लगे जब जिंदगी बन गई खेल-तमाशा
जहाँ से चले थे, आज वहीं खडा पा रहे।।
चले थे आदर्शों के शिखर नापने,
घाटी, कंदरा, बीहड़ व्यावन पार करते-करते,
छोटे-मोटे शिखरों को नापते,
यह क्या, आज वहीं खड़े, जहाँ से थे चल पड़े।।
मिला साथ, कारवाँ बनता गया,
लेकिन सबकी अपनी-2 मंजिल, अपना-2 रास्ता,
साथ चलते-चलते कितने बिछुड़ते गए,
यह क्या, जहाँ से चले थे, आज वहीं खड़ा पा रहे।।
ईष्ट-आराध्य-सद्गुरु सब अपनी जगह,
उन्हीं की कृपा जो आज भी चल रहे,
लेकिन दृष्टि से औझल जब प्रत्यक्ष उपस्थिति,
इस तन का क्या भरोसा, ढलता सूरज यह तो,
मन कल्पना लोक में विचरण का आदी,
चित्त शाश्वत बक्रता संग अज्ञात अचेतन से संचालित,
आदर्शों के शिखर अविजित, मैदान पड़े हैं खाली।।
ये भी गजब दौर-ए-ठहराव जिंदगी के,
जब लगे जीवन बन गया एक खेल तमाशा।
येही पल निर्णायक साधना समर के,
बन खिलाड़ी गढ़ जीवन की नई परिभाषा।
धारण कर धैर्य अनन्त, परापुरुषार्थ, आशा अपार,
जब लगे जीवन बन गया एक खेल तमाशा।
येही पल निर्णायक साधना समर के,
बन खिलाड़ी गढ़ जीवन की नई परिभाषा।
धारण कर धैर्य अनन्त, परापुरुषार्थ, आशा अपार,
बढ़ता चल परम लक्ष्य की ओर, जो अंध अचेतन के उस पार।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें