शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

मेरी पहली काश्मीर यात्रा, भाग -1


हरिद्वार से जम्मु - रामवन

आज संयोग बन रहा था काश्मीर की चिरप्रतिक्षित यात्रा का, एक अकादमिक कार्यशाला के वहाने। काश्मीर यूनिवर्स्टी, श्रीनगर में 15 फरवरी, 2025 के दिन आयोजित इस कार्यशाला (SWAYAM OUTREACH WORKSHOP) के लिए 13 फरवरी की शाम हरिद्वार से निकल पड़ता हूँ। यात्रा का हवाई विकल्प भी था, लेकिन इच्छा थी जम्मू से काश्मीर तक सड़क यात्रा के माध्यम से पूरे रूट के भूगोल, राह के मुख्य पड़ावों, प्राकृतिक सौंदर्य, आकर्षणों व विशेषताओं को देखने समझने व निहारने की। साथ ही राह में लोकजीवन को भी चलती-फिरती नज़र में अनुभव करना चाहता था।

सो हरिद्वार से हेमकुण्ट एक्सप्रैस के डिब्बे में बैठ जाता हूँ, लोअर वर्थ की निर्धारित सीट पर। शाम को ठीक 6.30 बजे ट्रेन चल पड़ती है। चलते ही सभी सवारियाँ अपने-अपने बर्थ को खोल कर लेट जाते हैं। हम भी लेटे-लेटे अपने सफर को पूरा करते हैं। रास्ते में रुढ़की के पास टीटी आकर कुशल-क्षेम पूछते हुए आगे बढ़ते हैं। रास्ते में ट्रेन में उपलब्ध डिन्नर लेते हैं। सीट पर आढ़े-तिरछे बैठे ही भोजन ग्रहण करते हैं। फिर करवटें बदलते हुए किसी तरह से रात गुजारते हैं। लगा कि अपनी उम्र के हिसाब से अब लोअर बर्थ में रात के सफर का समय चूकता जा रहा है।

सुबह साढ़े पाँच बजे ट्रेन जम्मु पहुँचती है। रास्ते में सवारियाँ अपने-अपने स्टेशनों पर उतरती चढ़ती गईं। लुधियाना के आसपास फिर टीटी साहब के दर्शन होते हैं, जो नई सवारियों का ही हालचाल पूछ आगे बढ़ते हैं। बाहर झांकने का अधिक मतलब नहीं था, क्योंकि अंधेरे में बाहर के नजारे सब एक जैसे लग रहे थे।

लगभग 12 घंटे की यात्रा के बाद सुबह पाँच बजे हम जम्मु स्टेशन पर उतरते हैं।


ट्रेन आगे कटरा तक जा रही थी, जिसमें माता वैष्णों देवी के दर्शनार्थी बैठे हुए थे। स्टेशन पर वेटिंग रूम की खोज में पूरे स्टेशन की पूरी परिक्रमा कर डालते हैं। स्टेशन के सामने के उत्तरी छोर तक पहुँचते हैं, जो जनरल वेटिंग रुम था। फिर पूछने पर पता चलता है कि एसी वेटिंग रुम नीचे दक्षिण में सबसे निचले छोर पर है, जहाँ से आगे बढ़ते हुए हम पुल से उतरकर सामने से गुजरे थे।

वेटिंग रुम में फ्रेश होकर, चाय-बिस्कुट के साथ थोड़ी गर्माहट पाते हैं। और थोड़ा देर बैठे-बैठे ध्यान करते हुए ट्रेन सफर की अकड़न-जकड़न से भी निजात पा लेते हैं और रिचार्च होकर पौने सात बजे बाहर बस-स्टैंड की ओर बढ़ते हैं, जो स्टेशन के बाहर मात्र 200-300 मीटर की दूरी पर सामने हैं। यहीं से जम्मु काश्मीर रोडबेज ट्रांस्पोर्ट कॉरपोरेशन (JKRTC) की बसे चलती हैं।

