सोमवार, 17 जून 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-2




बिडगोश शहर का पहला दिन, पहला परिचय

                  
बिडगॉश – छोटा सा एयरपोर्ट, लेकिन कितना सुंदर। चारों और ऊँचे-ऊँचे पाईन ट्री से घिरा। यहाँ के पाईन ट्री इस तरह से नीचे से तराशे होते हैं कि इनका ऊपरी हिस्सा ही घनी हरि पत्तयों से भरी टहनियों से लदा होता है। निसंदेह रुप में ये हमारे चीड़ के पेड़ों से अधिक समार्ट लगते हैं व सुंदर भी। इनमें कुछ-कुछ देवदार की झलक मिलती है।
 यहाँ लुफ्तांसा के रिजनल यान से उतरकर विडगोश हवाई अड्डे के अंदर आते हैं, दिल्ली एयरपोर्ट से चढ़ा अपना लगेज एकत्र करते हैं।


बाहर काजिमीर विल्की यूनिवर्स्टी के इंटरनेशनल रिलेशन विभाग की मेडेम अग्नयशिका चालक के साथ हमारे स्वागत के लिए खड़ी थी। इनका नाम हिंदी के अग्नि और यशिका शब्दों से जोड़कर हमारे लिए याद रखना आसान रहा। हमारा पहला संवाद इन्हीं से होता है। इनका आत्मीय संवाद एकदम नए एवं अपरिचित परिवेश की हमारी स्वाभाविक दुबिधा को हल्का कर देता है। बातचीज से पता चला कि ये भारत आ चुकी हैं, हमारे ही विश्वविद्यालय में कुछ दिन रुक चुकी हैं, जिसे ये भावपूर्ण याद कर रही थींं। 
एयरपोर्ट के करेंसी एक्सचेंज सेंटर पर यूरो को ज्लोटी में कन्वर्ट करते हैं। ज्ञातव्य हो कि पोलेंड की मुद्रा ज्लोटी है, जो भारतीय 18 रुपयों के बराबर होती है। वहीं 4.5 ज्लोटी मिलकर 1 यूरो के बराबर होते हैं। और 1 यूरो 78 रुपयों के लगभग होता है। ज्लोटी का छोटा अंश ग्रौजी है। आगामी आदान-प्रदान हमारा ज्लोटी एवं ग्रोजी में होना था, जिससे परिचित होने में कुछ समय लगने वाला था।


एयरपोर्ट से हमारे गन्तव्य स्थल के बीच शहर के जो दिग्दर्शन हुए वह हमारे दिलो-दिमाग पर गहरे अंकित हुए। आगामी दिनों में भी शहर एवं कस्वों के जो भ्रमण किए, एक बात स्पष्ट थी कि यहाँ पर सब चीजें सुव्यवस्थित दिखती हैं, शहर में भवन निर्माण योजना के तहत होते हैं। बीच में पर्याप्त स्पेस दिया जाता है, जिसमें वृक्ष एवं हरियाली के लिए भी उपयुक्त स्थान रहता है। 



इनके सामने अपने देश में अधिकाँश शहरों का बिना प्लानिंग के कुकरमुत्तों की तरह भवनों का खड़ा होना, हरियाली का अभाव और घिच-पिच आबादी। हम धर्म-अध्यात्म एवं आदर्शों की कितनी ही ऊँची बातें क्यों न कर लें, हम अभी बाहरी व्यवस्था के मामले में बहुत पिछड़े हुए हैं। लगता है हम अभी अध्यात्म का पहला पाठ स्वच्छता-सुव्यवस्था सही ढंग से नहीं सीख पाए हैं, जिसे हम यहाँ के जनजीवन से कदम-कदम पर अनुभव करते गए। इसके साथ ही श्रम की गरिमा यहाँ एक बड़ी चीज दिखी, जिसकी चर्चा हम आगे उपयुक्त संदर्भ के साथ करना चाहेंगे।
सो कुल मुलाकर पहली झलक में शहर हमारे दिल को भा गया। यहाँ की सफाई, प्लांनिंग, सबसे ऊपर प्रकृति के साथ भवनों का संयोजन। लगा तवीयत से शहर बनाया गया है। 
यहाँ का ट्रैफिक अनुशासन भी काबिले तारीफ लगा, जिसके अपने देश में दर्शन दुर्लभ हैं। यदि आप सड़क में जेबरा क्रासिंग पर पैर रख दिए तो वाहन खुद व खुद यथास्थान रुक जाते हैं, और आपके पार होने के बाद ही आगे बढ़ते हैं। 

