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गुरुवार, 28 जनवरी 2021

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला

Indian Institute of Advanced Study (IIAS Shimla)

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला

शिमला की पहाडियों की चोटी पर बसा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला का एक विशेष आकर्षण है, जो शोध-अध्ययन प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं। उच्चस्तरीय शोध केंद्र के रुप में इसकी स्थापना 1964 में तत्काकलीन राष्ट्रपति डॉ.एस राधाकृष्णन ने की थी। इससे पूर्व यह राष्ट्रपति भवन के नाम से जाना जाता था और वर्ष में एक या दो बार पधारने वाले राष्ट्र के महामहिम राष्ट्रपति का विश्रामगृह रहता था, साल के बाकि महीने यह मंत्रियों और बड़े अधिकारियों की आरामगाह रहता। डॉ. राधाकृष्णन का इसे शोध-अध्ययन केंद्र में तबदील करने का निर्णय उनकी दूरदर्शिता एवं महान शिक्षक होने का सूचक था।

 

आजादी से पहले यह संस्थान देश पर राज करने वाली अंग्रेजी हुकूमत की समर केपिटलका मुख्यालय था। सर्दी में कलकत्ता या दिल्लीतो गर्मिंयों में अंग्रेज यहाँ से राज करते थे और इसे वायसराय लॉज के नाम से जाना जाता था। अतः यह मूलतः अंग्रेजी वायसरायों की निवासभूमि के रुप में 1888 में तैयार होता है, जिसमें स्कॉटिश वास्तुशिल्प शैली को देखा जा सकता है। इसे शिमला की सात पहाड़ियों में से एक ऑबजरवेटरी हिल पर बसाया गया है।


मालूम हो कि शिमला में ऐसी सात प्रमुख पहाड़ियाँ हैं, जिन पर यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थल बसे हैं। पश्चिमी शिमला का प्रोस्पेक्ट हिल, जिस पर कामना देवी मंदिर स्थित है। सम्मर हिल, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का कैंपस पड़ता है। ऑबजर्वेटरी हिल, जहाँ इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी स्थित है। इन्वेरार्रम हिल, जहाँ स्टेट म्यूजियम स्थित है। मध्य शिमला काबेंटोनी हिल जहाँ ग्राँड होटलपड़ता है। मध्य शिमला की जाखू हिल, जहाँ हनुमानजी का मंदिर स्थित है। यह शिमला की सबसे ऊँची पहाड़ी है, जहाँ हनुमानजी की 108 फीट ऊँची प्रतिमा लगी है, जिसके दर्शन शिमला के किसी भी कौने से किए जा सकते हैं, यहाँ तक कि रास्ते में सोलन से ही इसके दर्शन शुरु हो जाते हैं। और उत्तर-पश्चिम दिशा का इलायजियम हिल, जहाँ ऑकलैंड हाउस और लौंगवुड़ स्थित हैं।

शिमला की भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक विशेषता, फ्लोरा-फोनासब मिलाकर इसको विशिष्ट हिल स्टेशन का दर्जा देते हैं। एडवांस्ड स्टडी के संरक्षित परिसर में इनके विशेष दिग्दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ देवदार के घने जंगल हैं। इनके बीच में बुराँश के सघन पेड़ लगे हैं, जो अप्रैल-मईके माह में सुर्ख लाल फूलों के साथ यहाँ के वातावरण की खुबसूरती में एक नया रंग घोलते हैं। इसके साथ जंगली चेस्टनेट के पेड़ बहुतायत में मिलेंगे, जिनके फूलों के गुच्छेसीजन में यात्रियों का स्वागत करते हैं। इनके बीच बाँज के वन तो यहाँ आम हैं। इन वृक्षों पर उछल-कूद करते बंदर लंगूरों के झुण्ड भी इस परिसर की विशेषता है। बंदर हालाँकि थोड़े खुराफाती जीव हैं, खाने पीने की चीजें देख छीना झपटी करना अपना अधिकार मानते हैं, जबकि लंगूर बहुत शर्मीला और शांत जीव है। जो झुँड में रहता है और किसी को अधिक परेशान नहीं करता। लम्बी पूँछ लिए इस जीव को एक पेड़ से दूसरे पेड़ में लम्बी छलाँग लगाते यहाँ देखा जा सकता है।

संस्थान प्रायः सर्दियों में दिसम्बर से फरवरी तक शोधार्थियों के लिए बन्द रहता है। बाकि समय इसके यहाँ कई तरह के शोध अध्ययन से जुड़े कार्यक्रम चलते रहते हैं। जिनमें एक माह का एशोसिएटशिप कार्यक्रम पीएचडी स्कोलर्ज के बीच लोकप्रिय है। इसके बाद एक से दो वर्ष का फैलोशिप प्रोग्राम, जिसमें यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्ज एवं अपने क्षेत्र के विद्वान लोग आते हैं। इसके साथ बौद्धिक गोष्ठियां, सेमीनार आदि यहाँ चलते रहते हैं, जिसमें अपनेक्षेत्र के चुडान्त विद्वान एवं विषय विशेषज्ञ यहाँ पधारते हैं, बौद्धिक विमर्श होते हैं और विचार मंथन के साथ समाज राष्ट्र को दिशा देने वाली नीतियाँ तय होती हैं।

