चेतना(आत्मा) विशुद्ध तत्व है। चित्त उसका एक गुण है। इच्छाएं,
कामनायें यह चित्त हैं, प्रवत्तियाँ हैं, किंतु आत्मा नहीं, इसलिए जो लोग शारीरिक
प्रवृत्तियों काम, भोग, सौंदर्य सुख को ही जीवन मान लेते हैं, वह अपने जीवन धारण
करने के उद्देश्य से भटक जाते हैं। चेतना का जन्म यद्यपि आनन्द, परम आनन्द, असीम
आनन्द की प्राप्ति के लिए ही हुआ है, तथापि यह चित्तवृत्तियाँ उसे क्षणिक सुखों
में आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करती हैं, मनुष्य इसी सांसारिक काम-क्रीड़ा में व्यस्त
बना रहता है, तब तक चेतना अवधि समाप्त हो जाती है और वह इस संसार से दुःख,
प्रारब्ध और संस्कारों का बोझ लिए हुए विदा हो जाता है। चित्त की मलीनता के कारण
ही वह अविनाशी तत्व, आप आत्मा बार-बार जन्म लेने के लिए विवश होते हैं और परमानन्द
से वंचित होते हैं। सुखों में भ्रम पैदा करने वाला यह चित्त ही आत्मा का, चेतना का
बन्धन है।
– युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मानवीय योनि मिलने पर भी हमारा जीवन छोटी-छोटी बातों में ही नष्ट हो
जाता है। मैं कहता हूँ कि सैंकड़ों-हजारों कामों में उलझने के बजाय दो-तीन काम हाथ
में ले लीजिए। इस सभ्य जीवन के सागर में अनगिनत बादल और तुफान होते हैं और
जबर्दस्त दलदल हैं। इसमें ऐसी हजारों चीजें हैं कि यदि आदमी रसातल को नहीं जाना
चाहता तो उसे बड़े हिसाब से रहना पड़ता है। अपने जीवन को सरल बनाइए, सरल। दिन में
तीन चार खाने की जगह, आवश्यक हो तो एक ही बार खाईए। सौ पकवानों की जगह पाँच ही
रखिए और इसी अनुपात में और सभी चीजों की संख्या घटाइए।
- हेनरी डेविड थोरो
जगत के ऐश्वर्य में ही न खोएं, इसके मालिक की भी
सुध लें
ईश्वर और उनका ऐश्वर्य। यह जगत उनका ऐश्वर्य़ है। लेकिन ऐश्वर्य़ देखकर
ही लोग भूल जाते हैं, जिनका ऐश्वर्य है, उनकी खोज नहीं करते। कामिनी-काँचन का भोग
करने सभी जाते हैं। परन्तु उसमें दुःख और अशांति ही अधिक है। संसार मानो
विशालाक्षी नदी का भँवर है। नाव भँवर में पड़ने पर फिर उसका बचना कठिन है। गुखरु
काँटे की तरह एक छूटता है, तो दूसरा जकड़ जाता है। गोरखधन्धे में एक बार घुसने पर
फिर निकलना कठिन है। मनुष्य मानो जल सा जाता है।
वैद्य के पास गए बिना रोग ठीक नहीं होता। साधुसंग एक ही दिन करने से
कुछ नहीं होता। सदा ही आवश्यक है। रोग लगा ही है। फिर वैद्य के पास बिना रहे
नाड़ीज्ञान नहीं होता। साथ साथ घूमना पड़ता है, तब समझ में आता है कि कौन कफ नाड़ी
है और कौन पित्त की नाड़ी।….साधु
संग से ईश्वर पर अनुराग होता
है। उनसे प्रेम होता है। व्याकुलता न आने से कुछ नहीं होता। साधुसंग करते करते
ईश्वर के लिए प्राण व्याकुल होता है – जिस प्रकार घर में कोई अस्वस्थ होने पर मन
सदा ही चिन्तित रहता है और यदि किसी की
नौकरी छूट जाती है तो वह जिस प्रकार आफिस आफिस में घुमता रहता है, व्याकुल होता
रहता है, उसी प्रकार।
एक ओर उपाय है – व्याकुल होकर प्रार्थना करना। ईश्वर अपने हैं,
उनसे कहना पड़ता है, तुम कैसे हो, दर्शन दो-दर्शन देना ही होगा-तुमने मुझे पैदा
क्यों किया? सिक्खों ने कहा था, ईश्वर दयामय है। मैने उनसे
कहा था, दयामय क्यों कहूँ? उन्होंने हमें पैदा किया है, यदि वे ऐसा करें
जिससे हमारा मंगल हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है?
माँ-बाप बच्चों का पालन करेंगे ही, इसमें फिर दया की क्या बात है? यह तो करना ही होगा। इसीलिए उन पर जबरदस्ती करके
उनसे प्रार्थना स्वीकार करानी होगी।
साधुसंग करने का एक और उपकार होता है – सत् और असत् का विचार। सत्
नित्यपदार्थ अर्थात् ईश्वर, असत् अर्थात् अनित्य। असत् पथ पर मन जाते ही विचार
करना पड़ता है। हाथी जब दूसरों के केले के पेड़ खाने के लिए सूँड़ उठाता है तो उसी
समय महावत उसे अंकुश मारता है। - श्री रामकृष्ण परमहंस
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