़ाव था।

इस खाई को पार करते हुए पथिक की सारी हंसी-मजाक गायव हो चुके थे, सारा ध्यान अगले कदम पर था। जीवन-मृत्यु के बीच झूलते इन पलों में घर परिवार संसार के सकल विचार गायब हो चुके थे। सिर्फ मंजिल सामने थी और दृष्टि अपने अगले कदम पर केंदित। काफिला सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। देखा जाए तो जीवन में भी येही पल सबसे वहुमूल्य होते हैं, जब व्यक्ति का पूरा ध्यान लक्ष्य केंद्रित होता है, जब सारे डिस्ट्रेक्शन्ज विलुप्त हो जाते हैं। येही एकांतिक पल जीवन में लक्ष्य सिद्धि को संभव बनाते हैं।

इस टफ रुट की खड़ी चढ़ाई का आरोहण कर काफिला दोहरानाला टॉप पहुँचता है, शाम के पाँच बज रहे थे। यहाँ जमीं बर्फ के साथ स्वागत होता है।

दोहरा नाला टॉप से बर्फ के बीच नीचे  उतरने की तैयारी में काफिला

इसी बर्फिले रास्ते के संग अगले आधा घंटा काफिला नीचे उतरता है।

बर्फ ले बीच दोहरा नाला की ओर आगे बढ़ता देव-काफिला

चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। इसी बर्फ पर चलते हुए काफिला आगे बढ़ रहा था।

बर्फिली राहों में झाड़ियों के बीच आगे बढ़ते हुए देवकाफिला 

एक तरफ शरगढ़ की झाडियाँ और दूसरी ओर खोरशु के पेड़ों के बीच बर्फ के ऊपर सब नीचे उतर रहरे थे। आधे घंटे वाद शाम 5.30 बजे दोहरा नाला पर आकर काफिला रुकता है, जो चंद्रखणी की ओर के उम्बला रुआड़ तथा दोहरानाला टॉप से आ रहे दो नालों का संगम स्थल है। इसीलिए इसे दोहरा नाला कहा जाता है औऱ यही आगे चलकर नीचे काईस नाला का रुप लेता है।


यहाँ बर्फ के ग्लेशियर के बीच बहते नाले का निर्मल जल अपने शोर करते कलकल निनाद के साथ एक ताजगी भरा अहसास दिला रहा था। लगा जैसे कि आज तक की पिछली तपस्या का फल यहाँ मिल रहा हो। कुछ इसके आपपास तो कुछ इससे ऊपर प्राकृतिक रुआड़ (गुफाओं) में रात के रुकने के तम्बू गाड़ लेते हैं।

यहाँ खाना बनाना सबसे कठिन था, बर्फिली हवा और गीली लकड़ियाँ। काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी आग जलाने व खाना बनाने में यहाँ। औऱ यहाँ सबसे अधिक ठँड भी थी। तापमान माइनस में था। सुबह जब उठे तो जुत्ते तक जम चुके थे। बाहर पूरा पाला पड़ा हुआ था। आज की रात अब तक की सबसे ठंडी रात रही।

रास्ते भर बर्फ ही बर्फ और मार्गानुसंधान

यहाँ आस-पास चट्टानी पहाड़ों में प्राकृतिक रुप से बने कई रुआड़ (गुफाएं) थे जिनमें बारिश-बर्फवारी के बीच गड़रिये व प्रकृतिप्रेमी ट्रैक्कर रुकते हैं। सुबह 6.30 बजे देव काफिला यहाँ से आगे के लिए कूच करता है।

