शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

यात्रा वृतांत - मेरी पहली नेपाल यात्रा

 हिमाच्छादित हिमालय के संग एक रोमाँचक सफर

दिव्य झलक - हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाएं, नेपाल, हिमालय

यह हमारी पहली नेपाल यात्रा थी। वर्ष 2021 के उथल-पुथल भरे कलिकाल का समाप्न जैसे भगवान पशुपति नाथ क्षेत्र से आमन्त्रण के साथ हो रहा था। हरिद्वार से मुरादावाद होते हुए हम भारत की सीमा पर नानकमत्ता, बनवसा की ओर से प्रवेश करते हैं। यहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम हो चुकी थी, अतः यहाँ पर काली नदी के दर्शन रात के अँधेरे में बिजली की रोशनी में ही कर पाए। काली नदी के बारे में बहुत कुछ पढ़-सुन चुके थे, सो इसके दर्शन की अभिलाषा दिन के उजाले में आज अधूरी ही रही।

मालूम हो कि काली नदी भारत और नेपाल के बीच एक नैसिर्गिक सीमा रेखा का काम करती है, जिसे महाकाली, कालीगंगा, शारदा जैसे कई नामों से जाना जाता है। यह उत्तराखण्ड के पिथौड़ागढ़ के 36,00 मीटर (लगभग 10,800 फीट) ऊँचे स्थान कालापानी स्थान से प्रकट होती है और उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में शारदा के नाम से 350 किमी लम्बा सफल तय करती हुई अन्ततः सरयू नदी में जा मिलती है। काली नदी सरयू नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है। तवाघाट, धारचूला, जौलजीबी, झूलाघाट, पंचेश्वर, टनकपुर, बनबसा, महेंद्रनगर आदि इस नदी पर बसे मुख्य नगर हैं। इसकी जलराशि को देखकर इसके विराट स्वरुप का अहसास हो रहा था और इसके प्रत्यक्ष दर्शन की इच्छा को अगले टूर के लिए छोड़ते हुए हम यहाँ की सुरक्षा औपचारिकताएं पूरा करते हुए नेपाल की सीमा में प्रवेश करते हैं और इसके समीपस्थ शहर महेंद्रनगर में रुकते हैं। 

मालूम हो कि महेंद्रनगर नेपाल के सुदूर पश्चिम में भारत का समीपस्थ शहर है, जिसे दिवंगत राजा महेंद्र ने बसाया था और यह एक पूरी योजना के तहत एक सुव्यवस्थित शहर है। नेपाल का यह नौवां सबसे बड़ा शहर है तथा काठमाण्डू से 700 किमी दूरी पर स्थित है। यहाँ के होटल में नेपाल के खान-पान से जुड़ी विशेषताओं से परिचय शुरु हो जाता है। 

महेंद्रनगर में रात्रि विश्राम के यादगार पल

यहाँ रोटी का चलन न के बराबर दिखा, चाबल यहाँ भोजन का प्रमुख हिस्सा है। यहाँ से प्रातः पास के शहर धनगढ़ी तक का सफर गाड़ी से करते हैं, जहाँ से काठमाण्डू के लिए हवाई यात्रा की व्यवस्था हो चुकी थी। रास्ते में हम नेपाल के ग्रामीण परिवेश से पहला परिचय पा रहे थे, जिसे यहाँ की लोकल बसों में देखकर समझ आया कि इसे सुदूर पश्चिम के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह क्षेत्र नेपाल के पश्चिमी छोर की ओर बसा है। हम पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ रहे थे और काठमाण्डू नेपाल के लगभग बीच में पड़ता है। 

रास्ते में हर आध-एक किमी की दूरी पर छोटी-छोटी नदियों के दर्शन निसंदेह रुप में ताजगी भरा अहसास जगाते रहे, क्योंकि जहाँ भी जल दिखता है, वहीं जीवन की सकल संभावनाएं नजर आती हैं, जबकि जल से हीन भू-भाग देखकर मन में एक सुखापन सा कुरेदने लगता है, एक शुष्कता का भाव जेहन को आक्राँत करता है। रास्ते भर दायीं ओर पहाड़ियों के दर्शन होते रहे, लगा जैसे अपने ही गृह प्रदेश में एक नए परिवेश में विचरण कर रहे हैं। यात्रा के दौरान एक स्वप्न सरीखे अनुभव से स्वयं को गुजरता महसूस कर रहे थे और जेहन की कोई गहरी अतृप्त इच्छा जैसे पूरा हो रही थी।

