रविवार, 29 मार्च 2020

नवरात्रि साधना का व्यवहारिक तत्वदर्शन

नवरात्रि साधना का राजमार्ग
 
नवदुर्गा

 आजकल नवरात्रि का पर्व अपने पूरे जोरों पर है, आज इसका पांचवाँ दिन है, जो सकन्द माता के लिए समर्पित है। पहले दिन शैलपुत्री के रुप में साधक का संकल्प, ब्रह्मचर्य के तप में तपते हुए (ब्रह्मचारिणी), माँ चंद्रघंटा के दिव्य संदेशों को धारण करते हुए, माँ कुष्माण्डा से इस पिण्ड में व्रह्माण्ड की अनुभूति का वरदान पाते हुए आज बाल यौद्धा के रुप में माँ की गोद में जन्म लेता है। जो क्रमशः भवानी तलवार को धारण करते हुए (माँ कात्यायनी), सकल आंतरिक-बाहरी असुरता का संहार करते हुए (माँ कालरात्रि) एक महान रुपाँतरण (माँ गौरी) के बाद  अंतिम दिन सिद्धि (माँ सिद्धिदात्रि) को प्राप्त होता है।

यह नवरात्रि वर्ष में दो वार ऋतु संधि की वेला में आती है, जिसका विशिष्ट महत्व रहता है। यह तन-मन में ऋतु बदलाव के साथ होने वाले परिवर्तनों के साथ सूक्ष्म लोक में उमड़ते-घुमड़ते दैवीय प्रवाह के साथ जुडने एवं लाभान्वित होने का विशिष्ट काल रहता है। ऋषियों ने इसके सूक्ष्म स्वरुप को समझते हुए इस काल को विशिष्ट साधना से मंडित किया। गायत्री परिवार में नैष्ठिक साधक चौबीस हजार का एक लघु अनुष्ठान करते हैं, जिसमें प्रतिदिन 27 से 30 माला का जप किया जाता है, जिसकी पूर्णाहुति दशांश हवन के साथ होती है। शक्ति उपासक इस दौरान दुर्गासप्तशती के परायण के साथ भगवती की उपासना करते हैं।
 
माँ ब्रह्मचारिणी

इस पृष्ठभूमि में नवरात्रि की साधना के व्यवहारिक तत्वदर्शन को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है, क्योंकि प्रायः लोगों को एक हठयोगी की भाँति नौ दिन उग्र तप करते देखा जाता है, जिसमें कुछ भी बुराई नहीं है। लेकिन नौ दिन के बाद उनके जीवन में क्या परिवर्तन आया व आगे कितना इसको मेंटेन रखा, देखने पर अधिकाँशतः निराशा होती है। अनुष्ठान के बाद फिर येही साधक ऐसा जीवन यापन करते देखे जाते हैं, जिसका साधना से कोई लेना देना नहीं होता। जैसे कि साधना नौ दिन का एक कृत्य था, जिसे पूरा होते ही फिर खूंटी पर टाँग कर रख दिया और अब इसे अगली नवरात्रि में फिर धारण करना है।
 
इसमें चूक शायद हमारी अध्यात्म तत्व एवं साधना की व्यवहारिक समझ का रहता है। नवरात्रि साधना की पूर्व संध्या पर जब संकल्प लिया जाता है, तो उसमें माला का संकल्प तो रहता है, कुछ मौटे-मौटे नियमों को पालन का भी भाव रहता है, लेकिन जीवन साधना को समग्र रुप में निभाने का इसमें प्रायः अभाव देखा जाता है। परमपूज्यगुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा ने अध्यात्म को जीवन साधना कहा है, जिसमें उपासना, साधना, अराधना की त्रिवेणी का संगम रहता है। यह जीवन की समग्र समझ के साथ किया गया पुरुषार्थ है, जीवन के किसी एक अंश को लेकर किया जा रहा हठयोग नहीं। यह एक राजमार्ग है, जिसके परिणाम दूरगामी होते हैं, जो दूरदर्शी संकल्प के साथ सम्पन्न होता है।
 