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दोहरा नाला से आगे कहीं चढ़ाई, तो कहीं उतराई भरी राह को पार करते हुए डेढ़ घंटे में काफिला भूचकरी टॉप पहुंचता है। पूरा सफर बर्फ के ऊपर पूरा होता है। रास्ते भर औसतन दो-अढाई फीट बर्फ थी। रास्ते में कुछ रुआड़ (प्राकृतिक गुफा) से भी दर्शन होते हैं। रिज पर कभी ऊपर, तो कभी नीचे आगे बढ़ते हुए एक घंटे के सफर के बाद फुटासोर पहुँचते हैं। जहाँ बर्फ की सफेद चादर ओढ़े बुग्याल की स्लोप्स (ढलानें) देव काफिले का जैसे विशिष्ट स्वागत कर रही थीं। फुटासोर पहुँचते ही अपने घर पहुँचने का अहसास होता है, क्योंकि यहाँ तक अक्सर विशिष्ट अवसरों पर किसी बहाने आना-जाना होता रहता है।

तीर्थयात्रा के सबसे रोमाँचक एवं दिव्य अनुभव, देवकृपा से कम नहीं

फूटासोर का काईस की भगवती दशमी वारदा के साथ विशेष सम्बन्ध माना जाता है। खोरसू के जंगल यहाँ वहुतायत में हैं, रखाल के पेड़ भी यहाँ मिलते हैं। गाँव वासियों के लिए यह एक पावन स्थल है। वास्तव में बिजली महादेव से लेकर चंद्रखणी पर्यन्त सारा मार्ग देव शक्तियों का पावन स्थल माना जाता है और क्षेत्रीय परिजन तथा फुआल (चरावाहे) श्रद्धा भाव के साथ इस रुट पर विचरण करते हैं और देवशक्तियों के आह्वाह्न, सूक्ष्म संरक्षण एवं दैवीय मार्गदर्शन में ही उनके हर कृत्य सम्पन्न होते हैं।

इस रुट पर खोरशु के जंगल को पार करते हुए दुआरू नामक संकरे मार्ग को पार करते हुए काफिला एक घंटे बाद उब्लदा नामक स्थान पर जल स्रोत के पास रुकता है। यहाँ पर भूमिगत जल उबलते हुए जमीं से बाहर निकलता है, इसलिए इसका नाम उब्लदा रखा गया है।

उब्लदा में निर्मल एवं शीतल जल का प्राकृतिक स्रोत

रास्ते में वर्णित दुआरु नामक स्थान पर दोनों ओर की चट्टानों पर भेड़ु के सींग के निशान हैं, जिसकी अपनी कहानी है, जिसकी किसी अन्य प्रसंग में चर्चा की जाएगी। उब्लदा में सुबह का भोजन तैयार होता है।

जंगल में प्रज्जवलित अगिन के संग तैयार हो रहा भोजन

जब पहुँचे तो मौसम साफ था। भोजन करते-करते बर्फवारी शुरु होती है और बर्फवारी के बीच ही काफिला आगे बढ़ता है और अगले एक डेढ़ घंटे का सफर तय करता है।

बर्फवारी के बीच आगे का सफर

गंगनचूंबी देवदार व रई-तोस के वृक्षों के बीच सफर तय होता है, रास्ते के विकट मार्ग को पार कर अपने गृह प्रदेश में पहुँचने का संतोष गाढ़ा हो रहा था, जो सबके चेहरे पर स्पष्ट था। रेउंश से होते हुए देव-काफिला सीधी उतराई के संग नरेइंडी पहुंचता है। रेऊंश की झाडियाँ बहुतायत में होने के कारण स्थान का नाम रेउंश रखा गया है, जहाँ वन विभाग का गेस्ट हाउस है। यहाँ से कुल्लू घाटी व शहर की ओर का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। कुल्लु के ढालपुर मैदान की ओर से भी इस स्थान के दर्शन किए जा सकते हैं।

