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सोमवार, 1 जुलाई 2024

2024 की गर्मी की मार के बीच के कुछ सवक

 

गर्मी की मार, राहत की बौछार और उभरता जीवन दर्शन

इस वार गर्मी की जो मार पड़ी है, वह लम्बे समय तक याद रहेगी। मार्च से शुरु, अप्रैल में सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए, मई में अपने चरम को छूती हुई, जून में हीट वेव के रुप में देश के एक बढ़े हिस्से को एक धधकती भट्टी में तपाती हुई, वर्ष 2024 की गर्मी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है और साथ ही गहरा संदेश भी दे गई है। यदि मानव चेतता है, तो उसे आगे ऐसे गर्मी की नरकाग्नि में नहीं झुलसना पड़ेगा, लेकिन मानव की फितरत है कि इतनी आसानी से सुधरने वाला नहीं। अपने सुख-भोग और सुविधाओं में कटौती करने के लिए शायद ही वह राजी हो।

हर वर्ष पर्यावरण संतुलन, जलवायु परिवर्तन पर विश्व स्तर पर बड़े-बड़े आयोजन होते रहते हैं, लेकिन नतीजे वही ढाक के तीन पात। कोई भी विकसित राष्ट्र अपने ग्रीनहाउस व कार्वन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने वाला नहीं। गर्मी में चौबीसों घंटों ऐसी की भी सुविधा चाहिए और तापमान भी नियंत्रण में रहे, ये कैसे संभव है। थोड़ा सा गर्मी को बर्दाश्त करते हुए, प्राकृतिक जीवन शैली को अपनाने के लिए कितने बड़े देश तैयार हैं। देशों की बातें छोड़ें, हम अपने देश, समाज, पड़ोस, घर की ही बात कर लें। आइने में तस्वीर साफ है। कोई इतनी आसानी से सुधरने के लिए तैयार नहीं है। कोविड काल जैसा एक झटका ही उसे थोड़ी देर के लिए होश में ला सकता है। लेकिन फिर स्थिति सामान्य होने पर वह सबकुछ भूल जाता है। यही इंसानी फितरत है, जो किसी बड़े व स्थायी बदलाव व सुधार के प्रति सहजता से तैयार नहीं हो पाती।

हालांकि प्रकृति अपने ढंग से काम करती है, वह इसमें विद्यमान ईश्वर के ईशारों पर चलती है। वह जब चाहे एक झटके में इंसान की अकल को ठिकाने लगा सकती है। फिर युगपरिवर्तन की बागड़ोर काल के भी काल स्वयं महाकाल के हाथों में हो, तो फिर अधिक सोचने व चिंता की जरुरत नहीं। वह उचित समय पर अपना हस्तक्षेप अवश्य करेगा। हम तो अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करते रहें, अपने कर्तव्य का निर्वाह जिम्मेदारी से करते रहें, इतना ही काफी है। और इससे अधिक एक व्यक्ति कर भी क्या सकता है। अपनी जड़ता व ढर्रे में चलने के लिए अभ्यस्त समूह के साथ माथा फोड़ने में बहुत समझदारी भी तो नहीं लगती।

लेकिन जो ग्रहणशील हैं, समझदार हैं, संवेदशनशील हैं, अस्तित्व के सत्य को जानने व इसे परिवर्तित करने के लिए सचेष्ट हैं, उनसे तो बात की ही जा सकती है। इस बार की गर्मी के सवक सामूहिक रुप में स्पष्ट थे, व्यैक्तिक रुप में भी कई चीजें समझ में आई, जिन्हें यहाँ साझा कर रहे हैं, हो सकता है कि आप भी इनसे बहुत कुछ समहत हों, तथा इसी दिशा में कुछ एक्टिविज्म की सोच रहे हों।