यहाँ का पुस्तकालय संस्थान की शान है, जो प्रातः नौ बजे से रात्रि सात बजे तक शोधार्थियों केलिए खुला रहता है। इसमें लगभग दो लाख पुस्तकें हैं औरइसके साथ समृद्ध ई-लाइब्रेरी, जिसमें विश्वभर की पुस्तकों एवं शोधपत्रों को एक्सेस किया जा सकता है। जब पढ़ते-पढ़ते थक जाएं तो तरोताजा होने के लिए पास ही एक कैंटीन और एककैफिटेरिया की भी व्यवस्था है। प्रकृति की गोद में बसा परिसर स्वयं में ही एक प्रशांतक ऊर्जा लिए रहता है, जिसमें टहलने मात्र से व्यक्ति तरोताजा अनुभव करता है। संस्थान की अपनी शोध पत्रिका सम्मर हिल रिव्यू है। यहाँ का अपना प्रकाशन भी है, जिसके प्रकाशनों का किसी भी बड़े पुस्तक मेले में अवलोकन किया जा सकता है।


चिनार एवं बांज के ऐतिहािसिक वृक्षों से सजा संस्थान का परिसर

परिसर में लाइब्रेरी के पीछे विशाल बाँज का पेड़ लगा है, जहाँ कभी कामना देवी का मंदिर था, जिसे अब पास की पहाड़ी में विस्थापित किया गया है। इसी के साथ दो भव्यमैपल पेड़ हैं, जो शिमला में रिज पर एक कौने में भी स्थित हैं। मौसम साफ होने पर इसके पास ही एक स्थान से दूर हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों का अवलोकन किया जा सकता है, जहाँ इनकी ऊँचाई व नाम भी अंकित है। इसी के नीचे बहुत बड़ा बगीचा और पार्क है।उसके पार खेलने का बंदोवस्त है, जहाँ एक इंडोर स्टेडियम है। उसके आगेअंडरग्राउण्ड जेल है, जहाँ गाँधीजी को कुछ दिन नजरबंद किया गया था।

इसके साथ यहाँ का अपना समृद्धबोटेनिक्ल गार्डन है, जिसमें तैयार किए जा रहे फूलों के गमलों से पूरा परिसर शोभायमान और सुवासित रहता है। संस्थान में जल संरक्षण की बेहतरीन व्यवस्था है। मुख्य भवन की छत से गिरता बारिश का पानी सीधे छनकर लॉन के नीचे बने स्टोरेज टैंक में जाता है और इसका उपयोग फूलों, पौधों व लॉन की सिंचाई में किया जाता है।


रहने के लिए यहाँ परिसर में भव्य भवन हैं, जिनमें वेहतरीन कमरों की व्यवस्था है। भोजन के लिए पहाड़ी पर मेस है, जिसमें उम्दा नाश्ता, लंच और डिन्नर परोसा जाता है। यहीं आगंतुकों के लिए अतिथि गृह भी है। फिल्म देखने के लिए छोटा सा ऑडिटोरियम भी है। जरुरत का सामान खरीदने के लिए परिसर के नीचे बालुगंज में तमाम दुकानें हैं। यहाँ का कृष्णा स्वीट्सदूध-जलेबी के लिए प्रख्यात है। थोड़ी ही दूरी पर शिमला यूनिवर्सिटी है, जहाँ बस व पैदल मार्ग दोनों तरीकों से जाया जा सकता है। दोनों मार्ग घने देवदार, बुराँश व बाँज के जंगल से होकर गुजरते हैं।

यहाँ पर रुकने व अध्ययन के इच्छुक शोधार्थियों के लिए ऑनलाइन प्रवेश की सुविधा है। एक माह से लेकर दो साल तक इस सुंदर परिसर में गहन अध्ययन, चिंतन-मनन एवं सृजन के यादगार पल बिताए जा सकते हैं। हमें सौभाग्य मिला 2010,11 और 2013 में तीन वार एक-एक माह यहाँ रुकने का और अपने एसोशिएटशिप कार्य़क्रम पूरा करने का, जिसमें हमने अपने पीएचडी के विषय को गंभीरता एवं व्यापकता में एक्सप्लोअर किया। भारत भर से आए विद्वानों से चर्चा होती रही, फैलोज के साप्ताहिक सेमीनार में खुलकर भाग लिया और कई सारी नई चीजें सीखने को मिलीं। उस बक्त यहाँ के निर्देशक थे, प्रो. पीटर रोनाल्ड डसूजा, जिनके सज्जन एवं भव्य व्यक्तित्व, प्रखर विद्वता, बौद्धिक ईमानदारी, शोधधर्मिता एवं भावपूर्ण संवाद से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला, जिसे समरण करने पर मन आज भी पुलकित हो उठता है।

