घर बापसी एवं यादों को समेटता पहला विदेश का सफर
26मई, 2019, रविवार, अंतिन दिन था। पैकिंग हो चुकी थी। मैडेम जोएना काल्का स्वयं गाड़ी लेकर हमें एयरपोर्ट छोड़ने आती हैं। यहाँ करेंसी एक्सचेंज होता है, क्योंकि पौलेंड का जलोटी अब हमारे ट्रांजिट एयरपोर्ट, फ्रेंक्फर्ट (जर्मनी) में नहीं चलने वाला था, वहाँ का करेंसी यूरो है। अतः जलोटी को यूरो में चेंज करते हैं और बाहर एयरपोर्ट पर बोर्डिंग काउंटर खुलने का इंतजार करते हैं।
खाली समय में कोल्ड ड्रिंक्स, जूस आदि के संग प्यास बुझाने का निष्फल प्रयास करते हैं। क्योंकि इतने दिन पी रहे यहाँ के शुद्ध एल्कालीन (क्षारीय) पानी से प्यास नहीं बुझ पा रही थी। लेकिन ये सभी पेय भी प्यास को नहीं बुझा पा रहे थे।
फ्लाईट में जाने से पूर्व बोर्डिंग पास लेते हैं, सेक्यूरिटी चैक से होकर गुजरते हैं, फिर वेटिंग रुम में बैठते हैं। बग्ल में ही यहाँ पीछे वोदका से सजी दुकानों में जाकर पता चला कि यह मूलतः पौलेंड का पेय है, जिसको हम बचपन से रुस से जुड़ी कहानियों में यहाँ का एक लोकप्रिय पेय मानते आए थे। और यहाँ इसकी दर्जनों वेरायटीज दिखीं। हमारे लिए इनका कोई मायने नहीं था, लेकिन जिज्ञासावश इनका अवलोकन करते रहे।
यहाँ हवाई अड्डे पर इंतजार के पलों में काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी में विताए पलों को याद करते हुए अनुभव हुआ कि हम जैसे एक परिवार का हिस्सा हो गए हैं। यूनिवर्सिटी के बड़े अधिकारियों से लेकर प्रोफेसर एवं अन्य कर्मचारियों के साथ बातचीत में पता चला तथा अनुभव हुआ कि उनमें जो भी देवसंस्कृति विवि एवं शांतिकुंज पधारे हैं, सब यहाँ की यादों को लेकर भावविभोर थे। उनका एकमत था कि उनके दूसरी युनिवर्सिटीज के साथ प्रोफेशनल सम्बन्ध हो सकते हैं, लेकिन देवसंस्कृति विवि के साथ उनका पारिवारिक सम्बन्ध है। इस सबमें विश्वविद्याल के प्रतिकुलपति डॉ. चिन्मय पण्ड्याजी के पिछले वर्षों के अथक श्रम स्पष्ट झलक रहा था, जो आत्मीयता का ऐसा बीज यहाँ के उच्च शिक्षा केंद्र में बो कर आए हैं। आशा है ये आगे चलकर और बेहतरीन अकादमिक एवं सांस्कृतिक एक्सचेंज के रुप में परमपूज्य गुरुदेव के विजन के अनुरुप फलित होंगे।
हमारी फ्लाईट का समय हो चुका था। आते समय बिडगोश को अंतिम विदाई देते हैं। लगा कि मेहनतकश और भावनाशील पौलेंडवासी भौतिक विकास के साथ कुछ अधिक के हकदार हैं, जिसे यहाँ के सम्यक विकास के लिए दर्करार है। अपने हार्दिक भाव अपनी जगह, बाकि तो उस परमसत्ता की इच्छा है। इन्हीं भावों के साथ स्थानीय लुफ्तांसा हवाई जहाज में चढ़ते हैं व बिडगोस्ट से फ्रेंकफर्ट की ओऱ हवाई यात्रा शुरु होती है।
बिडगोश से उडान भरते ही हवाई जहाज से बिडगोश हवाई अड्डे के पास के हरे-भरे जंगल और शहर का सुन्दर नजारा जैसे हमें विदाई दे रहा था। जल्द ही हम बादलों के बीच पहुँच चुके थे। कभी बाँदलों के ऊपर तो कभी नीचे, आँख-मिचोली का खेल चलता रहा। नीचे पीछे छूटते
गाँव, खेत, कस्वे, नदियां विदाई के स्वर में कुछ कह रहे थे। हवा से दिख रहे सुदूर
नीले सागर का नजारा रास्तेभर रोमाँचित करता रहा।
बीच में ही चीज-ब्रेड और कॉफी का नाश्ता मिलता है। रास्ते में खिड़की से बाहर के दिलकश नजारों को मोबाईल से कैप्चर करते रहे। अंततः दो घंटे के बाद फ्रेंकफर्ट पहुँचते हैं, जिसका नजारा रास्ते में आसमाँ से बहुत दिलचस्पी से निहारते रहे। बलखाती सर्पिली मैन नदी के किनारे बसा फ्रेंकफर्ट महानगर व इसकी गगनचूम्बी ईमारतें आसमान से लुभाती रही। फिर हरे भरे जंगल के उपर से नीचे उतरते हुए जहाज फ्रेंकफर्ट हवाई पट्टी पर लैंड करता है, जो कि विश्व के सबसे बडे एयरपोर्ट में अपना स्थान रखता है।
फीड़र बस से हम हवाई अड्डे तक पहुँचते हैं और अंदर 3-4 किमी चलते