गर्मी बढ़ती गई, हम भी इसको सहते गए। टॉफ फ्लोर में कमरा होने के नाते तपती छत व दिवारों के साथ कमरा भी तपता रहा और अपने चरम पर हमें याद है, जब हीट वेव अपने चरम पर थी, रात को 2 बजे जब नींद खुलती तो पंखे गर्म हवा ही फैंक रहे थे, चादर गर्म थी, विस्तर पसीने से भीगा हुआ। किसी तरह रातें कटती रहीं। फिर शरीर की एक आदत है कि इसे जिन हालातों में छोड़ दें, तो वह स्वयं को ढाल लेता है। मन ने जब स्वीकार कर लिया की इस गर्मी में रहना है, तो शरीर भी ढल जाता है। जब दिन में अपने कार्यस्थल तक तपती धूप में चलते, तो श्रीमाँ की एक बात याद आती। सूर्य़ का एक भौतिक स्वरुप है तो दूसरा आध्यात्मिक। इसके आध्यात्मिक स्वरुप का भाव-चिंतन करते हुए सोच रही कि इसके ताप के साथ तन-मन की हर परत के कषाय-कल्मष गल रहे हैं। ऐसा करने पर राह में दिन का सूर्य का ताप अनुकूल प्रतीत होता। लगा कि सूर्य के साथ एक आत्मिक रिश्ता जोड़कर इसे भी तप-साधना का हिस्सा बना सकते हैं। फिर याद आती साधु-बाबाओँ की, जो तपती भरी दोपहरी में भी चारों ओर कंडों-उपलों में आग लगाकर इसके बीच आसन जमाकर पंचाग्नि तप करते हैं। याद आती कुछ साधकों की जो धधकती आग पर चलने के करतव दिखाते। संभवतः एक विशिष्ट मनःस्थिति में यह सब कुछ संभव होता है।

याद आता रहा युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री का तपस्वी व्यक्तित्व, जो सबसे ऊपरी मंजिल में कमरा होते हुए भी गर्मियों में भी अपने लिए पंखें का उपयोग नहीं करते थे, जब मेहमान आते, तो उनका पंखा चलता। बिना पंखें के गर्मी में भी उनकी तप साधना, अध्ययन लेखन व सृजन साधना निर्बाध रुप में चलती रहती।

लेकिन परिस्थितियों की मार के आगे सामान्य मन के प्रयास शिथिल पड़ जाते हैं। इसी बीच कार्यस्थल पर अनिवार्य सामूहिक कार्य से घंटों ऐसी में बैठना पड़ा, जो सुविधा से अधिक कष्टकर प्रतीत होता रहा। और तीन-चार दिन, दिन भर ऐसी में घंटों बैठने की मजबूरी और शेष समय तथा रात भर कमरे में तपती छत के नीचे की आँच। दोनों का विरोधाभासी स्वरुप तन-मन पर प्रतिकूल असर डालता प्रतीत हुआ। लगा कि ऐसी में रहना बहुत समझदारी वाला काम नहीं।

जब बाहर का तापमान 40, 42, 45 डिग्री सेल्सियस चल रहा हो तो ऐसी के 18, 16 या 20-24 डिग्री सेल्सियस की ठंड में रहना कितना उचित है, ये विचार करने योग्य है। शायद ही इस पर कोई अधिक विचार करता हो। क्योंकि इस ऐसी में भी जब पूरी स्पीड में पंखे चलते दिखते हैं, तो यह सोच ओर पुष्ट हो जाती है। अंदर बाहर के तापमान में 20 से लेकर 30 डिग्री का अंतर, तन-मन की प्रतिरोधक क्षमता पर कितना असर डालता होता, सोचने की बात है। हमारे विचार में यह गैप जितना कम हो, उतना ही श्रेष्ठ है। 

हमारा स्पष्ट विचार है कि ऐसी जैसी सुविधाओं का गर्मी के मौसम में इतना ही मसकद हो सकता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क सामान्य ढंग से काम करता रहे। परिवेश व कमरे का तापमान इतना रहे कि दिमाग सामान्य ढंग से काम करता रहे। अत्य़धिक कष्ट होने पर थोड़ी देर के लिए मौसम के हिसाव से सर्दी के विकल्प तलाशे जा सकते हैं, लेकिन इसे बिना सोचे समझे ढोना, अति तक ले जाना और जीवनशैली का अंग बनाना, तन-मन की प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण करना है, अपनी जीवट की जड़ों पर प्रहार करने जैसा है, जो किसी भी रुप में समझदारी भरा काम नहीं।