पहाडियों से निस्सृत मार्ग की एक छोटी नदी
 

मार्ग में जीवन्त लोकजीवन के दर्शन होते रहे। बीच में दूल्हे की बारात जा रही थी, जिसमें लोक्ल गीत, संगीत व बाजे के साथ थिरकते लोग, बहुत सुन्दर नजारा पेश कर रहे थे। इसके साथ रास्ते भर कई जंगल, खेत, खलिहान, गाँवों को निहारते हुए हम मार्ग में कृष्णपुर व अटरिया जैसे कस्बों को पार करते हुए आखिर धनगढ़ी पहुँचे। विकास की दृष्टि से निहारने पर लगा की यह क्षेत्र अपनी पुरातन संस्कृति को संजोए हुए नए तौर तरीकों को अपना रहा है। खेती का चलन अधिक दिखा, कहीं-कहीं सब्जियाँ को उगाते देखा। बागवानी का चलन कम ही दिखा। धनगढ़ी के मुख्य मार्ग से अन्दर खेत-खलिहान के बीच होते हुए यहाँ के एयरपोर्ट पहुँचते हैं।

मार्ग के खेत खलिहान
 

थोड़ी ही देर में धनगढ़ी से काठमाण्डू की फ्लाइट मिल जाती है। अगले एक घण्टे जीवन के सबसे रोमाँचक पलों में शुमार होने वाले थे, क्योंकि हम बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं के दर्शन करने जा रहे थे, जिनमें कुछ तो विश्व के सबसे ऊँचाई बाले शिखरों में शुमार हैं। अभी तक जो हवाई यात्राएं हम दिल्ली व चण्डीगढ़ से हैदरावाद, मुम्बई तथा फ्रैंकर्फट, बिडगोश आदि की किए थे, वे सभी 35,000 फीट ऊँचाई के आसपास की थी। अतः इन यात्राओं में बादलों के अलावा नीचे के नजारे अधिकाँशतः नदारद ही रहे। आज की यात्रा महज 15,000 फीट की ऊँचाई पर होने वाली थी, जिसमें सामने हिमाच्छादित हिमालय और नीचे पर्वतों, घाटियों, नदियों, गाँवों, कस्वों तथा सड़कों को नजदीक से निहारने का अवसर मिल रहा था।

अगले एक घण्टे इन्हीं को निहारते हुए जीवन के बहुत ही रोमाँचक एवं यादगार पल रहे और यथा सम्भव अपने मोबाईल से इनको कैप्चर करते रहे, जिसकी एक झलक आप नीचे दिए विडियो में पा सकते हैं।

 

काठमाण्डू आने से पहले ही पोखरा के समीप से होकर गुजरे। दूर से भी नीचे इसकी झीलें स्पष्ट दिख रही थीं। इससे पहले हम संभवतः गोरखा इलाके से गुजरे, जिसे आठवीं सदी के यौद्धा सिद्ध-संत गुरु गोरखनाथ से जोड़कर देखा जाता है। यहाँ से गुजरते हुए जनरल सैम मनेक्शा के उद्गार याद आए कि यदि कोई कहता है कि मुझे मौत से डर नहीं लगता, वह या तो झूठ बोल रहा है या वह गोरखा है।

रास्ते में नीचे हरी-भरी पहाड़ियां, इनसे फूटती छोटी-बड़ी नदियाँ व इनके मार्ग स्पष्ट दिख रहे थे। कहीं-कहीं कई किमी दूर तक जंगल ही जंगल दिखते, कहीं पहाडियों में बसे गाँव व इनके पास से गुजरती सर्पिली पहाड़ी सड़कें - 15000 फीट से गुजर रहे शौर्य यान से निहारते रहे। इनके पीछे क्रमिक रुप में बढ़ती ऊँचाईयों के साथ सव अल्पाईन, अल्पाईन व हिमाच्छादित पहाड़ पहली बार एक साथ साँसों को थामकर देख रहा था। बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वतश्रंखलाएं रास्ते भर दिखती रही, मोबाईल से जूम करने पर इनको इतने पास से देखना एक अलग ही अनुभव था। पर्वतशिखरों के साथ कितने सारे ग्लेशियर (बर्फ की नदियाँ) रास्ते भर दम थामकर देखते रहे और इनको यथासम्भव मोबाईल से कैप्चर भी करते रहे।