लेकिन यह सब एक अघोषित अनुशासन के अंतर्गत होता है। इसके लिए आप सड़क कहीं से भी पार नहीं कर सकते। पैदल यात्रियों को जेबरा क्रॉसिंग से होकर सड़क पार करनी होती है। इसके सामने अपने देश की ट्रेफिक अनुशासन की स्थिति भयावह है, दिल दहला देने वाली है। कब कौन सी गाड़ी क्रोसिंग पर आपको ठोक दे, रौंद दे, ठिकाना नहीं। देखकर लगा हमें पब्लिक अनुशासन के क्षेत्र में बहुत कुछ सीखने की जरुरत है।
काजीमिर विल्कि यूनिवर्सिटी का मुख्य कैंपस रास्ते में दायीं ओर पड़ा, जो प्राकृतिक छटा के बीच बसा बहुत सुंदर परिसर है।


यहाँ दो तरह के परिचित वृक्ष पर्याप्त मात्रा में दिखे। एक मैपल ट्री, जिसका पत्ता कनाडा का राष्ट्रीय प्रतीक है और दूसरा फूलों से लदा जंगली चेस्टनेट (खनोर), जिनके फल हमारे हिमालयन जंगलों में लंगूल व बंदर खाते हैं, जबकि यहाँ बंदर व लंगूरों का सर्वथा अभाव दिखा। यहाँ का सबसे कॉमन पक्षी कबूतर दिखा, जिसे आप किसी भी पार्क में, सार्वजनिक स्थल पर झुंड़ों में चुगते व गुटरगूँ करते देख सकते हैं। यह इंसान से बिल्कुल भय नहीं खाता। ऐसा क्यों है, अभी यह जानना शेष है।
हमारे रुकने कि व्यवस्था यूनिवर्सिटी से वॉकिंग डिस्टेंस पर एक होटेल में थी, जहाँ हमारा परिचय एक बुजुर्ग व्यक्ति से होता है, तो पोलिश में अग्नियशिका से बात करता है, ठहरने की व्यवस्था होती है।
बरामदे में आते ही लाईट खुद-व-खुद जल जाती। यहाँ यात्रियों के अलग-अलग रुम की उम्दा व्यवस्था थी, लेकिन किचन कॉमन था, जहाँ के फ्रिज में आप अपना-अपना सामान रखकर उपयोग कर सकते थे। गर्म पानी व चाय-कॉफी के लिए इलैक्ट्रिक कैटल व पकाने के लिए इंडक्शन चूल्हा। आवश्यक ग्लास, क्रोक्रीज एवं वर्तन अलमारी में कई आकार एवं रंग में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे।



रुम डेकोरेशन देखने लायक थी। कमरे के कौन में एक सीसे के वर्तन में सूखी टहनियाँ बहुत खूब लगीं। लगा जैसे सेब की सूखी टहनियों को पेड़ों की प्रूनिंग के बाद रखा गया हो। टेवल पर सूखे फल, जिसका नाम-पता हम नहीं लगा पाए। किचन में खिड़कियों पर चिडियों के जोड़े, बाथरुम में सीप, दिवालों पर सुंदर फूलों के पत्ते व पंखुड़ियाँ, कमरे में झालर में टंगे बल्व – सब मिलाकर ट्रेडिशन एवं आधुनिकता का अद्भुत संयोजन कर रहे थे।

और खिड़की के बाहर सुंदर हरे-भरे लॉन एवं क्रिसमिस ट्री। सब मिलाकर इंटीरियर एवं एक्सटीरियर डिजायनिंग का एक खुबसूरत संयोजन यहाँ देखने को मिला। लगा कि आधुनिकता के साथ ट्रेडिशन का संयोजन कितना आकर्षक एवं मनभावन हो सकता है। 
अपनी परम्परा के श्रेष्ठ तत्वों के प्रति गौरव का भाव अपने पूर्वजों के अनुभव व ज्ञान का सम्मान है, इन्हें हीन मानकर दूसरों के तौर-तरीकों की अंधी नक्ल किसी भी रुप में समझदारी वाला कदम नहीं माना जा सकती।


यहाँ टायलेट में पानी की जगह कागज का चलन अधिक दिखा। खाने के बाद भी वाशबेसिन की जगह, पेपर का उपयोग अधिक होता है। शायद एक तो यहाँ चम्मच व काँटे से भोजन का चलन है, हाथ अधिक गंदे नहीं होते। दूसरा शायद ये पानी की बचत अधिक करने में विश्वास करते हैं। हालाँकि हम अंत तक प्यास बुझाने वाले प्राकृतिक जल के लिए तरसते रहे। यहाँ सोड़ा युक्त मिनरल वाटर का चलन अधिक दिखा, जिसका स्वाद खारेपन लिए होता है। यदि खारेपन लिए नहीं भी है, तो भी वेस्वादु सा लगता है।
शाम को जब पास की दुकान में सामान खरीदने गए, तो यह हमारा यहाँ का पहला पर्चेजिंग अनुभव था। दुकान खाने-पीने की हर तरह की चीजों से भरी थी। चीजों का नाम पोलिश में था, लेकिन दाम के अंक पढ़ सकते थे। दुकानदार अंग्रेजी नहीं जानती थी। सामान पर रेट लिखा था।