गर्मी की लहर के चरम पर जून के तीसरे सप्ताह में प्री मौनसून वारिश की बौछारों के साथ हीट वेब की झुलसन से कुछ राहत मिली। ऐसे लगा कि जनता की सम्वेत पुकार पर ईश्वर कृपा बादलों से बारिश की बूंदों के रुप में बरस कर सबको आशीर्वाद दे रही हो। इस बारिश की टाइम्गिं भी कुछ ऐसी थी, कि एक विशिष्ट कार्य पूरा होते ही, जैसे इसकी पूर्णाहुति के रुप में राहत की बौछार हुई। जो भी हो, हर सृजन साधक अनुभव करता है कि तप के चरम पर ही ईश्वर कृपा वरसती है। जीवन के इस दर्शन को अस्तित्व के गंभीर द्वन्दों के बीच अनुभव किया जा सकता है।

जीवन के उतार चढ़ाव, गर्मी-सर्दी, सुख-दुःख, मान-अपमान, जय-पराजय, जीवन-मरण के बीच भी जो धैर्यवान हैं, सहिष्णु हैं, सत्यनिष्ठ हैं, धर्मपरायण हैं, ईश्वरनिष्ठ हैं - वे इस सत्य को बखूवी जानते हैं। तप के चरम पर दैवीय कृपा अजस्र रुपों में बरसती है और सत्पात्र को निहाल कर देती है। आखिर हर घटना, हर संयोग-वियोग के पीछे ईश्वरी इच्छा काम कर रही होती है, और साथ ही समानान्तर अपने कर्मों का हिसाव-किताव चल रहा होता है। लेकिन जो भी होता है, अच्छे के लिए हो रहा होता है। धीर-वीर इसके मर्म को समझते हैं और हर द्वन्दात्मक अनुभव के बीच निखरते हुए, उनके कदम जीवन के केंद्र की ओर, इसके मर्म के समीप पहुँच रहे होते हैं।

शुक्रवार, 31 मार्च 2023

खेल जन्म-जन्मांतर का है ये प्यारे

 

जब न मिले चित्त को शांति, सुकून, सहारा और समाधान

जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, ऐसी घटनाएं घटती हैं, ऐसी समस्याओं से जूझना पड़ता है, जिनका तात्कालिक कोई कारण समझ नहीं आता और न ही त्वरित कोई समाधान भी उपलब्ध हो पाता। ऐसे में जहाँ अपना अस्तित्व दूसरों के लिए प्रश्नों के घेरे में रहता है, वहीं स्वयं के लिए भी यह किसी पहेली से कम नहीं लगता।

यदि आप भी कुछ ऐसे जीवन के अनुभवों से गुजर रहे हैं, या उलझे हुए हैं, तो मानकर चलें कि यह कोई बड़ी बात नहीं। यह इस धरती पर जीवन का एक सर्वप्रचलित स्वरुप है, माया के अधीन जगत का एक कड़ुआ सच है। वास्तव में येही प्रश्न, ये ही समस्याएं, येही बातें जीवन को ओर गहराई में उतरकर अनुसंधान के लिए प्रेरित करती हैं, समाधान के लिए विवश-वाधित करती हैं।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक व्यवहार में व्यक्तित्व की परिभाषा खोजने वाला आधुनिक मनोविज्ञान मन की पहेलियों के समाधान खोजते-खोजते फ्रायड महोदय के साथ वीसवीं सदी के प्रारम्भ में मनोविश्लेषण की विधा को जन्म देता है। फ्रायड की काम-केंद्रित व्याख्याओं से असंतुष्ट एडलर, जुंग जैसे शिष्य मनोविश्लेषण कि विधा में नया आयाम जोड़ते हैं। इनके उत्तरों में अपने समाधान न पाने वाले मैस्लो मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं (Hierarchy of Needs) की एक श्रृंखला परिभाषित कर जाते हैं, जिनमें अध्यात्म को भी स्थान मिल जाता है।

इससे भी आगे जीवन को समग्रता में समझने की कोशिश में मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिक मनोविज्ञान पर शोध-अनुसंधान कर रहे हैं। हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व योग-मनोविज्ञान के रुप में अष्टांग योग का एक व्यवहारिक एवं व्यवस्थित राजमार्ग उद्घाटित किया था, जिसका अनुसरण करते हुए व्यक्ति अपने जीवन की पहेली को सुलझा सके। क्योंकि यह कोई बौद्धिक तर्क-वितर्क तक सीमित विधा नहीं, बल्कि जीवन साधक बनकर अस्तित्व के साथ एक होने व जीने की पद्वति का नाम है।