काठमाण्डू प्रवेश की एक झलक
 

इन दृश्यों को निहारते हुए पता ही नहीं चला कि हम कब काठमाण्डू के पास पहुँच चुके हैं। नीचे पहाडियों पर राजभवनों के दर्शन के साथ काठमाण्डू शहर में प्रवेश होता है। चारों और पहाड़ियों से घिरा काठमाण्डू शहर अपनी पूरी भव्यता के साथ हमारे सामने नीचे प्रत्यक्ष था। भवनों के जमघट के साथ एक बड़ी आवादी को समेटे काठमाण्डू शहर के दर्शन शुरु हो चुके थे। पीछे पृष्ठभूमि में हरे भरे पहाड, इनके भी पीछे सुदूर हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखाएं और नीचे भवनों के समूह, कहीं अट्टालिकाएं तो बीच में नदियाँ, सड़कें तो कहीं कहीं हरे जंगल व खेतों के दर्शन - इन सबको निहारते हुए हमारा हमारा शौर्य यान धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था और शहर के भवन, सड़कें, नदियाँ व गलियाँ सब स्पष्ट दिख रही थीं। हम नेपाल के सबसे बड़े शहर व इसकी राजधानी काठमाण्डू से गुजर रहे थे, विश्वास नहीं हो रहा था। बाबा पशुपतिनाथ एवं गुरु गोरखनाथ की पावन धरती का भाव सुमरन व धन्यवाद ज्ञापन करते हुए हम काठमाण्डू हवाई अड्डे पर उतरते हैं।

यहाँ के भव्य स्वागत के साथ अपने दिव्य गन्तव्य स्थल तक पहुँचते हैं। फिर अगले कुछ दिन यहाँ के प्रवास के साथ आस-पास के जो दर्शन हुए उनका सारगर्भित वर्णन आप अगली पोस्ट में पढ सकते हैं, जो यहाँ पहली बार पधार रहे यात्रियों के लिए उपयोगी हो सकते हैं।....जारी।

काठमाण्डू की राह में हिमालय के भव्य दर्शन

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

मेरा गाँव मेरा देश - मधुमक्खी पालन

 हिमालय की वादियों में मधुमक्खी पालन

बर्फ में हिमालयन बी फार्म मोहिला का विहंगम नजारा

शहद के साथ बचपन की कितनी सारी यादें जुड़ी हुई हैं। घर की छत्त पर प्राय़ः दक्षिण या उत्तर दिशा में मधुमक्खी के दीवाल के साथ जड़े छत्त लगे होते थे, जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में म़ड्ड़ाम कह कर पुकारते हैं। साल भर में एक बार हमारे बड़े-बुजुर्ग इनसे शहद निकालते। धुँआँ देकर मधुमक्खियों को कुछ देर के लिए बाहर निकाला जाता और इनके छत्तों के बीच शुद्ध शहद से जड़े छत्ते को काटकर अलग किया जाता।

इसको ऐसे ही टुकड़े में खाने का लुत्फ लेते और शेष का कपड़छान कर अलग कर लेते। कभी कभार खाने के लिए इस शहद का उपयोग होता, अधिकाँशतः औषधी के लिए इसको सुरक्षित रखते। या फिर शास्त्र के रुप में इसे पूजा कार्यों के लिए संरक्षित रखा जाता। ऐसे नानीजी के खजाने में कईयों साल पुराने शहद से भरे वर्तन सुरक्षित मिलते। मालूम हो कि शहद एक ऐसा विरल उत्पाद है, जो कभी खराब नहीं होता।

हिमालयन बी फार्म में उपलब्ध शुद्ध देशी शहद
 

अब हालाँकि पारम्परिक रुप में शहद के ये तौर-तरीके पीछे छुटते जा रहे हैं। एक तो फल व सब्जियों में बहुतायत में उपयोग किए जाने वाले रसायन व कीटनाशकों के कारण मधुमक्खियाँ खुलकर परागण नहीं कर पाती, अधिकाँश तो विलुप्त हो चली हैं। इस कारण हिमालयन मधुमक्खियों का शहद अब पहाड़ों में तराई के इलाकों की वजाए अधिक ऊँचाईयों तक सीमित हो चला है, जहाँ अभी भी जंगली फूल व बनौषधियाँ प्रचूर मात्रा में उपलब्ध रहती हैं, जो खिलने पर मधुमक्खियों के लिए परागण का आहार उपलब्ध कराते हैं।

मधुमक्खी पालन का नया चलन – हालाँकि अब बक्सों में शहद की मधुमक्खियों के पालन का चलन चल पड़ा है, जो पारम्परिक तरीके से एक प्रकार से थोड़ा अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक लगता है, जिसमें मधुमक्खियों के छत्तों को कम से कम छेड़खान के साथ इससे अधिक शहद प्राप्त किया जा सकता है।

