शनिवार, 30 नवंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-4

 

उत्तराखण्ड का स्विटजरलैंड हर्षिल और बगोरी गाँव

गंगोत्री धाम से आने के बाद हम सभी कल्प-केदार होटल में विश्राम करते हैं और फ्रेश होकर दोपहर बाद हर्षिल के लिए निकल पड़ते हैं। इस रास्ते में झरने व नाले बहुतायत में मिले। कारण पीछे चोटियों में ग्लेशियर की मौजूदगी, जो पिघल कर इस क्षेत्र को जलराशि की प्रचुरता का वरदान दे जाती हैं। इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य में इनका अपना महत्व है और सेब की उत्कृष्ट फसल का भी यह एक कारण है।

दो-तीन किमी बाद बस मुख्य मार्ग से दायीं ओर मुडती है, एक बड़ा सा सुसज्जित प्रवेश द्वार आपका स्वागत करता है। लगा कि हम कुछ दूर तक किसी मिलिट्री क्षेत्र से गुजर रहे हैं। इसके बाद भगीरथी नदी पर बने एक पुल को पार कर हम हर्षिल कस्बे में प्रवेश करते हैं, जो 9006 फीट (2745 मीटर) ऊँचाई पर बसा हिल स्टेशन है। हर्षिल मार्केट में पर्यटकों की वहुतायत के चलते ट्रैफिक से गाडी को निकालने में थोड़ा समय लगा।

यहाँ के छोटे-छोटे पहाड़ी घर व होटल यहाँ की पहचान करवा रहे थे। मार्केट की अगली साइड पार्किंग में गाड़ी को खड़ा कह हम पैदल चलते हैं। मोड के बाद एक पुलिया पर चढ़ते हैं। दायीं ओर से एक सड़क मुखबा गाँव (गंगा मैया का शीतकालीन आवास) की ओर जा रही थी। ऊपर पुल पर तेज हवा वह रही थी। पहाड़ी नाला कहें या छोटी नदी में जल बहुत तेज गति से बह रहा था। पुल पर फोटोशूट करने वालों का तांता लगा हुआ था, हर कोई गगनचूंबी देवदार, संग बह रहे झरनों व पहाड़ों की पृष्ठभूमि के सुंदर दश्य को कैप्चर करना चाह रहा था। मालूम पड़ा कि राम तेरी गंगा मैली फिल्म की शूटिंग यहीं की लोकेशन्ज में हुई थी।

इस पुल से आगे दायीं ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ के साथ हम आगे बढ़ रहे थे। कुछ दुकानें, कुछ होटल व बगीचे पार करते हुए रास्ते में वाइं ओर लक्ष्मी नारायण मंदिर का बोर्ड मिला, जिसे हम बापिसी के लिए छोड़ देते हैं। रास्ते में ही दायीं और एक मैदान में बिल्सन की कोठी मिली, जिसे अब एक होटल में कन्वर्ट किया गया है। माना जाता है कि हर्षिल को हिल स्टेशन का रुप देने में इन ब्रिटिश सैन्य अधिकारी का विशेष योगदान रहा है। कुछ इन्हें नायक तो कुछ खलनायक का दर्जा देते हैं।

थोड़ी देर बाद दुबारा एक पुल आता है, जिसके नीचे से बहुत तीव्र वेग से एक नदी का निर्मल जल बह रहा था, लगा पीछे किसी घाटी से यह नदी आ रही है। यहाँ पर भी पुल के ऊपर लोगों को फोटोशूट में मश्गूल देखा। हमारे दल के युवा फनकार भी इसमें शामिल हो जाते हैं। यहाँ से पार होते ही हम थोड़ी ढलान के साथ नीचे उतर रहे थे। नीचे खुली घाटी से तेज हवा जैसे हमारी गति को थाम रही थी।

और एक बड़े गेट के साथ बगोरी गाँव में प्रवेश होता है, जिसमें यहाँ का संक्षिप्त परिचय, इतिहास व विशेषताएं लिखी थीं। प्रवेश करते ही दाइँ ओर इनके कुलदेवी-देवता के मंदिर दिखे। और आगे सड़क के दोनों ओर घर में ही दुकानें सजी दिखीं। कुछ ने घरों को होम स्टे के रुप में सुसज्जित कर रखा था औऱ कुछ ने होटल के रुप में।

घर आँगन रंग-बिरंगे फूलों से सज्जे थे। छोटे-छोटे लकड़ी के पारम्परिक घर बहुतायत में दिखे, कुछ एक ही सीमेंट लेंटर के दिखे। घर के बाहर काली व सफेद ऊन को सुखाते देखा। कुछ बुजुर्ग इनको कात रहे थे, तो कुछ इन से बुनाई कर रहे थे। इनकी दुकानों पर इनसे तैयार स्वाटर, टोपे, मफलर, जुराबें, गलब्ज आदि बिक्री के लिए रखे गए थे। अधिकाँश पुरुष व महिलाएं इन उत्पादों को तैयार करने में व्यस्त दिखे।