अपनी पसंद की चीज सेलेक्ट कर टोकरी में भरकर काउंटर पर ले आए। लेजर स्कैनर से बिल कम्प्यूटर पर चढ़ जाता, जोड़ बिल में प्रिंट होता। इस संख्या देखकर काम चल जाता। शुरु में जलोटी व ग्राउजी का अंतर समझने में एक-दो दिन लग गए। दुकान पर अम्माजी से परिचय हो गया था, जो स्वभाव से बहुत अच्छी थी। भाषा का बैरियर अवश्य रहा, लेकिन भावनात्मक संवाद एवं समझ के आधार पर काम चलता रहा।
यहाँ के लोग पहली नजर में देखने पर गंभीर लगते हैं, शायद भाषा का वैरियर एक कारण रहता हो। लेकिन एक बार परिचय होने पर, घुलमिल जाते हैं। हमारा अनुभव पोलिश लोगों से बहुत अच्छा रहा, सब ईमानदार एवं अच्छे इंसान लगे। जहाँ भी जरुरत पड़ी, सहज रुप में सहयोग मिलता रहा, जिसका उदाहरण आगे उचित संदर्भ के साथ करेंगे।
यहाँ सेब फल को देखकर मेरा रोमांचित होना स्वाभाविक था। इस संदर्भ में कुछ जानकारी बटोरना चाहता था। पौलेंड विश्व में सेब-उत्पादन में चौथा स्थान रखता है। जो सेब इस समय मार्केट में था वह दो जलोटी यानि 36 रुपए में 1 किलो मिला। जब रुम में आकर धोकर इसे चखा, तो तत्काल इसका फैन हो गया। सेब इतना रसीला, मीठा व क्रंची था कि यह अपना नित्यप्रति का साथी बन गया। घर पर बागवान भाईयों से चर्चा कि तो पता चला कि यह गाला सेब की किस्म थी। 

बाद में मार्केट में सेब की विभिन्न किस्में दिखी। पता चला कि विंटर सेब, जो स्वाद में खट्टे होते हैं व रंग में हरे, यहाँ अधिक मंहगे बिकते हैं। ये लाल व मीठे सेबों से तीन गुणा अधिक दाम में बिक रहे थे। भारत की स्थिति इसके उलट है। अपने यहाँ पैमाना सेब का लाल रंग रहता है, इसकी पौष्टिकता नहीं।
यहाँ अपने काम का भोजन ब्रेड और मिठी दही लगी, जिसे यहाँ योगहर्ट कहते हैं। चीज भी यहाँ बहुतायत में मिलता है, लेकिन यह अपनी पहली पसंद न रही। दुकान पर भी सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं। सामान के साथ थैले रखे होते हैं, साथ ही ब्रेड के किनारे गलब्ज, जिन्हें पहनकर इन्हें थेले में रखना होता है, जिससे कि हाथ में किसी तरह की गंदगी व इंफेक्शन इन खाद्य पदार्थों में संक्रमित न हो।
पहली रात नींद अच्छी नहीं आई। शायद नए परिवेश में नया विस्तर व कमरा मुख्य कारण था। फिर तकिया व गद्दा कुछ ज्यादा ही आरामदायक लगा।
फिर रात को 9, 9.30 तक अंधेरा और प्रातः 3,15 बजे से यहाँ चिड़ियों का चहचाना। चार बजे तक उजाला हो जाता है। 5 बजे तक सूरज निकल जाता है। इस तरह रातें बहुत छोटी, मुश्किल से 6-7 घंटे की रहीं। हम धीरे-धीरे यहाँ के दिन-रात के ऋतु चक्र से परिचित होते हैं व इसके अनुरुप ढलने की कोशिश करते हैं।

यहाँ मोबाईल या लैपटॉप चार्ज करने के लिए भारतीय दो या तीन पिन वाला प्लग नहीं चलता, क्योंकि यहाँ का सोकेट अलग तरह से होता है, जिसमें यूनिवर्सल चार्जर को लगाकर ही काम हो सकता है। इसको सोकेट में फिट कर फिर इसके छिद्रों में भारतीय प्लग लग जाते हैं व मोबाईल या लैप्टॉप चार्जिंग का काम बखूबी होता है। साथ ही पावर बैंक ऐसे सफर का एक अभिन्न हमसफर होता है, जिसको साथ ले जाना हमे पग-पग पर साथ देता रहा।
अगले दिन की शाम, हमारी बिडगोस्ट शहर की गलियों से पैदल भ्रमण करते हुए यहाँ के ह्दयक्षेत्र वर्दा नदी पर बसे मिल्ज आइसलैंड के नाम थी, जिसका जिक्र अगली पोस्ट में करेंगे।(जारी...)
   यात्रा का अगला हिस्सा आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-3,बिडगोश शहर के ह्दयक्षेत्र में पहली शाम..

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