गंगोत्री धाम के दिव्य लोक
में
यात्रा का दूसरा दिन हमारे गंगोत्री दर्शन के
लिए समर्पित था। सो सुबह जल्दी ही धराली से निकल पड़ते हैं, जो गंगोत्री से 20
किमी की दूरी पर पड़ता है। भौर में जब हम बाहर निकलते हैं, तो उत्तर दिशा में
गंगोत्री की ओर हिमशिखरों मध्य टिमटिमाते तारों से सजे नीले आकाश में बीचों-बीच
स्थित अर्दचंद्र की शोभा देखते ही बन रही थी। लग रहा था कि वे ध्यानस्थ भगवान शिव
के सर पर सुशोभित हों। गंगोत्री धाम की यात्रा व दर्शन का उत्साह सबके चेहरे पर
स्पष्ट था, जिनमें अधिकाँश वहाँ पहली वार पधार रहे थे।
धराली से गंगोत्री की 20 किमी की यात्रा
देवदार के घने जंगलों के बीच होती है। शुरु में वायीं ओर साथ में भगीरथी नदी
प्रवाहमान थी। चौड़ी घाटी क्रमिक रुप से संकरी हो रही थी। रास्ते भर देवदार के
जंगल और भगीरथी नदी के विस्तार को निहारते हुए यहाँ की सुंदर वादियों के बीच एक नई
घाटी में प्रवेश होता है। गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ दोनों ओर एक दम पास दिख रहे थे।
पुल को पार कर अब भगीरथी हमारे दायीं ओर थी और चट्टानी
रास्ते से चढ़ाई पार करते हुए कुछ ही पलों में हम भैरों घाटी पहुँचते हैं, जहाँ पर
गहरी घाटी में एक नदी नेलाँग की ओर से आती है और यहाँ की चट्टानी दिवारों के संग गार्दांग
गली का प्राचीन ट्रैकिंग रुट प्रख्यात है। बापिसी में इसके दर्शन की योजना थी। भैरों
घाटी के पुल को पार हम गंगोत्री धाम की ओर बढ़ते हैं। राह में हिमाच्छादित शिवलिंग
पर्वत के दर्शन प्रारम्भ हो गए थे।
देवदार से अटे गगनचुंबी पहाड़ दोनों ओर जैसे
हमारा स्वागत कर रहे थे। रास्ते में आईटीवीपी कैंप से गुजरते हैं। पहाड़ों से गिरी
चट्टानों के बीच बसा यह कैंप इन ऊंचाईयों के चट्टानी सत्य का दिग्दर्शन करा रहे
थे, जहाँ जीवन कितना रिस्क से भरा हो सकता है। रास्ते भर तीखे मोड़ और देवदार के
जंगल एक नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का सुखद अहसास जगा रहे थे, साथ ही राह
में आंख मिचौली करते हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत गंगोत्री धाम के समीप होने का तीखा
अहसास दिला रहे थे और मन में गंगोत्री धाम के पहले दर्शन-दीदार के जिज्ञासा और
रोमाँच से भरे भाव हिलोरें मार रहे थे।
राह में ही भैरों मंदिर आता है, जहाँ से आगे
सड़क मार्ग वायीं ओर से नेलांग की ओर जाता है, जिसे चीन की सीमा से अटा अंतिम
स्टेशन माना जाता है, जो यहाँ से 22 किमी था। लो, कुछ ही मिनट में हम गंगोत्री में
प्रवेश करते हैं, गाडियों का जमघट और पर्यटकों की भीड़ इसका अहसास दिला रही थी।
हमारी गाड़ी भी बाहर सड़क के किनारे निर्देशित स्थान पर पार्क होती है।
सड़क के साथ पहाड़ों को छूते चट्टानी शिखर भय
मिश्रित श्रद्धा का भाव जगा रहे थे। मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था कि इन
चट्टानी पहाड़ों से चट्टान टूटकर नीचे आती होंगी, तो क्या होता होगा। बाद में
लोगों से बातचीत करने पर समाधान मिला कि ये चट्टानें स्थिर हैं, आए दिन गिरने की
कोई ऐसी घटना यहाँ नहीं होती।
लगभग 2 किमी पैदल यात्रा, जिसमें गंगोत्री धाम
की मार्केट, आश्रम, होटल, होम-स्टे आदि के दर्शन करते हुए अंततः एक बड़ा सा द्वार
पार करते हुए गंगोत्री मंदिर में प्रवेश होता है। यहाँ के दिव्य प्रांगण में
जुत्ते उतार कर दर्शनार्थियों की पंक्ति में खड़ा होकर मंदिर में गंगा मैया के
दर्शन करते हैं। और बाहर निकल कल समूह फोटो लेते हैं।
गंगोत्री मंदिर की लोकेशन स्वयं में अद्भुत है,
चारों और गंगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के बीच में स्थित धाम, एक नए लोक में विचरण
का दिव्य अहसास दिला रहा था। लग रहा था कि हम एकदम नए संसार में पहुँच गए हैं।
