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शनिवार, 31 मार्च 2018

देहरादून –शैक्षणिक यात्रा, भाग-2


ऑर्गेनिक फार्मिंग, जैव विविधता संरक्षण की प्रयोगशाला - नवधान्या विद्यापीठ

हेस्को के बाद डेवकॉम के शैक्षणिक भ्रमण का अगला पड़ाव था प्रख्यात पर्यावरणविद, विदुषी एवं जैविक कृषि एक्टिविस्ट डॉ. वंदना शिवा की प्रयोगशाला – नवधान्या बीजपीठ, जो शिमला वाईपास के अंतिम छोर पर वायीं ओर स्थित है। प्रेमनगर से आगे मुख्यमार्ग से 4-5 किमी बढ़ने के बाद वांय मुड़ते हुए हिमगिरि जी यूनिवर्सिटी आती है, इसके आगे पुल पारकर आईएसबीटी की ओर लगभग 1 किमी दूरी परनवधान्या वीज विद्यापीठ का पट लगा है, जहाँ से अंदर मुड़ने पर थोड़ी देर बाद आम्रकुंज में प्रवेश होता है।
आम के बौर से लदे वृहद पेड़ जैसे हमारा स्वागत कर रहे थे। वाहन एक किनारे पर खड़ा कर हम पैदल ही बगीचे से होकर प्रवेश करते हैं। यहाँ का प्राकृतिक परिवेश, इसकी नीरव शांति, पक्षियों की चहचाहट यहाँ चल रहे प्रयोग की जीवंत प्रस्तुति दे रहे थे।विकाससंचार विशेषज्ञ श्री दिनेश सेमवाल अपनी चिरपरिचित मुस्कान व शालीनता के साथ ग्रुप का स्वागत करते हैं व विस्तार से नवधान्या में चल रहे प्रयोगों पर प्रकाश डालते हैं।

किन्हीं मीटिंग में व्यस्त होने के कारण संस्थान की संस्थापिका एवं मार्गदर्शक डॉ. वंदना शिवा से मुलाकात नहीं हो पायी। गेट के अंदर कुछ विदेशी प्रशिक्षु आंगन में फर्श पर बैठे फसल सुखा रहे थे, श्रमदान कर रहे थे। सेमवालजी से संस्था की पृष्ठभूमि को जानने के बाद छात्रों के दल के साथ यहाँ के ऑर्गेनिक फार्म में प्रवेश करते हैं, जिसमें गैंहूं, जौ, सरसों, राई व दूसरे तमाम अन्न व सब्जियों की किस्मों कोप्राकृतिक तरीकों से यहाँ विकसित होते देखा जा सकता है। इनमें किसी तरह के रसायन व कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जाता।यहाँ मिश्रित खेती पर बल दिया जाता है, जिसके कारण जमीं की उर्बरता बनी रहती है।
सेमवालजी के अनुसार मिश्रित खेती हमारी पारम्परिक खेती का तरीका रहा है, जो हमारे पूर्वजों द्वारासदियों से आजमाए गए पारम्परिक ज्ञान पर आधारित था। लेकिन आज हम जल्द से जल्द अधिक उत्पादन की दौड़ में एकल कृषि पर केंद्रित हो चले हैं। जीन संबर्धित बीजों का प्रयोग कर रहे हैं। परिणाम यह होता है की कुछ समय बाद मिट्टी की ऊर्बरता कुंद पड़ने लगती है। तमाम तरह के हानिकारक कीट-पतंगों का असर बढ़ने लगता है। लगातार रसायन व कीटनाशकों के प्रयोग से हानिकारक कीटों के साथ लाभदायक कीटों का भी सफाया हो जाता है। साथ ही हानिकारक कीटों की प्रतिरोध क्षमता बढ़ती जाती है और फसलों पर और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ता है, जिसकी परिणति अंततः जमीं, फसल के साथ उपभोक्ता व किसान सभी पर घातक साबित होती है। किसानों द्वारा आत्महत्या को खेती के इस नकारात्मक एवं अप्राकृतिक तौर-तरीकों से जोड़कर देखा जा सकता है। शोध के आधार पर भी यह सत्य प्रामाणिकत हो चुका है। पंजाब में हरित क्राँति के बाद किसानों की दुर्दशा इसकी कथा व्यां करती है। कैंसर ट्रेन के रुप में यहाँ की कुख्यात रेल ऐसे ही रसायनिक खेती के घातक दुष्परिणामों को दर्शाती है। इसका समाधान यहाँ चल रहे ऑर्गेनिक खेती के प्रयोगों के आधार पर समझा जा सकता है। इस परिसर के प्राकृतिक परिवेश में तमाम तरह के पक्षियों की चहचाहट यहाँ पनप रही समृद्ध जैव-विविधता का प्रत्यक्ष प्रमाण पेश करती है। एक शोध के अनुसार यहाँ के परिसर में 78 प्रकार के पक्षी मौजूद हैं।

