शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

लेखन कला, युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्यजी के संग

 लेखन प्रारम्भ करने से पूर्व मनन करने योग्य कुछ सुत्र

1 उत्कट आकांक्षा

महान लेखक बनने की उत्कट अभिलाषा लेखक की प्रमुख विशेषता होनी चाहिए। वह आकांक्षा नाम और यश की कामना से अभिप्रेरित न हो। वह तो साधना के परिपक्व होने पर अपने आप मिलती है, पर साहित्य के आराधक को इनके पीछे कभी नहीं दौड़ना चाहिए। आकांक्षा दृढ़ निश्चय से अभिप्रेरित हो। मुझे हर तरह की कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने ध्येय की ओर बढ़ना है, ऐसा दृढ़ निश्चय जो कर चुका है, वह इस दिशा में कदम उठाए। उत्कृष्ट लेखन वस्तुतः योगी मनोभूमि से युक्त व्यक्तियों का कार्य है। ऐसी मनोभूमी होती नहीं, बनानी पड़ती है। ध्येनिष्ठ साधक ही सफल रचनाकार बन सकते हैं।

 

2       एकाग्रता का अभ्यास

लेखन में साधक को विचारों की एकाग्रता का अभ्यास करना पड़ता है। एक निश्चित विषय के इर्द-गिर्द सोचना और लिखना पड़ता है। यह अभ्यास नियमित होना आवश्यक है। मन की चंचलता, एकाग्रता में सर्वाधिक बाधक बनती है। नियमित अभ्यास इस अवरोध को दूर करने का एकमात्र साधन है। व्यायाम की अनियमितता के बिना कोई पहलवान नहीं बन सकता। रियाज किए बिना कोई संगीतज्ञ कैसे बन सकता है? शिल्पकार प्रवीणता एक निष्ठ अभ्यास द्वारा ही प्राप्त करता है। लेखन कला के साथ भी यही नियम लागू होता है। न्यूनतम 5 अथवा 10 पन्ने बिना एक दिन भी नागा किए हर साहित्य साधक को लिखने का अभ्यास करना चाहिए। (यदि कोई नया लेखक है, तो शुभारम्भ एक पैरा या एक पन्ने से भी की जा सकती है।)

संभव है कि आरंभ में सफलता न मिले। विचार विश्रृंखलित हों, अस्त-व्यस्त अथवा हल्के स्तर के हों, पर इससे साधक को कभी निराश नहीं होना चाहिए। संसार में किसी को भी आरंभ में सफलता कहां मिली है? एक निश्चित समय के अभ्यास के उपरांत ही वे सफल हो सके। अपना नाम छपाने अथवा पैसा कमाने की ललक जिसे आरंभ से ही सवार हो गई, वह कभी भी महान लेखक नहीं बन सकता। भौतिक लालसाओं की पूर्ति की ओर ही उसका ध्यान केंद्रित रहता है। फलस्वरूप ऐसे मनोवृति के छात्र अभीष्ट स्तर का अध्यवसाय नहीं कर पाते। परिश्रम एवं अभ्यास के अभाव में लेखन के लिए आवश्यक एकाग्रता का संपादन नहीं हो पाता। ऐसे लेखक कोई हल्की-फुल्की चीजें भले ही लिख लें, विचारोत्तेजक रचनाएं करने में सर्वथा असमर्थ ही रहते हैं।

 

3       अध्ययनशीलता

अध्ययन के बिना लेखन कभी संभव नहीं है। जिसकी अभिरुचि प्रबल अध्ययन में नहीं है, उसे लेखन में कभी प्रवृत नहीं होना चाहिए। किसी विषय की गंभीरता में प्रवेश कर सकना बिना गहन स्वाध्याय के संभव नहीं। लेखक की रुचि पढ़ने के प्रति उस व्यसनी की तरह होना चाहिए जिसे बिना व्यसन के चैन नहीं पड़ता। प्रतिपाद्य विचारों के समर्थन के लिए अनेकों प्रकार के तर्कों, तथ्यों और प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है। मात्र मौलिक सूझबूझ से इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकना किसी भी आरंभिक लेखक के लिए संभव नहीं। ऐसे विरले होते हैं जिनके विचार इतने सशक्त और पैने होते हैं कि उन्हें किसी अन्य प्रकार के समर्थन की जरूरत नहीं पड़ती। यह स्थिति भी विशेष अध्ययन के उपरांत आती है। आरंभ में किसी भी लेखक को ऐसी मौलिकता के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए

