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सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

मनाली से सोलाँग वैली एवं दर्शनीय स्थल

 मनाली के आस-पास दर्शनीय स्थल

मनाली से सोलांग वैली की ओर...

मनाली एक हिल स्टेशन के कारण चर्चित होने की बजह से सीजन में बाकि हिल स्टेशन की तरह यहाँ भी भीड़ रहती है। यहाँ की हवा में हिमालयन टच तो साल के अधिकाँश समय रहता है, लेकिन शाँति-सुकून के पल तो मनाली शहर से बाहर निकल कर ही मय्यसर होते हैं। इसके आसपास के ऐसे स्थलों की चर्चा यहाँ की जा रही है, जो पर्यटन, एडवेंचर, प्रकृति का सान्निध्य एवं तीर्थाटन हर तरह की आवश्यकता को पूरा करते हैं।

बस स्टैंड के सामने और थोड़ा उपर तिराहे पर दोनों स्थानों पर वन विहार मिलेगा, जो वन विभाग द्वारा संरक्षित है। शायद मानाली शहर का जो थोड़ा बहुत प्राकृतिक सौदर्य बचा है, वह इन्हीं दो वन विहारों के कारण है। 

मनाली, व्यास नदी एवं वनविहार की पृष्ठभूमि में

नीचे बाले वन बिहार में कुछ शुल्क के साथ प्रवेश होता है, इसमें देवदार के घने जंगल के बीच वॉल्क किया जा सकता है। अंदर मैपल और जंगली चेस्टनेट के पेड़ भी मिलेंगे, जो सीजन में फलों से लदे रहते हैं। इसकी गिरि बहुत स्वादिष्ट होती है, हालाँकि कांटो भरे इसके क्बच को तोड़ना पड़ता है। इसी बन विहार में नीचे ढलान से उतर कर ब्यास नदी के तट पर कृत्रिम झील बनी है, जिसमें परिवार के साथ बोटिंग का आनन्द लिया जा सकता है। नीचे ब्यास नदी के तट पर भी जाया जा सकता है, लेकिन कुछ साबधानी के साथ। हर साल यहाँ लापरवाह पर्यटकों के फिसलने व नदी के तेज बहाव में डूबने की दुर्घटनाएं होती रहती हैं।

ऊपर बाले वनविहार में कोई फीस नहीं लगती, लेकिन इसके अंदर भी देवदार के घने जंगल के बीच कुछ पल एकांत शांत आवोहवा में वॉल्क किया जा सकता है। इसके उपर के गेट से बाहर निकल कर सीधा ऊपर हिडम्बा माता के मंदिर की ओर पैदल जाया जा सकता है।

गगनचूम्बी देवतरु की गोद में माँ हिडिम्बा मंदिर

हालाँकि आटो आदि से भी बस स्टैंड से सीधे हडिम्बा माता के द्वार तक पहुँचा जा सकता है, जो महज 3-4 किमी दूरी पर है। समय हो तो पैदल भी रास्ता तय किया जा सकता है। बीच में सीड़ियों से होकर थोड़ी चढ़ाईदार रास्ते से जंगल के बीच से जाना पड़ता है। हिडम्बा माता का मंदिर मानाली का एक पौराणिक आकर्षण है, जो महाभारत काल की याद दिलाता है। यह पैगोड़ा शैली में बना मंदिर है। इसी के साथ बाहर कौने में हिडिम्बा-भीम के पुत्र घटोत्कच का मंदिर है। इसके सामने पूरी मार्केट हैं, जहाँ जल पान किया जा सकता है। बाहर चाय की चुस्की के साथ यहाँ से सामने बर्फ से ढके पहाड़ों का अवलोकन किया जा सकता है। बगल में म्यूजियम है, जिसमें हिमाचल की संस्कृति के दिग्दर्शन किए जा सकते हैं।

मनालसू नाला

हिडिम्बा से नीचे उतर कर मनालसू नाले के उस पार थोड़ा चढ़ाई पार करते ही मनु महाराज का मंदिर है, जिसका अपना ऐतिहासिक महत्व है। पूरे विश्व में यह एक मात्र मंदिर है, जिसका सृष्टि की उत्पति के बाद मानवीय सभ्यता-संस्कृति के विकास की गाथा के साथ जोड़कर देखा जाता है। इसका मूल स्थान टीले के ऊपर है, जिसमें जल की एक बाबड़ी है। यहाँ से चारों ओर पहाड़ों और सामने घाटियों का विहंगावलोकन किया जा सकता है।

