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सोमवार, 30 अप्रैल 2018

जीवन यात्रा – शांति की खोज में एक पथिक, भाग-1


हिमालय की नीरव वादियों में जीवन के रुपांतरणकारी पल

फुर्सत के कुछ लम्हें कितने दुर्ळभ हो चलें हैं आज की भागमभाग भरी जिंदगी में। यदि मिल भी जाएं तो टीवी, इंटरनेट, यार-दोस्त, पार्टी और गप्प-शप्प। पता ही नहीं चलता कि कैसे बीत गए। जबकि इन पलों को प्रकृति के संग विताया जाए तो ये क्षण जीवन के यादगार पल सावित हो सकते हैं। मनोरंजन के साथ शिक्षा के, प्रेरणा के, शाँति-सकून के और सृजन के आनन्द के, आत्म अन्वेषण, आत्म विकास के माध्यम हो सकते हैं।
प्रकृति की गोद में फुर्सत के ये पल जीवन के रुपांतरण की पटकथा लिख सकते हैं। प्रस्तुत है एक ऐसी ही एक जीवन यात्रा जो किसी के भी जीवन का सत्य हो सकती है।
हिमालय की गोद में यह उसकी पहली यात्रा थी। हिमालय के बारे में बहुत कुछ सुन-पढ़ रखा था। साथ ही बचपन से ही हिमाच्छादित पर्वतश्रृंगों के प्रति ह्दय में एक अज्ञात सा आकर्षण था, लेकिन जीवन के गोरखधंधे में उल्झा जीवन अभी तक इसकी इजाजत नहीं दे रहा था।
तमाम उपलब्धियों के साथ विताया जा रहा संसारी जीवन अब बोझिल हो चला था। जीवन की जटिलताएं कुछ इस कदर हावी हो चलीं थी कि अपने लिए सोचने की फुर्सत ही नहीं मिल पा रही थी। जीवन में कुछ करने की महत्वाकाँक्षा, जीवन के सुख भोगने की कामना उसे शहर ले गई थी। एक अच्छी नौकरी उसे मिल गई थी। सुंदर जीवन संगिनी, प्यारी सी संतान, अपने पर जान-न्यौछावर करने वाले यार-दोस्त, भौतिक जीवन के सभी सुख-साधन तो थे उसके पास, जो वह सोचता था। उसकी भरपूर कीमत भी वह चुका रहा था। स्वाभिमानी ऐसा था कि वह अपनी मेहनत से अर्जित चीजों पर ही अपना हक मानता था और मनचाहे जीवन की भरपूर कीमत चुका रहा था।
रोज सुबह आफिस की भागमभाग, फिर दिन भर काम का बोझ, इसके साथ कैरियर में आगे बढ़ने की गलाकाट प्रतियोगिता, ईर्ष्यालु विरोधियों के षडयंत्र, राजनीतिक दाँव-पेच, अपनों के प्रपंच - कुल मिलाकर सफलता के साथ जुड़े सभी अवाँछनीय तत्व साथ थे और जीवन एक साक्षात नरक बन गया था।
शरीर कई रोगों का अड्डा बनता जा रहा था। मन चिंता, विषाद, अनजाने भय और न जाने कितने मनोविकारों का घर बन गया था। ऐसे में वह जैसे अर्धविक्षिप्तता के दौर से गुजर रहा था। जीने का मकसद हाथ से निकल गया था, एक बोझिल ढर्रे में कोल्हू के बैल की तरह पीसता जीवन भारभूत बन गया था। जीवन ऐसे विषादपूर्ण बिंदु पर आ गया था कि इसमें खोने जैसा कुछ नहीं रह गया था। अतः कुछ दिनों के लिए इससे पलायन का मन बन जाता है और वह कूच करता है हिमालय की ओर।
रात तो पहाड़ के टेढ़े-मेढ़े रास्ते बस में झूलते हुए बीत गई। जब उसकी आँख खुली तो देखा कि वह हिमालय के द्वार पर खडा है। वह एक संकरी घाटी को पार करता हुआ हिमालय के वृहतर क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। उसे लगा जैसे जीवन की तंग अँधेरी सुरंग को पार करता हुआ वह जीवन की असीम संभावनाओँ के आलोकित व्योम में अपने पंख फैला रहा है। वाहरी यात्रा के साथ एक समानान्तर यात्रा उसके अंदर चल रही थी, जिसमें उसे अस्तित्व के गूढ़ सुत्र-समाधान मिल रहे थे।
सामने खड़ा हिमाच्छादित हिमालय शिखर में तो जैसे उसे अपने जीवन के आदर्श-ईष्ट-गुरु-भगवान सब कुछ मिल गय थे। जीवन लक्ष्य ऐसा ही उत्तुंग हो और साथ ही ऐसा ही ध्वल-पावन। इसके लिए हिमालय की तरह स्थिरता, दृढ़ता, सहिष्णुता भी, जो विषम मौसम की प्रतिकूलताओं के बीच भी मौन ध्यान योगी की तरह अविचल तपःलीन रहता है। शिव-शक्ति की लीलाभूमि, ऋषियों की तपःस्थली में उसे अपना आध्यात्मिक लक्ष्य मिल गया था। चेतना के शिखर पर आत्मबोध-ईश्वर बोध को उसे जीवन में साकार करना था।

