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बुधवार, 8 मई 2024

भावयात्रा - गिरमल देवता संग तीर्थ-स्नान यात्रा का रोमाँच, भाग-1


बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ एवं बापसी वाया मलाना

तीर्थयात्रा का सबसे रोमाँचक एवं यादगार पड़ाव - दिव्य लोक में विचरण की अनुभूति

25 अप्रैल से 2 मई 2024

भाग-1

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

भाग-2

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर,

दिन 5 – रसोल टॉप के नीचे से मलाणा गाँव,

भाग-3

दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर

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भाग - 1 

बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ वाया पीणी-कसोल

देवभूमि कुल्लू-मणीकर्ण हिमालय की दिलकश वादियों में

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ

कुल्लू घाटी में ठारा करड़ु देवी-देवताओं का विशेष महत्व है, जिन्हें कुल्लू घाटी के मूल या आदि देवता माना जाता है। इनकी कहानी जमलू देवता (ऋषि जमदग्नि) के साथ प्रारम्भ होती है, जिनका केंद्रीय स्थल मलाना है। इन देवताओं की तीर्थयात्रा एवं स्नान की धार्मिक परम्परा उल्लेखनीय है। कुछ हर वर्ष जलतीर्थों में जाकर स्नान करते हैं, जो कुछ नियत अन्तराल पर। बनोगी गाँव में पर्वत शिखर के आंचल में विराजमान गिरमल देवता की तीर्थयात्रा इस बार 25 वर्षों के उपरान्त हो रही थी, अतः यह स्वयं में एक ऐतिहासिक घटना थी। साथ में शामिल कुछ लोगों की यह पहली यात्रा थी और अधिकाँश लोगों की संभवतः यह इस जीवन की अंतिम यात्रा थी।

मालूम हो कि कुल्लू घाटी में संभवतः गिरमल ऐसे एकमात्र देवता हैं, जिनका सम्बन्ध भगवान गौतम बुद्ध से भी माना जाता है। गांववासी तो इन्हें गौतम बुद्ध ही मानते हैं। करड़ु में रखी गई देवप्रतिमाओं में मुख्य प्रतिमा बुद्ध भगवान की ही है। कुछ छोटी प्रतिमाएं भी इन्हीं की प्रतीत होती हैं। इनकी भारथा (देववाणी) में भी इसी के संकेत मिलते हैं, जो गंभीर शोध-अनुसंधान का विषय है।

इससे पूर्व जब गिरमल देवता का मंदिर जल कर राख हो गया था, तो नए मंदिर की प्रतिष्ठा होने पर वर्ष 1986 में मणिकर्ण स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। फिर वर्ष 1999 में जब देवता का नया गुर बना था, तो अगली स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। इनसे पूर्व हमारे छोटे दादाजी गिरमल देवता के गुर की भूमिका निभा चुके थे। वर्ष 1999 के बाद इस वर्ष नया मंदिर बनने व यहाँ देव स्थापना के बाद 25 वर्ष के अन्तराल में मणिकर्ण तीर्थ की स्नान यात्रा का दिव्य संयोग बन रहा था।

गहरी घाटी के विहड़ मार्ग

25 अप्रैल 2024 को बनोगी गाँव से गिरमल देवता के साथ देउड़ू (जिनमें लगभग 50-60 लोग देवता की टीम के सदस्य थे, जैसे - काइस भगवती दशमी वारदा, वरिंडु देवता, थान देवता, पनाणु देवता, भगवती भागासिद्ध के गुर-पजियारे (पुजारी), वजंतरि (बाजा बजाने वाले) बारी (काम करने वाले) देवता के मेम्बर (सदस्य), कठियाला (भोजन व्यवस्था संभालने वाले), पाल्सरा (कैशियर) और कारदार (देवता के प्रबन्धक) इत्यादि। इनके साथ देवता के गांववासी परिजन अर्थात् हारियान (जिनमें चार बेड़ु और तराई ग्रांइं (तीन गाँवों के निवासी) शामिल थे। कुलमिलाकर देवता के साथ आगे-पीछे लगभग 250 लोगों का देव काफिला शामिल था। इतने बड़े दलबल के साथ पर्वत शिखरों को पार करते हुए यह आठ दिवसीय यात्रा स्वयं में दुर्लभ सौभाग्य तथा एक विरल अवसर थी प्रकृति एवं रोमाँचप्रेमी घुमक्कड़ आस्थावानों के लिए।

बीहड़ जंगल में विचरण करती भेड़ों एवं फुआलों (चरवाहों) के संग

पहला पड़ाव था बनोगी गाँव के पास नीचे घाटी में पनाणी शिला का पावन मैदान, जो पनाणु देवता के साथ जोगनियों का निवास स्थान है। गगनचुंबी मोहरु और वृहदाकार माहुनि के वृक्षों के नीचे मैदान में श्रद्धालुजन सुबह 10 बजे से एकत्र होना शुरु होते हैं। आस-पास व दूर-दराज के क्षेत्रों के हर घर का एक व्यक्ति इसमें शामिल था। अपवाद रुप में ही किसी एमरजेंसी के कारण किसी घर से कोई व्यक्ति इसमें शामिल न पाया हो। आखिर घाटी की देवशक्तियों के संग तीर्थ यात्रा के ऐसे परमसौभाग्य से कौन अभागा वंचित रहना चाहेगा।  