रास्ते में शहतूत के पेड़ में पक रहे खटे-मीठे जंगली फलों का आनन्द लेते हुए, बाँश के झुरमुटों के साय में हम खेत के दूसरे छोर पर बीजबैंक तक पहुँचते हैं, जो नवधान्या पीठ की एक अनूठी पहल है, जहाँ अन्न, शाक-सब्जी व फल की 1500 से अधिक प्रजातियों को संरक्षित होते देखा जा सकता है। यहाँ गैंहूं की 222,चावल की 735प्रजातियाँ संरक्षित हैं। इसी तरहबाजरा, जंघोड़ा, कोदा, काउनी(फोक्सटेल मिल्लेट) जैसे उपेक्षित मोटे अन्न की पारम्परिक फसलों की दर्जनों किस्में संरक्षित हैं। इस समय नवधान्या के 22 राज्यों में 122 सामुदायिक बीज बैंक सक्रिय हैं। पिछले तीन दशकों से अधिक समय की विकास यात्रा में संस्था ने देशभर में 5000 से अधिक फसलों को संरक्षित किया है। और अब तक लाखों किसान यहाँ से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं।

संस्थान की शुरुआत 1987 में चिप्को आंदोलन से प्रेरित होकर हुई थी, जब बीज बचाने की मुहिम उत्तराखण्ड में चली थी। ज्ञातव्य हो कि डॉ. वंदना शिवा के जूझारु प्रयासों का ही फल था कि क्रमशः 1994 से 2004 तक नीम, बासमती और गैंहूं जैसी पारम्परिक फसलों के बीजों के पेटेंट पर भारतीयोंकोहक मिलता है, जिन पर विदेशी ठग अपने नाम का ठप्पा लगा रहे थे। 
यहाँ का बीज बैंक एक अद्भुत प्रयोग है, जिसे देखकर लगता है कि हमें पारम्परिक बीजों के संरक्षण की कितनी जरुरत है। धन्य हैं वो किसान जो तात्कालिक मुनाफे के शॉर्टकट में न पड़कर अपनी जमीं का कुछ अंश पारम्परिक बीजों के संरक्षण में लगाए हुए हैं और जैविक खेती की दूरदर्शिताभरी साहसिक पहल कर रहे हैं।