तारा देवी मंदिर एवं ट्रेकिंग मार्ग की जानकारी के लिए पढ़ें,  शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच

तत्कालीन संस्थान के निर्देशक प्रो. पीटर रोनाल्ड डसूजा के साथ

शनिवार, 24 अक्टूबर 2015

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला (IIAS Shimla)

प्रकृति की मनोरम गोद में इतिहास को समेटे एक शोध केंद्र

शिमला की पहाडियों की चोटी पर बसा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला का एक विशेष आकर्षण है, जो शोध-अध्ययन प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं। उच्चस्तरीय शोध केंद्र के रुप में इसकी स्थापना 1964 में तत्काकलीन राष्ट्रपति डॉ.एस राधाकृष्णन ने की थी। इससे पूर्व यह राष्ट्रपति भवन के नाम से जाना जाता था और वर्ष में एक या दो बार पधारने वाले राष्ट्र के महामहिम राष्ट्रपति का विश्रामगृह रहता था, साल के बाकि महीने यह मंत्रियों और बड़े अधिकारियों की आरामगाह रहता। डॉ. राधाकृष्णन का इसे शोध-अध्ययन केंद्र में तबदील करने का निर्णय उनकी दूरदर्शिता एवं महान शिक्षक होने का सूचक था।

आजादी से पहले यह संस्थान देश पर राज करने वाली अंग्रेजी हुकूमत की समर केपिटल का मुख्यालय था। सर्दी में कलकत्ता या दिल्ली तो गर्मिंयों में अंग्रेज यहाँ से राज करते थे और इसे वायसराय लॉज के नाम से जाना जाता था। अतः यह मूलतः अंग्रेजी वायसरायों की निवासभूमि के रुप में 1888 में तैयार होता है, जिसमें स्कॉटिश वास्तुशिल्प शैली को देखा जा सकता है। इसे शिमला की सात पहाड़ियों में से एक ऑबजरवेटरी हिल पर बसाया गया है।

मालूम हो कि शिमला में ऐसी सात प्रमुख पहाड़ियाँ हैं, जिन पर यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थल बसे हैं। पश्चिमी शिमला का प्रोस्पेक्ट हिल, जिस पर कामना देवी मंदिर स्थित है। सम्मर हिल, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का कैंपस पड़ता है। ऑबजर्वेटरी हिल, जहाँ इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी स्थित है। इन्वेरार्रम हिल, जहाँ स्टेट म्यूजियम स्थित है। मध्य शिमला का बेंटोनी हिल जहाँ ग्राँड होटल पड़ता है। मध्य शिमला की जाखू हिल, जहाँ हनुमानजी का मंदिर स्थित है। यह शिमला की सबसे ऊँची पहाड़ी है, जहाँ हनुमानजी की 108 फीट ऊँची प्रतिमा लगी है, जिसके दर्शन शिमला के किसी भी कौने से किए जा सकते हैं, यहाँ तक कि रास्ते में सोलन से ही इसके दर्शन शुरु हो जाते हैं। और उत्तर-पश्चिम दिशा का इलायजियम हिल, जहाँ ऑकलैंड हाउस और लौंगवुड़ स्थित हैं।

शिमला की भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक विशेषता, फ्लोरा-फोना सब मिलाकर इसको विशिष्ट हिल स्टेशन का दर्जा देते हैं। एडवांस्ड स्टडी के संरक्षित परिसर में इनके विशेष दिग्दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ देवदार के घने जंगल हैं। इनके बीच में बुराँश के सघन पेड़ लगे हैं, जो अप्रैल-मई के माह में सुर्ख लाल फूलों के साथ यहाँ के वातावरण की खुबसूरती में एक नया रंग घोलते हैं। इसके साथ जंगली चेस्टनेट के पेड़ बहुतायत में मिलेंगे, जिनके फूलों के गुच्छे सीजन में यात्रियों का स्वागत करते हैं। इनके बीच बाँज के वन तो यहाँ आम हैं। इन वृक्षों पर उछल-कूद करते बंदर लंगूरों के झुण्ड भी इस परिसर की विशेषता है। बंदर हालाँकि थोड़े खुराफाती जीव हैं, खाने पीने की चीजें देख छीना झपटी करना अपना अधिकार मानते हैं, जबकि लंगूर बहुत शर्मीला और शांत जीव है। जो झुँड में रहता है और किसी को अधिक परेशान नहीं करता। लम्बी पूँछ लिए इस जीव को एक पेड़ से दूसरे पेड़ में लम्बी छलाँग लगाते यहाँ देखा जा सकता है।

संस्थान प्रायः सर्दियों में दिसम्बर से फरवरी तक शोधार्थियों के लिए बन्द रहता है। बाकि समय इसके यहाँ कई तरह के शोध अध्ययन से जुड़े कार्यक्रम चलते रहते हैं। जिनमें एक माह का एशोसिएटशिप कार्यक्रम पीएचडी स्कोलर्ज के बीच लोकप्रिय है। इसके बाद एक से दो वर्ष का फैलोशिप प्रोग्राम, जिसमें यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्ज एवं अपने क्षेत्र के विद्वान लोग आते हैं। इसके साथ बौद्धिक गोष्ठियां, सेमीनार आदि यहाँ चलते रहते हैं, जिसमें अपने क्षेत्र के चुडान्त विद्वान एवं विषय विशेषज्ञ यहाँ पधारते हैं, बौद्धिक विमर्श होते हैं और विचार मंथन के साथ समाज राष्ट्र को दिशा देने वाली नीतियाँ तय होती हैं।