पौराणिक मनु मंदिर, विश्व में अद्वितीय

मनाली में ही बस स्टैंड के पास अन्दर एक गोम्पा और शिव मंदिर भी हैं, जिनके दर्शन किए जा सकते हैं। इसके बाद यहाँ से 3-4 किमी की दूरी पर ब्यास नदी के उस पार वशिष्ट मंदिर आता है, जो गर्म पानी के कुण्डों के लिए प्रख्यात है। यहाँ भगवान राम का मंदिर भी है। यहाँ के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है। इनमें डुबकी एक रिफ्रेशिंग अनुभव रहता है। 

ऋषि विशिष्ट मंदिर एवं तप्त कुण्ड

यहीं से जोगनी फाल का रास्ता जाता है, जो क्षेत्र का एक प्राकृतिक आकर्षण है। यह वशिष्ट मंदिर से लगभग 2 किमी की दूरी पर है। चट्टानों के बीच से निकलते और 160 फीट की ऊँचाई से गिरते इस वॉटर फाल को एक पावन स्थल माना जाता है।

यहाँ से नीचे मुख्य मार्ग में आकर आगे बांहग बिहाली पड़ती है, जहाँ बोर्डर रोड़ ऑर्गेनाइजेशन (ग्रेफ) का मुख्यालय है, जो सर्दियों में मनाली लेह रोड़ की देखभाल करते हैं और बर्फ काटकर रास्ता बनाते हैं। इसी के पास है नेहरु कुण्ड, जहाँ माना जाता है कि भृगु लेक का पानी भूमिगत होकर आता है। मान्यता है कि नेहरुजी जब भी मानाली आते थे, तो यहीँ का जल पीते थे।


मनाली सोलांग वैली के बीच कहीं रहा में...

इसके आगे 2-3 किमी के बाद पलचान गाँव आता है, इससे वाएं मुडकर सोलाँग घाटी में प्रवेश होता है, जहाँ की स्कीईंग स्लोप में लोग बर्फ पड़ने पर स्कीईंग का आनन्द लेते हैं। इस सीजन में यहाँ खासी चहल-पहल रहती है। यही पूरा रास्ता अनगिन फिल्मों की शूटिंग का साक्षी रहा है। बाकि यहाँ पैरा ग्लाइडिंग तो हर सीजन में चलती रहती है। 

सोलांग वैली का विहंगम दृश्य

यहाँ पर्वतारोहण संस्थान का भवन भी है। इसके आगे व्यास कुण्ड पड़ता है, जिसे ट्रेकिंग प्रेमी ही दर्शन कर पाते हैं, क्योंकि आगे धुँधी से कुछ किमी पैदल चढाई को पार कर वहाँ पहुँचना होता है। एक मान्यता के हिसाब से इसे ब्यास नदी का उदगम माना जाता है, दूसरा रोहताँग पास के ब्यास कुँड को इसका स्रोत मानते हैं। जो भी हो ब्यास नदी का असली स्वरुप तो पलचान में दोनों धाराओं के मिलने के बाद ही शुरु होता है। अब तो मनाली को सीधे लाहौल से जोड़ने वाली अटल टनल बनने के साथ इस खुबसूरत रास्ते का महत्व ओर बढ़ गया है।

अंजली महादेव की ओर से सोलांग वैली

सोलाँग के ही पीछे लगभग दो किमी दूरी पर अंजनी महादेव भी एक दर्शनीय स्थल है। यहाँ पहाड़ों की ऊँचाईयों से पानी झरता रहता है, जो ठण्ड में नीचे एक छोटे से शिवलिंग पर गिरता है और अनवरत अभिषेक चलता रहता है। सर्दियों में यहाँ गिरता पानी जम जाता है, जिस कारण यहाँ वृहदाकार प्राकृतिक शिललिंग बन जाता है। सोलाँग घाटी के ऊपरी छोर पर पहाड़ के नीचे यह स्थान एक हल्का ट्रैकिंग अनुभव भी रहता है। यहाँ एक कुटिया में बाबाजी रहते हैं, जहाँ गर्मागर्म चाय की व्यवस्था रहती है। मौसम की ठण्ड व ट्रैकिंग की थकान के बाद विश्राम एवं सत्संग के कुछ बेहतरीन पल यहाँ बिताए जा सकते हैं।