फ्रेमयुक्त बक्से में मधुमक्खी का आवास

वर्ष 2021 का नवम्बर माह और आज हमारी यात्रा का संयोग बन रहा था, ऐसे ही एक हनी कीपर, श्री लाल सिंह ठाकुर के हिमालयन बी फार्म में, जहाँ वे सेब के बगान के बीच पिछले 15-16 बर्षों से मधुमक्खी पालने के अपने शौक को अंजाम दे रहे हैं। इनके बगीचे में फैले 150 के करीब बक्सों में ये हर सीजन का शहद तैयार करते हैं। ये इनके मधुमक्खी पालन के शौक के साथ इनके लिए रोजगार का भी एक सशक्त साधन बन चुके हैं और ये इच्छुक किसानों को इसका प्रशिक्षण भी देते हैं और अपने यू-ट्यूब चैनल हिमालयन बीज (Himalayan Bees) के माध्यम से अपना अनुभव साझा करते रहते हैं, जिससे जुड़कर आप मधुमक्खी पालने की बारीकियाँ सीख सकते हैं। 

नवम्बर माह में Himalayan Bees फार्म, Mohila

नग्गर से होकर यहाँ जाने के लिए पहले पतलीकुहल पहुँचना पड़ता है, जो कुल्लू-मानाली राइट-बैंक का मध्य बिंदु है। यहाँ तक का दूसरा रास्ता कुल्लू की ओर से कटराईं होकर पतलीकुल पहुँचता है। मानाली से भी सीधे पतलीकुहल पहुँचा जा सकता है।

पतलीकुहल से आगे बड़ाग्राँ-पनगाँ लिंक रोड़ के साथ यहाँ तक पहुँचा जा सकता है।

नग्गर से पतलीकुहल की ओर, ब्यास नदी को पार करते हुए

बड़ाग्राँ इस रुट का पहला बड़ा गाँव पड़ता है, इसके आगे आता है पनगाँ गोम्पा। यहां सड़क के नीचे रंग-बिरंगे कपड़ों की झालरें इसका परिचय देती हैं।  इसके आगे सड़क पर बढ़ते हुए समानान्तर उस पार लेफ्ट बैंक में अप्पर बैली का विहंगम दृश्य दर्शनीय रहता है। यहीं से सामने नगर के पीछे चंद्रखणीं पास की बर्फ से ढ़की चौटियों के दर्शन किए जा सकते हैं। और पास में सडक के साथ पहाड़ों पर पहाड़ी घर व गाँव के नजारें बहुत सुन्दर लगते हैं।

उस पार लेफ्ट बैंक नग्गर साईड, चंद्रखणी पास में बर्फ ढके पहाड़
थोड़ी आगे एक डायवर्जन आता है, जहाँ वायीं ओर से सड़क आगे शेगली की ओर जाती है, जो स्वयं में एक लोकप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन है, जबकि सीधे आगे सड़क पनगां की ओर जाती है। सड़क के दोनों ओर सेब के बाग स्वागत करते हैं, हालाँकि नवम्बर में इनमें फलों का तुड़ान हो चुका था।

पहाड़ी झरने रास्ते में अपने गर्जन-तर्जन भरे कलकल निनाद के साथ एक बहुत सुखद अहसास दिलाते हैं। साथ ही इस ऊँचाई पर वहने पाली ठण्डी आवोहवा आपको हिमालय की वादियों में विचरण की सघन अनुभूति देती है। थोड़ी ही देर में पनगाँ गाँव आता है, इसको पार करते ही हम अपने गन्तव्य मोहिला गाँव पहुँच चुके थे, जहाँ सेब के बागान में मधुमक्खी के बक्से सजे थे, जहाँ श्री लाल सिंह ठाकुर मधुपालन के अपने शौक को सेब की बगीचे में अंजाम दे रहे हैं।

हिमालयन बीज फार्म, मोहिला

मधुमक्खियाँ इनमें छेद से होकर अंदर-बाहर निकल रहीं थी। कुछ इसके चारों ओर मंडरा रहीं थी। इनकी चाल, इनके बोल व इनकी कार्यशैली तो येही जाने, हम तो बस इनकी मधुर गुंजार को सुन रहे थे, इनकी मस्त चाल को देख रहे थे, जो सब मिलकर इनकी अनवरत सक्रियता व अथक श्रम की बानगी पेश कर रही थी, जिसका मधुर फल शहद के रुप में बक्सों के अंदर छत्तों में तैयार हो रहा था।एक बक्से में औसतन सात फ्रेम जड़े थे, जिनमें मधुमक्खियाँ छत्ता बनाकर शहब इकट्ठा कर रही थीं। जिस फ्रेम में शहद पूरी तरह से भर जाता है, उस को अलग कर एख सेंट्रिफ्यूगल मशीन में फिट कर फिर शहद निकाला जाता है और शहद निकालने के बाद फ्रेम को पुनः बक्से में फिट किया जाता है, जहाँ फिर मधुमक्खियाँ अपना काम शुरु करती हैं।