बस सामने खड़ी थी, रेडबस एप्प से बुक की हुई सीट में जाकर बैठते हैं। सामने आगे एक बुजुर्ग बस में बैठे थे और सवारियाँ एक-एक कर चढ़ रही थीं। हमारे आगे-पीछे व बग्ल में राजस्थान के कुछ युवा बस में चढ़ते हैं, जिनमें अधिकाँश पहली बार वहाँ जा रहे थे। आगे व सबसे पीछे एक-दो काश्मीरी भाई लोग तथा एक सरदार माँ-बेटा बैठते हैं। बुजुर्ग की कन्डक्टर से बहस होती है, जो सुबह साढ़े पाँच बजे से अगली सीट का चयन कर बैठे थे। जबकि यह सीट ऑनलाइट बुकिंग हो चुकी थी।

बस के बग्ल में दूसरी ऐसी ही बस खड़ी थी, जिसमें समानान्तर सवारियाँ भरी जा रही थी। नई सवारियों को उसमें भरा जा रहा था। इस तरह हमें समझ आया कि ऑनलाइन बुकिंग के बाद जो सीटें बचती हैं, उनमें ऑफलाइन सवारियों को सीट मिलती हैं, जिनकी बुकिंग वहीं सामने काउंटर पर हो जाती है तथा इनका किराया भी कुछ कम रहता है।

जम्मु से रामनगर तक का सफर

ठीक 8 बजे हमारी बस चल पड़ती है। ड्राइवर काफी माहिर लग रहा था और गाड़ी को पूरे कंट्रोल में तेजी से दौड़ा रहा था। ये हर पहाड़ी इलाकों में यात्रा का अनुभव रहता है, जहाँ के लोक्ल चालक यहाँ की सर्पिली राहों पर आए-दिन चलते रहते हैं और अचेतन मन में इनको रास्ते के हर मोड़, उतार-चढ़ाव व बारीकियां फिट रहती हैं।

शहर को पार करते हुए जम्मु शहर के मुख्य भवन व लैंडमार्क ध्यान आकर्षित करते रहे। रास्ते में एक नदी को पार किए, पानी काफी कम था और गंदला भी। नदी से अधिक नाले की तरह लग रही थी, उसके पुल को पार कर आगे बढ़ते हैं। वाइं और बैठे होने के कारण दाईँ ओर के नजारे आंशिक रुप से ही दिख रहे थे। लेकिन इतने में ही रास्ते का मोटा-मोटा अंदाज हो रहा था। हाँ हमारी विडियो केप्चरिंग इसके कारण एक तरफा ही अधिक हो पा रही थी। योजना थी कि बापिसी में दूसरी ओर बैठकर रही सही कसर पूरी कर लेंगे।

रास्ते में ही वाईं ओर आईआईटी जम्मु के दर्शन होते हैं, आगे नदी के किनारे पहाड़ी के संग बसे जम्मु शहर का घाटी नुमा लैंडस्केप भी दिख रहा था। इसी राह में आगे जंगल के बीच सुनसान जगह टीले पर आईआईएम, जम्मु के भव्य भवन के दर्शन होते हैं।


इसी के साथ हम शहर के बाहर निकल चुके थे और आगे कटरा की ओर बढ़ रहे थे, जो संभवतः यहाँ से लगभग 30 किमी आगे रहा होगा।

अब हमारी बस पहाडियों की गोद में सर्पदार सड़क के साथ झूमती हुई सरपट आगे बढ़ रही थी। फोरलेन सड़क पर सफर काफी खुशनुमा लग रहा था, रास्ते में कहीं हरे-भरे, तो कही चट्टानी पहाड़ों व वादियों के दर्शन हो रहे थे। इसी क्रम में हम पहली सुरगं पार करते हैं। आगे हमारे रास्ते में कटरा का कस्बा पड़ा। दूर से ही पहाड़ों पर माता वैष्णो देवी के मार्ग की जिगजैग सड़कें व सफेद रंग के भवन दिख रहे थे।


माता को अपना भाव निवेदन करते हुए हम आगे बढ़ते हैं औऱ सहज ही याद आ रहे थे, पिछले ही वर्ष अक्टूबर माह में अपनी पहली माता वैष्णो देवी की यात्रा के यादगार पल।