माँ कुष्माण्डा

यह व्यक्ति का अपने ईमानदार मूल्याँकन के साथ शुरु होता है, कि वह खड़ा कहाँ है। अनुभव यही कहता है कि माला की संख्या चाहे तीन ही हो, लेकिन जीवन साधना 24 घंटे की होनी चाहिए। समाज में ही नहीं, एकांत में साधक के पल सोते-जागते होशोहवाश में बीतने चाहिए। इसमें स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन-मनन का सघन पुट होना चाहिए। कसा हुआ आहार-विहार, कसी हुई दिनचर्या, सधा हुआ सकारात्मक-संतुलित वाणी-व्यवहार और आदर्शां में सतत निमग्न भाव चिंतन। बिना महापुरुषों के संसर्ग एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग के यह कहाँ संभव हो पाता है। बिना उच्चतर ध्येय के तप-साधना मात्र अहं के प्रदर्शन एवं प्रतिष्ठा का एक छद्म प्रयोग भर होता है, जिसके वारे में प्रायः साधक शुरुआती अवस्था में स्वयं भी भिज्ञ नहीं होते। लेकिन तत्वदर्शी सारी स्थिति को समझ रहे होते हैं।
 
माँ सकन्दमाता

इस समझ के अभाव में नौरात्रि में लोगों को ऐसे कृत्यों को साधना मानने की भूल करते देखा जाता है, जिनका जीवन साधना, जीवन परिष्कार, चित्तशुद्धि से अधिक लेना देना नहीं होता। जैसे मौनव्रत। एक विद्यार्थी, एक शिक्षक, एक गृहस्थ, एक व्यवसायी, एक सामाजिक प्राणी के लिए यह संभव नहीं होता। इस मौन को मेंटेन करने में जितना चक्कलस उठाना पड़ता है, उसमें जीवन की शांति, स्थिरता सब भंग हो रही होती है। कुछ इस बीच कोई काम नहीं करने को अपनी महानता मान बैठते हैं। जबकि स्वधर्म का पालन, कर्तव्य निष्ठ जीवन ऐसे में साधना की सबसे बडी कसौटी होती है। साधना जीवन से पलायन नहीं, इसकी चुनौतियों का सामना करने की तैयारी होती है।
 
इसी तरह भूखे प्यासे रह कर, ठंड व गर्मी में शरीर को अनावश्यक रुप में तपाकर-कष्ट देकर, एक आसन में शरीर को तोड़ मरोड़ कर किए जाने वाले हठयौगिक प्रयोगों का जीवन साधना से अधिक लेना देना नहीं रहता। कुछ पहुँची हुई आत्माएं इसका अपवाद हो सकती हैं, लेकिन सर्वसाधारण के लिए ये प्रयोग अपनी समग्रता में नामसमझी भरे कदम ही रहते हैं।

क्योंकि नवरात्र साधना का उद्देश्य जीवनचर्या को, आहार-विहार, विचार-व्यवहार को ठोक-पीट कर ऐसे आदर्श ढर्रे में लाना है कि वह जहाँ खड़ा है, उससे एक पायदान ऊपर उठकर अगले छः माह जीवन को उच्चतर सोपान पर जी सके। यह चरित्र निर्माण की सूक्ष्म एवं ठोस प्रक्रिया है, जो क्रमिक रुप में शनै-शनै मन को अधिक शांत, स्थिर, सशक्त एवं सकारात्मक अवस्था की ओर ले आए। ये साधना की व्यवहारिक कसौटियाँ हैं। यदि साधना व्यक्ति को इस ओर प्रवृत कर रही है, तो उसके सारे प्रयोग सार्थक माने जाएंगे। 
 

और यदि नवरात्रि के बाद भी व्यक्ति की आदतों में सुधार नहीं हो रहा, जीवन शैली उसी ढर्रे पर रहती है, चिंतन सकारात्मक नहीं होता, जीवन कुण्ठाओं एवं घुटन से भरा हुआ है, भावनाएं उदात नहीं हो रही, अपने ईष्ट आराध्य एवं सद्गुरु के प्रति अनुराग नहीं बढ़ रहा, तो फिर गहन आत्म-समीक्षा की आवश्यकता है। 
 
माँ सिद्धिदात्रि
 नवरात्रि साधना बिना अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग किए देखासुनी महज एक हठयौगक क्रिया भर नहीं है, यह तो साधक को जीवन के परमलक्ष्य की ओर प्रवृत करने वाले राजमार्ग पर चलने का नाम है, जिसके व्यवहारिक मानदण्डों को साधक गुरु के बचनों एवं शास्त्रों के सार को समझते हुए स्वयं अपनी स्थिति के अनुरुप निर्धारित करता है।
 
    दुर्गासप्तशति भगवती के उपासकों के बीच एक लोकप्रिय ग्रंथ है, जिसमें भगवती के नौ स्वरुपों का वर्णन इस प्रकार से है -
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्रीनवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।।
 
माँ दुर्गा

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