कीमत कितने जन्म, युगों है इसने चुकाई
सागर की शांत लहरों को देख,
कहाँ समझ आती है इसकी अतल गहराई।
घाटी से नीले आसमान को निहारते हुए,
कहाँ समझ आता है इसका विस्तार अनन्त।
जंगल के हरे सौंदर्य को दूर से निहारते,
कहाँ समझ आती है उसकी बीहड़ सच्चाई।
ऐसे ही एक शाँत-सौम्य, धीर-गंभीर, सरल-सह्दय रुह
को देख,
कहाँ समझ आती है उसकी अथक गहराई, अनन्त विस्तार
और बीहड़ सच्चाई।
उसकी सरलता-तरलता, सहजता-फक्कड़पन, वितरागिता,
समता-स्थिरता देख,
कहाँ समझ आती है हिमालय से भी उत्तुंग उसके
व्यक्तित्व की ऊँचाई।
कितने दुःख, कितने झंझावत, कितने आघात, कितने
प्रहार खाकर-सहकर,
पहुँची है यह रुह आज चेतना के शिखर पर, लिए
अंतरतम की वह गहराई।
जहाँ शाँति, समता, स्थिरता, निर्दन्दता, निश्चिंतता
बसती है हर पल,
कितनी क्राँति, कितनी अशाँति, कितने मंजर, कितने संघर्ष
के बाद,
पहुँची है वह सर्वस्व दाँव पर लगा, एकाँतिक निष्ठा
के बूते इस मुकाम पर,
जिसकी कीमत हर पल, हर दिन, हर जन्म है युगों उसने
भरपूर चुकाई।।