बुधवार, 31 जुलाई 2024

कल्कि – कालजयी पात्रों के साथ रोमाँच के शिखर छूती एक फिल्म

तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त करती 2024 की सबसे सफल फिल्म


महाभारत की पृष्ठभूमि में बनी कल्कि फिल्म कई मायनों में सनातन धर्मावलम्बियों के लिए एक दर्शनीय फिल्म है। कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण - चिरंजीवी अश्वत्थामा से शुरु, बनारस-शांभाला के मध्य युद्ध के बीच कल्कि अवतार के जन्म की ओर बढ़ती यह फिल्म अभी अधूरी है, इसका पहला हिस्सा ही तैयार है। इसमें लार्जर देन लाइफ पात्रों के साथ, मंझे हुए कलाकारों का वेजोड़ अभिनय, कथानक की रोचकता तथा थ्री-डी एफेक्ट के साथ दृश्यों की जीवंतता दर्शकों को बाँधे रखती है और एक दूसरे ही भाव लोक में विचरण की अनुभूति देती है।

फिल्म 600 करोड़ के बजट के साथ अब तक की सबसे मंहगी भारतीय फिल्म है। 27 जुलाई 2024 को रिलीज यह फिल्म अब तक तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त करते हुए पाँचवें सप्ताह में प्रवेश कर चुकी है। फिल्म 2024 की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म बन चुकी है और अपनी पर्फोमेंस के आधार पर बाहूबली और आरआरआर जैसी बहुचर्चित फिल्मों को भी पीछे छोड़ती दिख रही है।

दिग्गज अभिनेता अमिताभ बच्चन फिल्म के मुख्य पात्र अश्वत्थामा की भूमिका में हैं। प्रभास ने भैरवा का रोल किया है, जो अन्त में कर्ण का प्रतिरुप निकलते हैं। दीपिका पादुकोण कल्कि को गर्भ में धारण किए माँ सुमति की भूमिका में हैं। साथ ही दिशा पटानी भैरवा के साथ संक्षिप्त भूमिका में है। कमल हसन खलनायक यास्किन की भूमिका में हैं, जिनका रोबोटिक प्रारुप इन्हें अलग ही स्वरुप देता है, जिसमें अन्त तक अभिनेता की पहचान दर्शकों को समझ नहीं आती।

फिल्म साई-फाई श्रेणी की है, जो नाम के अनुरुप 2898 ईसवी की है अर्थात आज से लगभग पौने नो सौ वर्ष बाद के कालखण्ड की, जब गंगानदी में पानी सूख चुका होगा। हरियाली नाम मात्र की शेष बची है। विज्ञान एवं तकनीकी अपने चरम पर है। फिल्म अंतिम महाविनाश के बाद बचे शहर बनारस की पृष्ठभूमि में फिल्मांकित है, जिसमें रह रहे लोगों के घर किसी दूसरे ग्रह के दृश्य लगते हैं, जहाँ जीवन प्रयोगशाला में अधिक चलता दिखता है।

फिल्म का खलनायक यास्किन शहर के विशिष्ट स्थल कॉम्पलेक्स से शासन करता है, जो शहर के ऊपर स्थित उल्टे पिरामिड की तरह दिखने वाला विशाल ढांचा है, जिसका सुरक्षा घेरा व इसके कमांडर मानस तथा सैनिक किसी तिल्सिमी दुनियाँ का आभास देते हैं। भविष्यवाणी है कि कल्कि का अवतार होने वाला है, जिसके खतरे से बचने के लिए यास्किन ने पूरा सुरक्षा घेरा तैयार कर रखा है। शहर के लोगों में कॉम्पलेक्स में प्रवेश की होड़ लगी रहती है, जो आसानी से उपलब्ध नहीं होता।


शहर की उर्बर महिलाओं को जबरन कांपलेक्स की प्रयोगशाला में ले जाया जाता है, जहाँ उन्हें कृत्रिम रुप से गर्भारण किया जाता है तथा इनके भ्रूणों के सीरम से 200 वर्षीय यास्किन के जीवन को बढ़ाने का प्रयोग चलता है। ऐसी गर्भवती महिलाओं में दीपिका पादूकोण भी एक पात्र हैं, जिसे प्रोजेक्ट-K की SUM-80 सदस्या नाम दिया गया है।