यह संक्षेप में मनाली के आसपास के दर्शनीय स्थलों का जिक्र हुआ। इसके अतिरिक्त रफ टफ लोग व जिनके पास समय है, वे इसमें कुछ ओर स्थलों को जोड़ सकते हैं। भृगु लेक, हामटा जोट, पाण्डु रोपा, नग्गर में कैसल और रोरिक गैलरी, अलेउ स्थित पर्वतारोहण संस्थान आदि। रोहताँग पास यहाँ का एक विशिष्ट आकर्षण रहता है, जहाँ गर्मियों में भी बर्फ के दीदार किए जा सकते हैं। पलचान, कोठी से होकर आगे गुलाबा जंगल और फिर मढ़ी इसके बीच के पड़ाव पड़ते हैं। रास्ता दिलकश पहाड़ियों, गहरी घाटियों, आसमान छूते पहाड़ों, हरे-भरे वृक्षों एवं झरनों से गुलजार है।

रोहतांग पास की ओर, गुलाबा फोरेस्ट

इसके 1-2 दिन में इन स्थलों का अवलोकन किया जा सकता है। बाकि समय हो तो मानाली मार्केट को एक्सप्लोअर करना तो एक बार बनता ही है, जहाँ पर आपको अवश्य ही घर के लिए कुछ यादगार गिफ्ट मिल जाएंगे। हालाँकि दाम थोडे अधिक हो सकते हैं, लेकिन निशानी के बतौर कुछ तो आप देख सकते हैं। बस स्टैंड के साथ ही छोटी सी मार्केट है, जिसमें यहाँ के ऊनी कपड़ों के लोक्ल प्रोडक्ट मिलते हैं। 

मनाली माल रोड़

माल रोड़ पर कई दुकानें हैं, जहाँ खाने-पीने के कई ठिकाने हैं। यहाँ की सब्जी मण्डी में लोक्ल फल-फूल बाजिव दाम में खरीद सकते हैं। अंदर प्रवेश करेंगे तो तिब्बतन एम्पोरियन में कुछ बेहतरीन समान देख सकते हैं। अंडरग्राउँड मार्केट में भी बाहर के समान बिकते हैं। थोड़ी बार्गेनिंग अवश्य करनी पड़ती है।

जिनके पास अधिक समय हो तथा जो ट्रेकिंग तथा पर्वतारोहण का शौक रखते हों, उनके लिए मानाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान पास में ही है, जहाँ रुकने से लेकर प्रशिक्षण की उम्दा व्यवस्था है, जिनकी विस्तृत जानकारी आप पर्वतारोहण पर नीचे दिए गए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं।

पर्वतारोहण, एडवेंचर कोर्स, भाग-1

पर्वतारोहण, बेसिक कोर्स, भाग-1

जिन्हें मानाली के आगे रोहतांग दर्रे (अब अटल टनल) के पार लाहौल घाटी के भी दर्शन करने हों, वे पढ़ सकते हैं, आगे के लिंक में यात्रा वृतांत - लाहौल के ह्दयक्षेत्र केलांग की ओर।

हिमक्रीम का स्वाद चख्ते हुए

 

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार- भाग 1



 बचपन की मासूम यादें और बदलते सारोकार

जिंदगी का प्रवाह कालचक्र के साथ बहता रहता है, घटनाएं घटती रहती हैं, जिनका तात्कालिक कोई खास महत्व प्रतीत नहीं होता। लेकिन समय के साथ इनका महत्व बढ़ता जाता है। काल के गर्भ में समायी इन घटनाओं का अर्थ व महत्व बाद में पता चलता है, जब सहज ही घटी इन घटनाओं से जुड़ी स्मृतियां गहरे अवचेतन से उभर कर प्रकट होती हैं और वर्तमान को नए मायने, नए रंग दे जाती हैं। अक्टूबर 2015 के पहले सप्ताह में हुआ अपनी बचपन की क्रीडा-भूमि का सफर कई मायनों में इसी सत्य का साक्षी रहा।

याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव में पीने के लिए नल की कोई व्यवस्था नहीं थे। गांव का नाला ही जल का एक मात्र स्रोत था। घर से आधा किमी दूर नाले तक जाकर स्कूल जाने से पहले सुबह दो बाल्टी या केन दोनों हाथों में लिए पानी भरना नित्य क्रम था। इसी नाले में दिन को घर में पल रहे गाय-बैलों को पानी पीने के लिए ले जाया करते थे। नाला ही हमारा धोबीघाट था। नाले की धारा पर मिट्टी-पत्थरों की दीवाल से बनी झील ही हमारा स्विमिंग पुल। गांव का वार्षिक मेला इसी के किनारे मैदान में मनाया जाता था। इसी को पार करते हुए हम कितनी बार दूसरे गांव में बसी नानी-मौसी के घर आया जाया करते थे। बचपन का स्मृति कोष जैसे इसके इर्द-गिर्द छिपा था, जो आज एक साथ जागकर हमें बालपने के बीते दिनों में ले गया था।

इसके पानी की शुद्धता को लेकर कोई गिला शिक्वा नहीं था। कितनी पुश्तें इसका जल पीकर पली बढ़ी होंगी। सब स्वस्थ नीरोग, हष्ट-पुष्ट थे। (यह अलग बात है कि समय के साथ सरकार द्वारा गांव में जगह-जगह नल की व्यवस्था की गई। आज तो गांव क्या, घर-घर में नल हैं, जिनमें नाले का नहीं, पहाड़ों से जलस्रोतों का शुद्ध जल स्पलाई किया जाता है)

इसी नाले का उद्गम कहां से व कैसे होता है, यह प्रश्न बालमन के लिए पहेली से कम नहीं था। क्योंकि नाला गांव में एक दुर्गम खाई भरी चढ़ाई से अचानक एक झरने के रुप में प्रकट होता था। झरना कहाँ से शुरु होता है व कैसे रास्ते में रुपाकार लेता है, यह शिशुमन के लिए एक राज था। बचपन इसी झरने की गोद में खेलते कूदते बीता। कभी इसके मुहाने पर बसे घराट में आटा पीसने के वहाने, तो कभी इसकी गोद में लगे अखरोट व खुमानी के पेड़ों से कचे-पक्के फल खाने के बहाने। और हाँ, कभी जायरु (भूमिगत जल स्रोत) के शुद्धजल के बहाने। झरने से 100-150 मीटर के दायरे में चट्टानों की गोद से जल के ये जायरू हमारे लिए प्रकृति प्रदत उपहार से कम नहीं थे। गर्मी में ठंडा जल तो सर्दी में कोसा गर्म जल। उस समय यहाँ ऐसे तीन चार जायरु थे। लेकिन अब एक ही शेष बचा है। सुना है कि बरसात में बाकी भी जीवंत हो जाते हैं।

झरना जहाँ गिरता था वहाँ झील बन जाती थी, जिसमें हम तैरते थे। लगभग 300 फीट ऊँचे झरने से गिरती पानी की फुआरों के बीच सतरंगी इंद्रधनुष अपने आप में एक दिलकश नजारा रहता था। झरने की दुधिया धाराएं व फुआरें यहां के सौंदर्य़ को चार चांद लगाते थे। गांव वासियों के लिए झरना एक पवित्र स्थल था, जिसके उद्गम पर झरने के शिखर पर वे योगनियों का निवासस्थान मानते थे व इनको पूजते थे, जो चलन आज भी पूरानी पीढ़ी के साथ जारी है।