देवशक्तियों के संग देव-काफिला

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दोपहर 2.30 बजे सभी एकत्र लोग यहाँ से कूच करते हैं और चढ़ाईदार रास्ते से होते हुए आगे बढ़ते हैं।

घाटी-पहाड़ों को लांघती तीर्थ यात्रियों की बलखाती लम्बी रेल

रास्ते में खाकरी टोल (चट्टान) (जिसमें भोटी भाषा में अंकित शब्द हैं, क्या लिखा है अभी तक ज्ञात नहीं) के पीछे से होकर खड़ी चढ़ाई को पार करते हुए हाअंणीथाच पहुँचते हैं। पनाणी नाला के कभी दाएं तो कभी वाएं ऊपर चढते हुए यहाँ रई-तोस के आकाश चूमते वृक्षों के बीच काफिला 5 बजे हाअंणीथाच पहुँचता है, जो ग्रीष्मकाल में भेड़-बकरियों व मवेशियों के पालक फुआलों व गवालों के रुकने का अस्थायी ठिकाना रहता है। 

रास्ते में कुम्हार-री-वाई स्थान पर थोड़ा विश्राम होता है, जहाँ से गाहर गाँव के लिए पानी की स्पलाई की जाती है।

हाइंणीथाच में नग्गर बिजलीमहादेव की कच्ची सड़क के संग व ऊपर-नीचे समतल स्थान पर तम्बूओं की कतार बिछ जाती है। देउलू देवता की सांयकालीन पूजा करते हैं और इसके बाद सभी अपना भोजन तैयार करते हैं।

यहाँ रात्रि को भोजन के बाद सभी अपने-अपने समूह में एकत्र हो, गुफ्तगू का आनन्द लेते हैं।

विहड़ जंगल की नीरव शांति के मध्य बिताए कुछ यादगार पल

जंगल की नीरव शांति के बीच एकांतिक प्राकृतिक जीवन के संग ऐसी रात कोई सामान्य अनुभव नहीं था, जो अगले कुछ दिनों तक नित्य का क्रम बनने वाला था। रात्रि निद्रा-विश्राम के बाद देव काफिला प्रातः कूच करता है, जिसका पड़ाव था मणिकर्ण घाटी का सूमा रोपा जो वाया सूरजडूगा, पीणी होकर कवर होता है।

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दूसरे दिन इस तीर्थयात्रा का सबसे लम्बा ट्रैक सावित होने वाला था।

सुबह 6.15 बजे देव काफिला गिरमल देवता संग कूच करता हैं। बिल्कुल खड़ी चढाई के साथ देवदार, रई-तौस के जंगलों के बीच 1.5 घंटे बाद दल सूरजडुगा टॉप पहुँचता है, जहाँ से दूसरी ओर मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य आंशिक रुप में प्रत्यक्ष था, जहां से उस पार ढलानदार घाटी में धारा, शॉट व जलुग्राँ जैसे इलाके दिख रहे थे। आधा घंटा नीचे उतरने के बाद काफिला 8.30 तक सूरजडूगा पहुँचता है।

सूरजडूगा के बुग्याल मध्य विश्राम पड़ाव

खुले बुग्याल में बीचों-बीच एक जल स्रोत के पास सभी रुकते हैं और खाना बनाने की तैयारी करते हैं, सुबह की पूजा अर्चना होती है। इसके बाद सभी अपना लंच कर समान समेटते हुए 11.45 तक आगे कूच करते हैं।

इसके बाद हल्की उतराई के साथ टेढ़े-मेढ़े रास्ते से नीचे उतरते हुए दल पीणी की तरफ नीचे उतरता है। और 1.30 बजे तक पीणी से होकर गुजरता है।

थकाउ सफऱ के बीच विश्राम के कुछ पल

यहाँ गाँव के पीछे हल्का विश्राम होता है। मालूम हो कि पीणी गाँव भगवती भागासिद्ध का ठिकाना है, जिसे ठारा करड़ु देवताओं की बहन माना जाता है।
पहाड़ों की गोद में बसे पीणी गाँव का विहंगम दृश्य

साथ ही किवदंतियों के अनुसार ये काईस भगवती दशमी वारदा की छोटी बहन मानी जाती हैं। यहाँ के सामने से जरी साईड की मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। ढलानदार कच्ची पगडंडियों के संग काफिला नीचे पार्वती नदी तक पहुँचता है।

सीधी उतराई के संग यात्रा का कठिन दौर

पार्वती नदी पर बने ब्लादी पुल को पार करना काफिले को भय मिश्रित रोमाँच के साथ तरंगित करता है, क्योंकि लकड़ी से बना यह पुल खूब झूलता है। काफिला लेफ्ट बैंक में जरी के नीचे से होते हुए आगे चोउखी, ढुंखरा को पार करते हुए रात 8.30 तक दूसरे दिन के पड़ाव सूमा रोपा पहुँचता है। आज का ट्रैक बहुत ही थकाऊ रहा। लगा कि ब्लादी पुल के पास रुकते तो बेहतर होता। हालाँकि रुकने का पारम्परिक ठिकाना ढुंखरा है, लेकिन पर्य़टकों की भीड़ और बढ़ती आवादी के कारण अब यहाँ रुकने का खुला स्थान नहीं बचा है। शमशान के पास तो पर्याप्त जगह थी, लेकिन यहाँ रुकने का कोई औचित्य नहीं लगा। सो काफिला आगे बढ़ता है और सूमा रोपा के खुले मैदान में रात का ठिकाना बनता है, जहाँ कुछ वन विभाग, तो कुछ प्राइवेट जगह थी, जिसका कैंपिंग साइट के रुप में उपयोग किया जाता है।