फिल्म की शुरुआत महाभारत के कुरुक्षेत्र मैदान से होती है, जहाँ अश्वत्थामा उत्तरा के अजन्मे बच्चे को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र के दुरुपयोग की धृष्टता के चलते श्रीकृष्ण के सामने अपराधी की मुद्रा में खड़े हैं। अश्वत्थामा के माथे पर सजी मणि छीन ली जाती है और उन्हें हजारों वर्षों धरती पर भटकने का शाप मिलता है, साथ ही एक सुखद आश्वासन भी कि प्रायश्चित के चरम पर कलियुग के अंत में भगवान विष्णु स्वयं कल्कि भगवान के रुप में अवतार लेंगे, तो उनकी रक्षा का गुरुत्तर दायित्व अश्वत्थामा का होगा। इसी के साथ अश्वत्थामा का उद्धार होगा।

इस एक मकसद के साथ लहुलुहान, गलित देह एवं जर्जर रुह के साथ अश्वत्थामा कलियुग में जीने के लिए अभिशप्त हैं। बनारस की किन्हीं गुफाओं के तल में एक शिवालय में वे अपना प्रायश्चित काल परा कर रहे हैं।

आगे फिल्म शाम्भाला से बनारस की यात्रा पर निकले रक्षकों के एक बाहन के साथ आगे बढ़ती है, जहाँ सूखे रेतीले मार्ग के साथ ये रक्षक शहर में प्रवेश होते हैं। यास्किन के पहरेदार नए आगंतुकों पर तीखी नजर रखे हुए हैं। शाम्भाला से आए इस दल में लड़के के रुप में प्रच्छन्न युवा लड़की राया शाम्भाला के अन्य रक्षकों की सहायता से बाल-बाल बच जाती हैं। राया एक गुफा में शरण पाती है, जहाँ उसकी मुलाकात अश्वत्थामा से होती है।

फिल्म में चर्चित रहस्यमयी शाम्भाला ग्राम में मरियम नाम की माता रहती हैं, जिनके साथ पूरा कुनवा फलफूल रहा है, वहाँ सीधे प्रवेश संभव नहीं। यह एक अलौकिक एवं विशिष्ट स्थान प्रतीत होता है। कल्कि का जन्म इसी ग्राम में होना है, जिसे माता जानती हैं। उनके रक्षक सैनिक बनारस में खलनायक यास्किन के यहाँ छुप कर माता सुमति की खोज में गए हैं, जो यहाँ SUM-80 सदस्या के रुप में वंदी हैं।

प्रभास के साथ दिशा पटानी का रोल संक्षिप्त है। रेगिस्तानी शहर में कुछ पल इनके साथ सागर की लहरों संग हरियाली एवं सुंदर घाटी के दर्शन के साथ दर्शकों को थोड़ा राहत देते हैं। प्रभास यहाँ भैरवा के रुप में विंदास एवं कुछ अवारा जीवन जी रहे होते हैं, लेकिन ये विशेष शक्तियों से युक्त पात्र दिखते है। उसके घर के मालिक के संग मजाकिया व्यवहार विनोद का पुट लगाते हैं। प्रभास के डायलोग भी उसी श्रेणी के हैं। लेकिन साथ ही वह एक जांबाज यौद्धा भी हैं।

खलनायक यास्किन रहस्यमयी चैंबर में रहते हैं। पूरे रोविटिक यंत्र इसके शरीर में लगे हुए हैं। यास्किन के कमांडर व रक्षक बड़ी संजीदगी के साथ इनकी व कॉम्पलेक्स की देखभाल व रक्षा कर रहे हैं।

काम्पलेक्स में वंदी गर्भवती महिलाओं का कृत्रिम गर्भाधान होता है और उनके भ्रूण की जांच होती रहती है। इसी क्रम में दीपिका पादुकोण के रुप में SUM-80 का टेस्ट होता है। सभी 120 दिन से अधिक नहीं टिक पाती, जबकि SUM-80 का गर्भ 150 दिन पार कर जाता है। संभाला से आई महिला रक्षक उसे सुरक्षित बाहर निकालने का प्रयास करती है। हालाँकि उसके गर्भ के रज की एक बूंद यास्किन के हाथ लग जाती है।