यहाँ का कण-कण उसके लिए पावन था और जीवंत प्रेरणा का स्रोत। हिमालय की गोद में उछलती कूदती नीचे बढ़ती निर्मल हिमनद में जैसे उसने अपने जीवन की राह पा ली थी। पिता की गोद में निर्दन्द-निश्चिंत भाव से खेलती ये नदियाँ आगे संकरी घाटियों में कितनी शांत-गंभीर हो जाती हैं, लेकिन एक भी पल कहीं रुकती नहीं। हिमालय की शीतलता-सात्विकता साथ लिए ये समुद्रपर्यन्त बढ़ती रहती हैं और बिना किसी भेद भाव के मुक्त हस्त से हरियाली, शीतलता और ऊर्बरता का वरदान सबको बटोरती रहती हैं।
देवदार के आसमान छूते वृक्ष भी उसे दैवीय संदेश दे रहे थे। हिमालय की विरल पहाडियों की असली शान तो ये देववृक्ष हैं। हिमालय के संग सान्निध्य में ये भी ध्यानस्थ दिखते हैं। आसमान छूते इनके व्यक्तित्व से हिमालय की गुरुता ऐसे झरती रहती है जैसे हिमालय से गंगा। मौन तपस्वी की भाँति ये न जाने कब से खड़े हैं शिव की तरह यहाँ के वायुमंडल से विषाक्त तत्वों को आत्मसात कर विश्व को प्राणदायी वायु का संचार करते हुए। (जारी, शेष अगली पोस्ट में...)

सोमवार, 20 नवंबर 2017

पुस्तक सार, समीक्षा - वाल्डेन


प्रकृति की गोद में जीवन का अभूतपूर्व दर्शन

वाल्डेन, अमेरिकी दार्शनिक, विचारक एवं आदर्श पुरुष हेनरी डेविड़ थोरो की कालजयी रचना है। मेसाच्यूटस नगर के समीप काँकार्ड पहाड़ियों की गोद में स्थित वाल्डेन झील के किनारे रची गयी यह कालजयी रचना अपने आप में अनुपम है, बैजोड़ है। प्रकृति की गोद में रचा गया यह सृजन देश, काल, भाषा और युग की सीमाओं के पार एक ऐसा शाश्वत संदेश  लिए है, जो आज भी उतना ही ताजा और प्रासांगिक है।
ज्ञात हो कि थोरो दार्शनिक के साथ राजनैतिक विचारक, प्रकृतिविद और गुह्यवादी समाजसुधारक भी थे। महात्मा गाँधी ने इनके सिविल डिसओविडियेंस (असहयोग आंदोलन) के सिद्धान्त को स्वतंत्रता संघर्ष का अस्त्र बनाया था। यह थोरो का विद्रोही स्वभाव और प्रकृति प्रेम ही था कि वे जीवन का अर्थ खोजते-खोजते एक कुटिया बनाकर वाल्डेन सरोवर के किनारे वस गए। 
 थोरो के शब्दों में, मैने वन-प्रवास आरम्भ किया, क्योंकि मैं विमर्शपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता था, जीवन के सारभूत तथ्यों का ही सामना करना चाहता था, क्योंकि मैं देखना चाहता था कि जीवन जो कुछ सिखाता है, उसे सीख सकता हूँ या नहीं। मैं यह भी नहीं चाहता था कि जीवन की संध्या वेला में मुझे पता चले कि अरे, मैंने तो जीवन को जीया ही नहीं। मैं तो गहरे में उतरना चाहता था।
इस उद्देश्य पूर्ति हेतु थोरो मार्च 1845 के वसन्त में वाल्डेन झील के किनारे पहुँच जाते हैं, और अपनी कुटिया बनाते हैं। चीड़ के वन से ढके पहाड़ी ढाल पर अत्यन्त मनोरम स्थान पर वे काम करते, जहाँ से झील का नजारा सहज ही उन्हें तरोताजा करता। झोंपड़ी के आस-पास की दो-ढाई एकड़ जमीन में बीन्स, आलू, मक्का, मटर, शलजम आदि उगाते हैं।

