शुक्रवार, 18 जून 2021

मेरा गाँव मेरा देश – मौसम गर्मी का

गर्मी के साथ पहाड़ों में बदलता जीवन का मिजाज

मैदानों में जहाँ मार्च-अप्रैल में बसन्त के बाद गर्मी के मौसम की शुरुआत हो जाती है। वहीं पहाड़ों की हिमालयन ऊँचाई में, जंगलों में बुराँश के फूल झरने लगते हैं, पहाड़ों में जमीं बर्फ पिघलने लगती है, बगीचों में सेब-प्लम-नाशपाती व अन्य फलों की सेटिंग शुरु हो जाती है और इनके पेड़ों व टहनियों में हरी कौंपलें विकसित होकर एक ताजगी भरा हरियाली का आच्छादन शुरु करती हैं। मैदानों में इसी समय आम की बौर से फल लगना शुरु हो जाते हैं। मैदानों में कोयल की कूकू, तो पहाड़ों में कुप्पु चिड़िया के मधुर बोल वसन्त के समाप्न तथा गर्मी के मौसम के आगमन की सूचना देने लगते हैं।

मई माह में शुरु यह दौर जून-जुलाई तक चलता है, जिसके चरम पर मौनसून की फुआर के साथ कुछ राहत अवश्य मिलती है, हालाँकि इसके बाद सीलन भरी गर्मी का एक नया दौर चलता है। ये माह पहाड़ों में अपनी ही रंगत, विशेषता व चुनौती लिए होते हैं। अपने विगत पाँच दशकों के अनुभवों के प्रकाश में इनका लेखा जोखा यहाँ कर रहा हूँ, कि किस तरह से पहाड़ों में गर्मी का मिजाज बदला है और किस तरह के परिवर्तनों के साथ पहाड़ों का विकास गति पकड़ रहा है।

हमें याद है वर्ष 2010 से 2013 के बीच मई माह में शिमला में बिताए एक-एक माह के दो स्पैल (दौर), जब हम जैकेट पहने एडवांस स्टडीज के परिसर में विचरण करते रहे। पहाड़ी की चोटी पर भोजनालय में दोपहर के भोजन के बाद जब 1 बजे के लगभग मैस से बाहर निकलते तो दोपहरी की कुनकुनी धूप बहुत सुहानी लगती। सभी एशोसिऐट्स बाहर मैदान में खुली धूप का आनन्द लेते। अर्थात यहाँ मई माह में भरी दोपहरी में भी ठण्डक का अहसास रहता।

इससे पहले हमें याद हैं वर्ष 1991 में मानाली में मई-जून माह में बिताए वो यादगार पल, जब पर्वतारोहण करते हुए, कुछ ऐसे ही अहसास हुए थे। यहाँ इस मौसम में भी ठीक-ठाक ठण्ड का अहसास हुआ था और गुलाबा फोरेस्ट में तो पीछे ढलान पर बर्फ की मोटी चादर मिली थी, जिसपर हमलोग स्कीईंग का अभ्यास किए थे।

हमारे गाँव में भी मई माह में गर्मी नाममात्र की रहती है, बल्कि यह सबसे हरा-भरा माह रहता है। इसी तरह की हरियाली वरसात के बाद सितम्बर माह में रहती है। इस तरह घर में मई माह अमूनन खुशनुमा ही रहा। गर्मी की शुरुआत जून माह में होती रही, जो मोनसून की बरसात के साथ सिमट जाती। इस तरह मुश्किल से 3 से 4 सप्ताह ही गर्मी रहती। इस गर्मी में तापमान 38 डिग्री से नीचे ही रहता। इसके चरम को लोकपरम्परा में मीर्गसाड़ी कहा जाता है, जो 16 दिनों का कालखण्ड रहता है, जिसमें 8 दिन ज्येष्ठ माह के तो शेष 8 दिन आषाढ़ माह के रहते। इस वर्ष 2021 में 6 जून से 22 जून तक यह दौर चल रहा है। इस दौर के बारे में बुजुर्गों की लोकमान्यता रहती कि जो इन दिनों खुमानी की गिरि की चटनी (चौपा) के साथ माश के बड़े का सेवन करेगा, उसमें साँड को तक हराने की ताक्कत आ जाएगी। हालाँकि यह प्रयोग हम कभी पूरी तरह नहीं कर पाए। कोई प्रयोगधर्मी चाहे तो इसको आजमा सकता है।