शम्भाला से छद्मरुप में आयी रक्षक कन्या बचने के संघर्ष में नीचे गहरी अंधेरी गुफा में गिर जाती है, जहाँ शिवलिंग होता है। चारों ओर ध्यान करती प्रतिमाएं, इन्हीं के बीच में अश्वत्थामा गहन ध्यान से जागते हैं। खलनायक के सिपाही वहाँ तक पहुँचते हैं, तो अश्वत्थामा पुरातन वेश में उनको बुरी तरह से पटकते हैं और इनकी कन्या रक्षक से दोस्ती हो जाती है और वह इन्हें अपना शिक्षक – टीचर मानती है।

अश्वत्थामा को आभास होता है कि कल्कि गर्भ में आ चुके हैं और इनकी रक्षा का चिरप्रतिक्षित समय आ गया है और उनमें एक नई चैतन्यता का संचार होता है। यास्किन की पूरी सेना से वे अकेले ही भिड़ जाते हैं। इनको हराकर आगे बढते हैं। भैरवा कांपलेक्स में प्रवेश के प्रलोभन में अपनी एआई कार बुज्जी के साथ अश्वत्थामा का पीछा करते हैं, इसी क्रम में भैरवा से भी युद्ध होता है। बराबर की टक्कर रहती है।

शाम्भाला से आए रक्षक SUM-80 को वाहन में बिठाकर संभाला की ओर कूच करते हैं और इसे (कल्कि की माँ) सुमति नाम देते हैं। जब यास्क को पता चलता है तो वह अपने कमांडों के साथ प्रभास को पीछे लगा देता है। रास्ते में भारी युद्ध होता है। युद्ध का लोमहर्षक दृश्य रोवोटिक युद्ध जैसा लगता है। युद्ध की लुका-छिपी के साथ ही सुमति का शाम्भाला में प्रवेश होता है।

शाम्भाला के अलौकिक दरवार में सर्वधर्म समन्वय का प्रयास दिखता है। इसके पात्र मरियम, एंड्रयूज से लेकर दक्षिण भारतीय, बौद्ध, गौरे विदेशी इसमें दिखते हैं। हर रंग व वर्ग का प्रतिनिधित्व यहाँ के निवासियों में दिखता है।

माँ सुमति के शम्भाला में प्रवेश करते ही चिरप्रतीक्षित झमाझम बारिश होती है और सूखा पड़ा जीवन वृक्ष खिल उठता है। जिसे सभी शुभ संकेत मानते हैं। पूरे शम्भाला में उत्सव का माहौल में डूब जाता है।

उधर भैरवा का शाम्भाला में प्रवेश होता है। काम्पलेक्स में प्रवेश के प्रलोभन के साथ मानस के साथ उसका सौदा हुआ होता है कि वह SUM-80 को पकड़ कर लाए। भैरवा अश्वत्थामा का वेश धारण कर SUM-80 (सुमति) की खोज करता है और उसे शाम्भाला से भागने के लिए तैयार करता है, जब असली अश्वत्थामा से सामना होता है। दोनों के बीच घनघोर युद्ध होता है, जिसके बीच यास्किन के कमांडर मानस का सेना सहित प्रवेश होता है। शाम्भाला को जैसे चारों ओर से घेर लिया जाता है और भयंकर युद्ध में परिसर की दिवारें व भवन धड़ाशयी होते हैं।

मरियम सुमति को सुरक्षित स्थान पर छुपाने का प्रयास करती है, लेकिन युद्ध में मरियम मारी जाती है। मानस अश्वत्थामा को भी जंजीरों में जकड़ लेता है। इसी क्रम में छड़ी बेहोश भैरवा के हाथ में गिर जाती है, और वह जीवंत हो उठता है। पता चलता है कि वह कर्ण का विजय धनुष था और भैरवा कर्ण का पुनर्जन्म है। इसी के साथ भैरवा में अलौकिक परिवर्तन होता है। इस नई शक्ति के साथ भैरवा मानस को मार देता है और पूरी सेना को हरा देता है।

भैरवा को इस जीवन के स्वधर्म का बोध होता है और अब वह अश्वत्थामा के साथ मिलकर माँ सुमति की रक्षा करते हैं।