इस वन प्रवास में जंगली जीव उनके साथी सहचर होते। इस निर्जन स्थल पर प्रकृति की गोद में थोरो जीवन के सर्वोत्तम क्षण महसूस करते। जब वसन्त ऋतु या पतझड़ में मेह के लम्बे दौर के कारण दोपहर से शाम तक घर में कैद रहना पड़ता, तो ये थोरो के लिए सबसे आनन्दप्रद क्षण होते। एकांत प्रिय थोरो के अनुसार, साधारणतय संग-साथ बहुत सस्ते किस्म का होता है। हम एक-दूसरे से जल्दी-जल्दी मिलते रहते हैं, इसलिए एक-दूसरे के लिए कोई नई चीज सुलभ करने का मौका ही नहीं मिलता।...कम बार मिलने पर ही हमारी सबसे महत्वपूर्ण और हार्दिक बातचीत हो सकती है।
थोरो की दिनचर्या उषाकाल में शुरु होती। प्रातःकाल की शुद्ध वायु को थोरो सब रोगों की महाऔषधि मानते। अगस्त माह में जब हवा औऱ मेंह दोनों थम जाते और मेघों वाले आकाश के नीचे तीसरे पहर की नीरवता छा जाती तथा पक्षियों का संगीत इस किनारे से उस किनारे तक गूँज उठता, उस समय सरोवर का सान्निध्य सबसे मूल्यवान लगता।

कृषि को थोरो एक पावन कर्म मानते थे। थोरो सुबह पाँच बजे उठकर कुदाली लेकर जाते, दोपहर तक खेत की निंढाई-गुढ़ाई करते और दिन का शेष भाग दूसरे काम में गुजारते। थोरो सादा जीवन, उच्च विचार के हिमायती रहे। उनका वन प्रवास इसका पर्याय था। थोरो के शब्दों में - सैंकड़ों-हजारों कामों में उलझने के बजाय दो-तीन काम हाथ में ले लीजिए। अपने जीवन को सरल बनाइए, सरल। समूचे राष्ट्र की हालत, समुचित ध्येय के बिना दुर्दशाग्रस्त है। इसका एक ही इलाज है - सुदृढ़ अर्थव्यवस्था, जीवन की कठोर सादगी और ऊँचा लक्ष्य। इसके बिना अभी तो मानव बर्बादी के रास्ते पर चल रहा है।
थोरो जंगल प्रवास में हर पल जी भरकर जीए तथा इसी का वे संदेश देते हैं। उनके अनुसार - लोग समझते हैं कि सत्य कोई बहुत दूर की, दूसरे छोर की, दूर तारे के उस पार की । जबकि ये स्थान, काल, अवसर आदि सभी यहीं पर हैं, अभी इसी क्षण हैं। स्वयं ईश्वर का महानतम रुप वर्तमान में ही प्रकट होता है।...हम अपना एक दिन प्रकृति के समान संकल्पपूर्वक बिताकर तो देखें और छोटी-मोटी बाधा से पथ-भ्रष्ट न हों। प्रातः जल्दी उठें और शांत भाव से व्रत रखें। हम यथार्थ की ठोस चट्टानी जमीन पर नींव डालकर स्थिर होकर खड़े होकर तो देखें। जीवन का अर्थ बदल जाएगा। थोरो इस तरह प्रयासपूर्वक अपने जीवन का उत्थान करने की संशयहीन क्षमता को सबसे उत्साहबर्धक चीज मानते थे।

