अध्यात्म शरणं
गच्छामि
आस्था जीवन की आध्यात्मिक संभावनाओं से उत्पन्न विश्वास का नाम
है, जो अपने से श्रेष्ठ एवं विराट सत्ता से जुड़ने
पर पैदा होता है। इसे अस्तित्व का गहनतम एवं उच्चतम
आयाम कह सकते हैं, जहां से जीवन के
स्थूल एवं सूक्ष्म आयाम निर्धारित, प्रभावित एवं प्रेरित होते हैं। जीवन का
उत्कर्ष और विकास आस्था क्षेत्र के सतत
सिंचन एवं पोषण से संभव होता है। यदि आस्था पक्ष सुदृढ़ हो तो व्यक्ति जीवन की चुनौतियों
का हंसते हुए सामना करता है, प्रतिकूल
परिस्थितियों के साथ बखूबी निपट लेता है। सारी सृष्टि को ईश्वर की क्रीड़ा-भूमि मानते हुए वह एक खिलाड़ी
की भांति विचरण करता है। लेकिन आस्था पक्ष दुर्बल हो, तो जीवन बोझिल हो जाता है, इसकी दिशाएं धूमिल हो जाती हैं, इसमें
विसंगतियां शुरू हो जाती हैं और जीवन अंतहीन संकटों व समस्याओं से आक्रांत हो जाता है।
आज हम आस्था संकट के ऐसे ही विषम दौर से गुजर रहे हैं, जहां एक ओर विज्ञान ने हमें चमत्कारी शक्तियों व
सुख-सुविधाओं से लैस कर दिया है, वहीं दूसरी ओर हम अपनी आस्था के स्रोत से विलग हो
चले हैं। ऐसे में जीवन का अर्थ भौतिक
विकास, भोग-विलास, सुख-साधन एवं सांसारिक चमक-दमक तक सीमित
हो चला है, जिसके लिए व्यक्ति
कोई भी कीमत चुकाने व नैतिक रूप में गिरने को तैयार रहता है। परिणामस्वरूप जीवन के बुनियादी
सिद्धांतों की चूलें हिल रही हैं और इन पर
टिके रहने वाली सुख-शांति, सुकून एवं निश्चिंतता
के भाव दूभर हो चले हैं। आस्था स्रोत से
कटा जीवन जहां भार स्वरूप हो चला है, वहीं अपने समाज-संस्कृति व परिवेश रूपी जड़ों से
कटने के दुष्परिणाम नाना प्रकार के
संकटों
के रूप में मानवीय अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं।
आस्था संकट के कारण व्यक्ति का प्रकृति के प्रति श्रद्धा एवं
सम्मान का भाव लुप्त होता जा रहा है, वह इसे भोग्य वस्तु मानता है, जिसके दोहन एवं शोषण से वह कोई गुरेज नहीं करता। ऐसे में
पृथ्वी, जल, वायु, आकाश
जैसे जीवन के आधारभूत तत्व दूषित
हो रहे हैं। इससे उपजे पर्यावरण संकट एवं कुपित प्रकृति की मार से मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़
रहा है। आस्था की जड़ें सूखने से जहां जीवन अर्थहीन हो
रहा है, वहीं परिवार में तनाव, कलह एवं बिखराव का माहौल है। सामाजिक ताना-बाना विखंडन की
ओर बढ़ रहा है। पूरा विश्व आस्था के
अभाव
में अंतहीन कलह, संघर्षों के कुचक्र
में उलझा हुआ है।
व्यक्ति एवं समाज को आस्था की डोर से जोड़ने वाला धर्म तत्व आज
स्वयं विकृति का शिकार हो
चला है। धर्म को जीवन के शाश्वत विधान की बजाय संप्रदाय के संकीर्ण दायरे से जोड़कर देखा जाने
लगा है, जो महज कर्मकांड तक
सीमित होकर आत्माहीन स्थिति
में दम तोड़ रहे हैं। इनसे उपजी विकृत आस्था व्यक्ति को एक बेहतर इंसान बनाने की बजाय
अंधविश्वासी, कट्टर, असहिष्णु एवं हिंसक बना रही है। ऐसी विकृत आस्था के चलते
व्यक्ति ईश्वर को भी मूढ़, खुशामद प्रिय मान बैठा है, जिसको वह बिना तप-त्याग एवं पुण्य के
कुछ भेंट-भोग चढ़ाकर, चापलूसी के सहारे प्रसन्न करने की
चेष्टा करते देखा जा सकता है।
धर्म के नाम पर ऐसी विकृत आस्था के दिन वास्तव में अब लदते दिख
रहे हैं। व्यक्तिगत एवं
सामाजिक स्तर पर ठोस सुख-शांति एवं प्रगति को तलाशती मानवीय चेतना, धर्म
के विकृत स्वरूप से असंतुष्ट होकर इसके आध्यात्मिक पक्ष की ओर उन्मुख हो चुकी है। आश्चर्य नहीं कि आज
अध्यात्म सबसे लोकप्रिय विषयों में
शुमार
है, जिसकी ओर जागरूक
लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है। इसे अस्तित्व
के संकट से गुजर रही मानवता की, जीवन के सही अर्थ की
खोज में आस्था के स्रोत से
जुड़ने की खोजी यात्रा कह सकते हैं।
इसे व्यक्ति के अपनी आस्था के मूल धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप
से जुड़ने की व्यग्र चेष्टा के रूप में देखा जा सकता
है, जहां हर धर्म अपने
शुरुआती दौर में अपने विशुद्धतम रूप में
मानवमात्र के कल्याण के लिए प्रकट हुआ था। आज की पढ़ी-लिखी, प्रबुद्ध पीढ़ी धर्म एवं अध्यात्म के
व्यावहारिक, वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील स्वरूप को जानना चाहती है, जो व्यक्ति को खोया हुआ सुकून दे सके और आपसी प्रेम, सद्भाव एवं शांति के साथ समाज में बेहतर
माहौल दे सके।
यही आस्था उसे उस काल-कोठरी से बाहर निकाल पाएगी, जहां उसका दम घुट रहा है, जहां उसे अंधेरे में कुछ सूझ नहीं रहा।
जहां वह अंधेरे में अज्ञात भय एवं असुरक्षा के भाव से
आक्रांत है। जहां जीवन की उच्चतर संभावनाएं दम तोड़ रही हैं,
जीवन
के श्रेष्ठ मूल्य एवं पारमार्थिक भाव गौण हो चुके हैं, जीवन नारकीय यंत्रणा में झुलस रहा है। चेतना
के संकट से गुजर रहे इस विषम काल में आवश्यकता आस्था
के दीपक को जलाने की है, सुप्त मानवीय चेतना
एवं दैवीय संभावना को जगाने की
है। हर जाग्रत नागरिक एवं भावनाशील व्यक्ति अपनी ईमानदार एवं साहसिक कोशिश के आधार पर इस
दिशा में अपना योगदान दे सकता है। (दैनिक ट्रिब्यून, 24नवम्बर,2019 को प्रकाशित)