20 सितम्बर, 1911 को आंवलखेड़ा, आगरा में जन्में पं.
श्रीराम शर्मा आचार्य भारतीय आध्यात्मिक-सांस्कृतिक परम्परा के एक ऐसे प्रकाश
स्तम्भ एवं दिव्य विभूति हैं, जिनका जीवन, दर्शन एवं कर्तृत्व समाज-राष्ट्र ही
नहीं पूरी विश्व-मानवता के लिए वरदान से कम नहीं है। 80 वर्षों के जीवन काल में
आचार्यश्री 800 वर्षों का काम कर गए, जिनका मूल्याँकन अभी पूरी तरह से नहीं हो
पाया है।
पेश है विहंगावलोकन करते कुछ बिंदु जिनके प्रकाश
में आचार्यजी के जीवन व कर्तृत्व की एक झलक पायी जा सकती है -
- आदर्श शिष्य, गुरु की आज्ञा के अनुसार, जीवन के हर क्रियाक्लाप का निर्धारण। गायत्री महापुरश्चरण से लेकर हिमालय यात्रा, गृहस्थ जीवन, साहित्य सृजन व वृहद संगठन युग निर्माण आंदोलन, अखिल विश्व गायत्री परिवार का निर्माण।
- नैष्ठिक साधक, तप के प्रतिमान, 15 वर्ष की आयु में गुरु के आदेश पर 24 वर्ष तक24 लाख के गायत्री महापुरश्चरण की कठोर तप-साधना। मात्र जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह। जीवन पर्यन्त तप में लीन। विनोवाजी से तपोनिष्ठ नाम मिला।
- जूझारु स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पुरश्चरण अनुष्ठान के बीच भी तीन वर्ष स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी। श्रीराममत के रुप में क्राँतिकारी रचनाओं का सृजन व राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में एक जुझारु कार्यकर्ता के रुप में अभूतपूर्व जीवट का परिचय।
- पत्रकारिता को दिया नया आयाम, सैनिक अखबार में पत्रकार की भूमिका में प्राथमिक प्रशिक्षण। बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के रुप में आध्यात्मिक पत्रकारिता का शुभारम्भ, जो आज भी जनमानस को आलोकित कर रही है। इसके साथ महिला जागृति अभियान, प्रज्ञा पाक्षिक जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन।
- गायत्री के सिद्ध साधक, 24 लाख के 24 महापुरुश्चरण के साथ गायत्री के सिद्ध साधक का प्रादुर्भाव। गायत्री साधना से जुड़ी फलश्रृतियों के जीवंत प्रतिमान।गायत्री महाविज्ञान जैसे विश्वकोषीय ग्रंथ की रचना,गायत्री परिवार की स्थापना। गायत्री जयंती के दिन ही महाप्रयाण (2जून, 1990)।
- गृहस्थ में अध्यात्म, ऐसे विरल संत, जिन्होंने ने केवल एक सद्गृहस्थ के रुप में अध्यात्म को जीवन में धारण किया, लोगों को गृहस्थ तपोवन की राह दिखी और इस विषय पर तमाम साहित्य का सृजन किया। गृहस्थ आश्रम को इसकी सनातन गरिमा में प्रतिष्ठित करने का अभूतपूर्व योगदान।
- सादा जीवन, उच्च विचार, की प्रतिमूर्ति रहे। सामान्य चप्पल पहनकर, खादी का कुर्ता, सामान्य भोजन, रिक्शा में बाजार की यात्रा, ट्रेन की सामान्य श्रेणी में सफर। न्यूनतम संसाधनों के साथ निर्वाह। सादा जीवन, उच्च विचार की जीवंत प्रतिमूर्ति।
- ज्ञानपिपासु, लेखक, नियमित रुप से स्वाध्याय और लेखन का क्रम। आश्चर्य नहीं कि जीवन काल में 3200 के लगभग पुस्तकों का सृजन। जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र हो, जिस पर न लिखा हो। समस्त साहित्य का निचोड़ अंतिम वर्षों में क्राँतिधर्मी साहित्य के रुप में।
- वैज्ञानिक प्रयोगधर्मी, जीवन एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला के रुप में, निष्कर्ष आत्म कथा, मेरी वसीयत और विरासत में। नियमित अखण्ड ज्योति के पन्नों पर शेयर करते रहे। अध्यात्म के वैज्ञानिक पक्ष की शोध हेतु ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना।
- प्रखर वक्ता, आज भी जिनके स्वर सुधि श्रोताओं को झकझोरते हैं, आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर करते करते हैं और जीवन निर्माण और लोक कल्याण के राजमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
- संगठनकर्ता, नित्य परिजनों से मिलन, श्रेष्ठ विचारों व क्रियाक्लापों को आगे बढ़ाने का मार्गदर्शन। करोड़ों लोगों का गायत्री परिवार खड़ा, जो देश भर के 4000 से अधिक शक्तिपीठों में व बाहर 80 देशों में फैला है। गायत्री-यज्ञ प्रचार के साथ सप्तक्राँति आंदोलनों के माध्यम से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय।
- समाज सुधाकर, परम्परा की तुलना में विवेक को महत्व देंगे, आचार्यश्री का प्रेरक वाक्य रहा। युगों से शापित-कीलित गायत्री साधना को सर्वसुलभ बनाया। स्त्रियों को वेदमंत्रों के उच्चारण व यज्ञ का अधिकार दिया। समाज में जड़ जमाए बैठी कुरीतियों पर प्रहार किया। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, धर्म आदि पर आधारित भेदभाद को तिरोहित किया।