यहाँ का पुस्तकालय संस्थान की शान है, जो प्रातः नौ बजे से रात्रि सात बजे तक शोधार्थियों के लिए खुला रहता है। इसमें लगभग दो लाख पुस्तकें हैं और इसके साथ समृद्ध ई-लाइब्रेरी, जिसमें विश्वभर की पुस्तकों एवं शोधपत्रों को एक्सेस किया जा सकता है। जब पढ़ते-पढ़ते थक जाएं तो तरोताजा होने के लिए पास ही एक कैंटीन और एक कैफिटेरिया की भी व्यवस्था है। प्रकृति की गोद में बसा परिसर स्वयं में ही एक प्रशांतक ऊर्जा लिए रहता है, जिसमें टहलने मात्र से व्यक्ति तरोताजा अनुभव करता है। संस्थान की अपनी शोध पत्रिका सम्मर हिल रिव्यू है। यहाँ का अपना प्रकाशन भी है, जिसके प्रकाशनों का किसी भी बड़े पुस्तक मेले में अवलोकन किया जा सकता है।

परिसर में लाइब्रेरी के पीछे विशाल बाँज का पेड़ लगा है, जहाँ कभी कामना देवी का मंदिर था, जिसे अब पास की पहाड़ी में विस्थापित किया गया है। इसी के साथ दो भव्य मैपल पेड़ हैं, जो शिमला में रिज पर एक कौने में भी स्थित हैं। मौसम साफ होने पर इसके पास ही एक स्थान से दूर हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों का अवलोकन किया जा सकता है, जहाँ इनकी ऊँचाई व नाम भी अंकित है। इसी के नीचे बहुत बड़ा बगीचा और पार्क है। उसके पार खेलने का बंदोवस्त है, जहाँ एक इंडोर स्टेडियम है। उसके आगे अंडरग्राउण्ड जेल है, जहाँ गाँधीजी को कुछ दिन नजरबंद किया गया था।

इसके साथ यहाँ का अपना समृद्ध बोटेनिक्ल गार्डन है, जिसमें तैयार किए जा रहे फूलों के गमलों से पूरा परिसर शोभायमान और सुवासित रहता है। संस्थान में जल संरक्षण की बेहतरीन व्यवस्था है। मुख्य भवन की छत से गिरता बारिश का पानी सीधे छनकर लॉन के नीचे बने स्टोरेज टैंक में जाता है और इसका उपयोग फूलों, पौधों व लॉन की सिंचाई में किया जाता है।

रहने के लिए यहाँ परिसर में भव्य भवन हैं, जिनमें वेहतरीन कमरों की व्यवस्था है। भोजन के लिए पहाड़ी पर मेस है, जिसमें उम्दा नाश्ता, लंच और डिन्नर परोसा जाता है। यहीं आगंतुकों के लिए अतिथि गृह भी है। फिल्म देखने के लिए छोटा सा ऑडिटोरियम भी है। जरुरत का सामान खरीदने के लिए परिसर के नीचे बालुगंज में तमाम दुकानें हैं। यहाँ का कृष्णा स्वीट्स दूध-जलेबी के लिए प्रख्यात है। थोड़ी ही दूरी पर शिमला यूनिवर्सिटी है, जहाँ बस व पैदल मार्ग दोनों तरीकों से जाया जा सकता है। दोनों मार्ग घने देवदार, बुराँश व बाँज के जंगल से होकर गुजरते हैं।

यहाँ पर रुकने व अध्ययन के इच्छुक शोधार्थियों के लिए ऑनलाइन प्रवेश की सुविधा है। एक माह से लेकर दो साल तक इस सुंदर परिसर में गहन अध्ययन, चिंतन-मनन एवं सृजन के यादगार पल बिताए जा सकते हैं। हमें सौभाग्य मिला 2010,12 और 2013 में तीन वार एक-एक माह यहाँ रुकने का और अपने एसोशिएटशिप कार्य़क्रम पूरा करने का, जिसमें हमने अपने पीएचडी के विषय को गंभीरता एवं व्यापकता में एक्सप्लोअर किया। भारत भर से आए विद्वानों से चर्चा होती रही, फैलोज के साप्ताहिक सेमीनार में खुलकर भाग लिया और कई सारी नई चीजें सीखने को मिलीं। उस बक्त यहाँ के निर्देशक थे, प्रो. पीटर रोनाल्ड डसूजा, जिनके सज्जन एवं भव्य व्यक्तित्व, प्रखर विद्वता, बौद्धिक ईमानदारी, शोधधर्मिता एवं भावपूर्ण संवाद से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला, जिसे समरण करने पर मन आज भी पुलकित हो उठता है।

