गढ़वाल हिमालय की सबसे मनोरम राहों में एक
हिमालय के आलौकिक वैभव
की पहली झलक
चम्बा को पार करते ही हम आराकोट स्थान पर पहुंचे,
जहाँ से हिमाच्छादित हिमालय की ध्वल श्रृंखलाओं के प्रत्यक्ष दर्शन करते ही काफिले
के हर सदस्य के मुंह से आह-वाह के स्वर निकल रहे थे। चलती बस से सभी इसको मंत्र
मुग्ध भाव से निहार रहे थे। थोड़ी ही देर में हिमालय की ध्वल पर्वत श्रृंखलाएं दृष्टि से औझल हो चुकी थी। अब हम पहाड़ी के वायीं ओर से आगे बढ़ रहे थे। ऐसे में
नीचे दक्षिण में देहरादून की ओर की पहाड़ियों व घाटियों के दर्शन हो रहे थे।
यहाँ सीढ़ीनुमा खेत प्रचुर मात्रा में दिखे, जो
देखने में बहुत सुंदर लग रहे थे। पहाड़ी यात्रा के दौरान ये खेत निश्चित रुप में पथिकों का ध्यान आकर्षित करते हैं और सफर का एक सुखद अहसास रहते हैं। रास्ते में हम चुपडियाल नामक हिल स्टेशन को पार
करते हुए आगे बढ़े। सड़क के साथ सटे सीढ़ीदार खेतों में सरसों, पालक, राई, मटर, गोभी आदि की सब्जियों को प्रचुर मात्रा में उगे देखा। लगा यह क्षेत्र कैश
क्रॉप्स के मामले में जागरुक है।
और कहीं-कहीं सेब के पेड़ भी दिखना शुरु हो चुके
थे। पहाड़ियों पर देवदार के पेड़ आम होते जा रहे थे। वास्तव में हम हिमालय की
ऊँचाईयों में लगभग 7000 फीट की ऊँचाई पर थे, लग रहा था कि जैसे हम हिमालय की गोद में सफर कर रहे हैं और रास्ते के प्रति पनप चुका आत्मीय लगाव क्रमशः प्रगाढ़ होता जा रहा था।
घर-आंगन में फूलों की क्यारियाँ और सूखे घास के
टुहके -
रास्ते में प्रवाहमान लोकजीवन हो हम उत्सुक भाव से देख व समझ रहे थे तथा इसके सुपरिचित पहलुओं से अपने सहचरों को अवगत करा रहे थे। घर आंगन में गेंदे के फूलों के लाल-पीले झुरमुट छोटे एवं भव्य पहाड़ी घरों की शोभा में चार-चाँद
लगा रहे थे। साथ ही सूखी घास के ढेर, जिनको हमारे क्षेत्र में टुहका कहते हैं,
कतारों में शोभायमान खड़े थे और कहीं-कहीं तो ये दो-चार नहीं दर्जनों की संख्या में एक साथ पंक्तिबद्ध खड़े थे। सर्दी में जब हरा चारा नाम मात्र का रह जाता है और
चारों ओर बर्फ गिरी होती है, तो पहाड़ी क्षेत्रों में गाय-बैल एवं भेड़-बकरियों के
लिए यही सूखा चारा काम आता है। यहाँ अधिकाँश टुहके जमीं पर खड़े दिखे, हालाँकि कई
इलाकों में इन्हें पेड़ के ऊपर भी जमाया जाता है।
रास्ते भर पाजा या पइंया
के फूलों से लदे वृक्षों के दर्शन स्थान-स्थान होते रहे। यह एक अद्भुत फूलों वाला पौधा
है, जो सर्दी में तब खिलता है, जब पतझड़ का मौसम शुरु हो चुका होता है, बाकि पौधों
के फूल तो दूर, फल तक झर चुके होते हैं और पत्ते झरने की प्रक्रिया में होते हैं।
इसके फूल मधुमक्खियों के लिए पराग का समृद्ध
स्रोत होते हैं, जिसके चलते सर्दियों में भी क्वालिटी शहद का निर्माण संभव होता है। पूजा में भी इन फूलों का उपयोग किया जाता है। इसकी पौध पर ग्राफ्टिंग कर चैरी के बेहतरीन पौधों को तैयार किया जाता है। शायद इन सब गुणों के कारण पाँजा के पौधे को कल्पवृक्ष भी कहा जाता है।
कुछ ही मिनटों में हम एक ऐसे बिंदु पर थे, जो
