सोमवार, 3 मार्च 2025

मेरी पहली काश्मीर यात्रा, भाग -2

 

रामबन से श्रीनगर

रामबन पार करते ही हम अब एक नए परिवेश में प्रवेश करते हैं, जो तंग घाटी, आसमान छूते पहाड़, गहरी खाइयों व चट्टानी मार्ग से होकर गुजरता है। रास्ते में कई सुरंगें मिली और कुछ में अभी जोरों-शोरों से काम चल रहा था। सड़क के नीचे खाई बहुत गहरी थी, सामने पहाड़ भी सीधे खड़े थे, जिनमें दुर्गम ऊँचाईयों में घर-गाँव बसे दिखे। अधिकाँश सड़क मार्ग से जुड़े लगे। यहाँ रह रहे लोगों के सौभाग्य, शांति-सुकून के साथ कठिनाईयों व मजबूरियों पर राह में मिश्रित भाव-चिंतन चलता रहा।

आगे खाई कम गहरी होती गई और सामने के गाँव-घर तथा वसावट पास से दिख रहे थे। राह में अखरोट के सूखे वृक्षों के दर्शन शुरु हो चुके थे। घरों के आसपास खेतों व बंजर भूमि में अखरोट के वृक्ष वहुतायत में दिखते रहे। इस मौसम में वृक्ष बिना पत्तियों के ठूंठ लग रहे थे, लेकिन आ रहे मौसम में पत्तियों व फल लगने पर निश्चित ही ये वृक्ष यहाँ की सौंदर्य वृद्धि करते होंगे। हम तो इतनी संख्या में अखरोट के ठूंठ पेड़ देखकर ही रोमाँचित हो रहे थे, क्योंकि इनके साथ हमारे पहाड़ी गृह प्रदेश की यादें ताजा हो रही थीं, जहाँ मेड़ पर खेत में एक-दो पेड़ रहते हैं, जिनसे घर की आवश्यकता भर की पूर्ति होती है। अखरोट की व्यवसायिक खेती का चलन अभी वहाँ नहीं है।

राह में सीआरपीएफ के जवान मुस्तैदी से मोर्चा संभाले दिखे। सड़क के किनारे नद-नालों के ऊपर बन रहे फ्लाई-ऑवर भी एक नया प्रयोग लगे, जो भूस्खलन की स्थिति में यातायात को निर्बाध बनाए रखने में उपयोगी रहते होंगे। अधिकांश अभी निर्माणाधीन थे। घाटी के बाहर निकलने पर ही एक तैयार फलाईऑवर मिला, जिसको पार करते ही हमारा काश्मीर घाटी की सुंदर वादियों में प्रवेश होता है।

इससे पूर्व रास्ते में तमाम छोटी-बड़ी घाटियाँ दिखीं, जहाँ से कोई छोटी नदी व नाले नीचे मुख्य नदी में बह रहे थे। पीछे हर घाटी में पर्वत शिखरों से लेकर बीच इनकी गोदी व सड़क के किनारे गाँव व घर आवाद मिले। तंग घाटी को पार कर अब हम खुली घाटी में आ गए थे।

साथ ही सड़क के आस-पास की आवादी भी सघन हो रही थी। काश्मीर घाटी के दीदार का रोमाँच भी गति पकड़ रहा था। बस में वांईं ओर के दृश्य ही कैप्चर कर पा रहा था, आगे व दाईं ओर के दृश्यों को आंशिक रुप से ही कवर कर पा रहा था। सुंदर प्राकृतिक परिवेश में एक नई घाटी में आगे बढ़ते हुए रास्ते में एक टनल आती है, जो संभवतः काफी लम्बी निकली।

हम वनिहाल में थे, वाईं ओर वनिहाल रेल्वे स्टेशन की भव्य उपस्थिति दिख रही थी, जिसके सामने आसमान छूता तिरंगा हवा में लहरा रहा था।


मालूम हो कि बनिहाल से श्रीनगर तक नियमित रुप से रेल चलती है, यात्रा चाहें तो इस रुट का भी आनन्द उठा सकते हैं।

गाड़ी सरपट घाटी में आगे बढ़ रही थी, शीघ्र ही हमें वाईँ ओर बर्फ से ढके पर्वत श्रृंखला के दर्शन अपने वाईं ओर होते हैं, जिनमें बर्फ की भरपूर मात्रा में देखकर हम आश्चर्यचकित और रोमाँचित होते हैं। हमें अनुमान नहीं था कि हमें रास्ते में ही इतनी वर्फ देखने को मिलेगी।


सांसे थामकर हम इन्हें निहारते रहे व यथासंभव मोबाइल में कैप्चर करते रहे। ये कौन सी पर्वतश्रृंखला है, कोई वहाँ बताने वाला नहीं था।