यहाँ हर घटना कार्य-कारण के सिद्धान्त पर कार्य कर रही है। हम जो आज हैं, वो हमारे पिछले कर्मों का फल है और जो आज हम कर रहे हैं, उसकी परिणति हमारा भावी जीवन होने वाला है। वह अच्छा है या बुरा, उत्कृष्ट है या निकृष्ट, भव्य है या घृणित, असफल है या सफल, अशांत-क्लांत है या प्रसन्न-शांत – सब हमारे विचार-भाव व कर्मों के सम्मिलित स्वरुप पर निर्धारित होना तय है।

यही ऋषि प्रणीत कर्मफल का अकाट्य सिद्धान्त ईश्वरीय विधान के रुप में जीवन का संचालन कर रहा है। यदि हम पुण्य कर्म करते हैं, तो इनके सुफल हमें मिलने तय हैं और यदि हम पाप कर्म करते हैं, तो इनके कुफल से भी हम बच नहीं सकते। देर-सबेर पककर ये हमारे दरबाजे पर दस्तक देते मिलेंगे। इसी के अनुरुप स्वर्ग व नरक की कल्पना की गई है, जिसे दैनिक स्तर पर मानसिक रुप से भोगे जा रहे स्वर्गतुल्य या नारकीय अनुभवों के रुप में हर कोई अनुभव करता है। मरने के बाद शास्त्रों में वर्णित स्वर्ग-नरक का स्वरुप कितना सत्य है, कुछ कह नहीं सकते, लेकिन जीते-जी शरीर छोड़ने तक इसके स्वर्गोपम एवं मरणात्क अनुभवों से गुजरते देख स्वर्ग-नरक के प्रत्यक्ष दर्शन किए जा सकते हैं।

दैनिक जीवन की परिस्थितियों, घटनाओं व मनःस्थिति में भी इन्हीं कर्मों की गुंज को सुन सकते हैं और गहराई में उतरने पर इनके बीजों को खोज सकते हैं। नियमित रुप से अपनाई गई आत्मचिंतन एवं विश्लेषण की प्रक्रिया इनके स्वरुप को स्पष्ट करती है। कई बार तो ये स्वप्न में भी अपनी झलक-झांकी दे जाते हैं। दूसरों के व्यवहार, प्रतिक्रिया व जीवन के अवलोकन के आधार पर भी इनका अनुमान लगाया जा सकता है। एक साधक व सत्य-अन्वेषक हर व्यक्ति व घटना के मध्य अपने अंतर सत्य को समझने-जानने व खोजने की कोशिश करता है।

जब कोई तत्कालिक कारण नहीं मिलते तो इसे पूर्व जन्मों के कर्मों से जोड़कर देखता है औऱ जन्म-जन्मांतर की कड़ियों को सुलझाने की कोशिश करता है। यह प्रक्रिया सरल-सहज भी हो सकती है औऱ कष्ट-साध्य, दुस्साध्य भी। यह जीवन के प्रति सजगता व बेहोशी पर निर्भर करता है। माया-मोह व अज्ञानता में डूबे व्यक्ति के जीवन में ऐसे अनुभव प्रायः भुकम्प बन कर आते हैं, शॉकिंग अनुभवों के आँधी-तुफां तथा सुनामी की तरह आते हैं तथा अस्तित्व को झकझोर कर जीवन व जगत के तत्व-बोध का उपहार दे जाते हैं।

इन्हीं के मध्य सजग साधक समाधान के बीजों को पाता है, जबकि लापरवाह व्यक्ति दूसरों पर या नियति या भगवान को दोषारोपण करता हुआ, इन समाधान से वंचित रह जाता है। वस्तुतः इसमें स्वाध्याय-सतसंग से प्राप्त जीवन दृष्टि व आत्म-श्रद्धा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। और इनके साथ गुरुकृपा व ईश्वर कृपा का अपना स्थान रहता है। अतः आत्म-निष्ठ, ईश्वर परायण व सत्य-उपासक साधक कभी निराश नहीं होते। गहन अंधकार के बीच भी वे भौर के प्रकाश की आश लिए आस्थावान ह्दय के साथ दैवीय कृपा के प्रसाद का इंतजार करते हैं और देर-सबेर उसे पा भी जाते हैं।

मंगलवार, 31 जनवरी 2023

हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान

 