जीवन के सचेतन विकास के लिए थोरो स्वाध्याय पर विशेष बल देते और स्वयं भी ग्रंथों के संग समूचे आध्यात्मिक जगत की यात्रा का लाभ लेते। उनके अनुसार, क्लासिक ग्रन्थ मानव की श्रेष्ठतम संग्रहित विचार पूंजी हैं, इनमें देववाणी निहित है और इनका अध्ययन एक कला है। इनसे कुछ सीखने के लिए हमें पंजों के बल खड़ा होना पड़ता है, जीवन के सबसे जागरुक और सतर्कतम क्षण अर्पित करने होते हैं। थोरो का वन प्रवास बहुत कुछ इसी का पर्याय रहा।
वे नित्य भगवद्गीता के विराट विश्वोत्पत्ति सम्बन्धी दर्शन का अवगाहन करते। उनके शब्दों में, इसके सामने हमारा आधुनिक संसार औऱ साहित्य अत्यन्त तुच्छ और महत्वहीन लगता है। इसकी विराटत्व हमारी कल्पना की अवधारणाओं से भी परे का है। इसके परायण के साथ थोरो वाल्डेन औऱ गंगा के पवित्र जल को आपस में मिलता देखते।

शाकाहर के पक्षधर - विगत सालों में मैंने अनेक बार महसूस किया है कि मैं जब भी मछली मारता हूँ, तो हर बार थोडा-सा आत्म-सम्मान घट जाता है। हर बार मछली मारने के बाद अनुभव किया है कि यदि मैंने यह न किया होता तो अच्छा होता।...मेरा विश्वास है कि जो भी अपनी श्रेष्ठतर मनोवृतियों को उत्तम अवस्था में सुरक्षित रखने का इच्छुक होता है, वह मांसाहार और किसी भी प्रकार के भोजन से बचने की ओर मुड़ता है। फिर, अधिक खाना तो कीट की लार्वावस्था ही में होता है।
सरोवर के तट पर दो वर्ष, दो माह, दो दिन के बाद थोरो यहाँ से विदा लेकर जीवन के अगले पड़ाव की ओर रुख करते हैं। सरोवर के तट पर प्रकृति की गोद में विताए अनमोल पलों को वाल्डेन के रुप में एक कालजयी रचना भावी पीढ़ी को दे जाते हैं, जिसका अवगाहन आज भी सुधि पाठकों को तरोताजा कर देता है।

रविवार, 23 अगस्त 2015

यात्रा वृतांत - सावन में नीलकंठ महादेव - प्रकृति की गोद में श्रद्धा-रोमांच का अनूठा संगम



मिले मन को शांति, हरे चित्त का संताप 

नैक से जुड़ी लम्बी तैयारी, थकाउ पारी और काल की छलना पलटवारी के बीच जीवन का ताप कुछ बढ़ चला था, सो प्रकृति की गोद में चित्त को हल्का करने का मन बन गया था। ऐसे में स्वाभाविक ही कालकूट का शमन करने बाली नीलकंठ महादेव की मनोरम वादी की याद आ गई और लगा कि बुलावा आ गया। सावन में कांवर लिए यात्रा की इच्छा अधूरी थी, सो वह भी आज अनायास ही पूरी हो रही थी। कुछ ऐसी ही इच्छा लिए राह को प्रकाशित करते दीपक हमारे सारथी बने। और हम अपनी स्कूटी सफारी में नीलकंठ महादेव के औचक सफर पर निकल पड़े।