यहाँ से प्रसाद ग्रहण कर नीचे स्नान घाट पहुँचते हैं। भगीरथी नदी के ग्लेशियर से
निकले बर्फीले जल से आचमन कर अपने पात्र में गंगाजल भरते हैं। बापिसी में भगीरथी
शिला के दर्शन करते हैं, जहाँ भगीरथ ने भगीरथी तप कर गंगा अवतरण को संभव किया था
और सगरसुतों के उद्धार के साथ जगत के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था।
परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा
आचार्य़जी के हिमालय प्रवास के दौरान गंगोत्री धाम में रुकने व आगे तपोवन में साधना
करने के प्रसंगों को यहाँ प्रत्यक्ष देखने का मन था। तीर्थ की सूक्ष्म चेतना ने
जैसा इसका भी इंतजाम कर रखा था। यहाँ के साठ वर्षीय कुलपुरोहित से अचानक परिचय
होता है औऱ वे आचार्यजी से जुड़े रोचक प्रसंगों का भाव भरा वर्णन करते हैं। और
भगीरथी के उस पार सामने के आश्रमों - ईशावास्य, कृष्णानन्द आश्रम, तपोवन आश्रम आदि
से भी परिचय करवाते हैं, जहाँ गुरुदेव का प्रवास रहा।
परिसर में ही जाह्नवी माता के दर्शन होते हैं,
लगा कि जैसे गंगा मैया के ही मूर्तिमान अंश से मुलाकात हो रही है। इन्हीं के
सान्निध्य में यहाँ कृष्णानन्द आश्रम के वयोवृद्ध शिष्य स्वामी जी के दर्शन होते
हैं, जो अपने आश्रम में आने का नेह भरा आमंत्रण दे जाते हैं। इस तरह मंदिर से नीचे
उतरते हुए एक पुलिया को पार कर हम कृष्णानन्द आश्रम पहुँचते हैं। रास्ते में पुल
से शिवलिंग एवं भागीरथी पर्वत के दिव्य दर्शन होते हैं। कृष्णानन्द आश्रम में
गुरुदेव की साधना स्थली गुफा के दर्शन करते हैं। बाबाजी का स्वागत सत्कार और भक्ति
भाव हम सबको भाव विभोर करता है। उनके द्वारा खिलाए गए छेने के रस्गुल्ले और सुर्ख
लाल सेब यदा रहेंगे।
फिर जाह्नवी माता के आश्रम में पधार कर यहां के
दिव्य भाव को ग्रहण करते हैं। माताजी पिछले तीन दशकों से साधनारत हैं और तपोवन में
भी प्रवास कर चुकी हैं। यहाँ देवस्थापना कर हम, ब्रह्मकल का प्रसाद लेकर बापिस आते
हैं। समय कम होने के कारण तपोवन आश्रम, सूर्य कुण्ड व अन्य स्थानों के दर्शन नहीं
कर पाते और इनको अगले विजिट के लिए छोड़कर पुलिया को पार कर नीचे उतरते हैं।
बापिसी में एक आश्रम के भंडारे में भोजन-प्रसाद
का संयोग बनता है। यहाँ अध्यात्मिक कंटेट को प्रसारित करने वाले यू-ट्यूबर युवा
सन्यासी स्वामी अद्वैतानन्दजी से भेट होती है। संवाद के कुछ संक्षिप्त और यादगार
पल इनके साथ बिताते हैं और बापिस गाड़ी तक आते हैं।
राह में चार शाखा वाले देवदार के वृक्ष के सामने
सेल्फी लेते हैं। यह वृक्ष हमें जीवन के चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
का मूर्तिमान प्रतीक लग रहा था, जो गंगोत्री धाम पधार रहे जागरुक तीर्थ यात्रियों
को सतत एक मूक संदेश दे रहा हो।
दिन में सीधी धूप औऱ लगातार पिछले 3-4 घंटों से
चलते रहने के कारण काफी गर्मी का अहसास हो रहा था, साथ ही भोजन उपरान्त की सुस्ती
भी छा रही थी। अतः बापिसी में कार्दांग गली का प्लान छोड़ देते हैं, क्योंकि वहाँ
सीधे धूप पड़ रही थी और नीचे सीधे खाई में नदी बहती हैं। किसी तरह का रिस्क लेने
की स्थिति में नहीं थे और न ही समूह की मनःस्थिति अभी इसको कवर करने की थी और इसे
भी अगली यात्रा के लिए छोड़ आते हैं।
पाठकों को बता दें कि यह भारत तिब्बत के बीच
व्यापार का पुरातन रुट था, जब किसी तरह की सड़क व्यवस्था नहीं थी। आज तो नेलाँग तक
सड़क मार्ग बन चुका है, जो उत्तराखण्ड का इस इलाके का अंतिम गाँव है। 1962 के
भारत-चीन युद्ध के बाद वहाँ के लोग हर्षिल में बगोरी गाँव में विस्थापित होकर रह
रहे हैं। आज शाम हो हम वहीं पधारने जा रहे थे।
बस से हम बापिस धराली पहुँचते हैं औऱ होटल में
कुछ देर रुककर तरोताजा होते हैं और दोपहर वाद आज के गन्तव्य हर्षिल और बगोरी गाँव
के लिए निकल पड़ते हैं। (जारी, भाग-4)