जीवन – मृत्यु का शाश्वत चक्र, वियोग विछोह और गहन संताप

हे प्रभु कैसी ये तेरी लीला-माया, कैसा ये तेरा विचित्र विधान,

प्रश्नों के अंबार हैं जेहन में, कितनों के उत्तर हैं शेष,

लेकिन मिलकर रहेगा समाधान, है ये पूर्ण विश्वास ।0


आज कोई बिलखता हुआ छोड़ गया हमें,

लेकिन इसमें उसका क्या दोष,

उसे भी तो नहीं था इसका अंदेशा,

कुछ समझ नहीं आया प्रभु तेरा ये खेल 1

 

ऐसे ही हम भी तो छोड़ गए होंगे बिलखता कभी किन्हीं को,

आज हमें कुछ भी याद तक नहीं,

नया अध्याय जी रहे जीवन का अपनों के संग,

पिछले बिछुड़े हुए अपनों का कोई भान तक नहीं ।2

 

ऐसे में कितना विचित्र ये चक्र सृष्टि का, जीवन का,

कहीं जन्म हो रहा, घर हो रहे आबाद,

तो कहीं मरण के साथ, बसे घरोंदे हो रहे बर्वाद,

कहना मुश्किल इच्छा प्रभु तेरी, लीला तेरी तू ही जाने ।3

 

ऐसे में क्या अर्थ है इस जीवन का,

जिसमें चाहते हुए भी सदा किसी का साथ नहीं,

बिछुड़ गए जो एक बार इस धरा से,

उन्हें भी तो आगे-पीछे का कुछ अधिक भान नहीं ।4

 

कौन कहाँ गया, अब किस अवस्था में,

काश कोई बतला देता, दिखला देता,

जीवन-मरण की गुत्थी को हमेशा के लिए सुलझा देता,

लेकिन यहाँ तो प्रत्यक्ष ऐसा कोई ईश्वर का विधान नहीं ।5

 

ऐसे में गुरुजनों के समाधान, शास्त्रों के पैगाम,

शोक सागर में डुबतों के लिए जैसे तिनके का सहारा,

संतप्त मन को मिले कुछ सान्तवना, कुछ विश्राम,

स्रष्टा का ये कृपा विधान भी शायद कुछ कम नहीं ।6

 

बाकि तेरी ये सृष्टि, तेरा ये खेल प्रभु तू ही जाने,

यहाँ तो प्रश्नों के लगे हैं अम्बार और बहुतों के हैं शेष समाधान,

लेकिन अन्तर में लिए धैर्य अनन्त, है तुझ पर विश्वास अपार,

किश्तों में मिल रहे उत्तर, आखिर हो कर रहेगा पूर्ण समाधान ।7

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शनिवार, 31 दिसंबर 2022

जीवन दर्शन - मन की ये विचित्र माया

 

बन द्रष्टा, योगी, वीर साधक


 
                             मन की ये माया

गहन इसका साया

चुंगल में जो फंस गया इसके

तो उसको फिर रव ने ही बचाया ।1।

 

खेल सारा अपने ही कर्मों का

इसी का भूत बने मन का साया

आँखों में तनिक झाँक-देख लो इसको

फिर देख, ये कैसे पीछ हट जाए ।2।

 



मन का बैसे कोई वजूद नहीं अपना

अपने ही विचार कल्पनाओं की ये माया

जिसने सीख लिया थामना इसको

उसी ने जीवन का आनन्द-भेद पाया ।3।

 

वरना ये मन की विचित्र माया,

गहन अकाटय इसका आभासी साया

नहीं लगाम दी इसको अगर,

तो उंगलियों पर फिर इसने नचाया ।4।

 