सूमा रोपा में रात्रि विश्राम का विहंगम दृश्य

अंधेरे में रात का भोजन तैयार होता है। आज थकावट इतनी थी कि लोगों के पास पिछली रात की तरह आपसी गुफ्तगू की हिम्मत नहीं थी। पेटपूजा के बाद सभी निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं। कुछ पिछले दिन भर की थकान, तो कुछ आज की मंजिल के समीप होने की निश्चिंतता – काफिला प्रातः उठकर आराम से सुबह 11.35 तक दिन का स्नान ध्यान और भोजन-प्रसाद ग्रहण करता है, फिर आगे बढ़कर कसोल वन विभाग के गेस्ट हाउस में थोड़ा विश्राम करता है तथा आज की मंजिल मणिकर्ण तीर्थ की ओर बढ़ता है, जो यहाँ से लगभग 6 किमी दूर पड़ता है।

अगले पड़ाव मणिकर्ण की ओर देव-काफिला

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

देव काफिला कसोल, गुज जैसे पडावों को पार करते हुए शाम 4 बजे मणीकर्ण पहुँचता है। कसाेल इस घाटी का एक प्रमुख कस्वा है, जिसमें वहुतायत में विदेशी सैलानी (इस्रायल से) आते हैं। आजकल तो भारत के शहरी सैलानी भी गर्मियों में यहाँ काफी मात्रा में आ रहे हैं। देवदार के घने वनों के बीच बसा यह पहाड़ी कस्बा गर्मी में भी ठण्डी आवोहवा लिए रहता है, जो इसके आकर्षण का एक प्रमुख कारण बनता है।

कसोल से होकर देव काफिला जैसे ही मणिकर्ण के प्रवेश, तंग गलू के पास पहुँचता है, बारिश शुरु होती है। लगा कि जैसे देवशक्तियाँ गिरमल देवता सहित पूरे दल का स्वागत अभिसिंचन कर रही हों। इस अभिसिंचन के बीच पार्वती नदी को पार कर मणिकर्ण में प्रवेश होता है, जो देवता का पारम्परिक प्रवेश मार्ग है। मालूम हो कि यहाँ दो बड़ी चट्टानों के बीच पार्वती नदी गर्जन-तर्जन करती हुए बहुत ही संकरे मार्ग (गलु) से नीचे की ओर प्रवाहित होती है।

गिरे पेड़ पर बने पुल को पार करता हुआ देव-काफिला

इस पर बने पक्के पुल को पार कर दल राइट बैंक में पहुँचता है और बरसात में खाई पर गिरे एक वृहद पेड़ के अस्थायी पुल के ऊपर धीरे-धीरे बढ़ते हुए पार होता है, जिसे पार करने में ठीक-ठाक समय लग जाता है और इसके बाद गुरुद्वारा को पार करते हुए काफिला मणीकर्ण पहुँचता है।

पावन तप्त कुण्ड से झरती अखण्ड जल राशि

शाम को सभी तीर्थ यात्री यहाँ के गर्मकुण्डों में स्नान करते हैं। पिछले दो-तीन दिनों से लगातार सफर की थकान गर्म कुण्ड में डूबकी लगाते ही जैसे छूमंतर हो जाती है और सभी देउलू तरोताजा हो जाते हैं। इस तीर्थस्थल में लगाई गई भावभरी डुबकी भक्तों को समाधि सुख सा आनन्द देती है, जिसमें जीवन के सकल भय, चिंता, शोक, द्वन्द और विक्षोभ शांत हो जाते हैं। खासकर सर्दी में तो कोई भी आस्थावान यात्री इस अनुभव का साक्षी बन सकता है।

स्नान के बाद सभी अपने-अपने ठिकानों पर कुछ मंदिर परिसर में तो कुछ होटल में और कुछ परिचित लोगों के घर में रुकते हैं। देवता का स्नान निर्धारित स्थान पर नियमानुसार प्रातः होता है, जबकि बाकि लोगों के लिए कई कुंड बने हुए हैं। कुछ रघुनाथ परिसर में, तो कुछ इसके पास बाहर। देवता के साथ पहाड़ लाँघ कर पैदल आए 250 लोगों के अतिरिक्त गाँव-फाटी के लगभग 4-500 श्रद्धालु भी वाया रोड़ बस व अपने वाहनों में यहाँ पहुँचे थे, जिनमें अधिकाँश महिलाएं, बुजुर्ग तथा नौकरी-पेश वाले लोग थे। सभी पूजन में शामिल होते हैं।


विधि विधान से देवता के स्नान व पूजा-पाठ के बाद बड़ा भण्डारा दिया जाता है, जिसमें सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण कर अपने-अपने घर लौटते हैं और देव काफिला भी नए रुट पर बापिसी का सफर तय करता है। मालूम हो कि घाटी के स्थानीय लोग मणिकर्ण के पवित्र जल को गंगाजल की तरह पावन मानते हैं, जिसे वर्तनों व लोटों में भरकर घर ले जाया जाता है और विशेष अवसरों पर मंगल कार्यों में इसका उपयोग होता है। आस्थावान को इस पावन जल के लिए पैदल पहाड़ों को लांघते हुए आते हैं और बापिस पैदल ही अकेले तथा एक-दो दोस्तों के साथ यहाँ आते हैं। मनुष्य तो क्या, घाटी के देवी-देवता तक यहाँ के पुण्य स्नान के अवसर को नहीं चूकते और रोमाँचक यात्रा पूरी करते हुए इस पावन तीर्थ में स्नान करते हैं। (जारी, भाग-2, मणीकर्ण से मलाना वाया रसोल टॉप)
आगामी राह में हाड़ जमाती ठंड के बीच प्रज्जवलित अग्नि के संग