नीचे मार्ग में मातन छेत अर्थात खेत आते हैं। ऊँचाई पर सेब का अंतिम बगीचा यहाँ पर मौजूद है, जो इस समय फ्लावरिंग स्टेज में था। इस समय नीचे सेऊबाग गाँव में सेब के फल चैरी व पीनट साइज ले चुके थे, लेकिन उँचाई में यहाँ अभी सेब में फूल खिले थे। ऊंचाई के साथ सेब की फ्लावरिंग का पैटर्न यहाँ से गुजरते हुए स्पष्ट हो रहा था। आश्चर्य नहीं कि पहाड़ों के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सेब देर से तैयार होता है, जो सितम्बर-अक्टूबर तक चलता रहता है। जबकि नीचले इलाकों में सेब जुलाई-अगस्त में तैयार हो जाता है। 

यहाँ से पार होते हुए नीचे देवदार के वृक्षों के नीचे देवस्थल नरेंइंडी के निर्जन वन में रात्रि का ठिकाना बनता है।

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर बापसी

नरेंइंडी में प्रातः हवन यज्ञ व कन्या पूजन के साथ भोजन तैयार होता है। फिर दोपहर से शाम तक आस-पास व दूर-दराज से देवता के दर्शन एवं हारियानों के स्वागत के लिए आए श्रद्धालुओं का भोजन-भंडारा होता है। शाम को सब नरेइंडी से नीचे बनोगी गाँव में गिरमल देवता के मंदिर में पहुँचते हैं। देवता को भंडार में स्थापित किया जाता है और फिर देवता से विदाई लेते हुए सभी हारियान अपने-अपने घरों को कूच करते हैं।

गिरमल देवता संग 8 दिन के सफर के बाद सभी बिल्कुल फ्रेश अनुभव कर रहे थे। पैर में किसी तरह की जकड़न (ऊरा) के निशान नहीं थे, न ही किसी तरह की कोई थकान। बस रास्ते की खट्टी-मीठी यादों का रोमाँच उमड़ते-घुमड़ते हुए चिदाकाश को पुलकित कर रहा था, रोमाँचित कर रहा था। विश्वास नहीं हो रहा था कि हम इतना लम्बा व कठिन सफर पैदल पार कर सकुशल आ गए हैं, जिसके बारे में कभी अपने बुजुर्गों से सुनकर मात्र कल्पना भर कर रोमाँचित होते थे। और आज ये सब अपने अनुभव का हिस्सा बन चुका था।

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रास्ते के पेड़-पौधे व वनस्पति -

रास्ते में खोरश (खरशू) के पेड़ बहुतायत में मिलते हैं और रई तोश के भी, जो देवदार से भी ऊंचाई पर उगते हैं। और भुचकरी के पास भोजपत्र के वृक्ष। खोरशु के वृक्षों सहित रई-तोस आदि से मेंहदी झरती है, जिसे लोग इकट्ठा कर व्यापार भी करते हैं, जो ठीक-ठाक दामों में बिकती है। यहाँ की चट्टानों में भी यह मेंहदी उगती है। 

बुराँश के फुल भी कई रंगत में रास्ते भर मिलते गए, लाल से लेकर गुलावी तक। रसोल साइड लाल बुरांश बहुतायत में मिले। जबकि भुचकरि साइड अधिक ऊँचाई में गुलाबी अधिक थे। रखाल जैसा दुर्लभ एवं वेशकीमती पेड़ भी रास्ते में मिला (वोटेनिक्ल नाम केक्टस वटाटा), जिससे केंसर की औषधी तैयार की जाती है। रास्ते में गुच्छी (मौरेन मशरुम) से लेकर लिंगड़ी के दर्शन हुए और जंगली फूल भी वुग्यालों में खिलना शुरु हो चुके थे। जंगल में भेडों व मवेशियों के संग विचरण करने वाले फुआल तथा ग्वाले प्रकृति के उन उपहारों का विषम परिस्थितियों में अपने सरवाइवल के लिए बखुवी इस्तेमाल करते हैं।