उधर काम्पलेक्स में सुमति के भ्रूण से निकाली गई सीरम की बूंद से यास्किन पुनः अजन्में कल्कि और विष्णु की शक्ति को आंशिक रुप से पाकर युवा हो जाते हैं, नया शरीर पाते हैं। उनकी रोबोटिक सीमाएं समाप्त हो जाती हैं और अर्जुन का गांडीव उठाकर दुनियां को आकार देने की प्रतिज्ञा के साथ सुमति व उसके बच्चे को पकड़ने की प्रतिज्ञा लेते हैं। और इस तरह अगले युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होती है और इसके साथ फिल्म का अंत होता है। इस रुप में दर्शकों को कल्कि के शेष भाग-2 का वेसब्री से इंतजार रहेगा।

फिल्म को देखकर एक बात सुनिश्चित है कि इसे देख सनातम धर्म के दर्शक अपने धार्मिक ग्रंथों को ओर गहराई से पढ़ने के लिए प्रेरित होंगे।

फिल्म निर्माताओं में चिंरजीवी पात्रों पर फिल्म निर्माण की होड़ शुरु होगी। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले 2-4 वर्षों में ऐसी अनेकों फिल्में देखने को मिले।

इस फिल्म का थ्री-डी में देखने का अलग ही अनुभव है, अतः इसका पूरा आनन्द लेने के लिए इसे फिल्म थियेटर में ही देखें। लैप्टॉप पर इसके साथ न्याय नहीं हो सकता।

ऐसी फिल्में दक्षिण भारत में ही संभव प्रतीत होती हैं, जहाँ के लोग व फिल्मनिर्माता अपनी सांस्कृतिक जड़ों से गहराई से जुड़े हुए हैं। मसाला एवं कॉपी-पेस्ट फिल्मों के लिए कुख्यात बालीवुड़ सिनेमा से ऐसी फिल्मों की आशा नहीं की जा सकती। फिल्म के पटकथा लेखक एवं निर्देशक नाग आश्विन एवं उनकी पूरी टीम इस कालजयी फिल्म बनाने के लिए साधुवाद के पात्र हैं।

कल्कि जैसी फिल्मों के साथ नई पीढ़ी अपनी संस्कृति के कालयजी पात्रों व भारत के इतिहास बोध तथा इसके शाश्वत जीवन दर्शन से रुबरु हो रही है। संभवतः यही इस तरह की फिल्मों की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

सोमवार, 1 जुलाई 2024

2024 की गर्मी की मार के बीच के कुछ सवक

 

गर्मी की मार, राहत की बौछार और उभरता जीवन दर्शन

इस वार गर्मी की जो मार पड़ी है, वह लम्बे समय तक याद रहेगी। मार्च से शुरु, अप्रैल में सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए, मई में अपने चरम को छूती हुई, जून में हीट वेव के रुप में देश के एक बढ़े हिस्से को एक धधकती भट्टी में तपाती हुई, वर्ष 2024 की गर्मी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है और साथ ही गहरा संदेश भी दे गई है। यदि मानव चेतता है, तो उसे आगे ऐसे गर्मी की नरकाग्नि में नहीं झुलसना पड़ेगा, लेकिन मानव की फितरत है कि इतनी आसानी से सुधरने वाला नहीं। अपने सुख-भोग और सुविधाओं में कटौती करने के लिए शायद ही वह राजी हो।

हर वर्ष पर्यावरण संतुलन, जलवायु परिवर्तन पर विश्व स्तर पर बड़े-बड़े आयोजन होते रहते हैं, लेकिन नतीजे वही ढाक के तीन पात। कोई भी विकसित राष्ट्र अपने ग्रीनहाउस व कार्वन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने वाला नहीं। गर्मी में चौबीसों घंटों ऐसी की भी सुविधा चाहिए और तापमान भी नियंत्रण में रहे, ये कैसे संभव है। थोड़ा सा गर्मी को बर्दाश्त करते हुए, प्राकृतिक जीवन शैली को अपनाने के लिए कितने बड़े देश तैयार हैं। देशों की बातें छोड़ें, हम अपने देश, समाज, पड़ोस, घर की ही बात कर लें। आइने में तस्वीर साफ है। कोई इतनी आसानी से सुधरने के लिए तैयार नहीं है। कोविड काल जैसा एक झटका ही उसे थोड़ी देर के लिए होश में ला सकता है। लेकिन फिर स्थिति सामान्य होने पर वह सबकुछ भूल जाता है। यही इंसानी फितरत है, जो किसी बड़े व स्थायी बदलाव व सुधार के प्रति सहजता से तैयार नहीं हो पाती।