शुरुआती पड़ाव के कुछ यादगार पल

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

शांघड़ - सैंज घाटी का छिपा नगीना

 

शांग्चुल महादेव के पावन धाम में


शांघड़ सैंज घाटी के एक गुमनाम से कौने में प्रकृति की गोद में बसा एक अद्भुत गाँव है, जिसकी सैंज घाटी में प्रवेश करने पर शायद ही कोई कल्पना कर पाए। इसके नैसर्गिक सौंदर्य को शब्दों में वर्णन करना हमारे लिए संभव नहीं, इसे तो वहाँ जाकर ही अनुभव किया जा सकता है।

शांघड़ देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों से घिरा 228 बीघे में फैला घास की मखमली चादर ओढ़े ढलानदार मैदान है, जिसे देवसंरक्षित माना जाता है, क्योंकि यहाँ पर शांग्चुल महादेव का शासन चलता है। किसी को इस क्षेत्र में अवाँछनीय गतिविधियों की इजाजत नहीं। यहाँ के परिसर में किसी तरह की अपवित्रता न फैले, इसके लिए यहाँ कायदे-कानून बने हुए हैं। कोई यहाँ शोर नहीं कर सकता, शराब व नशा नहीं कर सकता, मैदान तक बाहन का प्रवेश वर्जित है। यहाँ तक कि पुलिस अपनी बर्दी व चमड़े की बेल्ट के साथ प्रवेश नहीं कर सकती। नियमों के उल्लंघन पर शांग्चुल महादेव की ओर से दण्ड का विधान भी है। इस तरह दैवीय विधान द्वारा संरक्षित शांघड़ प्रकृति का एक नायाव तौफा है, जिसके आगोश में कोई भी प्रकृति प्रेमी गहनतम शांति व आनन्द की अनुभूति पाता है और यहाँ बारम्बार आने व लम्बे अन्तराल तक रुकने के लिए प्रेरित होता है।

अक्टूबर माह में हमारी यहाँ की पहली यात्रा का संयोग बनता है, कह सकते हैं कि बाबा का बुलावा आ गया था, क्योंकि कार्य़क्रम यकायक बन गया था। इस स्थान के बारे में पहले काफी कुछ सुन व देख चुके थे, लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन शेष थे। कल्पना के आधार पर एक मोटा-मोटा अक्स बन चुका था, जो प्रत्यक्ष दर्शन के बाद कहीं टिक नहीं पाया। यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य में प्रवेश करते ही मन किसी दूसरे लोक में विचरण की अनुभूतियों के साथ आनन्द से सरावोर हो उठा।

घर से निकलते ही कुछ मिनटों में कुल्लू लेफ्ट बैंक से होकर यात्रा आगे बढ़ती है। बिजली महादेव के नीचे जिया पुल से होकर पार्वती नदी पार करते हुए नवनिर्मित भुंतर – बजौरा फोरलेन बाईपास से आगे बढ़ते हैं। फिर ब्यास नदी को पार करते हुए बजौरा से होकर राईट बैंक से नगवाईं, पनारसा होते हुए ओउट टन्नल को पार करते हैं। इसके बाहर वायें मुड़ते हैं और लारजी के छोटे बाँध को पार करते हुए सैंज घाटी में प्रवेश करते हैं। रास्ते में सैंज नदी और तीर्थन नदी का संगम दिखता है, जिसके आगे पुल पार करते ही दायीं सड़क बंजार की ओर जाती है, जो आगे तीर्थन घाटी से लेकर जलोड़ी पास तक पहुँचाती है, लेकिन हम वाईँ ओर मुड़कर सैंज घाटी में प्रवेश करते हैं।

यह हमारी सैंज घाटी की पहली यात्रा थी, सो इस यात्रा के प्रति उत्सुक्तता और रोमाँच के भाव स्वाभाविक थे। साथ में अपने भतीजे के फेवरेट चिप्स, कुरकुरे व फ्रूट जूस के संग आंशिक भूख की तृप्ति करते हुए यात्रा का आनन्द लेते रहे। सैंज नदी के किनारे कई झरने व जल स्रोत मिले। इस घाटी में विद्युत परियोजनाओं के दर्शन कदम-कदम पर होते गए। पता चला कि मणिकर्ण घाटी में वरशैणी के पास चल रहे हाइडेल प्रोजेक्ट से जल सुरंग के माध्यम से इस घाटी में जल पहुँचता है और इसके संग कई स्थानों पर विद्युत उत्पादन का कार्य चल रहा है, जिनके दिग्दर्शन मार्ग में कई स्थानों पर होते रहे।

रास्ते भर कहीं पहाड़ीं की गोद में, तो कहीं पहाड़ों के शिखर पर, तो कहीं जैसे बीच हवा में टंगे गाँव दिखे। कई गाँवों तक पहाड़ काटकर जिगजैग सड़कों को जाते देखा, तो कुछ लगा अभी भी नितांत एकांतिक शांति में बसे हुए हैं। 


