सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

यात्रा वृतांत - हमारी पहली वैष्णों देवी यात्रा, भाग-2


बाणगंगा से माता वैष्णों देवी का सफर

मुख्य द्वार से प्रवेश के बाद दो-तीन किमी के बाद बाणगंगा पहला मुख्य पड़ाव है। यहाँ तक बाणगंगा के किनारे पैदल मार्ग पर बने टीनशैड़ के नीचे से सफर आगे बढ़ता है। यहीं पर खच्चर व अन्य यात्रा सेवाएं (बच्चों के लिए पिट्ठू, बुजुर्गों के लिए पालकी आदि) उपलब्ध रहती हैं, जो पैदल चलने में असक्षम लोगों के लिए उचित दाम पर उपलब्ध रहती हैं। रास्ते में ढोल ढमाके के साथ यात्रियों का स्वागत होता है, जो हर एक-आध किमी पर रास्ते में देखने को मिलता है। नाचने के शौकीन यात्रियों को इनके संग थिरकते देखा जा सकता है। जो भी हो यह प्रयोग यात्रा में एक नया रस घोलता है व थकान को कुछ कम तो करता ही है। कुछ दान-दक्षिणा भी श्रद्धालुओं से इन वादकों को मिल जाती है।

बाणगंगा के वारे में मान्यता है कि माता वैष्णों ने यहीं पर बाल धोए थे व स्नान किया था। अमूनन हर नैष्ठिक तीर्थयात्री इस पावन नदी में स्नान करके, तरोताजा होकर आगे बढ़ता है। लेकिन सबके लिए यह संभव नहीं होता।

हम पहली बार इस मार्ग पर थे। हमारे मार्गदर्शक रजत-सौरभजी यहाँ पहले आ चुके हैं। हम उनके निर्देशन में आगे बढ़ रहे थे। वे पहले पड़ाव में बाणगंगा के ऊपर सामान्य मार्ग से न होकर सीधे सीढ़ी मार्ग से चढ़ाते हैं। एक ही बार में लगभग 450 से अधिक सीढ़ियाँ। चढ़ते-चढ़ते थोड़ी देर में सांस फूलने लगती है, ऊपर से दिन की धूप सीधे सर पर बरस सही थी, सीमेंटेड सीढ़ियों के रास्ते में छाया की सुविधा न के बरावर थी। आधी चढ़ाई तक चढ़ते-2 फेफड़ों पर जोर बढ़ गया था, लग रहा था कहीं फट न जाएं। इस विकट अनुभव के बीच कुछ पल विश्राम के राहत अवश्य दे रहे थे, वदन पसीने ते तर-वतर हो रहा था, दिल की धड़कने अपने चरम पर थीं। किसी तरह इन सीढ़ियों को पार कर मुख्य मार्ग पर आते हैं।

इस प्रारम्भिक कवायद का लाभ यह रहा कि अब आगे की चढ़ाई हमारे लिए अधिक कठिन प्रतीत नहीं हो रही थी। हालाँकि आगे सीढ़ियों बाले शॉर्टकट के प्रयोग से बचते रहे, और हल्की ढलाने वाले खच्चर मार्ग से ही टीन शेड के नीचे चलते रहे। हालांकि दूसरे दिन बापिसी में इन सीढियों के शॉर्टकट्स का हम सबने भरपूर उपयोग किया

इस राह पर पहला पड़ाव था चरणपादुका। माना जाता है कि यहाँ माता वैष्णु के चरणों के चिन्ह हैं, जहाँ उन्होंने एक पैर पर खड़े होकर तप किया था।

मार्ग में बाँस के झुरमुटों के दर्शन प्रारम्भ हो चुके थे। नीचे घाटी का नजारा भी रोमाँचित कर रहा था। हम क्रमशः ऊंचाइयों की ओर बढ़े रहे थे। छोटी पहाडियां व गाँव नीचे छुटते जा रहे थे।

रास्ते में जहां थक जाते, कुछ पल विश्राम करते, और कुछ भूख-प्यास का अधिक अहसास होता तो पानी पी लेते और कुछ चुग लेते। अधिक प्यास थकान लगने पर पसीने से हो रहे साल्ट की कमी को पूरा करने के लिए नींबूज का सहारा लेते। हम पहली बार नींबूज का स्वाद चख रहे थे व इसके मूरीद हो चुके थे। मूड़ बदलने के लिए चाय का उपयोग एक आध जगह करते हैं। रास्ते में यह डायलॉग सहज ही फूट रहा था कि नींबूज का कोई जबाब नहीं, पानी का कोई विकल्प नहीं और सही समय पर मिली चाय की तृप्ति का भी कोई जबाब नहीं।