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

यात्रा वृतांत - मेरी यादों का शिमला और पहला सफर वरसाती, भाग-2(अंतिम)




घाटी की इस गहराई में, इतने एकांत में भी युनिवर्सिटी हो सकती है, सोच से परे था। मुख्य सड़क से कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि शहर के बीहड़ कौने में प्रकृति की गोद में ऐसा प्रयोग चल रहा हो। लेकिन यही तो मानवीय कल्पना, इच्छा शक्ति और सृजन के चमत्कार हैं। लगा इंसान सही ढंग से कुछ ठान ले, तो वह कोई भी कल्पना साकार कर सकता है, मनमाफिक सृष्टि की रचना कर सकता है। यहाँ इसी सच का गहराई से अनुभव हो रहा था। कुछ ही मिनटों में हम कैंपस में थे। राह में विचारकों, शिक्षाविदों, महापुरुषों के प्रेरक वक्तव्य निश्चित ही एक विद्या मंदिर में प्रवेश का अहसास दिला रहे थे। प्रकृति की गोद में बसे परिसर में, नेचर नर्चरिंग द यंग माइंड्ज, की उक्ति चरितार्थ दिख रही थी। चारों और पहाडियों से घिरे इस परिसर में उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर सामने पहाड़ी पर तारा देवी शक्तिपीठ प्रत्यक्ष हैं। आसमां पूरी तरह से बादलों से ढ़का हुआ था, मौसम विभाग की सूचना के अनुसार भारी बारिश के आसार थे। सम्भवतः हमारा गुह्य मकसद पूरा होने वाला था।
गेस्ट हाउस में फ्रेश होकर, स्नान-ध्यान के बाद विभाग एवं विश्वविद्यालय के अकादमिक विशेषज्ञों के साथ निर्धारित मीटिंग सम्पन्न हुई। पूरे परिसर में दीवार पर हर कदम पर टंगे प्रेरक सदवाक्य मौन शिक्षण दे रहे थे। इनसे संवाद चलता रहा, जो अच्छे लगे, कैमरे में कैद करता रहा। आसमान में बादल तो सुबह से ही उमड़-घुमड़ रहे थे, लेकिन अब कुछ-कुछ बरसना शुरु हो चुके थे। लग रहा था, आज पूरा बरस कर ही रहेंगे और हमारी शिमला घूमने की योजना संभव न हो पाएगी। बाहर बादल क्रमशः घनीभूत हो रहे थे। पीठ में रक्सेक टांगे बाहर निकलते, इससे पहले ही बारिश शुरु हो चुकी थी। धीरे-धीरे बारिश जोर पकड़ती गई। कुछ ही मिनटों में मूसलाधार बारिश हो रही थी। पता चला कि इस सीजन की यह सबसे भयंकर बारिश थी। शुरु में तो हमें यह हमारी यात्रा में खलल डालता प्रकृति का हस्तक्षेप लगा। लेकिन थोड़ी ही देर में अनुभव हुआ कि शिमला के इसी रुप को निहारने की इच्छा लेकर तो हम आए थे, जो आज पूरी हो रही थी। लगभग एक घंटा तक विवि के स्वागत कक्ष में बारिश के नाद-ब्रह्म के बीच जीवन के नश्वर-शाश्वत खेल पर चिंतन-मनन करते रहे और वरसाती मौसम की शीतल फुआर का आनन्द उठाते रहे। इसको फोटो एवं बीडियो में भी यथासम्भव कैद करने का प्रयास करते रहे।



जब मौसम शांत हुआ तो गाड़ी से शिमला की ओर चल पड़े। रास्ते में सूखे नाले दनदना रहे थे। रास्ते में जगह-जगह झीलें बन गई थी। कहीं थोड़ा बहुत लेंडस्लाइड भी हो गया था। प्रकृति स्नान के बाद तरोताजा दिख रही थी। राह की शीतल व्यार सफर को सुखद बना रही थी। चीड़, देवदार के बनों के बीच हम पँथाघाटी पहुंचे। मुख्यमार्ग से आईएसबीटी की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में आश्चर्यचकित हुए की यहां बारिश की एक भी बूंद नहीं गिरी है। सारी बारिशा पंथा घाटी तक सीमित थी। प्रकृति के दैवीय संतुलन पर हमारी आस्था और प्रगाढ़ हुई, जिससे हम बरसात का आनन्द भी उठा सके और शिमला की बाकि यात्रा भी बादलों की फाहों के बीच कर सके। आइएसबीटी से होते हुए हम बालूगंज पहुंचे। यहां से एडवांस स्टडीज के चरणस्पर्श करते हुए समर हिल और फिर दाईं और से संस्थान की परिक्रमा करते हुए मुख्य गेट से संस्थान में प्रवेश किए। 