देखकर आश्चर्य होता रहा कि लोग कितना दूर व दुर्गम क्षेत्रों में बसे हैं और ये कभी किन परिस्थितियों में ऐसे दुर्गम स्थलों में बसकर घर-गाँव तैयार किए होंगे। ये स्वयं में एक शोध की विषय वस्तु लगी, जो कभी इनके बीच रहकर अनावृत की जा सकती है।

इस संकरी घाटी के अंत में रोपा स्थान से एक सड़क दायीं ओर मुड़कर आगे बढ़ती है, जहाँ साईन बोर्ड देखकर पता चला कि यहाँ से शांघड़ मेहज 6 किमी दूर रह गया है। अब आगे की सड़क चढ़ाई भरी एवं मोड़दार निकली। क्रमशः ऊँचाई के साथ प्राकृतिक सौंदर्य़ में भी निखार आता जा रहा था। सामने घाटी में आबाद गाँव की एकाँतिक स्थिति मन में रुमानी भाव जगाती रही, कि यहाँ के लोग कितने सौभाग्यशाली हैं, जो इतने एकाँत-शांत स्थल में रहने का सौभाग्य सुख पा रहे हैं।

देवदार के पेड़ हिमालयन ऊँचाईयों में प्रवेश का पावन अहसास दिला रहे थे। कुछ ही वाहन रास्ते में मिले जो शांघड़ से बापिस आ रहे थे। राह में देसी नस्ल के नंदी व गाय देखने को मिले। लगा इस इलाके में अभी कृषि-गौपाल की देसी परम्परा कायम है। ऐसे में सड़क के किनारे चरती भेड़-बकरियों को देखकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। थोड़ी ही देर में साईन बोर्ड व देवदार के जंगलों से घिरी घाटी को देखकर अहसास हो चला कि हम मंजिल के करीव पहुँच गए हैं। कुछ दुकानों को पार करते हुए हम एक खाली स्थान पर गाड़ी पार्क करते हैं और शांघड़ मैदान की ओर चल देते हैं।


रास्ते में शाग्चुल महादेव की कमेटी द्वारा टंगे बोर्ड में इस पावन स्थल से जुड़े नियमों को पढ़ा। सो हम इसकी पावनता का ध्यान रखते हुए आगे कदम बढ़ाते हैं। इस बुग्यालनुमा मैदान का विहंगम दृश्य विस्मित करता है और इसके चारों ओर देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों तथा इनके पीछे कई पर्वतश्रृंखलाओं के दिग्दर्शन रोमाँचित करते हैं। इस आलौकिक सौंदर्य को एक जगह बैठकर निहारते रहे। सामने ढलानदार बुग्याल, इसमें चरती गाय, भेड़-बकरियों के झुण्ड। इसके पार एक काष्ट मंदिर, जो शिव को समर्पित है। यहाँ से फिर हम नीचे स्लेटों से जड़ी पैदल पगडंडी तक पहुँचते हैं और इसके संग शांग्चुल महादेव के नवनिर्मित मंदिर की ओर बढ़ते हैं, जो शांघड़ गाँव में लगभग 5-700 दूरी पर बसा है।

5-7 मंजिले इस मंदिर की भव्य उपस्थिति दूर से ही ध्यान आकर्षित करती है, जो क्रमशः पास आने पर और निखर रही थी। मैदान को पार करने के बाद हम खेतों के बीच बनी पगडंडियों के साथ आगे बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों ओर राजमां, मक्की, चौलाई जैसी यहाँ की पारम्परिक फसलें पकती दिखीं, जिनका कहीं-कहीं पर कटान भी चल रहा था। साथ ही कुछ खेतों में सेब, नाशपति व अन्य फलों के पौधे दिखे।

इस तरह कुछ मिनटों में हम शांग्चुल महादेव के मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैँ। गाँव के उस पार निकल कर दूसरी ओर से मंदिर का नजारा निहारते हैं और साथ लाए पुष्प एवं प्रसाद को अंदर शिवमंदिर में चढ़ाकर आशीर्वाद लेते हैं। यहाँ पर 90 वर्षीय बुजुर्ग पुजारी पं. नरोत्तम शर्मा के सर्वकामधुक आशीर्वचनों के साथ कृतार्थ होकर बापिस आते हैं। रास्ते में गाय और बछड़े के साथ मुलाकात हुई, जो खेलने के मूड़ में थे। मंदिर परिसर में चाय-नाश्ता व भोजन आदि की उचित व्यवस्था दिखी। खेतों में साग-सब्जियाँ आदि उगती दिखी, जो घरेलु उपयोग में काम आती होंगी।

गाँव के खेतों को पार करते हुए हम फिर मैदान के बीच पगडंडी पर बढ़ रहे थे। यहाँ घास के मैदान में चर रही गाय, भेड़-बकरियों का दृश्य देखने लायक था। हमें पता चला कि इस मैदान को पाण्डवों ने एक रात में तैयार किया था। अज्ञातवास के दौरान पाण्डवों ने यहाँ कुछ समय विताया था। यहाँ की मिट्टी को छानकर धान की खेती की थी। आश्चर्य़ नहीं कि इसके मैदान में एक भी पत्थर नहीं खोज सकते। देवदार से घिरे इस मैदान को देख खजियार का दृश्य याद आता है। इसके नैसर्गिक सौंदर्य के आधार पर इसे मिनी स्विटजरलैंड की संज्ञा दें, तो अतिश्योक्ति न होगी। बल्कि इससे जुड़ी दैवी आस्था व पौराणिक महत्व के आधार पर यह श्रद्धालुओं व प्रकृति प्रेमियों के लिए एक सिद्ध तीर्थ स्थल है, जहाँ माना जाता है कि आपके सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूर्ण होती है।

