यादगार सवक से भरा सफर बापिसी का
प्रातः जागरण के बाद फ्रेश होते हैं, नीचे स्नान
घर के पास ही शिव गुफा बनी है। उसमें दर्शन करते हैं। इसका इतिहास पढ़ते हैं। कल्पना
उठती है कि काश ऐसे स्थान पर साधना का मौका मिलता। गुफा की लोकेशन चट्टान के नीचे,
नाले के संग एकांत स्थान पर है, जहाँ आस-पास पानी लगातार झर रहा था। एकांतिक ध्यान
साधना के लिए आदर्श स्थल प्रतीत हो रहा था।
मौसम में ठंडक के चलते सुबह की चाय ना ना करते 3
बार हो जाती है, वह भी खाली पेट। इसका खामियाजा आगे भुगतने वाला था, जिसका अंदेशा
ठंड में नहीं हो पाया था। जिस हॉल में रुके थे, वहाँ से नीचे घाटी का नजारा दर्शनीय
था। कुछ यादगार क्लिप्स के साथ यहाँ से चल पड़ते हैं।
कतार में पूरा दल तीन किमी हल्की व खड़ी चढ़ाई
के साथ बाबा भैरों के द्वार में लगभग एक घंटे में पहुंचता है। हालाँकि वहाँ
पहुंचने की उड़न खटोले से भी व्यवस्था थी, लेकिन इसकी 1-2 किमी लम्बी लाइन देखकर
लगा की पैदल ही इसके पहले पहुँच जाएंगे। रास्ते में जहाँ भक्तों की किलोमीटर लम्बी
कतारें दर्शन के लिए लगी थी, वहीं दूसरी कतार उड़न खटोले के लिए। हमारा पूरा दल
कतार बद्ध होकर धीरे-धीरे हल्की चढ़ाई को पार करता है। बीच में उड़न खटोले बिल्कुल
पास से सर के ऊपर से गुजर रहे थे।
इस मार्ग में भी कुछ शॉर्ट कट सीढ़ियों के बने
हैं, इनको पार करते हुए आगे बढ़ते हैं। रास्ते में एक-दो स्थान पर कुछ विश्राम
करते हैं। कुछ दल के सदस्यों को भूख सताना शुर कर चुकी थी, वे कुछ चुगने के लिए
निकालते हैं। पास में बैठे बंदर बीच में कूद पड़ते हैं। पहली वार बंदरों का दर्शन
कर रहे सदस्य भय से चीख-पुकार कर ईधर उधर भागते हैं। जबकि ऐसे में बिना डरे,
शांत-स्थित व मजबूती से रहो, तो बंदर बॉडी लैंग्वेज समझ कर चुपचाप गुजर जाते हैं।
उनकी नजर खाने के समान पर होती है, किसी को काटने या परेशान करने पर नहीं। भयवश ही
वे हमला कर सकते हैं। वाकि बंदर घुड़की तो मश्हूर है ही। इनका मनोविज्ञान समझने
वाले इनसे शांति से निपट लेते हैं। लेकिन हमारे ग्रुप में नौसिखिए यात्रियों के
लिए यह शायद पहला सबक था।
भैरों मंदिर पहुँच कर हम लाइन में लगते हैं,
दर्शन करते हैं और नीचे छत को ऊपर के समतल मैदान पर धूप का आनन्द लेते हैं। भौरों
मंदिर का अपना इतिहास है। माना जाता है कि जब माता वैष्णु देवी ने भैरों का बध
किया था तो उनका सर धड़ से अलग होकर यहाँ पहाड़ी पर गिरा था। माता ने उन्हें
आशीर्वाद दिया था कि जो भी मेरे दर्शन करने आएगा, वह तेरे भी दर्शन करेगा और तभी
उसकी यात्रा पूर्ण मानी जाएगा। इसलिए वैष्णों माता आया हर भक्त यहाँ दर्शन जरुर
करता है।
यहाँ से नीचे व चारों ओर का विहंगम दृश्य देखते
ही बन रहा था। यहाँ पर फोटो व सेल्फी प्रेमियों का तांता लगा हुआ था। साथ ही यहाँ
की खिली हुई धूप भी ठंड से बहुत राहत दे रही थी। कुछ समय यहाँ से नीचे के नजारों
का विहंगावलोकन करते हैं, यहाँ से नीचे हेलीपैड का नजारा स्पष्ट था और इसमें उतरते
और यहाँ से उड़ान भरे हेलीकॉप्टरों का नजारां एक नया अनुभव दे रहा था।
यहाँ से फिर बापिसी के रास्ते में आगे बढते हैं,
जो आगे अधकुमारी की ओर से जाता है। रास्ते में साँझी छत पहला मुख्य पड़ाव था, जहाँ
चाय-नाश्ता आदि की व्यवस्था रहती है। इस रास्ते में जंगली मुर्गों के झुंड के
दर्शन हुए, जो सड़क के एकदम साथ लगभग 100 मीटर तक सटे जंगल में शौर करते हुए गुजर