बन योगी, बन ध्यानी, बन वीर साधक,

देख खेल इस मन का बन द्रष्टा

जी हर पल, हर दिन इसी रोमाँच में

देख फिर इस जगत का खेल-तमाशा ।5।


रविवार, 25 दिसंबर 2022

मृत्यु का अटल सत्य और उभरता जीवन दर्शन

जीवन की महायात्रा और ये धरती एक सराय

मृत्यु इस जीवन की सबसे बड़ी पहेली है और साथ ही सबसे बड़ा भय भी, चाहे वह अपनी हो या अपने किसी नजदीकी रिश्ते, सम्बन्धी या आत्मीय परिजन की। ऐसा क्यों है, इसके कई कारण हैं। जिसमें प्रमुख है स्वयं को देह तक सीमित मानना, जिस कारण अपनी देह के नाश व इससे जुड़ी पीड़ा की कल्पना से व्यक्ति भयाक्रांत रहता है। फिर अपने निकट सम्बन्धियों, रिश्तों-नातों, मित्रों के बिछुड़ने व खोने की वेदना-पीड़ा, जिनको हम अपने जीवन का आधार बनाए होते हैं व जिनके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। और तीसरा सांसारिक इच्छाएं-कामनाएं-वासनाएं-महत्वाकांक्षाएं, जिनके लिए हम दिन-रात को एक कर अपने ख्वावों का महल खड़ा कर रहे होते हैं, जैसे कि हमें इसी धरती पर हर-हमेशा के लिए रहना है और यही हमारा स्थायी घर है।

लेकिन मृत्यु का नाम सुनते ही, इसकी आहट मिलते ही, इसका साक्षात्कार होते हैं, ये तीनों तार, बुने हुए सपने, अरमानों के महल ताश के पत्तों की ढेरी की भाँति पल भर में धड़ाशयी होते दिखते हैं, एक ही झटके में इन पर बिजली गिरने की दुर्घटना का विल्पवी मंजर सामने आ खडा होता है। एक ही पल में सारे सपने चकानाचूर हो जाते हैं व जीवन शून्य पर आकर खड़ा हो जाता है।

जो भी हो, मृत्यु एक अकाट्य सत्य है, देर सबेर सभी को इससे होकर गुजरना है, किसी को पहले तो किसी को बाद में, सबका नम्बर तय है, बल्कि जन्म लेते ही इसकी उल्टी गिनती शुरु हो चुकी होती है। हर दूसरे व्यक्ति के मौत के साथ इसकी सूचना की घण्टी बजती रहती है, लेकिन मन सोचता है कि दूसरों की ही तो मौत हुई है, हम तो जिंदा है और मौत का यह सिलसिला तो चलता रहता है, मेरी मौत में अभी देर है। यह मन की माया का एक विचित्र खेल है। लेकिन हर व्यक्ति की सांसें निर्धारित हैं, यहाँ तक की मृत्यु का स्थान और तरीका भी। हालाँकि यह बात दूसरी है इस सत्य से अधिकाँश लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं। केवल त्रिकालदर्शी दिव्य आत्माएं व सिद्ध पुरुष ही इसके यथार्थ से भिज्ञ रहते हैं।

जब कोई पूरी आयु जीकर संसार छोड़ता है, तो उसमें अधिक गम नहीं होता, क्योंकि सभी इसके लिए पर्याप्त रुप से तैयार होते हैं, विदाई ले रही जीवात्मा भी और उसके परिवार व निकट परिजन भी। लेकिन जब कोई समय से पहले इस दुनियाँ को अल्विदा कह जाता है, या काल का क्रूर शिंकंजा उसको हमसे छीन लेता है या कहें भगवान बुला लेता है, तो फिर एक बज्रपात सा अनुभव होता है, एक भूचाल सा आ जाता है, जिसमें शुरु में कुछ अधिक समझ नहीं आता। व्यक्ति अपनी कॉम्मन सेंस के आधार पर स्थिति को संभालता है, परिस्थिति से निपटता है। ऐसे में अपनों का व शुभचिंतकों का सहयोग-सम्बल मलमह का काम करता है। धीरे-धीरे कुछ सप्ताह, माह बाद व्यक्ति इस शोकाकुल अवस्था से स्वयं को बाहर निकलता हुआ पाता है।

इस तरह काल जख्म को भरने की अचूक औषधि सावित होता है। लेकिन जख्म तो जख्म ही ठहरे। कुरेदने पर, यादों के ताजा होने पर यदा-कदा रुह को कचोटने वाली वेदना के रुप में उभरते रहते हैं, जो हर भुगत भोगी के हिस्से में आते हैं। ऐसे स्थिति में भावुक होना स्वाभाविक है, आंसुओं का झरना स्वाभाविक है, ह्दय में भावों का स्फोट स्वाभाविक है। लेकिन रोते-कलपते ही रहा जाए, शोक ही मनाते रहा जाए, तो इसमें भी समाधान नहीं, किसी भी प्रकार तन-मन व आत्मा के लिए यह हितकर नहीं। इस स्थिति से उबरने के लिए हर धर्म, संस्कृति व समाज में ऐसी सामूहिक व्यवस्था रहती है, कि शोक बंट जाता है व परिवार का मन हल्का होता है। सनातन धर्म में इसके निमित तेरह दिन, एक माह या चालीस दिन तथा इससे आगे तक धार्मिक कर्मकाण्डों का सिलसिला चलता रहता है, जिनका शोक निवारण के संदर्भ में अपना महत्व रहता है। हर वर्ष पितृ-पक्ष में श्राद्ध तर्पण का विधान इसी तरह का एक विशिष्ट प्रयोग रहता है।