दोपहर को अचानक प्रोग्राम बन गया था और तीन बजे हम चल दिए और लगभग दो घंटे बाद शाम पाँच बजे तक हम नीलकंठ महादेव पहुंच गए। रास्ते का सफर प्रकृति के सुरम्य आंचल में रोमाँच से भरा रहा, जितना गहरा हम इसके प्राकृतिक परिवेश में प्रवेश करते गए, उतना ही हम इसके आगोश में खोते गऐ और सहज ही मन शांत होता गया और संतप्त चित्त को एक हीलिंग टच मिलता गया।

देसंविवि से यात्रा रेल्वे फाटक पार करते हए निर्मित हो रहे फोर लेन हाइवे से होती हुई नेपाली फॉर्म, श्यामपुर फाटक से आगे बढ़ी। वीरभद्र-आइडीपीएल से रास्ता दाईं ओर मुड़ता है, यहाँ से बढ़ते हुए आगे बैराज पहुँचे। रास्ते में सामने नीलकंठ की पहाडियां मंजिल का सुमरण करा रही थी। आज तो इन पहाडियों पर बादल भी छाए थे, सो यह निमंत्रण कुछ अधिक ही मनमोहक लग रहा था। बैराज से गंगाजी की एक धारा नहर से होते हुए चीला डैम की ओर मोड़ी गई है, जिससे बिजली तैयार की जाती है। बाकि जल बैराज से सीधा गंगा जी की मुख्य धारा में गिरता है। यही जल आगे हरिद्वार में सप्तसरोवर क्षेत्र से बढ़ता हुआ घाट नं.10 पर नीलधारा में मिलकर हरकीपौड़ी की ओर बढ़ता है। गर्मी में बैराज का सारा जल नहर में ही सिमट जाता है, कुछ बुंदे ही मुख्यधारा में बचती हैं। अतः तब सप्तसरोवर का जल मुख्यता देहरादून से गंगाजी में मिलने वाली टोंस नदी का रहता है। इस सीजन में गंगा जी को पूरे बेग के साथ मुख्यधारा में बहते हुए देखकर एक सुखद अनुभूति हुई।

बैराज से एक सड़क मार्ग सीधा नीलकंठ के लिए जाता है, जो घने जंगल से होकर गुजरता है और आगे सीधी खड़ी चढ़ाई लिए हुए है। यह राजाजी नेशनल पार्क का हिस्सा है और इसे खतरनाक माना जाता है। अतः इसके प्रवेश में ही बन विभाग द्वारा जंगली जानवरों के खतरे से सचेत किया गया है। सड़क आगे गंगा जी के वाईं ओर से रामझूला की ओर बढ़ती है। सघन बनों के बीच टेड़ी-मेड़ी सड़क वाहन चालकों की अच्छी-खासी कसरत कराती है। रास्ते में हर दस कदम पर बरसाती नाले बहते मिले और साथ साथ छोटे-बढ़े झरने। इनका कलकल निनाद पूरे रास्ते भर बन से गुंजता मिला, जिसे सुनकर लगता कि जैसे की प्रकृति के गर्भ से अनहद-नाद गूंज रहा हो।

इसी रास्ते में आगे हमें बंदर बहुतायत में मिले। इंसान व वाहनों से वेखौफ ये रास्ते में आराम से बैठे थे, जैसे यह इनका अपना ही घर परिवार हो। यात्री कुछ ब्रेड बिस्कुट श्रद्धावश फैंकते रहते हैं, वही इनका प्रमुख प्रलोभन रहता है। मार्ग में हर मोड़ पर कोई वाहन आता जाता मिल रहा था, लगा सावन का सैर सपाटा अभी थमा नहीं है। ज्ञातव्य हो कि नीलकंठ कांवड़धारियों का एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल है। जिसमें सावन के दौरान रोज लाखों लोग गंगाजल चढ़ाते हैं। सिलसिला अभी तक थमा नहीं दिखा। कुछ वाइक्स में तो कुछ जीप-टैक्सियों व अन्य वाहनों में जाते दिखे। रास्ते में ही रामझूले से आता पैदल मार्ग मिला, जिसमें तीर्थयात्री पर्याप्त संख्या में अपने इष्टधाम की ओर बढ़ रहे थे व कुछ बापिस लौट रहे थे।