बापसी में यहाँ के अनुभवी विशेषज्ञ डॉ.किमोठी जी से मुलाकात होती है। इनके दशकों के अनुभव को सार रुप में ग्रहण करते हैं। किस तरह से ऑर्गेनिक खेती के प्रयोग देश भर में सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं। किस तरह से आर्गेनिक कीटनाशक तैयार किए जाते हैं, जमीं को ऊर्बर करने व बीजों के संरक्षण के देशी तौर-तरीकों पर चर्चा हुई। पता चला कि देश ही नहीं बल्कि विदेशों में कितनें केंद्रों में ऐसे प्रयोग चल रहे हैं।
मालूम हो कि संस्थान की संस्थापिका डॉ. वंदना शिवा अपनी बेस्टसेलर पुस्तकों के साथ यह ज्ञान साझा कर रही हैं। इसके साथ उनकी प्रेरक टेड़ टॉक के साथ तमाम विडियोज यू-ट्यूब पर अपलोड़ हैं, जिनसे जिज्ञासु लाभान्वित हो सकते हैं। 
प्रकृति की गोद में ऑर्गेनिक खेती के साथ जैव विविधता के संरक्षण के प्रयोग को देखकर लगा कि कितना कुछ किया जाना शेष है। कम से कम अपने क्षेत्रों, गांव-कस्वों व आंगन-गलियारों में ऐसे प्रयोग की पहल तो कर ही सकते है। पाठ्यक्रम में ऐसी पढ़ाई का भी समावेश कितना जरुरी हो गया है। विद्यार्थियों के प्रोजेक्ट्स से लेकर शोधकार्यों में ऐसे शोध-अध्ययनों को प्रोत्साहित करने की जरुरत है। विनाश की ओर जा रही मानवता को सृजन की ओर मोड़ने के लिए हर स्तर पर भगीरथी प्रयास की जरुरत है। हर संवेदनशील इंसान अपने भाव भरे अकिंचन से प्रयास के कुछ ठोस पहल तो कर ही सकता है।
इन्हीं भावों के साथ हम बापिस अपनी अंजिल की ओर कूच करते हैं। शाम हो रही थी। लेकिन नींद के झौंके में पता ही नहीं चला कि कब आईएसबीटी के आगेफ्लाईओवर पर गाड़ी आगे बढ़ चुकी है। लगा यही ईश्वर की इच्छा है, सो सीधे गाड़ी को फ्लाईऑवर पार कर वायीं ओर मोड़ते हुए कुछ ही मिनटों की भटकन के बाद हम बुद्धाटेम्पल पहुंच जाते हैं। आज हम शायद तीसरी-चौथी बार आ रहे थे। मंदिर के क्पाट आज तक हमेशा बंद ही मिले। आज पहली बार कपाट खुले मिले।लगा जैसे आज पहली बार बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं। 
ऊपर की मंजिल में भगावन बुद्ध के अवलोकितेश्वर स्वरुप का दर्शनकर फिर नीचले तल परसामूहिक रुप में मंत्र जाप कर रहे लामाओं के कक्ष में प्रवेश किए। सैंकड़ों लामाओं के सस्वर मंत्र उच्चारण एवं पाठ का दृश्य एक अद्भुत अनुभव रहा।श्रद्धालु चारों ओर घेरा बनाकर इसमें भागीदरी कर रहे थे। बाहर मार्केट में आकर जड़ी-बूटी से बनी अग्रबती खरीदे, जो पता चला भूटान प्रदेश की दुर्लभ जड़ी-बूटियों से बनी थी। घर-परिवार के लिए कुछ तिब्बती उत्पाद भी खरीदते हैं, जो प्रायः उच्च गुणवत्ता के व बेहतरीन रहते हैं।मैदान में विश ड्रम को रोल कर अपना भाव निवेदन किया। बाहर बैंच पर बैठे नन्हें-नन्हें लामाओं से लेकर किशोर एवं युवा लामाओं से संवाद की कोशिश की लेकिन समयाभाव के कारण कुछ अधिक बात नहीं हो पायी।

यात्रा की सुखद स्मृतियों के साथ काफिला देहरादून शहर को पार करते हुए देसंविवि की ओर चल पड़ता है। सार रुप में शैक्षणिक भ्रमण प्रकृति-पर्यावरण संरक्षण, जैव विविधता, ऑर्गेनिक कृषि व समावेशी विकास को लेकर एक नई समझ दे गया। विश्वास है कि ऊर्वर अंतःकरणों में किन्हीं बीजों का रोपण इस शैक्षणिक भ्रमण के माध्यम से हुआ, जो भविष्य में समय आने पर अपने ढंग से अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित होकर अपने सत्परिणामों से समाज, देश व विश्व-वसुधा को कृतार्थ करेगा।
 