एक कतार में मंजिल की ओर बढ़ता देव-काफिला

बारिश और जुत्ते

ऐसे सफर में छाते का उपयोग किसी ने अपवाद रुप में ही किया होगा। प्लास्टिक की चादरें व शीटों से काम चलाया गया। अनुभव रहा कि अधिक बारिश में रेन कोट भी अच्छी क्वालिटी का न हो तो काम नहीं आता, अतः ऐसे में अच्छी प्लास्टिक शीट या पालिथीन पेपर से बना रेन कोट ही उचित रहता है। आग जलाने व भोजन पकाने के लिए 80 से 90 फीसदी चूल्हे लकड़ी के थे, जिसमें बिरोजा लगी प्राकृतिक शौली की विशेष भूमिका रहती थी। 2-4 स्टोव तथा कुछ पेट्रोमेक्स के चुल्हे ही साथ में थे।

लकड़ी की आगे के चुल्हे में भोजन को पकाने की तैयारी

इतने लम्बे सफर को पूरा करने के लिए ट्रेकिंग शूज कुछ ही लोगों के पास थे, अधिकाँश 250 से 400 रुपए की रेंज के रबड के जुत्तों को पहन कर पूरा सफर तय किए। कुछ तो इन जुत्तों में भी गर्मी अनुभव कर रहे थे व चप्पल से भी काम चलाते रहे। आयु की बात करें, तो देव काफिले में 16-17 वर्ष के किशोर से लेकर 72 वर्ष के बुजुर्ग (पीणी के पुजारी) तक साथ में थे, जो पूरी यात्रा को सकुशल सम्पन्न किए।

इस यात्रा में कुछ एक तरफा मणिकर्ण तक पैदल यात्रा किए, फिर बस से बापिस आए। कुछ मणिकर्ण तक बस में गए और फिर वहाँ से पहाड़ लांघते हुए यहाँ तक आए पैदल आए। कुल मिलाकर कुछ अपवादों को छोड़कर हर परिवार से एक सदस्य इस देव स्नान यत्रा में शामिल रहा।

कितने पुरखों-पीढियों का साक्षी रहा होगा यह विराट वृक्ष

कुल मिलाकर 25 वर्षों के अन्तराल में गिरमल देवता के संग सम्पन्न यह यात्रा एक ऐतिहिसिक यात्रा रही। हल्की बारिश से लेकर बर्फ का अभिसिंचन जहाँ पग-पग पर देवसानिध्य एवं ईश्वरकृपा का अनुभव देते रहे। वहीं भारी बारिश से लेकर राह के विकट मंजर जैसे देव काफिले की आस्था की परीक्षा के साथ देवसंरक्षण के भाव को पुष्ट करते रहे। भय मिश्रित श्रद्धा एवं रोमाँच के बीच न जाने कितने जन्मों के कर्म-प्रारब्ध राह में झरे होंगे। हर सफल परीक्षा के बाद सुंदर दृश्य से लेकर उचित विश्राम एवं सुखद अहसास के पुरस्कार भी तीर्थयात्रियों की झोलियों में रह-रहकर झरते रहे।

इस तरह यात्रा में भागीदार हर व्यक्ति सौभाग्यशाली थे, जो इस रोमाँचक यात्रा से जुड़े दिव्य अनुभवों को बटोरते गए और आगे अपने घर-परिवार में बच्चों, महिलाओं व न जा पाए अन्य परिजनों को कथा-किवदंतियों के रुप में सुनाते रहेंगे। हम भी कभी इस यात्रा को सम्पन्न किए नानू-मामू साहब से सुनकर रोमाँचित होते थे और आज स्वयं इसका हिस्सा बनकर, अपनी भाव यात्रा के अनुभवों को लोकहित में शेयर कर रहे हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे आधुनिक माध्यमों ने इसे सबके लिए सुलभ कर लिया है, जो विज्ञान व टेक्नोलॉजी का एक अनुपम वरदान है, इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।(समाप्त)

तीर्थ यात्रा का सबसे रोमाँचक एवं यादगार पड़ाव - देवकृपा से स्मृति के दुर्लभ पल कैमरे में केप्चर हो सके हैं

चुनींदी पोस्ट

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