भारतीय उच्च अध्यय संस्थान, शिमला का एक प्रमुख आकर्षण है। इसके दर्शन के बिना शिमला की यात्रा अधूरी ही मानी जाएगी। 1888 में बना यह संस्थान भारत में शासन कर रही अंग्रेजी सरकार के वायसराय का निवास था। अर्थात यहीं से अंग्रेजी सरकार चलती थी। इसी लिए इसे वायसराय लॉज भी कहा जाता है। आजादी के बाद इसे राष्ट्रपति निवास के रुप में रुपांतरित किया गया। राष्ट्रपति महोदय से साल में एक-आध बार कुछ सप्ताहृ-माह के लिए यहां आते थे, बाकि समय यह मंत्रियों की आरामगाह बना रहता था। भारत के दूसरा राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्ण की दूरदृष्टि का सत्परिणाम था कि इसे 1962 से उच्चस्तरीय शोध-अनुसंधान केंद्र के रुप में स्थापित किया गया। उद्देश्यों के अनुरुप इसकी पंच लाईन रही – ज्ञानमय तपः। इसी उद्देश्य के अनुरुप यहाँ देश-विदेश से फैलोज एवं एसोशिएट्स शोध-अध्ययन के लिए आते हैं। एक माह से लेकर दो वर्ष तक यहाँ रहकर शोधकार्य करते हैं। हर सप्ताह का एक सेमीनार इसकी विशेषता है। इसके अतिरिक्त सीजनल वर्कशॉप, सेमीनार, बौद्धिक आयोजन यहाँ चलते रहते हैं। मानविकी और सामाजिक विज्ञान में शोध-अनुसंधान के इच्छुक कोई भी पीएचडी धारी सत्पात्र यहाँ की ज्ञानसाधना का हिस्सा बन सकता है। इसका पुस्तकालय देश के वृहदतम और श्रेष्ठतम में से एक है। यही शोध का केंद्र होता है। यहाँ सुबह 9 बजे से लेकर शाम 7 बजे तक शोधार्थी ज्ञानसाधना में लग्न रहते हैं।


आज हम शाम को लेट हो चुके थे और संस्थान बंद हो चुका था। अतः वाहर से ही इसका विहंगावलोकन करते रहे, विताए पलों की यादें उमड-घुमड़ कर चिदाकाश पर बरसाती बादलों की तरह तैर रही थीं। इनकी शीतल फुआर से चित्त आनंदित-आल्हादित था। बादलों के साथ लुका-छिपी करते संस्थान के भव्य भवनों व देवतरुओं को केमरे में समेटते हुए कुछ मौसमी फोटो लिए। फिर यादों के समेटे बापिस लुगंज की ओर चल पड़े और अपनी फेवरट जलेवी-दूध की दुकान में पहुंचे। शिमला युनिवर्सिटी और एचवांस स्टडी का शायद की कोई छात्र एवं प्रोफेसर हों जो इस दुकान में न पधारे हों। यहाँ अपना मनपसंद नाश्ता किया। बाहर ढलती शाम का धुंधलका छा रहा था। साथ ही हल्की-हल्की बारिश भी शुरु हो चुकी थी। आज ही बापिस लौटना की बाध्यता थी, सो शिमला के बाकि हिस्से को अगली बरसात के लिए छोड़कर हम रात के बढ़ते अंधेरे को चीरती हुई रोशनी के बीच बस स्टेंड पहुंचे। यहाँ बस काउंटर पर खड़ी थी। टिकट लेकर प्रो. चौहान साहब से विदाई लेते हुए देहरादून के लिए बस में बैठ गए।
यहाँ से सोलन - चंडीगढ़ - नाहन - पांवटा साहिब होते हुए सुबह 5 बजे हम देहरादून पहुंच चुके थे। साढ़े छः बजे तक हम देसंविवि के गेट पर थे। बारिश की बूंदे अभिसिंचन करते हुए जैसा हमारा स्वागत कर रही थीं। बारिश से शुरु बारिश में खत्म शिमला का बरसाती सफर एक चिरस्मरणीय अनुभूति के रुप में अपने साथ था। यात्रा की खुमारी के साथ यात्रा की थकान को उतारते रहे। और नींद व थकान से हल्का होकर कलम उठाई, यात्रा के अनुभवों को कलमबद्ध करते रहे। यात्रा वृतांत आपके सामने है। 

शिमला घूमने के इच्छुक दोस्तों से इतना ही कहना है कि शिमला के हर मौसम के अपने रंग हैं। गर्मी में ठंड़क से राहत के लिए शिमला जाया जा सकता है, सर्दी में बर्फ का लुत्फ उठाया जा सकता है। पतझड़ और बसन्त के यहां अपने मनमोहक रंग हैं। लेकिन बरसात के मौसम के बिना शिमला का बास्तविक आनन्द अधूरा है। क्योंकि मौसम न अधिक गर्म होता है न अधिक ठंड़ा। उड़ते-तैरते आबारा बादलों के बीच घाटी का विहंगावलोकन एक स्वप्निल लोक में विचरण की अनुभूति देता है। हाँ बरसात में भारी बारिश से भीगने, भुस्खलन व बादल फटने जैसे खतरे तो अवश्य रहते हैं, लेकिन इन्हीं चुनौतियों के बीच तो यात्रा का रोमाँच अपने शवाब पर रहता है।
यदि इसका पहला भाग नहीं पढ़ा हो तो यहाँ पढ़ सकते हैं - मेरा शिमला का पहला सफर बरसाती, भाग-1।