हालांकि प्रकृति अपने ढंग से काम करती है, वह इसमें विद्यमान ईश्वर के ईशारों पर चलती है। वह जब चाहे एक झटके में इंसान की अकल को ठिकाने लगा सकती है। फिर युगपरिवर्तन की बागड़ोर काल के भी काल स्वयं महाकाल के हाथों में हो, तो फिर अधिक सोचने व चिंता की जरुरत नहीं। वह उचित समय पर अपना हस्तक्षेप अवश्य करेगा। हम तो अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करते रहें, अपने कर्तव्य का निर्वाह जिम्मेदारी से करते रहें, इतना ही काफी है। और इससे अधिक एक व्यक्ति कर भी क्या सकता है। अपनी जड़ता व ढर्रे में चलने के लिए अभ्यस्त समूह के साथ माथा फोड़ने में बहुत समझदारी भी तो नहीं लगती।

लेकिन जो ग्रहणशील हैं, समझदार हैं, संवेदशनशील हैं, अस्तित्व के सत्य को जानने व इसे परिवर्तित करने के लिए सचेष्ट हैं, उनसे तो बात की ही जा सकती है। इस बार की गर्मी के सवक सामूहिक रुप में स्पष्ट थे, व्यैक्तिक रुप में भी कई चीजें समझ में आई, जिन्हें यहाँ साझा कर रहे हैं, हो सकता है कि आप भी इनसे बहुत कुछ समहत हों, तथा इसी दिशा में कुछ एक्टिविज्म की सोच रहे हों।

गर्मी बढ़ती गई, हम भी इसको सहते गए। टॉफ फ्लोर में कमरा होने के नाते तपती छत व दिवारों के साथ कमरा भी तपता रहा और अपने चरम पर हमें याद है, जब हीट वेव अपने चरम पर थी, रात को 2 बजे जब नींद खुलती तो पंखे गर्म हवा ही फैंक रहे थे, चादर गर्म थी, विस्तर पसीने से भीगा हुआ। किसी तरह रातें कटती रहीं। फिर शरीर की एक आदत है कि इसे जिन हालातों में छोड़ दें, तो वह स्वयं को ढाल लेता है। मन ने जब स्वीकार कर लिया की इस गर्मी में रहना है, तो शरीर भी ढल जाता है। जब दिन में अपने कार्यस्थल तक तपती धूप में चलते, तो श्रीमाँ की एक बात याद आती। सूर्य़ का एक भौतिक स्वरुप है तो दूसरा आध्यात्मिक। इसके आध्यात्मिक स्वरुप का भाव-चिंतन करते हुए सोच रही कि इसके ताप के साथ तन-मन की हर परत के कषाय-कल्मष गल रहे हैं। ऐसा करने पर राह में दिन का सूर्य का ताप अनुकूल प्रतीत होता। लगा कि सूर्य के साथ एक आत्मिक रिश्ता जोड़कर इसे भी तप-साधना का हिस्सा बना सकते हैं। फिर याद आती साधु-बाबाओँ की, जो तपती भरी दोपहरी में भी चारों ओर कंडों-उपलों में आग लगाकर इसके बीच आसन जमाकर पंचाग्नि तप करते हैं। याद आती कुछ साधकों की जो धधकती आग पर चलने के करतव दिखाते। संभवतः एक विशिष्ट मनःस्थिति में यह सब कुछ संभव होता है।

याद आता रहा युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री का तपस्वी व्यक्तित्व, जो सबसे ऊपरी मंजिल में कमरा होते हुए भी गर्मियों में भी अपने लिए पंखें का उपयोग नहीं करते थे, जब मेहमान आते, तो उनका पंखा चलता। बिना पंखें के गर्मी में भी उनकी तप साधना, अध्ययन लेखन व सृजन साधना निर्बाध रुप में चलती रहती।