लकड़ी के घर के बाहर सक्रिय हिमालयन मधुमक्खियाँ

मालूम हो कि एक छत्ते में एक रानी मक्खी होती है। रानी मक्खी का कार्य छत्तों में अण्डे देना होता है। इसके सहयोग के लिए कुछ नर होते हैं, जिन्हें निखट्टू कहा जाता है, क्योंकि प्रजनन के अतिरिक्त इनका कोई कार्य नहीं होता और इसके तुरन्त बाद इनका जीवन समाप्त हो जाता है। इनके साथ मुख्य कार्य श्रमिक मधुमक्खियों का होता है, जो फूलों से परागण लाकर छत्तों में एकत्रित करती हैं व शहद तैयार करती हैं। ये मादा मधुमक्खियाँ होती हैं, जिनमें डंक मारने की क्षमता होती है, लेकिन दुःखद बात यह है कि डंक मारने के बाद इनके प्राण पखेरु उड़ जाते हैं।

हिमालय बी फार्म से सामने लेफ्ट बैंक का खूबसूरत नजारा

कुल्लू-मानाली घाटी के बीच राइट बैंक में मोहिला स्थित इस बी-फार्म में एक प्रगतिशील किसान श्री लाल सिंह ठाकुर के इन प्रयोग को देखकर बहुत कुछ जानने सीखने को मिला। पारम्परिक तरीके से, छत्त पर मड्डाम लगाकर मधुमक्खी पालन या जंगल से इनको छत्तों को निचोड़कर शहद निकालने के तौर-तरीकों से यहाँ चल रहा प्रयोग हमे अधिक व्यवहारिक व मानवीय लगा। साथ ही ग्रामीण परिवेश में स्वाबलम्बन का एक पुख्ता आधार दिखा।

यह सही है कि मधुमक्खी पालन में हम उनके मेहनत का मीठा फल शहद इस मेहनतकश नन्हें जीव से लेते हैं, लेकिन इनको रहने के लिए आवास की भी व्यवस्था करते हैं, सर्दियों में इनके लिए भोजन से लेकर आश्रय की व्यवस्था करते हैं। 

बर्फ की मौसम में बी फार्म

इस तरह मिलजुल कर एक दूसरे के पूरक बनकर काम करते हैं। पूरी संजीदगी व संवदेनशीलता के साथ मधुपालन के पेशे को अपनाया जाए, तो यह सभी के लिए हर दृष्टि से एक उपयोगी कार्य रहता है। यहाँ हमें कुछ ऐसा ही प्रयोग देखने के मिला।

इस सबके साथ यहाँ से सामने चारों ओर घाटी का नजारा लाजबाब लगा। सामने लेफ्ट बैंक के गाँव, खेतों की सेरियाँ, इसके महत्वपूर्ण गाँव-कस्वों तथा पहाड़ों के दर्शन मोहित करने वाले हैं। यहाँ से ऊपर जगतसुख से लेकर नीचे नगर साईड और सामने हरिपुर व सोयल गाँव का नजारा प्रत्यक्ष दिखा। इनके पीछे देवदार से ढके पर्वत व इनके भी पीछे बर्फ से ढके पहाड़ यहाँ की भव्यता को चार चाँद लगाते हैं। नीचे ब्यास नदी के भी हल्के से दर्शन यहाँ से होते हैं। इस सबके साथ सेब के बगीचे में बी-फार्म की लोकेशन व आसपास का व्यू स्वयं में बहुत ही मनोरम व बैजोड़ अनुभव रहा। आप चाहें तो इस सबकी एक झलक नीचे दिए वीडियो में भी पा सकते हैं। 

बर्फ में बी फार्म का नजारा दिलकश रहता है। हालाँकि ठण्ड में मधुमक्खियों की गतिविधियाँ सीमित हो जाती हैं, क्योंकि इस समय फूलों के रुप में आवश्यक आहार इन्हें उपलब्ध नहीं होता। इसके लिए इनके लिए अतिरिक्त आहार की व्यवस्था की जाती है, हालाँकि इनके छत्त में पहले से ही संचित मधु इस समय काम आता है।

धूप के बीच पिघलती बर्फ के बीच हिमालयन बीज फार्म का नजारा


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...