शैक्षणिक यात्रा के पहले भाग को आगे दिए लिंक में पढ़ सकते हैं - पर्यावरण संरक्षण एवं ग्रामीण विकास की प्रयोगशाला, हैस्को
 

रविवार, 17 मई 2015

यात्रा वृतांत - मेरी पहली कुमाउँ यात्रा – भाग-1

विकासपुत्रों की राह निहारती यह देवभूमि

यह मेरी पहली कुमाउं यात्रा थी। यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक संपदा के वारे में बहुत कुछ पढ़ सुन चुका था। अतः कई मायने में यह मेरी चिरप्रतीक्षित यात्रा थी, भावों की अथाह गहराई लिए, नवांतुक की गहन जिज्ञासा के साथ एक प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ की निहारती दृष्टि लिए। अपने युवा साथियों, पूर्व छात्रों एवं कृषि-वागवानी विशेषज्ञ भाई के साथ सम्पन्न यह रोमाँचक यात्रा कई मायने में ऐतिहासिक, शिक्षाप्रद एवं यादगार रही।


1.     अल्मोड़ा
 हरिद्वार से हल्दवानी होते हुए अल्मोड़ा पहुंचे। रात्रि यात्रा थी, सो रास्ते के विहंगावलोकन से वंचित रहे, लेकिन प्रातः भौर होते होते अल्मोड़ की पहाडियों में बस अपनी मंजिल पर पहुँच चुकी थी। बस स्टेंड के पास ही अपने छात्र के परिचित समाजसेवी पांगतीजी के क्वार्टर – जोहार सहयोग निधि में रुकने का संयोग बना। यहाँ से अल्मोड़ा शहर के साथ उस पार की दूरस्थ पहाडियों का दूरदर्शन मन में कहीं गहरे प्रवेश कर जाता। इसी के साथ पूर्व की ओर से सुबह का स्वर्णिम सूर्योदय एक दर्शनीय दृश्य था। अल्मोड़ा में अधिक घूमने का समय नहीं था, सो फ्रेश होकर, गर्म चाय की प्याली के साथ वार्म अप होकर, अगली मंजिल की ओर चल पड़े, जो था हमारे शोध छात्र का पहाड़ी गाँव दौलाघट, जिसकी भावयात्रा चर्चा के दौरान कई बार कर चुका था, दर्शन बाकि थे, जिसके लिए मन अकुला रहा था और इसके विकास का सर्वेक्षण भी किया जाना था।

2.  गांव की ओर
अल्मोड़ा से गांव का रास्ता चीड़ के बनों के बीच पहाड़ियों के बीच गुजरता है। इसकी मोड़दार सड़कें, नीचे बादलों के सघन गुब्बारों से ढकी घाटी, और दूर उतर दिशा में लुकाछुपी करती हिमाच्छादित ध्वल नंदा देवी पर्वत श्रृंखला सब इस सफर को सुहाना बना रहे थे। रास्ते में पहाड़ी नाले, हालाँकि पानी इस समय न्यूनतम अवस्था में था, लेकिन नीचे खड़्ड में आकर छोटी नदी के रुप में इसके दर्शन होते हैं, जिसके किनारे आगे का सफर मन को सुकून दे रहा था। 

रास्ते में यह सड़क रानीखेत के मुख्यमार्ग से हटती हुई, गांव की ओर चल पड़ती है। रास्ते में चीड के बन ही बहुतायत में मिले। लगभग एक घंटा बाद गांव के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। पहाड़ियों पर वसे गाँव, हरे भरे जंगल, सीढ़ीदार खेत सब गाँव की एक नयी दुनियाँ में प्रवेश का अहसास दिला रहे थे। लो गाँव का स्टॉप आ गया। सड़क के साथ ही अपनी मंजिल भी आ गयी।