इस गर्मी के दौर के बाद जून अंत तक मौनसून का आगमन हो जाता और इसके साथ जुलाई में तपती धरती का संताप बहुत कुछ शाँत होता, लेकिन बीच बीच में बारिश के बाद तेज धूप में नमी युक्त गर्मी के बीच दोपहरी का समय पर्याप्त तपस्या कराता, विशेषकर यदि इस समय खेत या बगीचे में श्रम करना हो या चढाई में पैदल चलना हो।

अधिक ऊँचाई और स्नो लाईन की नजदीकी के कारण मानाली साईड तो यह समय भी ठण्ड का ही रहता है। यहाँ पूरी गर्मी ठण्ड में ही बीत जाती है। पहाड़ों की ऊँचाईयों में तो यहाँ तक कि स्नोफाल के नजारे भी पेश होते रहते। हमें याद है मई-जून माह में ट्रेकिंग का दौर, जिसमें नग्गर के पीछे पहाड़ों की चोटी पर चंद्रखणी पास में ट्रैकरों ने बर्फवारी का आनन्द लिया था और बर्फ के गलेशियर को पार करते हुए अपनी मंजिल तक पहुँचे थे।

जून में गर्मी के दिनों में भी यदि एक-दो दिन लगातार बारिश होती तो फिर ठण्ड पड़ जाती, क्योंकि नजदीक की पीर-पंजाल व शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं में बर्फवारी हो जाती। इस तरह गर्मी का मौसम कुछ सप्ताह तक सिमट जाता। हालाँकि बारिश न होने के कारण और लगातार सूखे के कारण हमनें बचपन में दो माह तक गर्मियों के दौर को भी देखा है, जब मक्की की छोटी पौध दिन में मुरझा जाती।

यदि फसलों (क्रॉपिंग पैटर्न) की बात करें, तो हमें याद है कि पहले गर्मी में जौ व गैंहूं की फसल तैयार होती। फलों में चैरी, खुमानी, पलम, नाशपती, आढ़ू सेब आदि फल एक-एक कर तैयार होते। जापानी व अखरोट का नम्बर इनके बाद आता। सब्जियों में पहले मटर, टमाटर, मूली, शल्जम आदि उगाए जाते। फिर बंद गोभी, फूल गोभी, शिमला मिर्च आदि का चलन शुरु हुआ और आज आईसवर्ग, ब्रौक्ली, स्पाईनेच, लिफी(लैट्यूस) जैसी इग्जोटिक सब्जियों को उगाया जा रहा है। इनको नकदी फसल के रुप में तैयार किए जाने का चलन बढ़ा है।

ये मौसमी सब्जियाँ यहाँ से पंजाब, राजस्थान जैसे मैदानी राज्यों में निर्यात होती हैं, जहाँ गर्मी के कारण इनका उत्पादन कठिन होता है और वहां से अन्न का आयात हमारे इलाके में होता है। क्योंकि हमारे इलाकों में अन्न उत्पादन का रिवाज समाप्त प्रायः हो चला है, क्योंकि अन्न से अधिक यहाँ फल व सब्जी की पैदावार होती है व किसानों को इसका उचित आर्थिक लाभ मिलता है। इस क्षेत्र में जितनी आमदनी पारम्परिक अन्न व दाल आदि से होती है, उससे चार गुणा दाम पारम्परिक सब्जियों से होता है और इग्जोटिक सब्जियाँ इससे भी अधिक लाभ देती हैं। वहीं फलों का उत्पादन सब्जियों से भी अधिक लाभदायक रहता है, हालाँकि इनके पेड़ को पूरी फसल देने में कुछ वर्ष लग जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अब किसानों ने अन्न उगाना बंद प्रायः कर दिया है तथा यहाँ बागवानी का चलन पिछले दो-तीन दशकों में तेजी से बढ़ा है और यह गर्मी में ही शुरु हो जाता है। सेब प्लम आदि की अर्ली वैरायटी जून में तैयार हो जाती हैं, हालाँकि इसकी पूरी फसल जुलाई-अगस्त में तैयार होती है।

