डुग्गीलग घाटी में ऋषि जम्दग्नि के प्रांगण तक
सितम्बर 2023 का पहला सप्ताह, हिमालय के पहाड़ी
आंचलों में जुलाई-अगस्त की बरसात के बाद हरियाली की चादर ओढ़े धऱती माता, फूलों के
गलीचों के साथ सजे बुग्याल, चारों ओर दनदनाते नदी-नाले, मौसम न अधिक गर्म न सर्द –
निसंदेह रुप में पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य़ इस समय अपने पूरे श्बाव पर था, जो
प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ों को सहज ही यात्रा का मूक निमंत्रण दे रहा था।
कुल्लू से छोटे भाई के संग सफर शुरु होता है घर
से। कुछ ही मिनटों में कुल्लू शहर के ढालपुर मैदान के पास सीनियर सैकेंडरी स्कूल
से वाहन दाईं ओर यू-टर्न लेता है, एक नई घाटी में प्रवेश होता है, यह है कुल्लू की
डुग्गी लग वैली। नाम के अनुरुप यह डुग्गी अर्थात गहरी घाटी है और संकरी भी। दो-तीन
वर्ष पहले मैं इस घाटी के दर्शन के लिए हिमाचल रोडवेज की बस में कुल्लू से कोलंग
तक गया था। यह रुट मुझे एक अलग ही दुनियाँ में विचरण की अनुभूति दे गया था और रहस्य
रोमाँच का जखीरा लगा था।
इस बार हम इस रास्ते पर पहले ही भुटटी मार्ग से मुड़
जाते हैं और धीरे-धीरे वाइं ओर यू-टर्न लेते हुए ऊपर बढ़ रहे थे, क्योंकि आज की
हमारी मंजिल काइस धार की ओर थी। इसके बारे में पढ़ा-सुना बहुत था, लेकिन कभी जाने
का अवसर नहीं मिला था। बिजली महादेव की ओर यात्रा के दौरान उस पार घाटी से यहाँ के
दूरदर्शन किए थे। और आज पहली बार इस रुट पर जाने के कारण हमें नहीं मालूम था कि हम
बहाँ तक कैसे व कब पहुँचने वाले हैं, बस कुछ अनुमान, तो कुछ रास्ते में यहाँ के
लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ रहे थे।
क्रमिक रुप में हम संकरी सड़क के साथ पहाड़ी में
ऊपर चढ़ रहे थे। रास्ते में कई जगह तो मोड़पर गाड़ी को बैक कर पार करना पड़ रहा था
और सामने की तंग घाटी के उस पार के गाँव एक-एक कर दर्शन दे रहे थे, इस एकांत विरान
घाटी में लोगों के बसेरे, वे भी ढलानदार पहाड़ों की गोद में, कहीं-कहीं तो बिल्कुल
शिखर के नीचे, जहां अभी सही ढंग से सड़कें भी नहीं पहुँची हैं। मन में विचार आ रहे
थे कि ये पैदल ही कितने श्रम के बाद वहाँ पहुंचते होंगे। बीमार होने पर या
एमरजेंसी में कैसे जीवन को संभालते होंगे। लेकिन प्रकृति की शांत, एकांत इन
वादियों को देखकर लग रहा था कि स्वस्थ लोगों के लिए ये चिंताएं अधिक नहीं सताती
होंगी। इस क्रम में हम आधे दर्जन गाँवों के दर्शन कर चुके थे, जिनके नाम भाई बता
रहा था, जिनमें कुछ तो हमने पहले सुने थे व कुछ एकदम नए लग रहे थे।
लगभग एक घंटे बाद खड़ी चढ़ाई लगभग पूरी हो चुकी
थी। अब हम हल्की चढ़ाई के साथ सीधे रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों ओर
सेब के उभरते हुए छोटे बगीचे दिख रहे थे, देवदार के पेड़ खेत व बगीचों के बीच झांक
रहे थे, कहीं-कहीं देवदार के घने जंगल से सफर बढ़ रहा था, जो हमेशा की तरह सफर के हमारे
रोमाँच व जोश को सातवें आसमान में उछाल रहा था। सड़क में एक समय एक ही वाहन सही
ढंग से पार हो सकता था, दूसरे वाहन के आने पर आगे या पीछे मोड़ पर जाकर पास लेना