रास्ते में ही गुजरों की वस्ती मिली। गौलतलब हो कि गुजर खानावदोश लोग हैं, जो भैंस पालते हैं और इनके दूध-घी से अपनी गुजर बसर करते हैं। सर्दियों में ये निचले क्षेत्रों में चले जाते हैं। इनकी बस्ती आबाद दिखी। रास्ते में मोर पक्षियों का दल मिला। पहली वार इतनी संख्या में इन्हें देख मन प्रफुल्लित हुआ। थोड़ी ही देर में हम थोड़ी उँचाई में थे व सामने लक्ष्मण झूले की ओर से गंगाजी व नीचे ऋषिकेश के दर्शन हो रहे थे। दृष्य बहुत ही विहंगम व अवलोकनीय था। काफी दूर तक इस सुंदर नजारे का आनंद लेते रहे। पृष्ठभूमि में बादलों से ढकी हिमालय की पर्वतश्रृंखला व इनमें सबसे ऊँची चोटी पर कुंजा देवी के दर्शन हमें यहाँ से प्रत्यक्ष थे। रास्ते भर दनदनाते नाले व झरने बहुतायत में कदम-कदम पर स्वागत करते मिले व यात्रा को खुशनुमा बनाते रहे। आश्चर्य नहीं की यात्रीगण इनके किनारे अपने वाहन खड़ा कर इनमें स्नान से लेकर जल क्रीडा-क्लोल का पूरा आनन्द ले रहे थे।

थोड़ी ही देर में हम लक्ष्मणझूला से गुजरे। यहाँ खड़ी टेक्सियां यात्रियों को जीप सफारी के लिए आमंत्रण दे रही थी। यहाँ के कई मंजिला मंदिरों को पार करते हुए जल्द ही हम गंगाजी के एकदम किनारे आगे बढ़ रहे थे। गंगाजी पूरे बेग में हिमालय से उतरी भगीरथी, मंदाकिनी और अल्कनंदा की बरसाती धाराओं को समेटे महाबेग के साथ बढ़ती भयमिश्रित श्रद्धा का नजारा पेश कर रही थी। रास्ते में सड़क अपना असली परिचय देना शुरु कर चुकी थी। हर दस कदम पर गढ़ों की भरमार चालक की परीक्षा ले रही थी और सवारी को भी संभलकर बैठने का मौन-मुखर संदेश दे रही थी।

रास्ते में वाइं ओर से उसपार के नेशनल हाइवे से जोड़ता पुल मिला। आगे सड़क के किनारे योगा केंद्रों की भरमार मिली। पता चला कि यहाँ विदेशी पर्यटक शांति की खोज में यहाँ पर एकांत में स्थित योगा संस्थानों मेंं आते रहते हैं। कुछ किमी तक गंगाजी के किनारे आगे बढ़ते रहे, उसपार समांनांतर सडक पर देवप्रयोग की ओर बाहन बढ़ रहे थे, और इस ओर हम गंगाजी की धारा के विपरीत नीलकंठ की ओर। थोड़ी ही देर में रास्ता गंगाजी की धारा से मुडते हुए दाईं ओर से ऊपर चढ़ रहा था। वाईँ ओर से हिम्बल नदी का निर्मल नीला जल बहुत शांति सकून दे रहा था। इसके किनारे बसे धान के हरे खेत और गांव बहुत ही सुंदर  लग रहे थे, जिन्हें हम यथासंभव कैमरे में कैद कर रहे थे।

बारिश की हल्की बुंदे लगा हमारा स्वागत अभिसिंचन कर रही थीं। लेकिन जब बारिश और तेज हो चली, तो हम अपना-अपना रेनकोट, विंडचीटर आदि पहन कर आगे की चढ़ाई पार करते चले। रास्ते भर हर दिलकश नजारों को कैद करता कैमरा अब बंद हो चुका था। अब तक की यात्रा का सुहाना सफर अब तेज हो रही बारिश के साथ चुनौतीपूर्ण रोमांच में बदल चुका था। सड़कों में गढ़े रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। हर मोड़ पर दनदनाते नाले स्वागत कर रहे थे, बढ़ती बारिश के कारण इनका वेग चरम पर था और पानी का रंग कहीं लाल, कहीं काला, कहीं गेरुआ रंग लिए था। कहीं-कहीं नालों के कारण बने गढ़े इतने खतरनाक थे की थोडी सी भी चालक की असावधानी और नौसिखियापन एडवेंचर को मिस-एडवेंचर में बदल सकता था। साथ ही भूस्खलन के कारण मार्ग में फैली चिकनी मिट्टी ड्राइविंग स्किल का पूरा इम्तिहान ले रही थी।