इस संदर्भ में एक विचारक का कथन शत प्रतिशत सही है कि जितना लिखा जाए उससे 4 गुना पढ़ा जाए। पढ़ने से विचारों को दिशा मिलती और विषयों से संबंध उपयोगी तथ्य और प्रमाण मिलते रहते हैं। विचारों को पुष्ट करने, प्राणवान बनाने में इन तथ्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हिंदी रचनाओं में आजकल तथ्यों की कमी देखी जा सकती है। प्रायः अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में मौलिकता के नाम पर विचारों की पुनरावृति ही होती रहती है। तर्क, तथ्य और प्रमाण के बिना ऐसी रचनाएं नीरस और उबाऊ लगती है। विचारों में नवीनता एवं प्रखरता न रहने से कोई दिशा नहीं दे पाती, न ही वह प्रभाव दिखा पाती जो एक उत्कृष्ट रचना द्वारा दिखाई पड़ना चाहिए।

यह वस्तुतः अध्ययन की उपेक्षा का परिणाम है। मानसिक प्रमाद के कारण अधिकांश लेखक परिश्रम से कतराते रहते हैं। अभीष्ट स्तर का संकलन ना होने से एक ही विचारधारा को शब्दावली में बदल कर दोहराते रहते हैं। पश्चिमी जगत के लेखकों की इस संदर्भ में प्रशंसा करनी होगी। संकलन करने, तथ्य और प्रमाण जुटाने के लिए वे भरपूर मेहनत करते हैं। जितना लिखते हैं उसका कई गुना अधिक पढ़ते हैं। तथ्यों, तर्कों एवं साक्ष्यों की भरमार देखनी हो तो उनके लेखों में देखी जा सकती है। यह अनुकरण हिंदी भाषी लेखकों को भी करना चाहिए। जो लेखन की दिशा में प्रवृत्त हो रहे हैं उन्हें स्वाध्याय के प्रति बरती गई उपेक्षा के प्रति सावधान रहना चाहिए।

यह भी बात ध्यान रखने योग्य है कि विचारों का गांभीर्य विशद अध्ययन के उपरांत ही आता है। विचार भी विचारों को पढ़कर चलते तथा प्रखर बनते हैं। उन्हें नवीनता अध्ययन से पैदा होती है। अतएव अध्ययनशीलता लेखन की प्रमुख शर्त है।

एक सूत्र में कहा जाए तो इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है, लेखन बाद में, पहले अपने विषय का ज्ञान अर्जित करना। सबसे पहले लिखने की जिनमें सनक सवार होती है वह कलम घिसना भले ही सीख लें, विषय में गहरे प्रवेश कर प्रतिपादन करने की विधा में कभी निष्णात नहीं हो पाते। लिखना उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि तथ्यों का संकलन। विषय के कई पक्षों-विपक्षों की जानकारी लिए बिना सामग्री संकलन संभव नहीं। बिना सामग्री के जो भी लिखेगा आधा-अधूरा, नीरस ही होगा।

 

4       जागरूकता

हर नवीन रचना में त्रुटियों एवं भटकाव की गुंजाइश रहती है। त्रुटियाँ अनेकों प्रकार की हो सकती हैं। भाषा संबंधी और वाक्य विन्यास संबंधी भी। व्याकरण की गलतियां भी देखी जाती हैं। प्रतिपादन में कभी-कभी भटकाव भी हो सकता है। इन सबके पति लेखक-साधक को पूर्णरूपेण जागरूक होना चाहिए। हर त्रुटि में सुधार के लिए बिना किसी आग्रह के तैयार रहना चाहिए। इस क्षेत्र में जो विशेषज्ञ हैं, उनसे समय-समय पर अपनी रचनाओं को दिखाते रहने से अपनी भूल मालूम पड़ती है। विषयांतर हो जाने से भी लेखक अपने लक्ष्य से भटक जाता है। फलस्वरुप रचना में सहज प्रवाह नहीं आ पाता। इस खतरे से बचने का सर्वोत्तम तरीका यह है कि किसी समीक्षक की निकटता न प्राप्त हो तो स्वयं को आलोचक नियुक्त करें, जो लेखे लिखे जाएं, उन्हें कुछ दिनों के लिए अलग अलमारी अथवा फाइल में रख देना चाहिए तथा दो-तीन दिनों बाद पुनः अवलोकन करना चाहिए। ऐसा इसलिए करना उचित है कि तुरंत के लिखे लेखों में मस्तिष्क एक विशिष्ट ढर्रे में घूमता रहता है। इस चक्र से बाहर चिंतन नहीं निकलने पाता। फलस्वरुप स्वयं की गलतियां पकड़ में नहीं आती। समय बीतते ही चिंतन का यह ढर्रा टूट जाता है। फलतः बाद में पुनरावलोकन करने पर भूल-त्रुटियों का ज्ञान होता है, जिन्हें सुगमतापूर्वक ठीक किया जा सकता है।