पड़ रहा था। काफी चुनौतीपूर्ण मार्ग दिख रहा था, लेकिन यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य़
के सामने ऐसी सारी कठिनाईयाँ गौण लग रही थी। हाँ, भाई के ड्राइविंग कौशल की कठिन
परीक्षा अवश्य हो रही थी।
अब हम जहाँ नीचे ढालपुर मैदान से मुड़े थे, ठीक
उसी के ऊपर पहुँच चुके थे। नीचे कुल्लू घाटी का नजारा प्रत्यक्ष था, तो उस पार
खराहल घाटी का विहंगम दृश्य, उसके पीछे लेफ्ट बैंक के मनमोहक गगनचुंवी पहाड़ दिख
रहे थे। देवदार के वृक्षों से अटी नग्गर से बिजली महादेव की ओर जाने वाली धार
(रिज) स्पष्ट दिख रही थी, जिसमें हम कई बार पैदल ट्रेकिंग से लेकर जीप सफारी का
एडवेंचर कर चुके हैं। थोड़ी देर में व्यू प्वाइंट पर गाड़ी रुकती है।
इसके थोड़ा नीचे पानी के टैंक दिख रहे थे, जहाँ से नीचे कुल्लू शहर के लिए पानी की सप्लाई की जाती है। इसी प्वाइंट से पैरा ग्लाइडिंग भी की जाती है। नीचे ढालपुर मैदान, उस पार सुलतानपुर, अखाडा बाजार कुल्लू व पीछे पूरी खराहल घाटी तथा नीचे भूंतर और ऊपर बिजली महादेव तथा घाटी के बीचों-बीच ब्यास नदी की पतली सफेद रेखा, एक साथ रोमांचित कर रहे थे, हवा के तेज शीतल झौंके फर-फरकर हमें अपने आगोश में लेते हुए पार हो रहे थे, जैसे वह हमारी अब तक की सारी थकान छूमंतर करते हुए आगे की यात्रा के लिए चार्ज कर रहे थे। यहाँ कुछ पल फोटो, सेल्फी आदि लेते हुए हम लोग आगे बढ़ते हैं।
अब हम सामने खुली घाटी व नए पहाड़ी आंचल में
प्रवेश कर चुके थे, जिसके दाईं ओर पहाड़ और जंगल थे, तो नीचे लोगों के खेत व बगीचे,
हम सीधा सड़क पर आगे बढ़ते जा रहे थे, बीच में पगडंडी भी मिली थी दाईं ओर से ऊपर जाने
की, लेकिन हम काइस धार का बोर्ड ने पाकर सीधा आगे बढ़ते रहे। फिर लगभग आधा घंटा बाद
एक गाँव में प्रवेश करते हैं, जिसके अंतिम छोर पर पक्की सड़क का रुट बंद होता है
और तीन मंजिले स्कूल के भव्य भवन के दर्शन होते हैं, पता चलता है कि पीज गाँव में
पहुँच चुके हैं।
और यह भी पता चलता है कि काईस धार के लिए इस
वाहन में नहीं जा सकते, आगे सड़क कच्ची व तंग है, बाइक आदि ही जा सकती है तथा फिर
पैदल ट्रेकिंग करनी पड़ती है। जिसके लिए हम आज तैयार नहीं थे। हम तो एक दिन में ही
सबकुछ देखकर बापिस आना चाहते थे। गाँववालों के दिशानिर्देश पर हम फिर बापिस होते
हैं, पहले दिखी पगडंडी के सहारे ऊपर चढ़ते हैं, जो हमें निर्जन गाँव में पहुँचाती
है, दो-चार घर, एक दुकान, और वहीं थोड़ा चौड़े स्थान पर गाड़ी को पार्क करते हैं, जहाँ
पहले से कुछ और बाहन भी खड़े थे।
दुकान से कुछ पूजा सामग्री लेकर जाते हैं, और पैदल सीधा खड़ी चढ़ाई पार करते हैं।
लगभग आधा किमी चढ़ाई के बाद हम पहाड़ के शिखर पर एकदम जैसे नए लोक में पहुँच चुके थे। पहाड़ की धार (रिज) पर बना जम्दग्नि ऋषि (जमलू) का मंदिर, चारों ओर चोड़े बुग्याल अर्थात् मखमली हरी घास के मैदान। मालूम हो कि देवभूमि कुल्लू में जमलू देवता के सबसे अधिक मंदिर हैं और ये घाटी के सबसे प्रमुख देवताओं में एक हैं। और ठारह करड़ू देवताओं की कहानी तो इन्हीं के साथ शुरु होती है।