बारिश का सिलसिला कहीं थमता, फिर शुरु होता। इस बीच रास्ते में आसमान छूती पहाडियां, इन पर छाई धुंध, दूर इनको कवर करती दूसरी कई पहाडियां बरबस ही ध्यान खींच रही थी। कैमरा बंद होने के कारण मोबाइल कैमरे से ही इनको यथासंभव केप्चर करते रहे। बारिश तेज हो चुकी थी। और हम नीलकंठ के स्वागत गेट को पार कर चुके थे। अब महज 6 किमी बाकि थे। लगभग 3 किमी के बाद गाडियों की भीड़ दिखी और पुलिस का दल। हम बारिश से बचने के लिए स्कूटी को मंदिर के समीप तक ले जाने की सोचे थे किंतु यातायात के पुलिस नियमों का पालन करते हुए वाहन यहीं रोकना पड़ा।

आगे का 3 किमी पैदल सफर धुंआधार बारिश के बीच पूरा हुआ। रुकने का कोई बिकल्प नहीं था, क्योंकि आज ही एक घंटे के अंदर अंधेरे से पहले नीचे उतरना था। इसलिए पुलिस की रोक टोक व यातायात के अमानवीय नियमों पर पर्याप्त आक्रोश उबल रहा था, और नीलकंठ महादेव की इच्छा अभी समझ से परे थी। अब बारिश से बचने का विचार त्याग चुके थे और पूरी तरह भीगते हुए बारिश का आनन्द लेते हुए मंजिल की ओर बढ़ते रहे। रास्ते भर खाली सड़क को देखकर मन के तर्क को ओर बल मिल रहा था कि स्कूटी जैसे दुपहिया वाहन को तो कहीं भी खड़ा किया जा सकता था, इसमें ट्रेफिक जाम जैसी कोई बात ही कहां थी। फिर मंदिर गेट पर ही कई दुपहिया वाहनों को खड़ा देख तर्क ओर पुष्ट हुआ।

जाने पहचाने मार्ग से हम मंदिर परिसर में प्रवेश किए। विष्णुकूट, ब्रह्मकूट और मणिकूट पर्वत से झरती मधुमता और पंकजा नदियां बरसाती बेग के साथ झर रहीं थी, दोनों संगम स्थल पर मिलकर नीचे कोलाहल करती हुई बढ़ रही थी। मंदिर गेट पर जूता उतार, दुकान से गंगाजल प्रसाद आदि लिए। स्थानीय दुकानदार को अपनी पार्किंग और भीगने की कथा-व्यथा वताई। जबाव तुरंत हाजिर था कि भोले के दरवार में 1-2 किमी पैदल चलकर आना तो अच्छी बात है, तप-पुण्य का कार्य है, इससे उनका सुमरण भक्ति ओर प्रगाढ़ होती है। दुकानदार का यह आस्थापूरित विचार हमें देववाणी जैसा लगा और हमारे मन का गुबार आधा शांत हो चुका था। अब तक की घटना को प्रभु इच्छा मान शांत मन से मंदिर में प्रवेश किए। पूर्जा अर्चना कर संगम को पार कर चाए की दुकान में ठौर ठिकाना बनाए।

