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रविवार, 31 जनवरी 2016

वर्तमान दुर्दशा, दुर्गति का जिम्मेदार कौन



अपनी जिम्मेदारी आप उठाएं और विषाद-अवसाद से बाहर उबरें

हमारी वर्तमान दुर्दशा-दुर्गति का कौन जिम्मेदार है। दूसरों को इसका जिम्मेदार ठहरा कर हम थोड़ी देर के लिए सकून-राहत अवश्य महसूस कर सकते हैं, लेकिन इसमें जीवन का दीर्घकालीन समाधान नहीं, इससे स्थिति सुधरने वाली नहीं। यह कुल मिलाकर खुद से धोखा है, जो आगे चलकर हमारे चारित्रिक पतन और दुर्गति को ही सुनिश्चित करता है। यदि हमारा वर्तमान संतोषजनक नहीं है तो इसके समाधान के लिए सबसे पहले हमें अपनी वर्तमान दुर्दशा, दुर्गति के पीछे सक्रिय दुर्मति, नेगेटिव सोच को पहचानना होगा, उसका जिम्मा लेना होगा। हम परिस्थितियों, वाहरी व्यवस्था से शिकायत कर सकते हैं आवश्यक संसाधनों की, अपेक्षित सहयोग की, निहायत जरुरतों की, लेकिन ये हमारे सकल आशा, उत्साह, साहस को कुंद करने के कारण नहीं हो सकते। ये हमें अवसाद-विषाद में डूबने, जीवन के प्रति नकारात्मक होने व खुद में उलझने के कारण नहीं हो सकते। 

एक इंसान होने के नाते, ईश्वर के दिव्य अंश होने के नाते, हमारे अंदर वह अग्नि, वह ज्वाला, वह चेतना, वह संकल्प, वह शक्ति, वह जिजीविषा, वह बल, वह संभावना मौजूद है, जो चट्टान के बीच भी जल की धार को फोड़ने में सक्षम है। जो हर चुनौती को एक अवसर के रुप में बदलने व संभावनाओं के अनन्त द्वार खोलने में समर्थ है। यदि इंसान सही में अपने अंतरतम् स्रोत से जुड़ कर, अपनी गहनतम परतों को उधाड़कर देख सके, तो कोई कारण नहीं कि वह सतत् वाहरी असहयोग, उपेक्षा, अवमानना, विरोध के बीच भी अपना मनचाहा रास्ता न निकाल सके ऐसे में असफलता का रोना रोते रहने और दूसरों को दुत्कारने की बजाए व्यक्ति अपना स्वतंत्र पथ प्रशस्त कर सकता है। 

इंसानी पुरुषार्थ असंभव को संभव कर सकता है। इतिहास गवाह है कि इंसान क्या नहीं कर सकता। वह चाहे तो रेगिस्तान से निर्मल जल की शीतल धार वहा सकता है, पहाड़ को फोड़ कर चलने का रास्ता बना सकता है, धरती की अतल गहराइयों को भेद सकता है, आकाश के अनन्त विस्तार को छू सकता है, शिखर की अगम्य उंचाइयों पर अपना झंडा गाढ़ सकता है। यानि उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं, वह कुछ भी कर सकता है। बस उसके ठानने भर की देर है। अपने अंदर निहित अकूत शक्ति भण्डार को निहारने भर की देर है। और प्रायः प्रतिकुलताओं के प्रहार इस अग्नि को प्रदीप्त करने के उत्प्रेरक बनते हैं, इसे ज्बाला का रुप देने में सहायक होते हैं।

ऐसी जाग्रत आत्मा के लिए कुछ भी असंभव नहीं। फिर उसका हर कदम अपार धैर्य, अथक श्रम, अनवरत पुरुषार्थ और दृढ़ संकल्प के साथ ठानी को साकार करने की दिशा में बढ़ चलता है। लेकिन इसका पहला कदम तो अपनी वर्तमान दुर्दशा, अपनी दुर्गति, अपनी गयी वीती, पिछडी-बिगड़ी स्थिति की पूरी जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेने के साथ शुरु होता है। अन्यथा दूसरों को कोसते रहने में और अंदर कुढ़ने में अपना समय, ऊर्जा और मनोयोग बर्वाद करने का नकारा बिकल्प किसी काम नहीं आता। और यह किसी भी तरह एक स्वाभिमानी इंसान को शोभा भी नहीं देता। इस नकारात्मक मनःस्थिति से कभी किसी समाधान की आशा नहीं की जा सकती, न ही इससे किन्हीं सकारात्मक परिणामों की किरण ही झिलमिला सकती। वर्तमान विषाद-अवसाद से बाहर निकलने का एक मात्र उपाय अपनी जिम्मेदारी का भाव और जाग्रत संकल्प ही है।


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