छोटी सी जलधार के किनारे पर बना खेत, खेत के ऊपर मकान। मकान के किनारे कियारियों में हरी सब्जियां, अनार, अंगूर, अमरुद के पेड। वनौषधियों व हरी सब्जियों से भरा पूरा बगीचा। घर के सामने ही नदी के पार जंगल, दूर गांव का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। इस बीच पक्षियों का कलरव गान शहर के भीड़ भरे कोलाहल से दूर गांव की नीरव शांति में स्वर्गीय आनन्द का अहसास दे रहा था। लग  रहा था जैसे ये पक्षी हम अजनबी आगंतुकों के बारे आपस में कुछ कानाफूसी कर रहे हों। इसी बीच जड़ी-बूटियों से बना गर्म पेय आया, जिसने यात्रा की थकान और ठंड़क को छूमंतर कर दिया। कुछ देर यहाँ के भूगोल, संस्कृति, समाज की चर्चा होती रही, फिर दिन का भोजन, जिसमें घर की क्यारी में उगी साग और भट्ट की दाल सब पर भारी थी। भोजन से तृप्ति के बाद विश्राम के कुछ पल रहे।

दोपहर विश्राम के बाद तरोताजा होकर गाँव के अवलोकन के लिए निकल पड़े। एक गाँववासी होने के नाते स्वाभाविक रुप से इस प्राँत के गाँव को देखने का मन था, एकदम नए परिवेश में, नए देश में। एक तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन अवलोकन व शोध भी चल रहा था। गाँव के साथ जल की धार बह रही थी। पक्की सड़क के किनारे गाँव की जरुरतों को पूरा करती हर तरह की दुकानें दिखी। परचून से लेकर मोवाईल रिचार्ज और हलवाई, टी-स्टाल व अन्य दुकानें। स्कूल भी सड़क के किनारे पर ही थे, पास मेें ही एक प्राइमरी स्कूल तो थोड़ी दूरी पर इंटर कालेज। यह पक्की सड़क पता चला कि रानीखेत जाने का वैकल्पिक रास्ता है, आगे का लैंडस्केप बहुत सुन्दर था, जिसे किसी अगली यात्रा में पूरा करने के भाव के साथ इस मार्ग से हट गए।


यहाँ एक बात हमें आश्चर्य करने वाली लगी कि, सड़क के साथ जल स्रोत के होते हुए भी लोग सामान्य खेती तक ही सीमित दिखे। ऊर्बर जमीन के साथ पहाड़ी क्षेत्र होते हुए यहाँ फल व सब्जी की अपार सम्भावनाएं हमारे बागवान भाई को दिख रही थी। इस ऊँचाई पर नाशपति, पलम, आड़ू, अनार, जापानी फल की शानदार खेती हो सकती है। सेब की भी विशिष्ट किस्में यहाँ आजमायी जा सकती हैं। सब्जियों में मटर, टमाटर, शिमलामिर्च से लेकर औषधीय पौधे, फूल, लहसुन, प्याज, गोभी जैसी नकदी फसलें उग सकती हैं। यदि क्षेत्रीय युवा इस पर ध्यान केंद्रित कर दें, तो गांव-घर छोड़कर दूर रहने, पलायन की नौबत ही न आए। आर्थिक स्बावलम्बन के ठोस आधार यहाँ की ऊर्बर जमीं में दिख रहे थे। प्रश्न यह भी था कि सरकार इस संदर्भ में क्या रही है, जबकि पंतनगर कृषि विवि का शोध केंद्र यहाँ से मुश्किल से 10 किमी की दूरी पर स्थित है। यहाँ के किसान इनका लाभ क्यों नहीं उठा पा रहे हैं व इस तरह की पहल क्यों नहीं कर रहे हैं, यह प्रश्न कचोटता रहा। शायद उचित मार्गदर्शन का अभाव था। हालाँकि हमारे शोधछात्र के प्रयोगधर्मी पिता के साथ भाई की व्पायक चर्चा के साथ लगा ऐसी ठोस पहल जल्द ही शुरु हो जाएगी। और इस क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन (विकास) की लहर अवश्य आएगी।