अब हम लगभग आधा रास्ता पार कर चुके थे। यहाँ से रास्ता दो हिस्सों में बंटता है। एक अधकुमारी की ओर से होकर जाता है, तो दूसरा हिमकोटी मार्ग की ओर से। हम हिमकोटी का ही चयन करते हैं, क्योंकि यह कम चढ़ाई वाला मार्ग है। अधकुमारी में आगे खड़ी चढ़ाई पड़ती है, जिसे हम बापिसी के लिए रखते हैं।

हिमकोटी से बाहनों की सुविधा भी थी, लेकिन हम पैदल ही चलते हैं। इस रास्ते में लगा पहाड़ों से पत्थरों के गिरने की खतरा अधिक रहता है, सो बीच-बीच में इनको रोकने के विशेष प्रयास किए गए थे। रास्ते में बंदरों के दर्शन भी बहुतायत में शुरु हो गए थे। खाने की बस्तु को देखकर यात्रियों के बीच छीना-झपटी के नजारे भी देखने को मिलते रहे।

आगे एक बेहतरीन रिफ्रेशिंग प्वाइंट पर रुकते हैं, चाय-नाशता करते हैं और बैट्री रिचार्ज कर आगे बढ़ते हैं। यहाँ से हेलिकॉप्टरों का नजारा भी देखने लायक था। नीचे घाटी के खुले आसमां से चिडियों के समान दिखते इन हेलिकॉप्टरों की आवाज पास आने पर और तेज हो जाती और हमारे पास से ऊपर पहाड़ों से होकर पार हो रहे थे। पता चला थोड़ी ही दूरी पर हवाई अड्डा है। हर पांच-दस मिनट में इनके आने-जाने का सिलसिला चल रहा था।

आगे मार्ग में बढ़ते-बढ़ते दोपहर ढल चुकी थी, पश्चिम की ओर सूर्यास्त का अद्भुत नजारा देखने लायक था, जिसे हर यात्री केप्चर कर रहा था। हम भी इसका लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे और कुछ बेहतरीन यादगार तस्वीरें मोबाइल में कैप्चर करते हैं।

हम मंजिल के समीप बढ़ रहे थे और साथ ही शाम का धुंधलका भी छा रहा था और धीरे-धीरे रात का अंधेरा साया अपने पांव पसार रहा था। मंजिल के समीप पहुंचने की खुशी के चलते थकान कम हो गई थी, हालांकि ठंड का अहसास तीखा हो रहा था। लो ये क्या, माता वैष्णो देवी के द्वार महज आधा किमी, इसके भव्य परिसर के दूरदर्शन यहीं से हो रहे थे। झिलमिलाती सफेद रोशनीं से पूरा तीर्थ स्थल जगमगा रहा था।

कुछ ही मिनटों में तीर्थ परिकर में जयकारों के साथ प्रवेश होता है, शुरु में ही लाइन में लगकर प्रसाद, क्लावा आदि खरीदते हैं। रिजर्व किए हॉल में पहुंचकर ऑनलाइन प्रसारित हो रही आरती एवं सतसंग में भाग लेते हैं। आज के सतसंग में हमारे सकल समाधान हो रहे थे। चित्त के गहनतम व जटिल प्रश्नों के एक-एक कर उत्तर मिल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि माता का वुलावा कितने सटीक समय पर आया है। लगा जैसे अंतर्यामी, त्रिकालदर्शी भगवती अपनी संतानों का सदा हित चाहती है, उसका सही समय भी वही जानती हैं। उसके भक्तों, बच्चों के लिए क्या उचित है, उसकी यथासमय व्यवस्था करती है।

इसके उपरान्त रात्रि को ही गुफा दर्शन करते हैं। लाइन में लगते हैं। दर्शन अलौकिक अनुभव रहा। माता का द्वार स्वप्नलोक जैसा लग रहा था। पहाडी की गोद में सुरंग से प्रवेश करते हुए गुफा में स्थित तीन पिंडियों के रुप में माता रानी के विग्रह के दर्शन करते हैं। बापिसी में जलधार के अमृत तुल्य जल का पान करते हैं, जिसके साथ प्यास मिटती है और गहरी तृप्ति का अहसास होता है।

नीचे उतर कर पास की कैंटीन में रात का भोजन करते हैं और फिर अपने हॉल में विश्राम करते हैं। इसके आगे लिए पढ़ें - यादगार सवकों से भरा सफर बापिसी का

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