प्रकृति की सच्चे पुत्र बनकर जीने में ही समझदारी
पिछले दशकों में प्राकृतिक जल स्रोत्र जिस तरह से
सूखे हैं, वह चिंता का विषय रहा है। अपना जन्म स्थान भी इसका अपवाद नहीं रहा। मेरा
गाँव मेरे देश के तहत हम पिछले चार-पाँच वर्षों से इस विषय पर कुछ न कुछ
प्रकाश डाल रहे हैं। साथ ही इससे जुड़ी विसंगतियों एवं संभावित समाधान की चर्चा
करते रहे हैं।
गाँव का पुरातन जल स्रोत - नाला रहा, जिसकी गोद में
हमारा बचपन बीता। इसका जल हमारे बचपने के पीने के पानी का अहं स्रोत था, फिर गाँव
में नल के जल की व्यवस्था होती है। साथ ही गाँव के छोर पर चश्में का शुद्ध जल (लोक्ल
भाषा में जायरु) हमेशा ही आपात का साथी रहा है। नाले पर बना सेऊबाग झरना गाँव का
एक अहम् आकर्षण रहा, जिसके संग प्रवाहमान जीवन की चर्चा होती रही है। लेकिन पिछले
दशकों में इस झरने को वर्ष के अधिकाँश समय सूखा देखकर चिंता एवं दुख होता रहा और
पिछले दो साल से इसके रिचार्ज हेतु कार्य योजना पर प्रयास चल रहा है।
हालाँकि अभी समस्या इतना गंभीर भी नहीं थी,
क्योंकि यह प्राकृतिक से अधिक मानव निर्मित रही। क्योंकि खेतों की सिंचाई को लेकर
जिस तरह से पाईपों का जाल बिछा और नाले के जल को खेतों तक पहुँचाया जा रहा है,
दूसरा पारंपरिक रुप से जल अभाव से ग्रस्त पड़ोस की फाटी की जल आपूर्ति के लिए पीछे
से ही जल का बंटवारा हो रहा है, तो ऐसे में नाले का सूखना स्वाभाविक था। लेकिन दो
वर्ष से हम इसके मूल स्रोत्र का मुआइना किए, तो दोनों बार, मूल झरने के जल को
न्यूनतम अवस्था में देखकर दुःख हुआ, जिसके कारण नीचे की ओर दोनों जल धाराएं सूखी मिलीं।
जो थोड़ा बहुत जल था वह अंडरग्राऊँड होकर नीचे नाले में प्रकट होता था और पाईपों
के माध्यम से खेतों में जा रहा था। और नीचे का सेऊबाग झरना नाममात्र की नमी के साथ
सूखा ही मिला।
इस बार जुलाई में जिस तरह की बरसात हुई, तो गाँव
के नाले व झरनों को पूरे श्बाव पर देखा।
इसके बाद सर्दियों में जिस तरह की रिकार्डतोड़
बारिश और बर्फवारी हुई, उसने जैसे जल स्रोत्रों को पूरी तरह से रिचार्ज कर दिया।
अप्रैल माह में हुई हमारी संक्षिप्त यात्रा के दौरान नाले के पानी को नीचे व्यास
नदी तक दनदनाते हुए बहते हुए देख अत्यन्त हर्ष हुआ। सेऊबाग झरना लगातार पिछले छः
माह से पूरे श्बाब पर झर रहा है, जैसे इसको पुनर्जीवन मिला हो, खोया जीवन बापिस आ
गया हो। नाले के ईर्द-गिर्द निर्भर जीव-जंतुओं, वनस्पतियों से लेकर इंसान के जीवन
में जैसे एक नया प्राण लहलहा उठा हो।
इसके मूल में पीछे प्रवाहित हो रहे झरने व
जलधाराओं को देखने के लिए जब गए तो पनाणी शिला के मूल झरने को भी पूरे श्बाब के
साथ झरते हुए देखकर हर्ष हुआ। नीचे जल की दोनों धाराएं बहती हुई दिखी, जो पिछले दो
वर्षों से नादारद थीं। पूरा नाला दनदनाते हुए बह रहा था। लगा जैसे महाप्रकृति
कितनी समर्थ है, एक ही झटके में कैसे वह अपने अनुदानों से त्रस्त इंसान एवं जीवों
की व्यथा का निवारण कर सकती है। उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं।
लेकिन यहाँ मात्र प्रकृति के भरोसे बैठे रहने और
अपने कर्तव्य से मूँह मोड़ने से भी काम चलने वाला नहीं। प्रकृति के वरदान एक तरफा
नहीं हो सकते। मनुष्य ने पहले ही प्रकृति के साथ पर्याप्त खिलवाड़ कर इसे कुपित कर
रखा है, इसका संतुलन बिगाड़ दिया है, और दूषित करने से बाज नहीं आ रहा, इसका दोहन
शौषण करने पर उतारू है। ऐसे में वह इसके कोप से नहीं बच सकता। कितने रुपों में
इसके प्रहार हो रहे हैं और आगे भी होंगे, इसके लिए तैयार रहना होगा।
जो अभी अपने गाँव-घाटी में समाधान की उज्जली किरण
दिखी है, वह प्रकृति की कृपा स्वरुप है। लेकिन यह सामयिक ही है। सिकुड़ते बनों और
सूखते जल स्रोत्रों की समस्या यथावत है। गर्मियों में इसके अस्ली स्वरुप के दर्शन
होने बाकि हैं। सारतः इस दिशा में लगातार प्रयास की जरुरत है। जब प्रकृति इस वर्ष
की तरह अनुकूल न हो, उस स्थिति के लिए भी तैयार रहना होगा। उस विषमतम परिस्थिति
में अधिक से अधिक किया गया वृक्षारोपण, जल संरक्षण के लिए किए गए प्रयोग ही काम
आएंगे। इस दिशा में हर क्षेत्र के जागरुक व्यक्तियों को आगे आकर दूरदर्शिता भरे
कदम उठाने होंगे, जिससे कि संभावित संकट से निपटने की पूर्व तैयारी हो सके।
सार रुप में प्रकृति के सामयिक उपहार अपनी जगह,
समस्या की जीर्णता को देखते हुए समाधान के मानवीय प्रयास अपनी जगह, जो रुकने नहीं
चाहिए। इसमें लापरवाही और चूक भारी पड़ सकती है। कुल मिलाकर प्रकृति से जुड़कर,
इसकी सच्ची संतान बनकर जीने में ही हमारी भलाई है, समझदारी है।
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