सोमवार, 6 जुलाई 2015

यात्रा वृतांत - मेरी यादों का शिमला और पहला सफर बरसाती, भाग-1



हिमाचल वासी होने के नाते, शिमला से अपना पुराना परिचय रहा है। शुरुआती परिचय राजधानी शिमला से हुआ, जहाँ स्कूल-कालेज के दिनों में रिजल्ट से लेकर माइग्रेशन तक आना रहा। दूसरा परिचय लुधियाना में पढ़ते हुए युनिवर्सिटी टूर के दौरान हुआ। बस स्टैंड से माल रोड और रिज तक का सफर। इन संक्षिप्त दौरों में शिमला से सतही परिचय ही अधिक रहा। राह में शिमला की पहाड़ियां, देवदार के पेड़ और घाटी के विहंगम दृश्य अवश्य मन को लुभाते रहे, लेकिन कंकरीट में तबदील होता शिमला मन को कचोटता रहा। इसके बाद एक बार शिमला यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे भाईयों से मिलने आया तो देवदार के सघन बनों की गोद में विचरण का मौका मिला, जिसमें पहली बार कंकरीटी जंगल में तबदील होते शहर से इतर शिमला के नैसर्गिक सौंदर्य को नजदीक से निहारा और शिमला की मनोरम छवि ह्दय में गहरे अंकित हुई। इसे कभी फुरसत में एक्सप्लोअर करने का भाव रुह में समा चुका था। इसे पूरा करने का संयोग लगभग दस बर्ष बाद 2010 में पूरा होता है

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान - शिमला से गाढ़ा परिचय होता है नबम्वर 2010 में, जब भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS - Indian Institute of Advance Studies) में एसोशिएट के रुप में एक माह रूकने का मौका मिला। दिवंगत गुरुजन डॉ. ठाकुर दत्त शर्मा (टीडीएस) आलोक जी का समरण आना यहाँ स्वाभाविक है, जिन्होंने यहाँ प्रवेश के लिए प्रेरित किया था। देवदार, बाँज, बुरांश, खनोर के सघन बनों के बीच बसे इस शोध-अध्ययन केंद्र के सुरम्य, शांत एवं एकांत परिसर में जीवन का एक नया अध्याय शुरु होता है और शिमला से एक नूतन परिचय, सघन तादात्मय और गहरी प्रीत जुड़ जाती है। 

2010 के बाद 2012 एवं 13 में एक बार फिर यहाँ एक-एक माह ठहरने का सुयोग बनता है। इस बीच संस्थान की सुबह 9 से शाम 7 बजे तक की कसी दिनचर्या, संस्थान के प्रेरक वाक्य, ज्ञानमयः तप, के अनुरुप शोध-अध्ययन पूर्ण जीवन के लिए समर्पित रही। बाकि समय में सुबह और शाम घुमक्कड़ी के जुनून के नाम समर्पित रही। संयोग से साथी भी घुमक्कड़ किस्म के मिले। एक स्पेल में दक्षिण भारत के सोमा-शेखर, तो दूसरे में गुजरात के मनोज पण्ड्या, जिनके लिए घुमक्कडी जीवन का पर्याय थी। इस दौरान बालुगंज, कामनादेवी हिल, चक्कर, समर हिल और संस्थान के हर कौने को एक्सप्लोअर किया।

सप्ताह अंत के दिन शिमला एक्सप्लोरेशन के नाम समर्पित रहे। संस्थान से  माल रोड़ – रिज होते हुए जाखू हिल, तो कभी संकटमोचन से होते हुए शियोगी-तारादेवी हिल, और कभी शिमला यूनिवर्सिटी से होते हुए पीटर हिल और कभी बस स्टेंड से पंथा घाटी – शिमला का हर कौना सण्डे को एक्सप्लोअर करते रहे। देखकर आश्चर्य हुआ कि शिमला में रहते हुए भी अधिकाँश इन सुंदर एवं रोमांचक ट्रेकों से अनभिज्ञ ही रहते हैं।

शिमला माल में बिक रहे सेव, नाशपती, चैरी, प्लम, खुमानी, बादाम जैसे फलों को देखकर, सहज ही इनके बागानों को देखने की इच्छा होती, लेकिन शिमला शहर में कहीं बाग नहीं दिखे। पता चला की शिमला के बाहर इनके सघन बगान हैं। एक दिन में ही इनका विहंगावलोकन किया जा सकता है। इस जुनून मेें इंटीरियर शिमला को भी देखने का मौका मिला। इसी दौरान नालदेरा, मशोबरा, चैयल, कुफरी, नारकण्डा तक घूमने का संयोग बना। यदि समय हो तो इनसे आगे भी थोड़ा समय लेकर फल-उत्पादन को लेकर हो रहे अत्याधुनिक प्रयोगों को देखा जा सकता है। फलों की नई किस्मों से लेकर डेंस फार्मिंग के प्रयोगों के साथ यहां की माटी को सोना उगलते देखा जा सकता है।