रहे थे। थोड़ी दूर पर एक बांज के पेड़ पर ध्यानस्थ लंगूर को देख बहुत अच्छा लगा,
कि कितनी शान के साथ सारे जहाँ का सुख-सुकून बटोरे, ये लंगूर महाराज अपने
साम्राज्य में ध्यानस्थ होकर बैठे हैं।
थोड़ी देर में नीचे उतरते हुए हम सांझी छत
पहुंचते हैं। यहाँ समूह फोटो होता है। पीछे से उड़ान भरते हेलीकॉप्टर ठीक हमारे सर
से होकर जुगरते प्रतीत हो रहे थे। इसके बाद सरांय बोर्ड की ओऱ से लगाए गए भंडारे
में हलुआ, चना और चाय का नाशता करते हैं। यहीं से टीम आगे-पीछे होना शुरु हो गई
थी, जो अपने-अपने समूह बनाकर अधकुमारी की ओर दल बढ़ रहे थे।
इसी के साथ हमारी तवीयत बिगड़ना शुरु हो चुकी
थी। सुबह खाली पेट तीन बार चाय और दस बजे नाश्ता, यह रुटीन भारी पड़ रहा था। लगा
भैरों बाबा के यहाँ सुवह का नाश्ता किए होते तो पेट में बन रहा एसिड शांत होता और यह
नौवत नहीं आती। इस रुट पर यात्रा करने वालों को यही सलाह है कि सुबह का नाश्ता
स्किप न करें। चाय के साथ कुछ खाने का सामान अवश्य रखें।
कई शोर्टकट सीढ़ियों को पार करते हुए हम अधकुमारी
की ओर बढ़ रहे थे। सीधे नीचे उतराई में पैरों पर ठीक-ठाक दवाव पड़ रहा था। कहीं-कहीं
सीढ़ियों का सहारा लेकर उतर रहे थे और जहाँ पैर जबाव दे जाते, वहाँ कुछ देर
विश्राम करते। बिगड़ती तवीयत के साथ कुछ थकान के साथ हालात वदतर हो रहे थे।
अधकुमारी पहुँच चुके थे। यहाँ अन्दर देखने का अधिक समय नहीं था। इसे अगली यात्रा
के लिए छोड़कर आते बढ़ते हैं। मान्यता है कि यहीं पर माता वैष्णु देवी ने एक गुफा
में रहकर साधना की थी।
आगे की यात्रा हम सीढ़ियों के सहारे पुरा करते
हैं। पैर जबाव दे रहे थे। बुजुर्गों व बच्चों के इस राह पर चढ़ते-उतरते देखकर जोश
आ रहा था। लेकिन अपनी स्थिति देखते हुए अंतिम दो किमी खच्चर का सहारा लेना पड़ा।
यह भी कम झकझोरने वाला अनुभव नहीं था। खच्चर पर बिठाकर मालिक टिकट कटाने जाता है। टीन
बाली छत पर बंदरों की उछलकूद से घबराया खच्चर विदक जाता है। लगा हम अब गिरे कि तब।
किसी तरह से आकर मालिक संभालता है। चोटिल दुर्घटना होने से टली और लगा हमारा कोई
प्रबल प्रारब्ध कट रहा था।
हम खच्चर के सहारे बाणगंगा के किनारे टीन शैड में
अड्डे पर उतरते हैं। यहाँ बाकि सहयात्रियों का इंतजार करते हैं। लगा कि वे पीछे से
आ रहे होंगे, जबकि वे शॉर्टकट से नीचे उतरकर हमसे आगे पहुंच चुके थे। इस बीच हम
अपना विश्लेषण करते रहे। हेमकुण्ड की गलती आज पुनः कर बैठे थे, ऑवर काँफिडेंस में सुबह
खान-पान की लापरवाही हुई थी, जो भारी पड़ गई थी।
हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। आगे से सौरभजी हमें
खोजते हुए आ रहे थे। मिलकर बहुत राहत मिलती है। फिर हमलोग ऑटो-टेक्सी से कटरा रेल्वे
स्टेशन पर पहुँचते हैं। पहले होटल पहुँची टीम सामान लेकर पहुँच रही थी। यहाँ फ्रेश
होकर हेमकुंट एक्सप्रेस ट्रेन में बापिसी का सफर करते हैं। शाम को साढ़े चार बजे
चलती है, हरिद्वार सुबह 7 बजे पहुँचा देती है।
माता वैष्णु देवी के इस तीर्थाटन के साथ लगा
जैसे दिल के तार इस स्थल से जुड़ चुके हैं, अगली बार और होशोहवास व तैयारी के साथ यहाँ
का तीर्थाटन करेंगे। कुछ दिन रुककर यहाँ विचरण करेंगे और पूरा आध्यात्मिक लाभ लेते
हुए इस पावन तीर्थ का वास करेंगे।
भाग -1 के लिए पढ़ें, जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का।
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