पहाड़ी की धार (रिज) के ठीक बीच में था, जहाँ से हम पहा़ड़ के दोनों ओर के नजारे देख सकते थे, विशेषरुप में हिमालय की ध्वलश्रृंखलाएं अपने पूरे श्बाब के साथ घाटियों के उस पार सुदूर प्रत्यक्ष खड़ी थी। यह कानाताल का ठांगधार इलाका था। यहाँ बस को खड़ा कर काफिला
बाहर उतरा।
सड़क के किनारे एक छत्त पर उतर कर हिमालय की बेकग्राउंड में ग्रुप फोटो हुई और इसके बाद हम पास के पहाड़ी ढाबे पर चाय की चुस्की व स्थानीय लोगों से यहाँ की जानकारी बटोरने के उद्देश्य से लकड़ी की बेंच पर बैठ गए। काफिला हिमालय की गोद में फोटो खेंचने व सेल्फी लेने में मश्गूल था, तो हम चाय का इंतजार कर रहे थे। ड्राइवर हमारे साथ था।
सड़क के किनारे एक छत्त पर उतर कर हिमालय की बेकग्राउंड में ग्रुप फोटो हुई और इसके बाद हम पास के पहाड़ी ढाबे पर चाय की चुस्की व स्थानीय लोगों से यहाँ की जानकारी बटोरने के उद्देश्य से लकड़ी की बेंच पर बैठ गए। काफिला हिमालय की गोद में फोटो खेंचने व सेल्फी लेने में मश्गूल था, तो हम चाय का इंतजार कर रहे थे। ड्राइवर हमारे साथ था।
ड्राईवर से सामने दिख रही हिमालय की चोटियों के बारे में पूछा,
तो जबाब मिला कि सामने खड़ी सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है। सुनकर हम थोड़ा चौंके कि ये क्या जबाब मिल रहा है। हम कुछ कहते, इससे पहले ही चाय बना रहे ढावेदार ने
तुरंत करेक्ट करते हुए कहा कि एवरेस्ट तो नेपाल में है। फिर हमने समझाया की गढ़वाल
की सबसे ऊँची चोटी नन्दा देवी हैं, और ये कंचनजंगा के बाद भारत की दूसरी सबसे
ऊँची चोटी है। सामने की विभिन्न पर्वत श्रृंखलाओं के सही-सही नाम क्या हैं, यह प्रश्न यहाँ अनुत्तरित रहा, लगा शायद आगे किसी जानकार से इसका समाधान मिले।
यहाँ चाय-बिस्कुट के रिफ्रेशमेंट के बाद, स्थानीय
गिफ्ट के रुप में दुकान पर रखे चीनी राई की भाजी और लोकल सेब को खरीदा, जिनकी विशेषता
इनका नेचुरल व ऑर्गेनिक होना था। सेब मध्यम आकार के थे, देखने में सुंदर लग रहे थे,
लाल-पीला रंग लिये सेब स्वाद में एक खास तरह की मिठास लिए थे। समय कम था, नहीं तो यहाँ के
सेब के बागों को एक्सप्लोअऱ करने का मन था। काफिला भी पास पहुँच चुका था, कुछ और लोगों
ने यहाँ के स्मृति प्रसाद के रुप में सेब व चीनी राई की भाजी लिए।
अब हम सुरकुंडा से महज 10-15 किमी दूर थे। सामने
पहाड की चोटी पर सुरकुंडा देवी की सबसे ऊँची चोटी हमारी आज की मंजिल का प्रत्यक्ष
बोध करा रही थी। रास्ते भर पहाड़ों के बीच इसका लुकाछुपी का खेल चलता रहा और इसको बीच-बीच में निहारते हुए सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था। सड़क के किनारे देवदार के वृक्षों की संख्या व घनत्व भी बढ़ रहा
था। इस रास्ते में ढलानदार खेतों में सेब के छोटे-छोटे बाग भी प्रचुर मात्रा में
मिले। इस राह के एक नए आकर्षण थे - पिकनिक स्पॉट्स, जो रास्ते में प्रचुर संख्या में
मिले।
इनमें तम्बुओं की कतारें सीढ़ीनुमा खेतों में सजी
थी। देवदार के एक पेड़ से दूसरे पेड़ में और खाई के पार रसियों के पुल बने थे, जिन
पर पैदल चलकर पार किया जा सकता है। इस तरह के एडवेंचर क्रीडाओं