लेकिन परिस्थितियों की मार के आगे सामान्य मन के प्रयास शिथिल पड़ जाते हैं। इसी बीच कार्यस्थल पर अनिवार्य सामूहिक कार्य से घंटों ऐसी में बैठना पड़ा, जो सुविधा से अधिक कष्टकर प्रतीत होता रहा। और तीन-चार दिन, दिन भर ऐसी में घंटों बैठने की मजबूरी और शेष समय तथा रात भर कमरे में तपती छत के नीचे की आँच। दोनों का विरोधाभासी स्वरुप तन-मन पर प्रतिकूल असर डालता प्रतीत हुआ। लगा कि ऐसी में रहना बहुत समझदारी वाला काम नहीं।

जब बाहर का तापमान 40, 42, 45 डिग्री सेल्सियस चल रहा हो तो ऐसी के 18, 16 या 20-24 डिग्री सेल्सियस की ठंड में रहना कितना उचित है, ये विचार करने योग्य है। शायद ही इस पर कोई अधिक विचार करता हो। क्योंकि इस ऐसी में भी जब पूरी स्पीड में पंखे चलते दिखते हैं, तो यह सोच ओर पुष्ट हो जाती है। अंदर बाहर के तापमान में 20 से लेकर 30 डिग्री का अंतर, तन-मन की प्रतिरोधक क्षमता पर कितना असर डालता होता, सोचने की बात है। हमारे विचार में यह गैप जितना कम हो, उतना ही श्रेष्ठ है। 

हमारा स्पष्ट विचार है कि ऐसी जैसी सुविधाओं का गर्मी के मौसम में इतना ही मसकद हो सकता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क सामान्य ढंग से काम करता रहे। परिवेश व कमरे का तापमान इतना रहे कि दिमाग सामान्य ढंग से काम करता रहे। अत्य़धिक कष्ट होने पर थोड़ी देर के लिए मौसम के हिसाव से सर्दी के विकल्प तलाशे जा सकते हैं, लेकिन इसे बिना सोचे समझे ढोना, अति तक ले जाना और जीवनशैली का अंग बनाना, तन-मन की प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण करना है, अपनी जीवट की जड़ों पर प्रहार करने जैसा है, जो किसी भी रुप में समझदारी भरा काम नहीं।

गर्मी की लहर के चरम पर जून के तीसरे सप्ताह में प्री मौनसून वारिश की बौछारों के साथ हीट वेब की झुलसन से कुछ राहत मिली। ऐसे लगा कि जनता की सम्वेत पुकार पर ईश्वर कृपा बादलों से बारिश की बूंदों के रुप में बरस कर सबको आशीर्वाद दे रही हो। इस बारिश की टाइम्गिं भी कुछ ऐसी थी, कि एक विशिष्ट कार्य पूरा होते ही, जैसे इसकी पूर्णाहुति के रुप में राहत की बौछार हुई। जो भी हो, हर सृजन साधक अनुभव करता है कि तप के चरम पर ही ईश्वर कृपा वरसती है। जीवन के इस दर्शन को अस्तित्व के गंभीर द्वन्दों के बीच अनुभव किया जा सकता है।

जीवन के उतार चढ़ाव, गर्मी-सर्दी, सुख-दुःख, मान-अपमान, जय-पराजय, जीवन-मरण के बीच भी जो धैर्यवान हैं, सहिष्णु हैं, सत्यनिष्ठ हैं, धर्मपरायण हैं, ईश्वरनिष्ठ हैं - वे इस सत्य को बखूवी जानते हैं। तप के चरम पर दैवीय कृपा अजस्र रुपों में बरसती है और सत्पात्र को निहाल कर देती है। आखिर हर घटना, हर संयोग-वियोग के पीछे ईश्वरी इच्छा काम कर रही होती है, और साथ ही समानान्तर अपने कर्मों का हिसाव-किताव चल रहा होता है। लेकिन जो भी होता है, अच्छे के लिए हो रहा होता है। धीर-वीर इसके मर्म को समझते हैं और हर द्वन्दात्मक अनुभव के बीच निखरते हुए, उनके कदम जीवन के केंद्र की ओर, इसके मर्म के समीप पहुँच रहे होते हैं।

चुनींदी पोस्ट

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