हुए हम अपने वेटिंग कक्ष तक पहुँचते हैं। अगली फ्लाइट में अभी छः-सात घण्टे बाकि थे, अतः यहाँ एयर इंडिया के वेटिंग कक्ष में इंतजार
करते हैं। यहाँ भारतीयों का जमाबड़ा देख अच्छा लगा। अधिकाँश यात्री दक्षिण भारत के
दिखे, फिर एशियन। विदेशी यहाँ कम ही थे। यहाँ पर हिंदी में घोषणा होते देख अच्छा
लगा। वेटिंग रुम में फोन चार्ज करने के स्थान को देखा। इंतजार की घडियों
में अब तक की यात्रा की जुगाली चलती रही। खाली समय का सदुपयोग करते हुए यहाँ
पर बने डेस्कनुमा प्लेटफार्म पर लेप्टॉप रखकर यात्रा के अपने अनुभवों को कलमबद्ध करते रहे। बीच में बोअर हुए, तो एक अखबार की बडी सी दुकान पर गए, जहाँ खाने-पीने
की चीजें भी मिल रही थीं। यहाँ सारा आदान-प्रदान यूरो में था। यहाँ पर ब्रेड सैंडविच और कॉफी का नाश्ता करते हैं, जिसका दाम ठीक ठाक था, जो भारतीय स्टैंडर्ड से काफी मंहगा था। कुल मिलाकर जर्मनी, पौलेंड से मंहगा प्रतीत हुआ।
इंतजार की घड़ियाँ पूरा होती हैं और हम देर रात को (27मई, 2019, सोमवार) फ्रेंकफर्ट से एयर इंडिया के हवाई जहाज में चढ़ते हैं। बापसी का अनुभव जाते समय के लुफ्तांसा के एकदम विपरीत रहा। एक तो सीट बीच की पंक्ति में मिली, जिसके कारण खिड़की से नीचे के नजारों से वंचित रहे। दूसरा यहाँ के किचन में बन रहे मांसाहारी डिश की बर्दाश्त से बाहर हो रही बू रास्तेभर परेशान करती रही। इसी के बीच किसी तरह से अपना डिन्नर पूरा किए।
जहाज लुफ्तांसा की तरह स्थिर भी नहीं था, बीच-बीच में बादलों के बीच कुछ लड़खड़ाता रहा। रास्ते में ही सुबह होती है, लेकिन बाहर के नजारे बीच की सीट से नदारद थे। इन्हें देखने के लिए खड़ा होना शिष्टाचार के खिलाफ लग रहा था। एयर होस्टेस के व्यवहार का स्तर भी अपटू मार्क नहीं था। लगभग आठ घंटे के सफर के बाद दिन के उजाले में दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरते हैं।
यहाँ बाहर निकलने पर बुद्ध भगवान की आशीर्वाद देती मुद्रा देखकर दिव्य भाव जगा, लेकिन आगे मुड़ते ही दारू एवं शराब की बोतलों से सजा रास्ता एवं स्टेचुनुमा
इनका महिमामण्डन करती महंगी दारू की बोतलें इन भावों पर तुषारापात करती अनुभव हुई। इन्हें देख भारत की छवि दारुवाज, पिय्यकड़ों की जैसी दिखी।
अभी तक किसी भी एयरपोर्ट पर ऐसी बेहुदगी का प्रदर्शन नहीं देखा था। लगा एयरपोर्ट ऑथोरिटी क्या दारुवाजों के हाथों बिक चुकी है, जिसे अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, पहचान एवं गौरव की तक कोई सुध नहीं है। इनका गरिमापूर्ण विज्ञापन भी हो सकता था, जिस ओर एअर पोर्ट ऑथोरिटी को ध्यान देने की जरुरत है।
खैर दिल्ली एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही हम सबसे पहले रास्ते में एक ढावे से बिस्लेरी की दो बोटल खरीदते हैं और पिछले आठ-दस दिन से प्यास से सुखे पड़े गले को तर करते हैं। लगा कि आज असल जल पी रहे हैं। रास्ते में झाल ढावे में देसी भोजन के साथ पेट भराऊ नाश्ता करते हैं और हरिद्वार में प्रवेश करते ही गंगाजी एवं हिमालय के दर्शन के साथ लगा कि अब घर पहुँच गए।
यात्रा के पिछले भाग आप नीचे दिए लिंक्स में पढ़ सकते हैं -
पोलैंड यात्रा, भाग-8, अकादमिक एक्सचेंज, भ्रमण एवं शाकाहारी व्यंजन
पोलैंड यात्रा, भाग-7. विद्यार्थियों से संवाद एवं पारंपरिक कॉफी का स्वाद
पोलैंड यात्रा, भाग-6, तोरुण के मध्यकालीन ऐतिहासिक शहर में
पोलैंड यात्रा, भाग-5,काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी में पहला दिन
Nice to read your Travelouge sir.
जवाब देंहटाएंGlad to know your feedback...!!
जवाब देंहटाएंSir bahut aacha likha h aapne.
जवाब देंहटाएंDhanyawad Chanchal, khushi huee jaankar!!
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