इस स्थल के शुरुआत में एक गगनचुम्बी विशाल देवदार का वृक्ष विशेष ध्यान आकर्षित करता है, लगा कई सौ बर्षों का होगा, पुरखों की कितनी पीढ़ियों की स्मृतियाँ समेटे होगा। हम तो सीधा इसकी गोद में बैठकर कुछ पल आत्मस्थ होकर स्वयं को तन-मन से रिलेक्स करते हैं। और यहाँ से उस पार सामने बिजली महादेव से लेकर माउट नाग और खराहल घाटी के ऊपरी हिस्से के मनोहारी दृश्य को विस्मित होकर मंत्रमुग्ध भाव से निहार रहे थे। लगा कि आजतक हम इस स्थान पर क्यों नहीं आ पाए थे। फिर ये भी अहसास हुआ कि हर कार्य की एक टाइमिंग होती है, जो हर व्यक्ति की नियति व ईश्वर की इच्छा पर निर्भर होती है। फिर देवस्थलों में अपनी इच्छा कहाँ चलती है, यहाँ तो बुलावा आने पर ही यात्रा के संयोग बनते हैं।
इस एकांत शांत परिसर में मन जैसे ठहर सा गया था,
समय की गति थम गई थी। आँखें बंदकर अस्तित्व की गहराईयों में जीवन का मंथन हो रहा
था। स्थान की वाइव्रेशन कुछ ऐसी थीं कि मन सहज रुप में ध्यानावस्था में पहुँच गया
था, लग रहा था कि इसी भावदशा में यहाँ बैठे रहें, लेकिन आज के समय की सीमा इसकी
इजाजत नहीं दे रही थी।
अतः आसपास के कुछ जंगली फूल-पत्तियों को तोड़कर,
साथ लाई पूजा सामग्री को साथ लेकर मंदिर में प्रवेश करते हैं, धूपबत्ति जलाकर जमलूदेवता
की पूजा अर्चना करते हैं और बाहर निकलते हैं। जहाँ छोटे बच्चों का झुंड कौतुहलवश
हम लोगों के स्वागत के लिए खड़ा था। प्राइमरी स्कूल के इन नन्हें बच्चों-बच्चियों
के साथ कुछ यादगार फोटो खींचते हैं। कुछ दक्षिणां व प्रसाद वाँटते हैं और बाहर
मैदान को पार करते हुए, देवदार के पेड़ के नीचे साथ लाई गई भोजन सामग्री के साथ
पेट पूजा करते हैं।
इसी बीच भेड़ों का एक झुंड यहाँ के घरे भरे घास के मैदान में चरने के लिए आ चुका था। इनके साथ स्थानीय गाँव के एक वुजुर्ग चरवाहे भी थे, जिसके साथ यहाँ के बारे में कुछ चर्चा होती है और इस क्षेत्र की आधारभूत जानकारियाँ प्राप्त करते हैं, साथ ही काइस धार के बारे में भी अपनी जिज्ञासाओं को शांत करते हैं।
इनकी भेड़ों में कुछ हमारे पास आ जाती हैं, हम
इनके संग कुछ यादगार फोटो लेते हैं, लग रहा था कि ये कह रहे हों हम भी तो आखिर
प्राणधारी जीव हैं। क्यों हमारी बलि देकर एक दूसरे से अलग किया जाता है। हमें
क्यों पूरा जीवन जीने का अधिकार नहीं है। बीच में भेढ़ू और इसके आगे पीछे इसकी वहन
भेड़ें हमारे पास बैठे चर रहे थे, काली वाली भेड़ तो जैसे हमारी गोद में सर रखकर
विश्राम की मुद्रा में कुछ मौन संवाद कर रही थी।
यहाँ कुछ यादगार पल बिताकर हम नीचे बाहन तक उतरते हैं औऱ फिर उसी रुट पर बापिसी का सफर तय करते हैं। प्राकृतिक सौदर्य से मंडित, एकांत शांत इस स्थल की सघन यादों को समेटे हम घर पहुँचते हैं। एक बार हम पाठकों को रिक्मेंड करेंगे कि कभी कुल्लू आएं, तो ऐसे ऑफबीट स्थलों को अवश्य एक्सप्लोअर करें। भीड-भाड़ से भरे हिल स्टेशनों से अलग ये प्राकृतिक स्थल अपने सौंदर्य़ के साथ एक रुहानी भाव लिए होते हैं, जिसका स्पर्श जीवन को नए मायने दे जाता है और इनकी मधुर यादें समरण करने पर चित्त को गुदगुदाती हैं, सूकून व शांति के दिव्य भाव के साथ आह्लादित करती हैं।