फिर मुख्य सड़क से हटकर पहाड़ी नाले के किनारे से होते हुए गाँव के अंदर प्रवेश करते गए। रास्ते में ही सीढ़ीदार बंजर खेत मिले। आंशिक पलायन का दंश यहाँ साफ दिख रहा था। खेत बंजर थे। पानी के स्रोत एक दम साथ थे। ठप्प पड़ा पुराना घराट इसकी बानगी पेश कर रहा था। अगर कोई इन खेतों में फिर हल चलाए, यहाँ अन्न के साथ फल-सब्जि के प्रयोग करें, तो यही मिट्टी सोना उगले। केंट के जंगली पेड़ इतनी तादाद में थे कि इन पर आसानी से उमदा नाशपाती की कलमें लगाकर मेड में ही एक अच्छी खासी फसल काटी जा सकती है। लेकिन मार्गदर्शन व चलन का अभाव साफ दिखा। पूरे गाँव में सैंकड़ों पेड़ इस प्रयोग का इंतजार करते दिखे। ऐसा लगा इस देवभूमि को एक विकास पुरुष का इंतजार है, जो यहाँ विकास की व्यार वहा सके।

गाँव में अंदर प्रवेश करते गए, तो चढ़ाई के साथ आगे गाँव आया। पंचायत भवन की हालात कुछ ऐसी थी कि लगा यहाँ सालभर से कोई मीटिंग नहीं हुई है। आगे रिश्तेदारी में चाचा के घर पहुँचे, जिनका एक फोजी वेटा आज ही छुट्टी पर घर आया था। पता चला कि इस क्षेत्र से फौज में जाने का चलन है। और कई महीनों बाद ही घर आना होता है। काश्मीर बोर्डर पर तैनात फौजी को आने जाने में ही सप्ताह-दस दिन लग जाते हैं। ऐसे में बर्ष भर में एक दो चक्कर ही मुश्किल से घर के लग पाते हैं। परिवार में ऐसे दुर्लभ मिलन के सुखद पलों के हम साक्षी बने और यहाँ की वीर प्रसूता भूमि में मोर्चे पर लड़ने बाले जांबाज वीरों के प्रति ह्दय श्रद्धा भाव से नत हो उठा।

गाँव को पार करते हुए हम जंगल से होकर पहाड़ी पर बसे भगवती के मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। आढे-तिरछे रास्ते से सीधी चढ़ाई चढ़ते हुए हम आगे बढ़ रहे थे।
ऊपर से नीचे गाँव का और दूर घाटी का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। रास्ते में यहाँ के पारम्परिक जल स्रोत के दर्शन भी हुए, जिसे हमारी भाषा में जायरु बोलते हैं। बाँज के पेड़ के नीचे से यहाँ जल एक बाबड़ी में इकट्ठा था। गाँववालों का कहना था कि कितनी भी गर्मी हो यहाँ का पानी सूखता नहीं। बास्तव में यह बाँज के पेड़ की जड़ें नमी को सोखती हैं व इसे संरक्षित रखती हैं। हमारे मन में आया कि यदि गाँव बाले इस जंगल में बाँज के पेड़ों के साथ मिश्रित बनों को बहुतायत में लगा लें तो शायद यहाँ के सूखे पड़ते जलस्रोत फिर रिचार्ज हो जाएं। संभवतः ऐसे प्रयोग हमें आगे चलकर इस क्षेत्र में देखने को मिलें। वास्तव में ऐसे प्रयोगों की साहसिक पहल की हर पहाड़ी क्षेत्रों में जरुरत है, जहाँ के जलस्रोत सुखते जा रहे हैं।


