यह कभी माँगी न जाए, आदशों की सहज दीवानी,
श्रद्धा गहन अंतराल में प्रवाहित एक झरना,
आदर्शों की खातिर जूझना, जीना-मरना।
श्रद्धा न बिके बाजारों में, मंच-गली-चौबारों में,
सबकुछ खोकर सबकुछ पाने का हुनर यह,
खिले यह बलिदानी गलियारों में,
कुर्बान होते जहाँ अपने गुमनाम अँधियारों में।
श्रद्धा पलती खेत खलिहानों में,
तपे जहाँ जीवन मौसम सर्द अंगारों में।
श्रद्धा बरसती नींव के हर उस पत्थर पर,
जो पल-पल मिट रहा ईष्ट के ईशारों पर।
कबसे सुनता आया हूँ जमाने की ये बातें,
व्यवहारिक बनों, आदर्शों से पेट नहीं भरता,
सच है कि आदर्शों से परिवार नहीं पलता।
लेकिन, सोचो, क्या हम यह खुली सांस ले पाते,
अगर भगत सिंह, बिस्मिल, आजाद, सुभाष न होते।
आती क्या विदेशी
हुकूमत को उखाड़ने वाली आँधी,
अगर न होते साथ आदर्शों के
मूर्ति फकीर गाँधी।
क्या इस कलयुग में सतयुगी प्रसून खिलते।
सोचो अगर स्वामी विवेकानन्द न होते,
क्या इतने दिए श्रद्धा-आदर्शों के जलते।
सोचो अगर युगऋषि आचार्य श्रीराम न होते,
क्या ऋषियों के सूत्र गृहस्थ में ग्राह्य बनते।
सारा इतिहास रोशन, इन्हीं संतों, सुधारकों, शहीदों की कहानी,
तभी इस माटी में दम कुछ ऐसा, जो हस्ती मिटती नहीं हमारी।
नहीं यह महज महापुरुषों, नायकों की कथा-व्यानी,
यह हर इंसान, नेक रुह की संघर्ष कहानी,
अंतर में जहाँ टिमटिमा रहा दीया श्रद्धा का,
आदर्शों की कसौटी पे कस रही रुह दीवानी,
श्रम-सेवा, संयम-त्याग का ले खाद पानी,
धधक रहा जहाँ जज्बा
आत्म-बलिदानी।
आदर्शों की खातिर जीने-मरने
की यह कहानी।