जागरूकता का यह तो निषेधात्मक पक्ष हुआ। विधेयात्मक पक्ष में लेखक को लेखनी से संबद्ध हर विशेषताओं को धारण करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है। शैली लेखन कला की प्राण है। वह जितनी अधिक जीवंत-माधुर्यपूर्ण होगी, उतना ही लेख प्रभावोत्त्पादक होगा। इस क्षमता के विकास के लिए लेखक को उन तत्वों को धारण करना पड़ता है जो किसी भी लेख को ओजपूर्ण बनाते हैं। शब्दों का उपयुक्त चयन भी इसी के अंतर्गत आता है। प्रभावोत्पादक शब्दों का चयन तथा वाक्यों में उचित स्थानों पर उनका गुंथन लेखन की एक विशिष्ट कला है जो हर लेखक की अपनी मौलिक हुआ करती है। इसके विकास के लिए प्रयत्नशील रहना सबका कर्तव्य है।

 

5       ज्ञान को पचाने की सामर्थ्य का होना

जो भी कार्य हाथ में लिया जाए उसके सीमाबंधन को भी जानना चाहिए। असीम विस्तार वाला विषय हाथ में लेकर कोई भी व्यक्ति अपने प्रतिपाद्य शोध कार्य से न्याय नहीं कर सकता। अपनी सामर्थ्य कितनी है तथा किस प्रकार सिनॉप्सिस बनाकर आगे बढ़ना है, इसका पूर्वानुमान लगा लेना सफलता का मूलभूत आधार है। यह ठीक उसी प्रकार हुआ जैसे रोगी को व्याधि एवं शरीर के भार नाप-तोल आदि के बाद उसकी औषधि का निर्धारण किया जाए। यदि प्रारंभिक निर्धारण न करके अपनी हवाई उड़ान आरंभ कर दी तो फिर शोधकार्य कभी पूरा नहीं हो सकता। अपनी विषयवस्तु के बारे में लेखक को बड़ा स्पष्ट एवं टू द प्वाइंट होना चाहिए। इसी से भटकाव से बचना संभव हो पाता है। सफल शोधार्थी व लेखक पहले अपनी सीमा-क्षमता देखते हैं, तदुपरांत कुछ करने का संकल्प लेते हैं। अधूरे शोधकार्यों की भरमार इस दिशा में एक अच्छा खासा शिक्षण है।

 

6       संवेदनशीलता

कल्पना की नींव पर ही लेख का महल तैयार होता है, किसी विद्वान का यह कथन अक्षरशः सत्य है। कविता जैसी रचनाओं में तो एक मात्र कल्पना शक्ति का ही सहारा लेना पड़ता है। भाव-संवेदनाओं का शब्दों के साथ नृत्य, कविता की प्रमुख विशेषता होती है। लेखों में भी विचारों के साथ भाव-संवेदनाओं का गुंथन रचना में प्राण डाल देता है। लेखन में दीर्घकालीन अभ्यास के बाद यह कला विकसित होती है। एक मनीषी का मत सारगर्भित जान पड़ता है कि जिसका हृदय अधिक संवेदनशील और विराट है उसमें उतनी ही सशक्त सृजनात्मक कल्पनाएं-प्रेरणाएं उद्भूत होती हैं। हृदयस्पर्शी मार्मिक संरचनाएं भाव संपन्न ह्दयों से ही उद्भूत होती हैं। ऐसी रचनाओं में रचनाकार के व्यक्तित्व की अमिट छाप प्रायः झलकती है। जो दूसरों की पीड़ा, वेदना को अनुभव करता है वह अपनी रचना में संवेदना को अधिक कुशलता से उभार सकने में सक्षम हो सकता है। वेदना-विहीन हृदय में वह संवेदन नहीं उभर सकता, जो रचना में प्रकट होकर दूसरों के अंतःकरणों को आंदोलित-तरंगित कर सके।

(साभार – श्रीराम शर्मा आचार्य, युगसृजन के संदर्भ में प्रगतिशील लेखन कला, पृ.64-69)

 

 

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