शिमला में ये भ्रमण अकसर मई या नवम्बर माह में ही हुए थे। यहां कई वर्ष यूनिवर्सिटी में रहे भाईयों का सुझाव था कि शिमला का असली मजा लेना हो तो जुलाई की बरसात में आना। इस माह में बादलों के उड़ते-तैरते अबारा फाहों के बीच इस हिल स्टेशन का नजारा अलग ही होता है। ताप भी सम होता है। इस चिरआकांक्षित तमन्ना को पूरा करने का संयोग आज बन रहा था। अकादमिक उद्देश्य से बने इस टूर में यह अरमान पूरा होने वाला था।
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यात्रा का शुभारम्भ -

हरिद्वार से देहरादून होते हुए हम हिमाचल ट्रांसपोर्ट की बस सेवा में चढ़े। देहरादून बस स्टैंड पर ही काले-काले बादल उमड़ चुके थे। बस का काउंटर पर इंतजार हो ही रहा था कि बारिश शुरु हो चुकी थी। बारिश के इस अभिसिंचन के साथ यात्रा का शुभारम्भ हम एक शुभ संकेत मान रहे थे। बस शाम को 630 बजे पर चल पड़ी। सीट के साथ हमें एक तिब्बती यात्री मिले, जो धर्मशाला से थे व अपने व्यापारिक उद्देश्य से शिमला जा रहे थे। अपनी रूचि व जानकारी के अनुरुप इनसे तिब्बत के पुरातन इतिहास पर चर्चा करते रहे। महायोगी मिलारेपा का जीवन, साधना, आध्यात्मिक रुपांतरण, कविताओं पर चर्चा करते रहे। लोबजांग राम्पा की नॉबेल-थर्ड आई और हॉलीबुड फिल्म - सेवेन इयर इन तिब्बत के अनुरुप भी तिब्बत से जु़ड़ी रोमांचक यादों को शेयर करते रहे। पता चला हमारे तिब्बती भाई आजकल टीवी में चल रहे अशोका द ग्रेट सारियल को रुचि से देखते हैं। 

इस तरह चर्चा करते हुए हम कब पौंटा साहिब पार किए पता ही नहीं चला। रास्ते में काला अम्ब स्थान पर बस भोजन के लिए रुकी। इसके बाद नाहन से होते हुए रात 1230 बजे चंड़ीगढ पहुँचे। छः घंटे में यह सफर तय हुआ। चंड़ीगढ से आगे काल्का, सोलन होते हुए सुवह पांच बजे हम शिमला बस स्टैंड -आईएसबीटी पर थे। चण्डीगढ से चार घंटे का सफर रहा। इस तरह कुल ग्यारह घंटे के सफर के बाद हम शिमला पहुंच चुके थे। बारिश के हल्के अभिसिंचन के साथ शिमला में हमारा प्रवेश हो चुका था। शयोगी तक हमारी नींद खुल चुकी थी। बाहर रास्ते में पूरी धुंध छाई हुई थी। यहां से जुड़ी अतीत की तमाम यादें व रोमाँचक भाव चिदाकाश पर उमड़ घुमड़ रहे थे।


आईएसबीटी से पंथा घाटी की ओर -
बस स्टैंड पर रात का धुंधलका छंट रहा था। बसों की जगमगाती रोशनी के बीच सुबह का आगमन हो रहा था। ध्यानस्थ देवतरु भी जैसे योगनिद्रा से जाग रहे थे। कुछ देर इंतजार करने तक बस स्टैंड पर बाहन आ चुका था। 18 किमी का सफर बाकि था। रास्ते भर ड्राइवर के मोबाईल में बज रहे शिव चालीसा और सुफी गीतों के बीच सुबह का सफर भक्तिमय रहा। लोग रास्ते में मोर्निंग वॉक करते दिखे। रास्ते भर सड़क के दोनों ओर खड़े देवदार के गगनचूम्बी वृक्ष लगा जैसे  हमारा स्वागत कर रहे थे। बीच-बीच में आबादी से फूलते शिमला शहर के कंकरीटी सत्य के भी दर्शन हुए। लो हम शिमला के छोर पंथा घाटी पहुंच चुके थे। अब विवि के लिए  मुख्य मार्ग से शियोगी वाइपास से नीचे उतरना था। आगे की राह में आवादी क्रमशः बिरल हो रही थी। हम गहरी घाटी में नीचे उतर रहे थे। नीचे और सुदूर घाटी का विहंगम दृश्य दर्शनीय था। रास्ते में देवदार के पनप रहे युवा बनों के बीच हम एक विरल आनन्द की अनुभूति कर रहे थे। रास्ते में चीड़ के बिखरे जंगल भी मिले। कुछ ही मिनटों में हम विवि के प्रवेश द्वार पर खड़े थे। वाइपास रोड़ से संकड़ी सड़क विवि परिसर की ओर उतर रही थी।


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