के तमाम सरंजाम यहाँ किए गए दिखे। पता चला कि कुछ फीस के साथ यहाँ रुकने, ट्रैकिंग व नाइट
हाल्ट की व्यवस्था रहती है। इस दौरान स्थानीय गाँव, घाटियों, झरनों, तालों व
पहाड़ियों के दर्शन भी कराए जाते हैं। कानाताल का नाम ऐसे ही किन्हीं ताल के नाम
पर पड़ा समझ आया, हालाँकि यह ताल कहाँ है, किस अवस्था में है, यह सब जानना शेष था।
इस तरह हम सुरकुंडा माता के काफी नजदीक आ चुके
थे। राह में मुख्य सड़क के ऊपर पहाड़ी के चरण से चोटी तक जाने का पैदल मार्ग दिखा,
जो कठिन व लम्बा लगा। संभवतः लोकल ग्रामवासी या ट्रेैक्कर इसका प्रयोग करते होंगे। हमें तो आगे कद्दुखाल से महज 3 किमी ट्रेक करते हुए ऊपर चढ़ना
था। सो हम उस ओर देवदार के घने जंगलों से होकर बस में आगे बढ़ रहे थे। यह रास्ता
बहुत ही शांत-एकांत, सुंदर एवं मनोरम लग रहा था।
कुछ किमी के बाद हम देवदार के सघन आच्छादन
को पार कर बाहर निकल चुके थे और कद्दुखाल से महज 1-2 किमी पहले थे, यहाँ से एक
मार्ग नीचे देहरादून, राजपुर की ओर जाता है। पता चला कि यह यहां का गुप्त मार्ग
है, जिसमें कम ही लोग सफर करते हैं। लेकिन यह रास्ता हमें बहुत ही सुंदर, सुरम्य, शांत एवं घुमने योग्य लगा।
कुछ ही देर में हम कद्दुखाल पहुँच चुके थे, जो बस से हमारा अंतिम स्टेशन था। बस से
उतर कर बाहर सड़क पर निकले, तो ऊपर शिखर पर सुरकुंडा देवी के भव्य दर्शन हो रहे
थे। अभी हम 8000 फीट की ऊँचाई पर खड़े थे, जहां से हमें 10,000 फीट की ऊँचाई तक 3
किमी की चढ़ाई चढ़नी थी। सो पूरा काफिला प्रवेश गेट पर ग्रुप फोटो के बाद माता के
जयकारे के साथ आगे बढता है।
अपनी उम्र और स्टेमिना के हिसाब से हम सबसे पीछ चल रहे थे, ताकि सबको बटोर कर मंदिर तक पहुँचा सकें। नौसिखियों की टीम के साथ यात्रा में प्रायः हमारी स्ट्रेजी यही रहती है। जब पूरी टीम मंदिर तक पहुँचे, तभी हमारा अभियान सफल माना जाएगा, बाकि रास्ते से भी हमें बापिस आना पड़े, तो कोई गम नहीं, आखिर माता की गोद में तो हम पहुँच ही चुके हैं।
अपनी उम्र और स्टेमिना के हिसाब से हम सबसे पीछ चल रहे थे, ताकि सबको बटोर कर मंदिर तक पहुँचा सकें। नौसिखियों की टीम के साथ यात्रा में प्रायः हमारी स्ट्रेजी यही रहती है। जब पूरी टीम मंदिर तक पहुँचे, तभी हमारा अभियान सफल माना जाएगा, बाकि रास्ते से भी हमें बापिस आना पड़े, तो कोई गम नहीं, आखिर माता की गोद में तो हम पहुँच ही चुके हैं।
चम्बा से यहाँ तक के रास्ते और पीछे ऋषिकेश से चम्बा तक के रास्ते के बीच एक मौलिक अंतर नजर आया, जो एक शोध प्रश्न की तरह मन में कौंधता रहा। इस राह में बहते पानी का नितांत अभाव खला। कहीं कोई झरना, नाला या समृद्ध जल स्रोत नहीं दिखा। शायद इसका एक कारण सड़क का चोटी के आसपास होना था, जिस कारण कैचमेंट एरिया बहुत ही स्वल्प था। खैर इसका सांगोपांग जबाब तो इस क्षेत्र के किन्हीं विशेषज्ञों से ही मिलेगा, जिसका इंतजार रहेगा, क्योंकि इस संदर्भ में हमारी जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई है। (जारी...शेष अगली पोस्ट में-गढ़वाल हिमालय के सबसे ऊँचे शक्तिपीठ के दिव्य प्राँगण में)