यहाँ पर कुछ क्वालिटी समय बिताने के पश्चात अपने बाहन में बापिसी का सफर तय होता है। अचानक बना आज का ट्रिप हालाँकि एक ट्रैलर जैसा लगा। पूरी फिल्म तो आगे कभी खुला समय निकालकर यहाँ कुछ दिन बिताकर ही पूरा होगी। शाम को सामने के पहाड़ों से सूर्यास्त के नजारे के बीच हम नीचे रोपा तक उतरते हैं और आगे सैंज घाटी से होते हुए लारजी-आउट पहुँचते हैं और फिर बजौरा-भुन्तर होते हुए जिया पुल से पार्वती नदी को पार कर अपने गन्तव्य स्थल तक पहुँचते हैं।

समय अभाव के कारण यह टूर हमें अधूरा ही प्रतीत हुआ। लेकिन यहाँ की सुखद स्मृतियों का खुमार कई दिनों तक सर चढ़कर बोलता रहा। देखते हैं अब बाबा का अगला बुलावा कब आता है, जब इस यात्रा की पूर्णाहुति विधान के साथ पूरा कर पाते हैं। जो भी हो अकूत सौंदर्य व शांति को सेमेटे शांघड़ सैंज घाटी का एक छिपा नगीना है, प्रकृति का विशिष्ट उपहार है, जो हर खोजी यात्री व प्रकृति प्रेमी के लिए किसी वरदान से कम नहीं और आस्थावान के लिए एक प्रत्यक्ष तीर्थ। यदि आप कुल्लू-मानाली की ओर आते हैं, तो एक वार अवश्य इस डेस्टिनेशन को आजमा सकते हैं।

यहाँ आने के लिए बस, टैक्सी आदि की समुचित व्यवस्था है। शांघड़ कुल्लू से लगभग 60 किमी, भूंतर हवाई अड्डे से 45 किमी तथा समीपस्थ रेल्वे स्टेशन बैजनाथ से 117 किमी की दूरी पर है। कुल्लू से यहाँ के लिए बस और टैक्सी सुविधा उपलब्ध रहती है। बाकि चण्डीगढ़ से यहाँ के लिए मण्डी से होकर आया जा सकता है, शिमला से जलोड़ी पास या मण्डी से होकर सैंजघाटी में प्रवेश किया जा सकता है।

बुधवार, 20 मई 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बचपन का पर्वत प्रेम और ट्रैकिंग एडवेंचर, भाग-2


