प्रकृति की करारी मार में निहित संकेत-संदेश
इस वार मई-जून के
माह से प्रकृति की विचित्र लीला के दर्शन हो रहे थे, जिसमें गर्मी की वजाए, लगातार
वारिश होती रही, विशेषकार पहाड़ों व इनके तलहटी क्षेत्रों में। परिणामस्वरुप गर्मी
की झुलसन बैसी तल्ख नहीं रही, जो हर वर्ष मई-जून माह में प्रायः कई सप्ताह तक रहती
थी। हिमालयन घाटियों-वादियों में सघन हरियाली छाई रही। मौसम खुशनुमा बना रहा। गर्मी के
महीनों में इतनी हरियाली के दर्शन कई दशकों बाद हो रहे थे। इसके साथ भूमि के अंदर
जल स्रोत पर्याप्त रुप से समृद्ध हो चुके थे। भूमि में जल जैसे रच-बस चुका था,
जगह-जगह से जल स्रोत फूट रहे थे और कभी इस मौसम में सुखे रहने वाले नाले
दनदनाते हुए नदी तक प्रवाहित हो रहे थे। आश्चर्य नहीं कि इस वर्ष मैदानों व शहरों
में गर्मी व घिचपिच आवादी के तनाव-अवसाद से राहत पाने, कुछ दिन शांति-सूकून व
शीतल आवोहवा का आनन्द लेने वाले पर्यटकों की संख्या हिल स्टेशनों में बढ़ी-चढ़ी रही।
गर्मी के मौसम में प्रकृति का यह
अप्रत्याशित व्यवहार एक ओर जहाँ गर्मी से राहत देता विशिष्ट उपहार लग रहा था, वहीं
इसके साथ जलवायु परिवर्तन की आहट भी सुनाई दे रही थी, जिसके कुछ दुष्परिणाम भी
प्रत्यक्ष दिख रहे थे। इस बार प्लम से लेकर सेब की फ्लावरिंग ठंड के कारण दो
सप्ताह पीछे चली गई थी औऱ फल उत्पादन का भी इसी हिसाब से प्रभावित होना तय था। लेकिन
जुलाई के आते-आते मानसून के साथ पश्चिमी विक्षोभ का संगम-संयोग पहाड़ों में कहर
बनकर बरसा, जिससे मैदानी इलाकों तक जनजीवन त्राहि-त्राहि कर उठा।
हालात कुछ ऐसे बन गए
थे, जो 2015 की केदारनाथ त्रास्दी के दौरान रहे। खण्ड जलप्रलय के परिदृश्य दो-चार
दिन में स्थान-स्थान पर प्रत्यक्ष हो उठे थे। दिल्ली में चालीस वर्षों का वारिश का
रिकॉर्ड ध्वस्त हो रहा था, तो हिमाचल में कुल्लू से मंडी इलाके में पिछले 50 से सौ
वर्षों तक शान के साथ ब्यास नदी के किनारे खड़े पुल व भवन ताश के पत्तों की भांति धड़ाशयी हो रहे थे। पंजाव के
चंडीगढ़-मोहाली शहरों के बीच नदी से लेकर झीलों के दर्शन हो रहे थे, तो प्राकृतिक
प्रहार ने कुल्लू से मानाली के बीच के राइट बैंक नेशनल हाइवे को पूरी तरह से ध्वस्थ कर दिया। रासयन से आगे मानाली के बीच जगह-जगह पर सड़क के नामो-निशान मिट गए हैं। घाटी
में जगह-जगह बादलों का फटना, गाँवों-घरों, कस्वों व शहरों का उजड़ना, जनजीवन का
दहशत में जीने के लिए विवश-वाध्य होना आम परिदृश्य रहा और इस सबके बीच प्रकृति की अपराजय सत्ता के सामने मनुष्य अपने
असहायपन व बौनेपन का तीखा अहसास, आए दिन करता रहा।
प्रकृति की गोद में
बसी देवभूमि जैसे कह रही थी कि बहुत हो गया पर्यटन व्यसाय, एक तरफा बिजनस-धंधा, आधुनिकता के नाम पर
पिकनिक, भोग-विलास, राग-रंग से भरा शौर-गुल, दोहन-शौषण व दूषित आचरण। अब मुझे कुछ
दिन एकांत में छोड़ दो, अपने हालात में, अपने प्राकृतिक-आदिम स्वरुप में,
एकांत-शांत-नीरव-आनन्दमय व ध्यानस्थ अवस्था में। मेरी शांति अब कुछ दिन भंग मत करो।
