आज इंसान इतना व्यस्त है कि उसके पास हर चीज के लिए समय है, यदि नहीं
है तो बस अपने लिए। जीवन इतना अस्त-व्यस्त हो चला कि सुनने को प्रायः मिलता है कि
यहाँ मरने की भी फुर्सत नहीं है। व्यक्ति जिंदगी के गोरखधंधे में कुछ ऐसे उलझ गया
है कि उसे दो पल चैन से बैठकर सोचने की फुर्सत नहीं है कि जिंदगी जा कहाँ रही है।
जो हम कर रहे हैं, वह क्यों कर रहे हैं, हम किस दिशा में बह रहे हैं। आजसे पाँच
साल, दस साल बाद यह दिशाहीन गति हमें कहाँ ले जाएगी, इसकी दुर्गति की सोच व सुध
लेने का भी हमारे पास समय नहीं है।
कुल मिलाकर जीवन मुट्ठी की रेत की भांति फिसलता जा रहा है और हम
मूकदर्शक बनकर जीवन का तमाशा देख रहे हैं। इस बहिर्मुखी दौड़ में खुद से अधिक हमें
दूसरों का ध्यान रहता है, हम अपने सुधार की वजाए, दूसरों के सुधार में अधिक रुचि
रखते हैं। अपनी हालत से बेखबर, दूसरों की खबर लेने में अधिक मश्गूल होते हैं। ऐसे
में हम जीवन की सतह पर ही तैरने के लिए अभिशप्त होते हैं और अंदर का खालीस्थान
यथावत बर्करार रहता है, जिसके समाधान के लिए गहराई में उतरने की बजाए हम फिर दूसरी
बेहोशी में उलझ जाते हैं। ऐसे में जीने का, आगे बढ़ने का भ्रम होता है, लेकिन जीवन
कोल्हू के बैल की भांति चलता रहता है, पहुँचता कहीं नहीं।
ऐसे में जीवन की शांति को खोजते खोजते मंदिर, मस्जिद, गिरजे,
गुरुद्वारे, सकल तीर्थ स्थानों को हम छान मारते हैं, लेकिन अपनी सुध नहीं ले पाते।
अंतर की गुहा में बैठी आत्मा एक कौने में उपेक्षित सिसकती रहती है, जिसको हम
प्रायः अनसुना किए रहते हैं। जो प्रतिभा अंदर प्रकट होने के लिए आकुल थी, उसकी ओऱ
ध्यान ही नहीं जाता। जो तड़प अंदर थी कुछ करने की, उसे मौका ही नहीं मिलता और वह पड़े-पड़े
शांत हो जाती है। बाहर देखा देखी में भीड़ के साथ बहते-बहते जीवन का असली मकसद हाथ
से यूँ ही फिसल जाता है। उधारी सपनों का बोझ कंधे पर ढोए जीवन बिना किसी सार्थक
निष्कर्ष के बस यूं ही बीत जाता है। और अंत में हाथ लगता है तो सिर्फ एक
गहरी विषाद, अवसाद और पश्चाताप भरी मनोदशा।
कितना अच्छा होता यदि समय रहते अपनी सुध ली होती। नित्य कुछ पल अपने
लिए विचार के, आत्म चिंतन के, मनन के, आत्म समीक्षा के विताए होते। कुछ पल बैठकर अपने
सच का सामना किया होता। जीवन की बहिर्मुखता के साथ अंतर्मुखता के कुछ अंतरंग
पल अपने साथ विताए होते।
क्योंकि एकांत, शांत मनःस्थिति में ही अपना सही परिचय मिलता है। अपनी
खोज, विश्लेषण व समीक्षा सम्भव हो पाती है। अपनी खूबी-खामी व
शक्ति-दुर्बलता का परीक्षण संभव होता है और साथ ही अपने मौलिक स्वरुप की
अभिव्यक्ति संभव होती है। यही एकांत के पल गहन-गंभीर सृजन के होते हैं।
जीवन की अंतर्निहित शक्तियों के प्रस्फुटन का ताना वाना इन्हीं आंतरिक
पलों में बुनना संभव होता है। अंतर्वाणी इन्हीं पलों में सबसे स्पष्ट
एवं मुखर होती है। जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति का अर्जन
इन्हीं पलों में होता है। अंतरात्मा अपने स्रोत्र के निकट होती है, अपनी शाश्वत
शांति, नीरवता एवं वैभव के साथ विराट की ओऱ उन्मुख।
हर सफल इंसान की तरह महापुरुषों के तमाम दृष्टाँत इसकी बानगी पेश करते
हैं। वे अंतर्मन से जुड़कर ही खुद को जान पाए, अपने निष्कर्षों के साथ
कुछ सार्थक सृजन कर पाए। भगवान बुद्ध-महावीर से लेकर महर्षि अरविंद, महर्षि
रमण तक इसी एकांत में तप कर कुंदन बने थे। स्वामी विवेकानन्द ने
इसी एकांत में आंतरिक जीवन को समृद्ध-सशक्त बनाया था। गाँधी जी व
कवींद्र टैगोर ने क्रमशः कौसानी व शिमला की नीरवता में कालजयी सृजन
किया था। गहन तप व सृजन हेतु आचार्य श्रीरामशर्मा का हिमालय प्रवास जीवन का अभिन्न
अंग रहा। महान विचारक थोरो की कालजयी रचना वाल्डेन झील के किनारे
विताए ऐसे ही पलों का वरदान थी।
हालाँकि जीवन की भाग-दौड़ के बीच अपने लिए समय निकालना कठिन होता है
लेकिन सुबह शाम या सोते समय इसके लिए कुछ मिनट निकाले जा सकते हैं। दिन
में ऑफिस के शुरु, अंत व मध्य में कुछ पल एकांतिक आत्म समीक्षा के
विताए जा सकते हैं। प्रातः या दिन के किसी भी समय, जो अनुकूल हो, कुछ पल मौन
रहकर मन की ऊर्जा के बिखराव को रोककर अंतर्मुख भाव को सुदृढ़ किया
जा सकता है।
सप्ताह अंत में कुछ घंटे या माह में एक दिन या साल में कुछ
सप्ताह सघन एकांत के प्रकृति की गोद में विताए जा सकते हैं। इसके साथ
ही घर के कौने में ऐसा ध्यान या पूजा कक्ष बनाया जा सकता है, जहाँ ऐसा मनोभाव
जाग्रत होता हो। बाहरी परिवेश में यदि ऐसा एकांत संभव न हो, तो मन
की ह्दयगुहा में ही एकांत को तलाशा जा सकता है। भीड़ के बीच भी एकांत का यह
अहसास एक आदर्श स्थिति है, जिसका अभ्यास किया जा सकता है।