रास्ते में काजीकुंड स्थान पर गाड़ी लंच के लिए रुकती है। आज शुक्रवार का दिन था, जुम्मे की नमाज़ थी, हमारे चालक सवारियों से कहकर इसमें भाग लेने के लिए जाते हैं। सो कुछ समय मिलता है और हम भी ढावा मालिक से कुछ संवाद करते हैं। पता चलता है कि यहाँ सर्दियों में 4-6 फीट बर्फ गिरती है, जबकि श्रीनगर साइड कम बर्फ पड़ती है। हमारे लिए यह एक नई जानकारी थी।

चालक के आते ही बस चल पड़ती है। आगे घाटी का विस्तार और बढ़ रहा था। हिमाचल में सुंदरनगर से मंडी के बीच की वल्ह घाटी जैसा कुछ नजारा था। लेकिन यहाँ लैंडस्केप कुछ अलग था।


खेतों का विस्तार पंजाब-हरियाण के मैदानी इलाकों जैसे लग रहा था, जिसमें पोपलर की कतारवद्ध खेती बीच-बीच में दिखती गई। कई चोकोर खिड़कियों से जड़े यहाँ के घरों का विशिष्ट बनाव यहाँ की विशिष्ट पहचान लग रही थी।

खेतों में कुछ उग रहा था, क्या था, कोई बताने वाला नहीं था। अनुमान था कि मटर व आलू आदि की सब्जियाँ होगीं। साथ ही केसर का भी अनुमान लगा, क्योंकि बीच में हम पंपोर क्षेत्र से गुजरे, जो केसर के लिए विश्वभर में जाना जाता है।

काश्मीर सेब के लिए भी प्रख्यात है। भारत में अधिकाँश सेब काश्मीर में पैदा होता है। इनके बगानों को देखने की इच्छा बहुत थी, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। बाद में पीछे बैठे काश्मीरी भाई से पता चला कि सेब इस रुट पर कम दिखेगा, इसके बगीचे आपको अन्दर जा कर मिलेंगे। पता चला कि शोपियां, पुलवामा, सोपोर, अनन्तनाग और श्रीनगर जिले के ग्रामीण आंचल में सेब की उम्मदा खेती होती है। रास्ते में एक दो बगीचे ही अपवाद रुप में दिखे।

रास्ते में घर की छतों पर सड़क के किनारे बहुतायत में बैट्स के बल्लों के ढेर सूखते दिखे। बैट्स का विज्ञापन करती दुकानें भी रास्ते भर दिखती रहीं। लगा कि यहाँ क्रिकेट बेटस का निर्माण एक उद्योग के रुप में विकसित है, जो काश्मीरी विल्लो लकड़ी से बनता है।

अब हम श्रीनगर के समीप पहुँच रहे थे। रास्ते में एक नदी के दर्शन होते हैं, जिस पर कुछ नावें चल रही थीं व अधिकाँश किनारे पर लगी थीं।


पता चला कि यही जेहलम नदी है, जिसे श्रीनगर की जीवन-रेखा कहा जाता है। वेरीनाग स्थान इसका उद्गम स्थल है औऱ यह बुलर लेकर से होते हुए श्रीनगर को पार करते हुए यहाँ पहुँचती है।

खेत, गाँव, कस्वों व झेलम नदी को पार करते हुए हम अन्ततः श्रीनगर में प्रवेश करते हैं। पहाड़ों की गोद में बसे इस शहर को हम पहली बार नज़दीक से देख रहे थे।


यहाँ के कई लैंडमार्ग भवन रास्ते में दिखते रहे। झेलम नदी भी लुकाछिपी करती रही, कई बार इसके रास्ते में दर्शन होते रहे। सामने ऊँचे पहाड़ से घिरा श्रीनगर हमारे सामने प्रत्यक्ष था। आखिर आठ घंटे के सफर के बाद हम दोपहर चार बजे टीआरसी बस-स्टैंड पर थे।

यहाँ से हमारा गन्तव्य 10-12 किमी दूर था। ऑटो-टेक्सी में बैठकर यहाँ पहुंचते हैं। मार्ग डल झील के बीच से होकर गुजर रहा था। चालक हमें रास्ते में झील के किनारों से परिचित कराता हुआ मंजिल तक पहुँचाता है। रास्ते में काफी भीड़ थी। पता चला कि आज हजरतबल की दरगाह में जुम्मा की नमाज़ के कारण यह भीड़ थी। इस दरगाह को मुस्लिम आवादी का एक पावनतम तीर्थ स्थल माना जाता है। 

आधा घंटे में हम निशांत बाग स्थित ट्राइडन होटल में थे। स्वागत कक्ष में हमारा भाव भरा स्वागत होता है। कमरे में सामान छोड़ हम तरोताजा होते हैं और काश्मीरी कहबे के साथ सफर के अनुभवों को याद कर, इनकी जुगाली करते हुए विश्राम करते हैं। विश्वास नहीं हो रहा था कि हमारी पहली कश्मीर यात्रा सम्पन्न हो रही है औऱ हम डल झील के समीप पर्वत शिखरों से घिरे एक होटल के कमरे में बैठे विश्राम कर रहे हैं।

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