आज हम इसी झरने तक आए थे। घर-गाँव से निकलने के दो दशक बाद इसके दर्शन-अवलोक का संयोग बना था। अखरोट के पेड़  में सुखते हरे कव्च से झांक रहे पक्के अखरोट जैसे हमें अपना परिचय देते हुए बचपन की यादें ताजा करा रहे थे। झरने में पानी की मात्रा काफी कम थी। लेकिन ऊपर से गिरती जलराशी अपनी सुमधुर आवाज के साथ एक जीवंत झरने का पूरा अहसास दिला रही थी। पता चला की पर्यटकों के बीच आज यह झरना खासा लोकप्रिय है। हो भी क्यों न, आखिर यह गहन एकांत-शांत गुफा नुमा घाटी में बसा प्रकृति का अद्भुत नाजारा आज भी अपने आगोश में दुनियां के कोलाहल से दूर दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति देता है। ऊपर क्या है, पीछे क्या है, सब दुर्गम रहस्य की ओढ़ में छिपा हुआ, बालमन के लिए बैसे ही कुछ था, जैसे बाहुबली में झरने के पीछे के लोक की रहस्यमयी उपस्थिति।
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झरने का घटता हुआ जल स्तर हमें चिंता का विषय लगा। इसका सीधा सम्बन्ध एक तरफे विकास की मार झेलते प्रकृति-पर्यावरण से है। पिछले दो दशकों में क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास हुआ है, जिसका इस नाले से सीधा सम्बन्ध रहा। याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव के युवा अधिकाँश वेरोजगार घूमते थे। शाम को स्कूल के मैदान में सबका जमाबड़ा रहता था। बालीवाल खेलते थे, मस्ती करते थे। इसके बाद गावं की दुकानों व सड़कों पर मटरगश्ती से लेकिर शराब-नशे का सेवन होता था। कई बार मारपीट की घटनाएं भी होती थीं। गांव के युवा खेल में अब्बल रहते थे, लेकिन युवा ऊर्जा का सृजनात्मन नियोजन न होना, चिंता का विषय था। इनकी खेती-बाड़ी व श्रम में रुचि न के बरावर थी।

लेकिन इन दो दशकों में नजारा बदल चुका है। बीच में यहाँ सब्जी उत्पादन का दौर चला। तीन माह में इस कैश क्रांपिक से झोली भरने लगी। गोभी, मटर, टमाटर, गाजर-शलजम जैसी सब्जियों उगाई जाने लगी। इसके अलावा ब्रोक्ली, स्पाइनेच, सेलेड जैसी विदेशी सब्जियां भी आजमायी गईं।

सब्जियों की फसल बहुत मेहनत की मांग करती हैं। दिन रात इनकी देखभाल करनी पड़ती है। निंडाई-गुडाई से लेकर समय पर सप्रे व पानी की व्यवस्था। जल का एक मात्र स्रोत यह नाला था। सो झरने के ऊपर से नाले के मूल स्रोत से सीधे पाइपें बिछनी शुरु हो गईं। इस समय दो दर्जन से अधिक पाइपों के जाल इसमें बिछ चुके हैं और इसका जल गांव में खेतों की सिचांई के काम आ रहा है। स्वाभिवक रुप से झरने का जल प्रभावित हुआ है।

दूसरा सेब की फसल का चलन इस दौरान क्षेत्र में बढ़ा है। पहले जिन खेतों में गैंहूं, चावल उगाए जाते थे, आज वहाँ सेब के पेड़ देखे जा सकते हैं। कुल्लू मानाली घाटी की अप्पर वेली को तो हम बचपन से ही सेब बेल्ट में रुपांतरित होते देख चुके थे। लेकिन हमारा क्षेत्र इससे अछूता था। बचपन में हमारे गाँव में सेब के गिनती के पड़े थे। जंगली खुमानी भर की बहुतायत थी, जो खेत की मेंड़ पर उगी होती थी। धीरे-धीरे नाशपाती व प्लम के पेड़ जुड़ते गए। लेकिन आज पूरा क्षेत्र सेब के बागानों से भर चुका है, जिसके साथ यहाँ आर्थिक समृद्धि की नयी तिजारत लिखी जा रही है। इसमें जल का नियोजन अहम है, जिसमें नाले का जल केंद्रीय भूमिका में है। 

पाईपों से फल व सब्जी के खेतों में पानी के नियोजन से बचपन का झरना दम तोड़ता दिख रहा है। जो नाला व्यास नदी तक निर्बाध बहता था, वह भी बीच रास्ते में ही दम तोड़ता नजर आ रहा है। इस पर बढ़ती जनसंख्या, मौसम में परिवर्तन व विकास की एकतरफा दौड़ की मार स्पष्ट है। ऐसे में जल के बैकल्पिक स्रोत पर विचार अहम हो जाता है। उपलब्ध जल का सही व संतुलित नियोजन महत्वपूर्ण है। सूखते जल स्रोतों को कैसे पुनः रिचार्ज किया जाए, काम बाकि है। क्षेत्र के समझदार एवं जिम्मेदार लोगों को मिलकर इस दिशा में कदम उठाने होंगे, अन्यथा विकास की एकतरफा दौड़ आगे अंधेरी सुरंग की ओर बढ़ती दिख रही है। ..(जारी..शेष अगली ब्लॉग पोस्ट में..)

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