पहाड़ों के बीहड़ बन की गहराईयों से पहला गाढ़ा परिचय
प्रातः चाय-नाश्ता कर हम बीहड़ वन की गहराईयों को एक्सप्लोअर करने के लिए आगे बढ़ते हैं। गेस्ट हाउस से पीछे शाड़ी नामक ढलानदार थोड़े खुले क्षेत्र से होकर गुजरते हैं, जहाँ जंगली पालक बहुतायत में लगी थी। जरुरत पड़ने पर इसका चाबल या रोटी के साथ भोजन में बेहतरीय प्रयोग किया जा सकता था। अब देवदार का जंगल घना होता जा रहा था। थोड़ी देर में एक पहाड़ी नाला आता है, इसको पार कर हम दूसरी ओर एक ढलानदार मैदान की ओर चढ़ाई करते हैं। यहाँ भांड पात्थर नामक स्थान पर एक बड़ी सी समतल चट्टान पर चढ़कर यहाँ का सुंदर नजारा लेते हैं। यहाँ देवदार से घिरे बुग्याल में चम्बा के खजियार और काश्मीर की घाटियों की झलक आ रही थी। यह बुग्याल भेड़-बकरियों के चरने के लिए एक आदर्श स्थल था।
यहीं पर सत्तु-गुड़ का हल्का नाश्ता लेते हैं। यहाँ ठण्ड इतनी थी कि हाथ की ऊँगलियाँ जैसे जम रही थी। नाश्ते के बाद हम वुग्याल के पार दाएं ऊपर की ओर जंगल में प्रवेश करते हैं। यह थोड़ा चट्टानी क्षेत्र था, जहाँ आगे देवदार के पेड़ के दो-तिहाई ऊँचाई को छूते दो समानान्तर चट्टानों को लेकर एक चूल्हानुमा आकृति हमें रोमांचित करती है, जो पाँडू चूल्हा नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि पाण्डव अज्ञातवास के दौरान यहाँ से गुजरे थे और यह उनका बनाया हुआ चूल्हा है, जिसको पीछे से जाकर चढ़कर इसकी समतल चट्टानों पर बैठकर इसका अनुभव लेते हैं। अनुमान लगाते रहे कि पाण्डव कितने ताकतवर रहे होंगे, साथ ही कितना ऊँचे भी। 
फिर हम नीचे उतरे और भांड़ पात्थर पहुँचे। यहाँ से तिरछी ऊँचाई पर ऊपर देऊधाणा स्थल पड़ता है, जो भेड-बकरियों के विश्राम के लिए अनुकूल स्थान माना जाता है, जहाँ फुआल (गड़रिए) अपने झुंडों के साथ रहते हैं। आज समय अभाव के कारण वहाँ पहुँचना संभव नहीं था। भाण्ड पात्थर से दक्षिण की ओर सीधा रास्ता माऊट नाग नामक बीहड़ एकाँत में स्थित तीर्थ स्थल एवं वन्य संरक्षित इलाके से होकर
आगे मुख्य मार्ग से मिलता है और सीधे घाटी के छोर पर पहाड़ की चोटी पर स्थित प्रख्यात बिजली महादेव मंदिर तक जाता है। हम इसके ठीक बिपरीत उत्तर दिशा की ओर सीधी पगडंडी के सहारे आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में यहाँ भालूओं के जमीन को खोदने के निशान दिखे। हालाँकि ये ताजा नहीं थे। मालूम हो कि भालू जड़ी बूटियों का भी शौकीन होता है और इनकी जड़ों को खोदकर खाता है। शहद उसका पसंदीदा भोजन माना जाता है। जंगल में उगने वाले कैंट, एक तरह के जंगली बागूकोशा के पक्के मीठे फलों को भालू पड़े चाव से खाता है। खैर हम बीहड़ बन में आगे बढ़ रहे थे, पूरी साबधानी के साथ, कुछ हल्ला व शौर करते हुए, जिससे कि यदि कोई भालू कहीं हो तो दूर भाग जाए।
रास्ते में उबल्दा स्थान आता है, जहाँ जमीं से फूटता पानी का चश्मा किसी चमत्कार से कम नहीं लग रहा था।
यह शीतल एवं निर्मल जल उबाल के साथ बाहर निकल रहा था, जिस कारण इसका नाम ऐसा (उबल्दा) पड़ा। भादों की बीस (प्रायः सितम्बर माह का पहला सप्ताह, जब ये वुग्याल जंगली फूलों के सजे होते हैं) को लोग विशेषरुप में यहाँ पुण्य स्नान के लिए आते हैं। इसके जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है और दिव्य भी। यहाँ पर हल्का नाश्ता कर हम आगे बढ़ते हैं। ऐसे पहाड़ों में ट्रेकिंग करने वालों का यह आम अनुभव रहता है कि यहाँ का जल इतना सुपाच्य एवं औषधीय होता है कि भूख बहुत जल्द लगती है, जठाग्नि जैसे अपने चरम पर प्रदीप्त होती है और कुछ भी खाओ जैसे तुरन्त पच जाता हो।
आगे रास्ते में दूंअधड़ा थाच पड़ा, जहाँ लकड़ी व घास की झौंपड़ी में ग्वाले अपने मवेशियों के साथ रह रहे थे। थोड़ा नीचे आगे तंदला सोर (सरोवर या ताल) पड़ता है, जिसके बारे में मान्यता है कि इसके तल पर कोई पत्ता तक नहीं गिरता। चिडिया गिरते पत्तों के तुरंत उठा लेती है। हम समय अभाव के कारण इसके भी दर्शन नहीं कर पाए।
हम सीधा आगे बढ़ रहे थे। आगे पटोऊल स्थान हमारा आज का गन्तव्य स्थल था, जहाँ नीचे फूटा सोर (सरोवर) पडता है।
मान्यता है कि भगवती दशमी वारदा (इलाके में मान्य दुर्गा माता का कन्या रुप) ने अपनी कनिष्ठिका उँगली से इसको फेर कर कभी भयंकर सूखे का निवारण किया था और यहाँ पर अधिकार जमाए असुर का बध किया था। यहाँ आज भी दलदली सरोवर बीच में टापू का आकार लिए हए है। यहाँ से हम पीछे पहाड़ के सबसे ऊचे बिंदु पर चढ़ जाते हैं, जहाँ से पीछे की मणिकर्ण घाटी के दर्शन प्रत्यक्ष थे। नीचे पार्वती नदी बह रही थी, और ऊपर घाटी में क्षाधा-बराधा और दूसरे गाँव उस पार दिख रहे थे। यह हमारे लिए एक अदभुत नजारा था, क्योंकि पहाड़ के शीर्ष से क्या दिखता होगा, यह आज समझ आ रहा था। आसमान तक जाने का तो कोई रास्ता संभव नहीं दिखा, लेकिन पीछे दूसरी अनेकों घाटियों के दर्शन और सुदूर हिमाच्छादित विराट पर्वतश्रृंखलाओं के मनोरम नजारे हमें रोमाँचित कर रहे थे।