इसी भाव के साथ हम गाँव के शिखर पर पहुँच चुके थे। भगवती का छोटा सा किंतु सुंदर मंदिर चोटी पर एकांत में एक बृहद बृक्ष के नीचे शोभायमान था। यहाँ से नीचे गांव के साथ सुदूर अलमोड़ा शहर का विहंगम दृश्य दर्शनीय था। घाटी के शिखर पर एकांत में स्थापित यह मंदिर एक जाग्रत देवस्थल के रुप में प्रतिष्ठित है, जो सशक्त ऊर्जा प्रवाह लिए हुए है। हर रविवार को इसके परिसर में नियमित रुप से पिछले बारह वर्षों से गायत्री यज्ञ चल रहा है, जिसमें गांव के बच्चे, महिलाएं व युवा सक्रिय भागीदारी ले रहे हैं। यहाँ  आत्मचिंतन भरे कुछ यादगार पल माँ की गोद में विताए और फिर गाँव के बीच से बापस चल पड़े। सूर्यदेव अस्ताचल की ओर बढ़ रहे थे। शाम का धुंधलका जोर पकड़ रहा था। गाँव के मिलनसार परिजन चाय के लिए निमंत्रण दे रहे थे। लेकिन समय अभाव के कारण हम इसे टालकर आगे बढ़ते रहे। गाँव में केला, माल्टे के पेड़, जंगली गुलाब के फूल, सर्दिओं के लिए इकट्ठा पुआल के ढेर, धुंआ छोड़ती घर की छतें पहाड़ी गाँव के सांयकालीन जीवन का दिग्दर्शन करा रहे थे। गाँव तो गाँव ही होते हैं, वे कहीं के भी हों, अधिक फर्क नहीं होता। राह में चार-पाँच अबोध बच्चे हंसते-खेलते मिले। कुछ बिस्कुट, कुछ सिक्के हाथ में क्या थमाए, इनकी खुशी देखते ही बन रही थी। 


गाँव के बाहर नल से लगा पीपा और टपकता पानी यहाँ पानी के सूखते स्रोत की व्यथा साफ दर्शा रहा था। नीचे दूर दूर तक हल से जुते हुए सूखे खेत, बहुत कुछ कह रहे थे। यह पूरा क्षेत्र बारिश पर निर्भर दिखा। यहाँ ऊँचाई में जल के स्रोत सूखे पड़े थे। इस राह में भी खेत की मेड़ के किनारे जंगली केंट के पेड़ बहुतायत में दिखे, जिनपर नाश्पाती की कलमें लगाकर सहज ही किसान अच्छी फसल ले सकते हैं।

इस तरह इन ढलानदार खेतों को पार करते हुए हम नीचे मुख्य सड़क तक पहुँचे। शाम हो चली थी। कुछ ही देर में हम सड़क के किनारे अपने शोधछात्र के घर के पास पहुंच चुके थे। घर पर अम्माजी द्वारा तैयार साग-सब्जी, भट्ट की दाल, मंडुए की रोटी, चाबल और देसी घी हमारा इंतजार कर रहे थे। लेकिन पहले हमने प्रयोगधर्मी पिता द्वारा तैयार जडी-बूटी बाला काढ़ा पिया, जिससे हम यात्रा की थकान के बाद काफी ऊर्जावान अनुभव कर रहे थे। साथ ही हम राह में ली फोटो का  अबलोकन करते रहे और रास्ते भर की अहम बातों की चर्चा करते रहे। इस क्षेत्र के विकास की संभावित रणनीतियों पर मंथन होता रहा। स्थानीय परिजनों, विशेषज्ञों एवं समाजसेवी संस्थानों से साक्षात्कार और चर्चा अभी बाकि थी, जिसे शोध के अगले चरण में शोध छात्र द्वारा अंजाम दिया जाना था।
अब रात हो चुकी थी, भूख लग रही थी। भरपेट भोजन के बाद हम सब रात्रि विश्राम के लिए निद्रा की गोद में चले गए। और सुबह तरोताजा होकर चाय-नाश्ता करके, अगली मंजिल की ओर चल पड़े, जो थी अल्मोड़ा से होते हुए मुनस्यारी की रोमाँचक यात्रा, जिसे आप आगे दिए जा रहे लिंक पर अगली ब्लॉग पोस्ट में सकते हैं - मेरी कुमाऊँ यात्रा, भाग-2, अल्मोड़ा से मुनस्यारी, मकदोट।


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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