बाबा शिव का बुलावा और मार्ग का रोमाँचक सफर
दोपहर के भोजन के बाद मन कुछ बोअर सा व अलसाया सा लग रहा था। बोअर कुछ इस तरह से कि एडवांस स्टडीज का कोई सेमिनार या प्रेजेंटेशन आदि का बंधन आज के दिन नहीं था, क्योंकि यहाँ के प्रवास का काल लगभग पूरा हो चुका था, सामूहिक भ्रमण का कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुका था। (संस्मरण वर्ष 2013 मई माह का है)
एक माह के दौरान शिमला के कई स्थलों को मिलकर एक्सप्लोअर किया था, लेकिन शिमला में शिव के धाम की खोज शेष थी। कल सुबह ही विक्रम ने सफाई के दौरान सुबह बीज डाल दिया था कि तारा देवी शिखर के नीचे शिव का बहुत सुंदर व शांत मंदिर है। आज दोपहर के खाली मन में एडवेंचर का कीड़ा जाग चुका था कि आज वहीं हो लिया जाए। कोई साथ चलने को तैयार न था, सो यायावरी एवं तीर्थाटन की मनमाफिक परिस्थितियों सामने थीं। कमरे में आकर विश्राम का विकल्प भी साथ में था, लेकिन परिस्थिति एवं मनःस्थिति का मेल कुछ ऐसे हो रहा था कि लगा जैसे बाबा का बुलावा आ रहा है और मन की पाल को हवा मिल गई, कि चलो शिवालय हो आएं।
एडवांस्ड स्टडी शिमला का ऐतिहासिक भवन एवं भव्य परिसर |
एडवांस स्टडीज के गेट के बाहर बालूगंज से बस भी मिल गई थी। सीधा शिमला के पुराना बस अड्डा उत्तरे। यह क्या, यहाँ तो एक ही बस खड़ी नहीं थी तारा देवी मंदिर के लिए। रास्ते में शोधी या तारा देवी स्टेशन पर उतरने का कोई ईरादा न था। कौन चलेगा दूसरी बस में। जाएंगे तो सीधा माता के द्वार पर उतरेंगे, फिर देखेंगे आगे की शिव मंदिर यात्रा।
लगभग एक घंटा बीत गया बस के आगे पीछे भागते, ड्राइवर व सवारियों से बस का पता-ठिकाना पूछते..। इसी बीच अपने बी.टेक. लुधियाना के सहपाठी अवस्थीजी की कोचिंग अकादमी - विद्यापीठ के दर्शन भी हो गए। फुर्सत में मिल लेंगे इनसे बाद में। लो बस आ गई, शोघी तक। चलो वहां तक ही सही, वापस आ जाएंगे, यदि वहाँ से सीधे तारा देवी मंदिर के लिए बस न मिली तो। कुछ ऐसा ही हुआ भी। शोघी से स्कूल बच्चों से भरी एक लोक्ल बस में बैठ गए, कुछ मिनट खड़े खड़े यात्रा करते हुए स्कूली बच्चों के साथ बस ने हमें राह में उत्तार दिया। लेकिन तारा देवी का प्रवेश गेट और रास्ता तो पीछे है 300 मीटर लगभग। सवा 2 किलोमीटर ऊपर है मंदिर अभी।
कुछ देर बस-टैक्सी आदि की उम्मीद में खड़े रहे, लेकिन जल्द ही ना उम्मीद होकर अपनी सबसे विश्वस्त 11 नंबर की गाड़ी से चल दिए। सड़क को छोड़कर शॉर्टकट पगडंडी का सहारा लिए। पत्थरों पर बज्री नुमा पत्थरों पर ऊपर चढ़ने से आज की यात्रा की कठिन शुरुआत हो चुकी थी। ऊपर मुख्य मार्ग पर कुछ टैक्सी अभी चल रही थी। लेकिन इन्हें एक अजनबी पथिक से क्या लेना देना।
शिमला का वैली व्यू (प्रतिनिधि फोटो) |
ऊपर देखता, मंदिर का भवन काफी ऊपर था। राह में धूप सीधे बरस रही थी, साथ ही ठंडी हवा भी, नीचे गांव सड़क घाटी का हरा-भरा विहंगम दृश्य सुहावना लग रहा था। प्यास भी लग रही थी। पानी की कोई व्यवस्था साथ नहीं थी, क्योंकि सोचा नहीं था कि ऐसी ट्रैकिंग की भी नौबत आएगी। यह आज मेरी कौन सी परीक्षा ली जा रही थी, व यह कौन सी शक्ति मुझे इन सुनसान राहों पर ऊपर बड़ा रही थी। यह तो भगवान शिव ही जाने, जिनके द्वार तक हम संकल्पित हो कर चल पड़े थे। अभी तो सीधे ऊपर तारा देवी का मंदिर था।
शॉर्टकट पगडंडी से ऊपर चढ़ा ही था कि बड़ी सी पानी की सीमेंट टंकी दिखी। आवाज आ रही थी अंदर से पाइप में पानी के निकासी की, लेकिन नल कहीं ना दिखा। खाली हाथ ऊपर बढ़ चला। रास्ते में यह क्या, नीचे आवाज आ रही थी जानी पहचानी हॉर्न की और छुक-छुक की भी। तो यहीं नीचे सुरंग से होकर रेल्वे ट्रैक आगे बढ़ता है। कुल मिलाकर सामने एक रोमांचक दृश्य था। शिमला-कालका ट्रैन पहाडियों के बीच लुका-छिपा करती हुई सुरंगों के आर पार हो रही थी।