यही हमारा आज का गन्तव्य स्थल था और आज तक बचपन की वाल जिज्ञासाओं का समाधान भी। इसके आगे रास्ता रूमसू टॉप से होकर चंद्रखणी पास पहुँचता है और आगे मलाना गाँव (विश्व का सबसे प्राचीन लोकतंत्र) पड़ता है। अब तक दोपहर हो चुकी थी। हम यहीं से बापिस हो जाते हैं, उबल्दा पहुँचते हैं और शॉर्ट कट से नीचे मुख्य मार्ग में पहुँचते हैं और कच्चे मोटर रुट के साथ नग्गर-बिजली महादेव कीसड़क पर आगे बढ़ते हैं। 
 रास्ते में रेउँश गेस्ट हाउस मिलता है, जहाँ हम रात को रुके थे तथा सुबह बीहड़ वन को एक्सप्लोअर करने का अभियान शुरु किए थे।
    इसके आगे रास्ते में चट्टानी पहाड़ को काटकर बनाए रास्ते को देखते हैं, जहाँ गुफानुमा स्थलों में नाईट हाल्ट की कामचलाऊ व्यवस्था दिखी। इस राह की खासियत देवदार के साथ रई-तोष के घने जंगल लगे एवं साथ में जल की प्रचुरता, जो सीधे नीचे सेऊबाग नाले को समृद्ध करते हैं, जिसका जिक्र हम पिछले कई ब्लॉग्ज में विस्तार से कर चुके हैं।
हाइणी थाच स्थान से हम मुख्य मार्ग से हटकर पगडंडी के सहारे नीचे की और बापसी के रास्ते चल देते हैं। सूर्य भगवान लगभग अस्त हो रहे थे। यहाँ हम सीधी धार (रिज) की उतराई भरी कच्ची पगडंडियों पर तेज कदमों के साथ नीचे उतर रहे थे। लक्ष्य अब एक ही था, अँधेरा होने से पहले घर पहुँचना। रास्ते में काली जोनी व मेंह स्थलों को पार करते हुए दाड़ू री धारा स्थान पर पहुँचते हैं। अभी भी यहाँ से नीचे गाँव-घर के दर्शन नदारद थे। यहाँ से हाका देने री धारा स्थल को पार कर नीचे छाऊँदर नाला के टॉप पर पहुँचते हैं, जहाँ से अब नीचे गाँव-घर के दर्शन हो रहे थे।
लग रहा था कि अब हम लोग घर पहुँच ही गए। कुछ मिनटों में सेऊबाग नाला के समानान्तर चट्टानी उतराई के साथ केक्टस के जंगल को पार करते हुए हनुमान मंदिर पहुँचते हैं। फिर सीधे रास्ते अपने-अपने घर की ओर कूच करते हैं। 
सफर हालाँकि थका देने वाला था, लेकिन आज जितने सवालों के जबाब मिल रहे थे, वे महत्वपूर्ण थे। मन की कई जिज्ञासाएं शांत हो गईं थीं। पहाड़ों के प्रति रूमानी भाव के साथ एक नयी समझ, एक व्यवहारिक अंतर्दृष्टि विकसित हो चुकी थी। 
    ऐसा ही बाद का एक ट्रैकिंग एडवेंचर अपने भाईयों व मित्रों के साथ हमें याद है, अप्रैल या मई माह के दिन थे, जब ऊँचाईयों में हल्की बर्फ जमीं थी। इस टूर में पांडू चूली के पास बर्फ में भालू के ताजा निशां दिखे थे। इस बार हमारा शेरु कुत्ता भी साथ में था। भालूओं के सामना होने पर इनसे भिड़ने की तैयारी हमारी अधूरी थी, अतः हम सब लोग दबे पाँव बापिस हट गए थे, जो हमारा समझदारी भरा कदम था।
आगे दूंअधड़ा के पास बर्फ इतना अधिक थी कि हम आगे बढ़ने की स्थिति में नहीं थे, बार-बार ढलान में फिसलने का खतरा बढ़ रहा था और इसके साथ यहाँ भी भालूओं के पंजों के ताजा निशां मिल चुके थे और हम बापिस आ गए। लेकिन इस बार हम उबल्दा से मुख्य मार्ग में न उतर कर सीधा भाण्ड पात्थर से होकर माऊट नाग पहुंचते हैं,
इसके संरक्षित क्षेत्र में फूलों से सजे बुग्याल को पार करते हुए नग्गर-बिजली महादेव सड़क पर उतरने के बाद बिजली महादेव तक गए थे। बापसी में हाइणी थाच से होते हुए इस बार अपने पैतृक गाँव गाहर से होकर नीचे उतरे थे। यहाँ से गाँव के दर्शन तो नदारद थे, लेकिन कुल्लू-ढालपुर मैदान के विहंगम दर्शन हो रहे थे और पीछे लग वैली और मंडी साईड की पर्वतश्रृंखाएं दिख रही थीं। गाहर गाँव से हम फिर सेऊवाग गाँव तक पैदल आधा-पौन घंटे में पहुँचे थे। (आज पक्की सड़क बन चुकी है, जिसमें मात्र 10-15 मिनट में सेऊबाग से गाहर गाँव का रास्ता तय हो जाता है)
हर यात्रा हमें पहाड़ों के प्रति और गहराई में उतार रही थी। घरवालों, पड़ोसियों एवं गांव वालों के सवाल के चिरपुरातन प्रश्न का जबाब अब भी हमारे पास नहीं था कि इन पहाड़ों में ऐसा रखा क्या है, जो छुट्टियों में सीधे यहाँ घूमने चल देते हो। लेकिन नियति हमें किसी निर्धारित गन्तव्य की ओर ले जा रही थी। काल के गर्भ में पकती इस खिचड़ी का स्वरुप कुछ वर्षों बाद स्पष्ट होता है, जब अपनी बीटेक की पढ़ाई पूरा करने के बाद हमें मानाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान में प्रवेश मिलता है और यहाँ से अनुभवी प्रशिक्षकों के कुशल मार्गदर्शन में एडवेंचर और बेसिक कोर्स करने का सुअवसर मिलता है, जिसकी रोचक, रोमाँचक एवं कहीं-कहीं रोंग्टे खड़े करने वाली दास्ताँ हिमवीरु के अगली पोस्टों में शेयर होती रहेगी, जिसका पहला भाग आप नीचे की पोस्ट में पढ़ सकते हैं।
 
 
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