कुल मिलाकर गाँव के मेहनतकश लोगों को स्वरोजगार के संसाधनों को तैयार करते देखा। जो हर ठंडे इलाके के लोगों की फितरत रहती है। ठंड में एक तो यह सक्रियता कुछ गर्माहट देती है और कुटीर उद्योग के ये छोटे-बड़े प्रयोग रोजगार एवं आर्थिक स्बाबलम्वन का साधन बनते हैं।

घरों के बाहर सेब की पेटियाँ भी बिक्री के लिए दिखीं, जो घर के साथ जुड़े बगीचों से तोड़े गए थे। बगीचों में जाकर फार्म फ्रेश सेवों की भी व्यवस्था थी। कुछ केफिटेरिया भी सेब के बगीचों में सजे दिख रहे थे।

गंगोत्री की राह का यह क्षेत्र सेब के साथ राजमाह की फसल के लिए प्रख्यात है। यहाँ भी गाँव के घर आंगनों व खेतों में राजमाह की फसल को पकते व सूखते देखा। जो ऑर्गेनिक होने के कारण स्वाद व पौष्टिकता के हिसाब से लाजबाव माने जाते हैं।

रास्ते में गाय बैल व बछड़े मिले, जो काफी छोटे आकार के थे। मानकर चल रहे थे कि इनका दूध बहुत पौष्टिक, सात्विक व स्वादिष्ट होगा, जैसा कि इस क्षेत्र में विचरण किए कई साधकों व योगियों से सुन रखा है।

गाँव में छोटा सा बौद्ध गोंपा भी मिला, जो आजक रविवार के चलते बंद था। गांव के छोर पर पहुँचकर हम बाहर एक मैदान में पहुँच जाते हैं, जहाँ नीचे मैदान के पार तट पर भगीरथी नदी बह रही थी। सभी यहाँ के किनारे कुछ यादगार पल बिताते हैं।

छात्र-छात्राएं अपने मन माफिक फोटो खींचते हैं, क्योंकि पृष्ठभूमि में घाटी व पर्वतों का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। चारों और उत्तर औऱ दक्षिण में आसमान छूते बर्फीले शिखर दिख रहे थे और सामने गंगोत्री से हर्षिल की ओर जा रहा मोटर मार्ग। सामने ही देवदार के जंगल के बीच सेब से लदे बगीचे व स्थानीय ग्रामीण परिवेश भी मन को मोहित कर रहा था।

इस पृष्ठभूमि में ग्रुप फोटो भी होता है। और छात्र-छात्राओं के साथ यहाँ के विकास पत्रकारिता से जुड़े प्रश्नों व मुद्दों पर भी कुछ चर्चा होती है।

बापिसी में एक होम स्टे में नूडल व चाय का आनन्द लेते हैं और यहाँ की भाव भरी मेहमानवाजी (हॉस्पिटेलिटी) को अनुभव करते हैं। समूह के कुछ छात्र-छात्राएं इनके किचन में हाथ बंटाते हैं। स्वभाव से यहाँ के लोग ईमानदार, मेहनतकश और भावनाशील लगे।

बापिसी में सड़क मार्ग से लगभग 200 मीटर नीचे लक्ष्मी नारायण मंदिर के दर्शन करते हैं औऱ साथ ही थोड़ी दूरी पर बहती भगीरथी मैया को भी प्रणाम कर आते हैं। ध्यान साधना के लिए यहाँ का एकांतिक वातावरण आदर्श लगा, जिसका वर्णन हम यू-ट्यूब में भी किसी बाबाजी के वीडियों में कभी देख चुके थे।

इस तरह हमारी आज की हर्षिल का विहंगावलोकन करती संक्षिप्त यात्रा पूरी होती है। तीन-चार घंटों में ही उत्तरकाशी से 78 किमी और गंगोत्री धाम से 26 किमी दूर हर्षिल की वादियाँ जेहन में एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं। यहाँ भगीरथी और जालंधरी नदीं के संगम पर बसे उस घाटी में प्राकृतिक सौंदर्य़, आध्यात्मिक प्रवाह, शाँति एवं रोमाँच का अद्भूत स्पर्श मिलता है।

बस तक पहुँचते-पहुंचते अंधेरा हो चुका था और सभी बस में बैठकर बापिस धराली आते हैं। और रात्रि भोजन के बाद 9 बजे तक कल की तैयारी के साथ निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं, क्योंकि कल सुबह 6 बजे बापिस हरिद्वार के लिए कूच करना था।

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