जून माह में ही जुलाई की बरसात से पहले धान की बुआई, जिसे हम रुहणी कहते – एक अहम खेती का सीजन रहता, जिसका हम बचपन में बड़ी बेसब्री से इंतजार करते। हमारे लिए इसमें भाग लेना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। काईस नाला से पानी के झल्कों (फल्ड इरिगेशन का किसानों की पारी के हिसाब से नियंत्रित प्रवाह) के साथ काईस सेरी में धान के खेतों की सिंचाई होती। घर के बड़े बुजुर्ग पुरुष जहाँ बैलों की जोडियों के साथ रोपे को जोतते, मिट्टी को समतल व मुलायम करते, हम लोग धान की पनीरी को बंड़ल में बाँधकर दूर से फैंकते और महिलाएं गीत गाते हुए पूरे आनन्द के साथ धान की पौध की रुपाई करती। खेत की मेड़ पर माष जैसी दालों के बीज बोए जाते, जो बाद में पकने पर दाल की उम्दा फसल देते।

गाँव भर की महिलाएं धान की रुपाई (रुहणी) में सहयोग करती। सहकारिता के आधार पर हर घर के खेतों में धान की रुपाई होती। दोपहर को बीच में थकने पर पतोहरी (दोपहर का भोजन) होती, जिसे घरों से किल्टों (जंगली वाँस की लम्बी पिट्ठू टोकरी) में नाना-प्रकार के बर्तनों में पैक कर ले जाया जाता। इसकी सुखद यादें जेहन में एक दर्दभरा रोमाँच पैदा करती हैं। आज इन रुहणियों के नायक कई बढ़े-बुजुर्ग पात्र घर में नहीं हैं, इस संसार से विदाई ले चुके हैं, लेकिन उनके साथ विताए रुहणी के पल चिर स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। समय के फेर में हालाँकि रुहणी का चलन आज बिलुप्ति की कगार पर है, मात्र 5 से 10 प्रतिशत खेतों में ऐसा कुछ चलन शेष बचा है, लेकिन गर्मी का मौसम इसकी यादों को ताजा तो कर ही देता है।

गाँव-घर में गर्मियाँ की छुट्टियाँ भी 10 जुन से पड़ती, जो लगभग डेढ़-दो माह की रहती। ये अगस्त तक चलती। हालाँकि अब इन छुट्टियों के घटाकर क्रमशः कम कर दिया गया है, जो अभी महज 3 सप्ताह की रहती हैं। शेष छुट्टियों के सर्दी में देने का चलन शुरु हुआ है। इस दौरान जंगल में गाय व भेड़-बकरियों को चराने की ड्यूटी रहती। साथ में एक बैग में स्कूल का होम वर्क भी साथ रहता। मई, जून में ही गैर दूधारु पशुओं को जंगल में छोड़ने का चलन रहता, जिनकी फिर अक्टूबर में बापिसी होती। इनको छोड़ते समय एक-आध रात जंगल में बिताने का संयोग बनता, जिसकी यादें आज भी भय मिश्रित रोमाँच का भाव जगाती हैं।

हालाँकि गर्मी का मौसम घर में बिताए लम्बा अर्सा हो चुका है, लेकिन स्मरण मात्र करने से ये पल अंतःकरण को गुदगुदाते हुए भावुक सा बनाते हैं और दर्दभरी सुखद स्मृतियों को जगाते हैं। शायद जन्मभूमि से दूर रह रहे हर इंसान के मन में कुछ ऐसे ही भावों को समंदर उमड़ता होगा, खासकर तब, जब लोकडॉउन के बीच लम्बे अन्तराल से वहाँ जाने का संयोग न बन पा रहा हो।

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