इनके साथ अपनी शोक-वेदना को सृजनात्मक मोड़ दिया जाता है। इसमें जीवन-मरण, लोक-परलोक व अध्यात्म से जुड़ी पुस्तकों का परायण बहुत सहायक रहता है। इनसे एक तो सांत्वना मिलती है, दूसरा इनके प्रकाश में जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि व समझ विकसित होती है, जो इस शोकाकुल समय को पार करने में बहुत कारगर रहती हैं।

साथ ही समझ आता है, कि धरती अपना असली घर नहीं, असली घर तो आध्यात्मिक जगत है, जहाँ जीवात्मा देह छोड़ने के बाद वास करती है। हालाँकि इस मृत्युलोक और जीवात्मा जगत के बीच यात्रा का सिलसिला चलता रहता है, जब तक कि जीवात्मा मुक्त न हो जाए। इस प्रक्रिया पर थोडा सा भी गहराई से चिंतन व विचार मंथन जाने-अनजाने में ही व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवन की गहराइयों में प्रवेश दिला देता है। और इसके साथ जीवन-मरण, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, कर्मफल सिद्धान्त जैसी बातें गहराई में समझ आने लगती हैं। समझ आता है कि जन्म-मरण का सिलसिला न जाने कितना बार घटित हो चुका है और आगे कितनी बार इससे गुजरा शेष है, जब तक कि कर्मों का हिसाब-किताब पूरा न हो जाए।

समझ आता है कि धरती पर जन्म अपने कर्मों के सुधार के लिए होता है, यह धरती एक प्रशिक्षण केंद्र है, कर्मभोग की भूमि है और साथ ही कर्मयोग भूमि भी, जहाँ एक अच्छे एवं श्रेष्ठ जीवन जीते हुए अपना आत्म परिष्कार करते हुए, जीवात्मा जगत में अपने स्तर को उन्नत करना है। संयम-सदाचार से लेकर सेवा साधना आदि के साथ अपने सद्गुणों का विकास करते हुए जीवात्मा अपने कर्म सुधार कर सकती है तथा इनके अनुरुप जीवात्मा जगत में उच्चतर लोकों में स्थान मिलता है।

इन सबके साथ जीवन-मरण का खेल और मृत्यु की अबुझ पहेली के समाधान तार हाथ में आने शुरु हो जाते हैं व धरती पर एक सार्थक जीवन के मायने व अर्थ समझ आते हैं। सांसारिक मोह-माया व अज्ञानता-मूढ़ता की बेहोशी टूटती है व एक नए होश, जोश व समझ के साथ जीवन के क्रियाक्लापों का पुनर्निधारण होता है। इस सबमें ईश्वर या किसी दूसरे को दोषी मानने की भूल से भी बचाव होता है। अंततः अपने कर्मों के ईर्द-गिर्द ही सब केंद्रित समझ आता है - जन्म भी, मृत्यु भी, स्वर्ग भी, नरक भी, पुनर्जन्म भी और अन्ततः मुक्ति भी। इसके साथ ही हर स्तर पर अपनी भूल-चूक, त्रुटियों व गल्तियों के सुधार, अपने दोषों के परिमार्जन व अपने कर्मों के सुधार की प्रक्रिया अधिक प्रगाढ़ रुप में गति पकड़ती है।

इस तरह मृत्यु के सत्य से दीक्षित पथिक इस धरती रुपी सराय का बेहतरतम उपयोग करता है और जब मृत्यु रुपी दूत दस्तक दे जाता है, तो पथिक अपनी अर्जित धर्म-पुण्य और सत्कर्मों की पूँजी के साथ बोरिया-बिस्तर समेटते हुए इस धरती पर एक प्रेरक विरासत छोड़ते हुए महायात्रा के अगले पड़ाव की ओर बढ़ चलता है।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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