भीगने की ठंड़क को गर्म चाय की चुस्की के साथ दूर करते रहे। इसके साथ ही कुछ पल आत्म चिंतन-मनन के बीते। जीवन दर्शन इस सफर के साथ कुछ ओर स्पष्ट हो चला। अपना चाय नाश्ता कर हम बापिस अपने वाहन की ओर चल दिए। समय का अभाव था सो आज यहींं से बापिस लौटना था। ज्ञातव्य हो कि यहीं से लगभग 2 किमी की दूरी पर पहाड़ी पर बसा माँं पार्वती का, भुवनेश्वरी मंदिर है। उसके लगभग 2 किमी आगे कार्तिकेय की तपःस्थली झिलमिल गुफा है, जो स्वयं में दर्शनीय स्थल है। मान्यता है कि गुरुगोरखनाथ जी ने यहीं शावर मंत्रों को सिद्ध किया था। यहीं से लगभग 1 किमी आगे गणेश गुफा है। इस तरह पूरा शिव परिवार यहाँ 5 किमी के दायरे में बसा है। इसी रास्ते में गंगा दर्शन ढावा है, जहाँ से नीचे गंगा जी व हरिद्वार पर्यन्त दृश्यों का विहंगावलोकन किया जा सकता है। यदि 1-2 घंटे और होते तो इनको भी अवश्य घूम लेते। समयाभाव के कारण इस इच्छा को अगली यात्रा के लिए छोड़ आए।

अब तक भीगे कपड़े सूख रहे थे। मौसम देखकर आश्चर्यचकित थे की अब बारिश का नामोनिशान नहीं था, बारिश थम चुकी थी। मौसम बहुत ही सुहावना लग रहा था। सामने गांव, संग हरे भरे खेत ओऱ पीछे पहाडियों में छाई धुंध व बादल के उड़ते फाहे एक आलौकिक एवं स्वर्गोपम दृश्य का सृजन कर रहे थे। रास्ते भरे इनको निहारते हुए आगे बढ़ते रहे व इनके साथ कुछ यागदार फोटो लिए। अबतक बारिश में भीगने का गम छूमंतर हो चुका था। स्कूटी को 3 किमी पहले खड़ा करने का आक्रोश शांत हो चुका था। तीर्थ स्थल का चित्त प्रशांतक प्रताप प्रत्यक्ष था और भोले बाबा की लीला कुछ समझ में आ रही थी। लगा सब एक सबक भरी परीक्षा थी, जो हमें सकारात्मक सोच व तर्क-आस्था के अंतर का पाठ सिखा गई। 3 किमी उतराई के बाद हम पार्किंग पहुँचे। 


स्कूटी में चढ़कर रास्ते भर फोटो खींचते हुए नीचे उतरे। चढ़ाई में बारिश के कारण जहाँ फोटो नहीं खेंच पाए थे वह कमी पूरी हो रही थी। प्रकृति का न्याय साफ दिख रहा था। आधा-पौना घंटे बाद अंधेरा गहरा हो रहा था। गढ़ों से भरी सड़क को पार करते हुए शीघ्र ही हम गंगाजी के किनारे पहुंच चुके थे। और थोड़ी ही देर में पुल पार करते हुए दाईं ओर बद्रीनाथ-हरिद्वार नेशनल हाइवे पर थे। रात के 8 बज चुके थे। लक्ष्मणझूला रामझूला पार करते हुए हम ऋषिकेश पहुंचे। आगे हरिद्वार तक भारी ट्रेफिक के बीच रात के 9 बजे देसंविवि पहुंचे।  
  
इस तरह 6 घंटे का यह श्रद्धा और रोमांच से भरा सफर पूरा हुआ। थकान तन पर अवश्य हावी थी, लेकिन मन संताप से हल्का मस्त मग्न था और सफर के एडवेंचर भरी सुखद समृतियों की जुगाली कर रहा था। इन्हीं को सुमरण करते हुए कलमबद्ध यात्रा वृतांत आपके सामने प्रस्तुत है। 
(अगर आपका कोई सुझाव या फीडबैक हो तो अवश्य सूचित करें, जानकार प्रसन्नता होगी व आवश्यक सुधार कर सकेंगे।)
    यदि नीलकंठ महादेव के संदर्भ में और अधिक जानकारी लेनी हो व इसके सभी ट्रैकिंग मार्ग को जानना हो तो हमारी पिछली ब्लॉग पोस्ट श्रद्धा और रोमाँच का अद्भुत संगम को पढ़ सकते हैं।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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