हम भी अपनी मंजिल तारा देवी शिखर की ओर बढ़ रहे थे, जहाँ से हमें शिव मंदिर के लिए दूसरी ओर नीचे उतरना था। सड़क पार कर चोड़ी पगडंडी मिली, लगा पक्की सड़क बनने से पहले तीर्थ यात्री इसी राह से सामान के साथ घोड़ा आदि के साथ जाते रहे होंगे। आज भी हो सकता है श्रद्धालु पर्व त्योहारों में इसी राह से चढ़ते उतरते होंगे।
रास्ता चीड़ की सूखी पत्तियों से ढका था, कुछ-कुछ फिसलन भरा। लेकिन इनके साथ अपनी बचपन की विरल यादें अचेतन की अतल गहराईयों से उभर कर आज ताजा हो रहीं थी। भूंतर के आगे मणिकर्ण घाटी में शड़शाड़ी से पुलपार कर ओल्ड़ जाते समय ऐसे ही चीड़ पत्तियों से भरे रास्ते बचपन में देखे थे, बुआजी की बड़ी बेटी की शादी में शरीक होने गए थे। आज वो पुरानी यादें ताजा हो रहीं थीं।
एक ओर याद ताजा हो उठी। यह जंगली झाड़ियों में खट्टी-मिठी आँछ (बुश बैरी) को बीन कर खाने का अनुभव था। कुछ-कुछ पानी की कमी इनसे पूरी होती अनुभव कर रहा था। बीयर ग्रिल के मैन वर्सेज वाइल्ड का एक पात्र खुद को अनुभव कर रहा था। सच में निपट अकेला, बिना किसी तैयारी के भोलेनाथ शिव के दर्शनार्थ उनके धाम की खोज में। बीहड़ वन के सन्नाटे को चीरते हुए हम अकेले बड़ रहे थे।
अब रास्ता मुख्य मार्ग से अलग हो गया था। ऊपर दूर मोड़ दिख रहा था। बीच का सफर अपने गाँव के पीछे (बनोगी गांव के ऊपर और रेऊंश के नीचे का वन क्षेत्र) बीहड़ बनों में बचपन के बिताए रोमाँचक पलों को तरोताजा कर रहे थे। रास्ते भर खट्टी मिठी बुश बैरी की हरी भरी झाडियां जहाँ भी मिलती गईं, उनसे दो-चार दाने तोड़कर सेवन करता रहा।
मार्ग में लेबर काम करते मिले। अपना रोल्लर आगे-पीछे कर रहे थे। एक थके हैरान-परेशान लेकिन लक्ष्य केंद्रित तीर्थ यात्री को वे कौतुक भरी निगाहों से देख रहे थे। बात-चीत करने का न समय था और न ही मनःस्थिति। राह में उतरता हुआ एक यात्री दुआ-सलाम कर कुछ मन हल्का व आश्वस्त करता प्रतीत हुआ। इस निर्जन राह में एक आस्थावान श्रद्धालु के दर्शन व उसका आत्मीय स्पर्श निःसंदेह रुप में सकूनदायी लगे।
शिमला के ट्रेकिंग ट्रैल्ज - (प्रतिनिधि फोटो) |
इनको पार कर आधे से अधिक मार्ग, लगभग डेढ़ किमी तय हो चुका था। आगे मुख्य मार्ग से पत्थर की सीढ़ियाँ और कछ घने वन से होकर रास्ता पार किया। मुख्य मार्ग पर आते ही – लो यह क्या। ऊपर माँ का मंदिर दिख रहा था, सहज विश्वास न हुआ कि पहुँच गए। अब एक मोड़ और बस...। कुछ पल बैठ दम भरा। प्यास लगी थी, लेकिन पानी न था। फिर आगे बढ़ चले। यह क्या मोड़ पर शिव मंदिर का बोर्ड लगा था। क्यों न सीधे इस मार्ग से बढ़ चलें, पहले शिव बाबा के दर्शन कर लें, वहीं तो आज की मूल मंजिल थी, फिर देखेंगे ऊपर माता का द्वार, जहाँ पिछले दो रविवार आ चुके थे वहाँ। तब शिवमंदिर का बोर्ड पढकर उतरने की इच्छा जगी थी, लेकिन साथी लोग तैयार नहीं थे। लगा, जो होता है, अच्छा ही होता है।
अब हम पगडंडी पर बढ़ चल रहे थे, जो बहुत ही संकरी थी। बाँज के पत्तों से भरी, फिसलन भरी थी। एक कदम दाएं कि सीधे नीचे गए गहरी घाटी में। हालाँकि बांज के घने पतले वृक्ष बीच में रोक सकते हैं, लेकिन चोट तो काफी गंभीर लग सकती है ऐसे में...। हम एकाकी आगे बढ़ रहे थे, पीछे ऊपर माता का मंदिर दिख रहा था। शनै-शनै हम जितना नीचे उतरते गए, मंदिर पीछे छूटता गया और अब दृष्टि से औझल हो चुका था व आगे जंगल और घना होता जा रहा था। बढ़ते बढ़ते दूर कुछ हलचल दिखी, बंदर कूद रहे होंगे, नहीं ये तो गाय जैसा पशु लगा। पास में वन विभाग का बोर्ड भी दिखा। यहाँ जंगल में लोगों के छोड़े हुए मवेशी चर रहे थे।
बीच राह में किसी तरह के अप्रत्याशित खतरे या हमले से निपटने के लिए एक हाथ में नुकीला पत्थर और दूसरे हाथ में एक ठूंठ का डंड़ा हम थाम चुके थे। (जारी....शेष भाग-2 व अंतिम किस्त अगली पोस्ट में - यात्रा डायरी - शिमला के बीहड़ वनों में एकाकी सफर का रोमांच, भाग-2)
तारा देवी हिल्ज के बीहड़ बन और बांजवनों के मध्य शिवमंदिर |
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