अगले लगभग 50-70 किमी हम नदी के किनारे घाटी के बीच सपाट सड़कों पर झूमती हुई गाड़ी में बैठे बाहर की वादियों, गाँव-कसवों व प्राकृतिक नजारों को देखते रहे। सुदूर पहाड़ियों के शिखर पर हरे जंगलों व विरल गाँव-घरों को निहारते हुए सफर का आनन्द लेते रहे। रास्ते में खाने-पीने व
ठहरने की रंग-बिरंगी दुकानों व होटल की कतारे ध्यान आकर्षित कर रही थीं। लगा कि इस रुट पर पर्यटकों की भीड़ के कारण लोगों के लिए रोजगार के ये एक महत्वपूर्ण साधन रहते होंगे।

खेती-बाड़ी व बागवानी की गुंजाइश यहाँ की पहाड़ी ढलानों पर बहुत अधिक नहीं दिख रही थी। रास्ते में चिनैनी (Chenani) स्थान पर नाश्ते के लिए हमारी गाड़ी रुकती है। नाश्ते में आलू-पराँठा व राजमाह की दाल परोसी गई और साथ में प्रयोग के तहत नमकीन चाय ली।


थाली के आकार के एक परौंठे से पेट भर गया औऱ साथ में नमकीन चाय हमारे लिए नया अनुभव था। बाहर उस पार घाटी के पीछे बर्फ से ढकी चोटियाँ रोमाँच का भाव पैदा कर रही थीं, लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी देने वाला कोई जानकार नहीं दिखा।

यहाँ नाश्ते के बाद गाड़ी चल पड़ती है औऱ एक टनल के पार दूसरी घाटी में प्रवेश का अहसास होता है। साथ ही पता चला कि इस टनल के कारण अब रास्ता लगभग 50 किमी कम हो गया है, नहीं तो ऊपर पहाड़ी मार्ग से पटनी टॉप पार करते हुए यहाँ पहुंचना होता था। यह कुछ ऐसे ही लगा जैसे कुल्लू-मानाली में रोहतांग पास की चढ़ाई को पार करने की बजाए अटल टनल बनने से अब हम सीधे लाहौल घाटी में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ भी दो-तीन घंटे की बचत होती है औऱ यहाँ भी लगा कि इस टनल बनने से दो-तीन घंटों की बचत हुई होगी।

नई घाटी में दाईं ओर नीले रंग की नदी के किनारे हम आगे बढ़ रहे थे, जिसके विहंगम दर्शन आगे पुल पार करते हुए होते हैं।


यह चनाव नदी है, जो हिमाचल प्रदेश के लाहौल-घाटी में चंद्र-भागा नदी के रुप में बहती है, तांदी स्थान पर चनाव का नाम लेती है और फिर उदयपुर से होती हुई, चम्बा व फिर जम्मु-काश्मीर में प्रवेश करती है। ग्लेशियर हिमखंडों के पिघलने से निकले इसके निर्मल जल की झलक इसके नील वर्णीं स्वरुप से स्पष्ट हो रही थी, जो आँखों को ठंड़क और चित्त को शीतलता का सुकून भरा अहसास दिला रही थी।

पुल पार कर अब नदी हमारे बाइं ओर से बह रही थी। नदी के उस पार एक सुंदर सी बसावट दिखी, इसे एक बड़ा सा कस्वा कह सकते हैं, जिसका नाम रामबन पता चला, इसका विहंगम दृश्य इस साइड से देखते ही बन रहा था।  अगले कुछ मिनट हम इस कस्वे के समानान्तर सफर करते रहे और इसके पीछे की पहाड़िंयों, विरल वादियों, खेत व वगानों के मनभावन दृश्यों को यथासंभव केप्चर करते रहे। रास्ते में ही एक खुला बस स्टैंड दिखा, जहाँ से एक सड़क दायीं ओर गाँव की ओर जा रही थी। पता चला कि यह सब रामबन ही चल रहा था।

यह रोचक जानकारी भी पता चली कि रामबन जम्मु से काश्मीर यात्रा का मध्य बिंदु है। यहाँ तक लगभग 150 किमी का सफर पूरा कर चुके थे और आगे श्रीनगर तक 150 किमी का सफर तय करना शेष था। हालाँकि रास्ते में कई सुरंग बनने से अब यह दूरी कम हो रही है।

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