दिल्ली में राजधानी
के ह्दय क्षेत्र क्नॉट प्लेस तक इस बीच झील बन गई थी, आगरा में ताजमहल के आंगन तक
यमुना नदी का स्तर पहुँच गया था। वृंदावन में तो जैसे यमुना शहर में प्रवेश कर गई
थी, अपनी पुरानी राहों को तलाशते हुए, अपने ईष्ट से मिलने के लिए आकुल। इस
प्राकृतिक आपदा में प्रकृति के चमत्कार, दैवीय संकेत एवं दिव्य संयोग भी स्पष्ट
रुप में प्रत्यक्ष होते गए, जो ईश्वरीय अस्तित्व में विश्वास रखने वालों की आस्था को
ओर मजबूत करते गए।
इस पूरे खंड जल-प्रलय के विप्लवी दृश्य के बीच छोटी काशी के नाम से प्रख्यात हि.प्र. के शहर मण्डी में व्यास नदी
के किनारे चार सौ वर्ष पुराना पंचवक्त्र शिवमंदिर शांत-स्थिर-अविचल अवस्था में खड़ा रहा। ऐसा
प्रतीत होता रहा, कि जैसे सावन स्वयं भगवान शिव को अभिषेक करने के लिए उमड़ पड़ा हो।
यह कुछ ऐसा ही दृश्य था, जैसे केदार त्रास्दी के दौरान बाबा केदार भीम शीला की
आढ़ में अविचल खड़े रहे। फिर हनोगी माता के आगे जहाँ ब्यास नदी हर वर्ष सड़क को
छुकर जाती थी, वह इस वर्ष पूरी तरह से ध्वस्थ हुई। इससे पूर्व कभी यह सड़क ध्वस्त
नहीं हुई थी। इसी वर्ष इसके समानान्तर पहाड़ों के अंदर सुरंग तैयार हो चुकी है, जहाँ से यातायात सुचारु हो चुका है। ऐसे लगता है कि प्रकृति ने इसका इंतजार किया,
हनोगी माता ने इस राह पर अब तक कृपा बनाए रखी। ऐसे लगता है कि जैसे अब भगवती भी शांति चाहती हैं, एकांत
चाहती हैं, अपने ईष्ट महाकाल के साथ अपने मूल स्वरुप में कुछ काल विताना चाहती
हैं। हनोगी माता के आगे का पुराना सड़क मार्ग इस वर्ष पूरी तरह से ध्वस्त हुआ है।
दिल्ली में जमुना
नदी तो वर्ष के अधिकाँश समय गंदे नाले के रुप में सड़ांध से अभिशप्त रहती हैं, जिस पर उद्योगों का अवशिष्ट कचरा निरंतर प्रवाहित होता रहता है, जिस कारण इसका जल गंदे नाले से भी अधिक दूषित एवं वदरंग रहता है और इस पर इतनी झाग छायी रहती है कि इसका स्वरुप तक समझ नहीं आता।
इस बाढ़-विप्लव में पहली बार यमुना नदी को जीवित-जीवंत प्रवाहित देखा। यह अलग बात
है कि दिल्ली से लेकर मथुरा-वृंदावन को इस प्रवाह ने कुछ दिन जल-मग्न रखा और कुछ
सोचने विचारने, चिंतन-मनन व आत्म मंथन करने के लिए विवश दिया।
और यह जुलाई माह में,
सावन माह में, भोले नाथ के पावन काल में, कुपित प्रकृति के प्रहार के बीच हर
क्षेत्र के मानुष समुदायों के लिए सोचने, विचारने, सुधरने के लिए प्रखर
संदेश, स्पष्ट संकेत मिलते रहे हैं। और इंसान इनको कितना इनको समझ पाया है, कितना गुन पाया है,
समझकर, गुनकर आगे कितना अमल करता है, यह देखना शेष है। आशा है कि वह लम्बे समय तक इस बार मिले सबकों को याद रखेगा और प्रकृति से मिले संकेतों व संदेशों के अनुरुप
व्यैक्तिक एवं सामूहिक स्तर पर अपने आचरण में आवश्यक सुधार लाने की भरपूर चेष्टा करेगा और अपने
तथा भावी पीढ़ी के भविष्य को बेहतरीन बनाने की दिशा में कदम उठाएगा।
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