- समर्थ गुरु, वेदमूर्ति के रुप में ज्ञान के पर्याय, गायत्री के सिद्ध साधक के रुप में एक समर्थ गुरु की भूमिका में लाखों-करोड़ों लोगों को आध्यात्मिक पथ पर प्रेरित व अग्रसर किया। 1953 में गायत्री महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के साथ तपोभूमि मथुरा में गायत्री मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा व गुरु दीक्षा का क्रम शुरु।
- जीवंत आचार्य, लोगों को खाली प्रवचन व उपदेशों के माध्यम से शिक्षण नहीं दिया, बल्कि आचरण में उताकर, जीकर उदाहरण पेश किया। एक जीवंत आचार्य के रुप में जीवन को एक खुली किताब की भांति जीया। आत्मसुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा का मंत्र दिया।
- करुणा से भरा प्रेमी ह्दय, जो भी उनसे मिला, उनका होकर रह गया। उनके एक आवाह्न पर परिजन सबकुछ छोड़कर इनकी वृहद योजना का हिस्सा बनते गए। आचार्यश्री का ह्दय प्यार व करुणा से इस कदर भरा रहा कि जिस सिरफिरे ने सांघातिक हमला किया, उसे भी बचने का अवसर दिया।
- युग विचारक, दार्शनिक के रुप में, गायत्री व यज्ञ को क्रमशः सद्बुद्धि और सत्कर्म के रुप में स्थापित किया। व्यक्ति व समाज के उत्कर्ष के लिए क्रमशः वैज्ञानिक अध्यात्म व आध्यात्मिक समाजवाद का प्रतिपादन किया। व्यक्ति से परिवार-समाज व युग निर्माण के सुत्र दिए। बौद्धिक, नैतिक व सामाजिक क्राँति का दर्शन दिया।
- युगद्रष्टा, भविष्यद्रष्टा, 20वीं सदी के विषम पलों में जब मानवता निराशा से भरी थी, 21वीं सदी उज्जवल भविष्य का नारा दिया। और उसे कैसे चरितार्थ किया जाए, इसकी पूरी रुपरेखा शतसुत्रीय कार्यक्रम व युग निर्माण सत्संकल्प के रुप में प्रस्तुत की।
- सच्चे संत, आचार्यश्री ने साधु वाला चोला नहीं पहना, एक सामान्य गृहस्थ की तरह रहे। लेकिन वे अपने गुण, कर्म और स्वभाव में सच्चे संत थे, जिनके जीवन के मूलमंत्र रहे – मातृवत् परदारेषु, परद्रवलोष्टवत् और आत्मवत् सर्वभूतेषु।
- वैदिक ऋषि,सारे वैदिक ऋषि जैसे आचार्यश्री में एकाकार हो गए थे। तमाम ऋषि परम्पराओं की स्थापना व पुनर्जागरण किया और भारतीय संस्कृति को नयी संजीवनी दी। इसके विश्व संस्कृति स्वरुप से परिचित करवाया। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय उन्हीं के दिव्य स्वप्न का मूर्त रुप है।
- युगऋषि की भूमिका में, वैदिक ऋषि की परम्परा में आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत को सर्वसुलभ बनाया, वहीं इसके सामयिक संदर्भ में उपयोग की राह दिखायी, जो उन्हें युगऋषि की भूमिका में स्थापित करता है। उनका ऋषि चिंतन आज भी युग मनीषा को झकझोरता है, प्रेरित करता है।
- हिमालय
प्रेमी, हिमालय से विशेष लगाव
था। तीन वार प्रत्यक्ष हिमालय यात्राएं की व एक वार सूक्ष्म शरीर से। जिनका दिग्दर्शन
सुनसान के सहचर व आत्मकथा पुस्तक में बखूवी किया जा सकता है। शांतिकुंज में हिमालय
मंदिर की स्थापना की।
- महायोगी की भूमिका में, युग के विश्वामित्र, आचार्यश्री ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न महायोगी थे। आत्म कल्याण के आगे वे लोक कल्याण, विश्व-कल्याण की भूमिका में सक्रिय थे। जो कार्य कभी विश्वामित्र ने किया था, कुछ बैसा ही कार्य आचार्य़श्री ने 1984-87 के दौरान सूक्ष्मीकरण साधना के माध्यम से किया।
- एक आम इंसान, इतना सबकुछ होते हुए भी आचार्य़श्री किसी तरह के अहंकार, दर्प व दंभ से मुक्त थे। कोई पहली नजर में उन्हें एक आम इंसान की तरह पाता। सिद्ध महायोगी व इतने बड़े संगठन के संचालक होने के वावजूद सरलता, त्याग, ईमानदारी व विनम्रता की प्रतिमूर्ति रहे।
- युग व्यास, आर्षबांड्मय का पुनरुद्धार। चारों वेद, षटदर्शन, स्मृतियाँ, पुराण आदि सबका नए सिरे से भाष्य-प्रतिपादन। प्रज्ञापुराण का सृजन। युगानुरुप नए साहित्य का सृजन।अकेले व्यक्ति द्वारा किया यह भगीरथी प्रयास आचार्य़श्री को युग व्यास की भूमिका में प्रतिष्ठित करता है।
- अवतारी सत्ता, महाकाल के अग्रदूत– 80 साल में आचार्य़श्री जैसे 800 साल का काम कर गए। यह सब साधारण नहीं अतिमानवीय कार्य रहा। जिस प्रज्ञावतार की चर्चा आचार्य़श्री करते रहे, वे स्वयं उस चेतना के संवाहक थे, मूर्त रुप थे। हालाँकि उनकी विनम्रता रही, जो उन्होंने कभी खुद को अवतारी सत्ता घोषित नहीं किया। महाकाल के अग्रदूत के रुप में वे ईश्वरीय योजना को मूर्त रुप देने में सक्रिय रहे।